अगर दुख है तो उसका कारण होगा — सत्येंद्र प्रताप सिंह | #विपश्यना


यदि आप शांति की खोज में रहने वालों में से एक है और आप इस श्रृंखला को नहीं पढ़ रहे हैं, तो मेरी सलाह मानिये, और ज़रूर पढ़िए. 

चिंतन मनन से यह (दुःख) दूर नहीं होता, बल्कि सच्चाई में जाना पड़ता है। बगैर सच्चाई जाने उसका निवारण नहीं किया जा सकता। यह कारण भीतर ही मिलता है कि शरीर की संवेदनाओं में क्या बदलाव हो रहा है, जिसकी वजह से दुख हुआ। — सत्येंद्र प्रताप सिंह | #विपश्यना

विपश्यना — सत्येंद्र प्रताप सिंह — संस्मरण: पार्ट 7

Echo and Narcissus, Painting by John William Waterhouse, 1903
मैं या मेरे के भाव से जितनी ही गहरी आसक्ति होती है, उतना ही दुःख होता है। यह अनुभूति से समझ में आने लगता है — सत्येंद्र प्रताप सिंह | #विपश्यना

#विपश्यना, एक संस्मरण: पार्ट 1



               



सुबह सबेरे मैं शून्यागार की ओर चल पड़ा। घर से हल्का कंबल, जो एसी कमरों में इस्तेमाल करते हैं और बेडशीट लेकर आया था। मैंने कंबल कंधे पर रख लिया। हल्की-हल्की टिप टिप बारिश हो रही थी। अंधेरा भी था। विपश्यना केंद्र की वेबसाइट में मिली जानकारी के मुताबिक मुझे टॉर्च भी ले जाना था। लेकिन टॉर्च मैं घर से लेकर नहीं गया था। पहुंचकर खरीद लेने का निर्देश पत्नी की ओर से था, लेकिन मैंने नहीं खरीदा। यह सोचकर कि इसकी जरूरत नहीं होगी। हालांकि रात में और सुबह सबेरे टॉर्च रहने पर जरूर थोड़ी सी सुविधा होती, लेकिन न होने पर भी कोई खास असुविधा नहीं हुई। रात के अंधेरे में सड़क पर चलना भी एडवेंचर है। अगर सांप बिच्छू और कीड़े मकोड़ों का भय कुछ ज्यादा हो तो टॉर्च जरूरी हो जाता है। इसके अलावा भी सीढ़ियों के उतार चढ़ाव और सड़कों पर सहूलियत के लिए भी जरूरी है। पहाड़ी इलाका होने की वजह से सड़क के बगल में गहरे गड्ढे हैं। हालांकि विपश्यना केंद्र पर इंतजाम इतना चाक चौबंद है कि कहीं गड्ढे, खाईं में गिरने की कोई संभावना नहीं है। इसके अलावा पर्याप्त मात्रा में रोड लाइट्स भी लगी हैं। कभी ऐसा मौका नहीं आया कि बिजली चली गई हो और गहरे अंधेरे में सड़क पर चलना पड़ा हो। अगर गहरे अंधेरे में चलना पड़ा होता तो शायद ज्यादा खतरनाक हो सकता था, क्योंकि बारिश में सड़कों पर फिसलन बहुत ही तेज होती है। फिसलन से बचाव में मेरे सैंडल की भी अहम भूमिका रही, जिसकी गोटियां बहुत बड़ी और सड़क पर थमी रहने वाली थीं। सिर्फ एक बार फिसलन का शिकार हुआ, लेकिन इतना नहीं कि गिर जाऊं। उसके बाद कुछ ज्यादा ही संभलकर चलने लगा।

सुबह छाता लगाकर हाथ में पानी की बोतल और कंधे पर कंबल रखे शून्यागार पहुंचा। कंबल ले जाने की दो वजहें थीं। एक तो गुरु जी ने बता दिया था कि कुछ लोग ठंड लगने की शिकायत करते हैं, उसके बाद मुझे भी ठंड महसूस होने लगी थी। दूसरी वजह यह थी कि पहले दिन जब शून्यागार में मैं लेटा था तो खुले फर्श पर सोने से कमर में ठंड लग रही थी। ऐसा लगता है कि दूसरी वजह ज्यादा जिम्मेदार थी, जिसकी वजह से कंबल लेकर गया था।



शून्यागार में आधे घंटे तक मैं सिर से लेकर पांव तक शरीर के विभिन्न अंगों से गुजरते हुए शारीरिक हरकतों की अनुभूतियां करता रहा। इसी बीच बगल के किसी शून्यागार से तेज खर्राटे की आवाज आने लगी। मुझे यह फील हुआ कि मैं ही एक नहीं हूं, जो शून्यागार में आराम फरमाता हूं। और भी दिग्गज आए हुए हैं। कुछ देर तक मैं खर्राटे सुनता रहा। शारीरिक अनुभूतियों से ध्यान हट ही गया। इस बीच बारिश भी तेज हो गई। बारिश की बूंदों की मधुर आवाज कानों तक पहुंच रही थीं। साथ ही पक्षियों के कलरव की आवाज भी रह रहकर आती रही। इस बीच यह भी याद आता रहा कि शरीर में होने वाली अनुभूतियों को महसूस करना है और जब याद आती थी तो अनुभूति महसूस करने लग जाता। हां, ऐसा होता कि सिर के ऊपरी हिस्से से महसूसना शुरू किया और और पेट-पीठ तक पहुंचते पहुंचते खर्राटे की आवाज या बारिश की बूंदें महसूस करने लगता था।

इस दौरान कुछ कुछ विपश्यना के बारे में और थोड़ा बहुत धर्म के बारे में एक मोटी सोच विकसित होने लगी थी। हालांकि यह संशय बरकरार रहा कि क्या इस तरह से शारीरिक अनुभूतियों से राग, द्वेश निकल जाएगा और दुखों से मुक्ति मिल जाएगी? हालांकि बात तर्कसंगत लगती है कि शरीर तमाम परमाणुओं से बना हुआ है, उसमें हलचल होती है। लेकिन उसकी अनुभूति... यह बड़ा मुश्किल है। बौद्धिक स्तर पर तो यह साफ लगता है कि अपने शरीर की अनुभूति को जानें और उसमें बदलावों को अनुभव करें। लेकिन यह खुद करके देखने वाला काम थोड़ा मुश्किल है। — सत्येंद्र प्रताप सिंह | #विपश्यना



मैं इंतजार कर रहा था कि कोई धम्म सेवक आए और बगल के शून्यागार में शयन साधना कर रहे विपश्यी साधक के खर्राटे पर लगाम लगाए। हालांकि आधे घंटे के इंतजार के बाद भी ऐसा नहीं हुआ। संभव है कि शून्यागार में साधक को डिस्टर्ब न करने का निर्देश हो। भले ही साधक खर्राटासन कर रहा हो।

आखिरकार मैंने भी लेटकर ध्यान केंद्रित करने का मन बना लिया। कंबल बिछा लेने की वजह से लेटने पर पीठ व कमर में ठंड नहीं लग रही थी। साथ ही बैठने वाला आसन सिर के नीचे लगाने के बावजूद उसमें से बदबू नहीं आई क्योंकि वह कंबल से ढका हुआ था। थोड़ी देर तक लेटकर मैंने ध्यान लगाने की कोशिश की।  लेकिन शरीर को उचित तापमान पर आराम मिला और आखिरकार मैं भी सो गया।

एक घंटे के करीब सोने के बाद फिर वही कवायद। नाश्ते के लिए भागना। धुलने के लिए कपड़े देना और धुले हुए कपड़े वापस लाना। नहाना और उसके बाद ध्यान केंद्र में पहुंच जाना। दो दिन पूरे हो गए थे, इसलिए शून्यागार में जाने की गुंजाइश भी नहीं बची थी। हॉल में जाकर ध्यान करने का विकल्प ही बचा रह गया।

सुबह 8 बजे से लेकर 11 बजे तक शरीर की अनुभूतियों, शरीर में होने वाली हलचलों को महसूस किया और उसके बाद 2 घंटे तक खाने और आराम करने के लिए वक्त। उसके बाद फिर से 1 बजे से लेकर 5 बजे तक वही कवायद शुरू करना होता था।

ध्यान में थोड़ा बदलाव भी किया गया। गुरु जी की ओर से यह एक नई राहत थी। कुछ भी नया करने में थोड़ा रूटीन बदलता, तो वह अच्छा लगता था। सर के ऊपरी हिस्से से लेकर पांव तक संवेदनाओं को 24 घंटे तक महसूस कर लेने के बाद गोयनका जी ने बताया कि अब उल्टा भी महसूस करें। सिर से लेकर पांव तक संवेदनाएं महसूस करते हुए जाएं, उसके बाद फिर पांव के तलवे से संवेदना महसूस करते हुए सिर के ऊपरी छोर तक पहुंचना। नियमों के फेरबदल से दिलचस्पी बढ़ जाती थी। बोझिल मामला थोड़ा हल्का हो जाता था कि आज कुछ नया हुआ।

दोपहर को जब ध्यान के बीच में 5 मिनट का विश्राम होता था, वह वक्त बहुत कम रहता। अगर पेशाब भी करना है और पानी भी पीना है तो दोनों दो अलग दिशाओं में होने के कारण स्वाभाविक रूप से 5 मिनट से ज्यादा समय लग जाता था। उसके अलावा बैठे बैठे ध्यान करने के बाद बाहर निकलकर शांत वातावरण, खुली हवा में सांस लेने का आनंद भी बहुत बेहतर अनुभूति देता। लेकिन घंटी बाबा पहुंच जाते और वे तत्काल प्रभाव से घंटी टुनटुनाने और हांकने का काम शुरू कर देते थे।

बोलना तो मैं खूब चाहता था, लेकिन बोलता नहीं था। इससे अपनी साधना टूटने का कोई भय नहीं रहता, लेकिन यह सोचकर नहीं बोलता था कि दूसरे लोग जो कुछ हासिल करने या किसी सांसारिक दुख का निवारण करने आए हैं, वह लोग किसी भी हाल में मेरी वजह से डिस्टर्ब न हों। लेकिन जब ब्रेक में मैं निकला तो एक विपश्यी टकरा गए। उन्होंने भी मेरी ओर देखे बगैर कहा कि बड़ी मुश्किल है। वैसे ही वह अपने में फुसफुसाए, क्योंकि कोई साधक किसी से बोलता नहीं था। इसकी मनाही थी। लेकिन जब वह फुसफुसाए तो मुझे भी कुछ कहने का मौका मिल गया। मैंने कहा कि भाई साब आपसे किसी ने दुश्मनी निकाल ली। जिसने आपको यहां भेजा है, सोचिए कि कौन है? उन्होंने उसी गंभीरता से धीरे से कहा कि मौसी का लड़का है। मैंने कहा कि बचपन में उसको आपने पीटा होगा, इसलिए उसने दुश्मनी निकाल ली। यह कहते ही मेरी हंसी फूट पड़ी। ऐसी हंसी, जो रुक ही नहीं रही थी। शांति पठार के शांति की ऐसी की तैसी कर दी मेरी हंसी ने। साथ चल रहे सज्जन सीरियस थे, लेकिन मेरी हंसी रुक ही नहीं रही थी। उन्होंने कहा कि पहले बार बार मन में खयाल आता था कि घर द्वार छोड़कर सन्यास ले लूं। अब यहां विपश्यना करने के बाद जो सन्यास देख रहा हूं, ऐसा लगता है कि घर जाने के बाद कभी सन्यास लेने का खयाल मन में नहीं आएगा। उनके यह कहने के बाद मेरी हंसी और तेज हो गई।

इसी बीच एक धम्म सेवक आ टपके। उन्होंने पहले हमारे साथी को धमकाया कि आप तो बुजुर्ग लगते हैं। इस तरह से बात कर रहे हैं। उनकी ज्यादा गलती नहीं थी। मुझे तेज हंसी आ रही थी। उसकी वजह से शांति पठार की शांति भंग हो रही थी। हालांकि उन्होंने सॉरी बोला और पेशाब करने बढ़ गए। उसके बाद धम्म सेवक मुझसे लड़ पड़ा। बोला कि दो दिन से देख रहा हूं कि आप बात कर रहे हैं। आपसे हाथ जोड़ते थक गया। मान ही नहीं रहे हैं। क्या नाम है आपका, कहां रह रहे हैं ? अभी आपको गुरु जी के पास ले चलता हूं। साधना करनी है कि नहीं।

मुझे उसका चींखना चिल्लाना देख-सुनकर गुस्सा आ गया। मैंने कहा कि आप झूठ बोल रहे हैं। कल कब देखा बात करते। फिर उन्होंने कहा कि चलिए आपको गुरुजी के पास ले चलते हैं, बहुत बहस कर रहे हैं। मुझे थोड़ा और गुस्सा आया। मैंने कहा कि तुम धमकी दे रहे हो? चलो मैं तुमको तुम्हारे गुरु जी के पास ले चलता हूं। उसके बाद धम्म सेवक महोदय शांत हुए। उन्होंने हाथ जोड़ा और कहा कि अब आप शांत रहिए, कृपया मौन बनाए रहें।



यह गतिविधि देखकर लगा कि इन धम्म सेवकों को कोई खास प्रशिक्षण नहीं दिया जाता। कुछ सामान्य निर्देश दिए जाते हैं और उसके बाद यह अपने विवेक से काम करते हैं कि किससे लड़ना है। किसका दरवाजा पीट देना है। किसके दरवाजे के सामने घंटी बजानी है। किसके दरवाजे के सामने ज्यादा घंटी बजानी है। हालांकि मुझे फील हुआ कि विपश्यना केंद्र पर इन धम्म सेवकों को साधकों से लड़ने की अनुमति नहीं होती। इन्हें पर्ची मिली होती है और अगर कोई साधक किसी नियम का उल्लंघन कर रहा हो तो धम्म सेवक उस व्यक्ति का नाम और आवास संख्या पूछकर पर्ची काट देते हैं और पर्ची काटने की वजह उसमें लिख दी जाती है। भोजनालय में देर तक बैठने की पर्ची पहले ही कट चुकी थी। और जो धम्म सेवक मुझसे लड़ रहा था, वह भी बेचारा बार बार पर्ची और पेन के लिए अपनी जेब की ओर हाथ बढ़ाता था, लेकिन वह शायद पर्ची और पेन भूल आया था। मुझसे मेरा कार्ड मांग रहा था, जिस पर मेरा विस्तृत ब्योरा होता, लेकिन मैं वह लेकर नहीं घूमता था, वह कमरे पर ही पड़ा रहता था।

इतने के बाद मामला रफा दफा हो गया। धम्म सेवक ने मुझे जाने की इजाजत दे दी और मैं हॉल की ओर बढ़ चला। हॉल में फिर वही ऊपर से नीचे तक और फिर नीचे से सिर के सबसे ऊपरी हिस्से तक संवेदनाओं को महसूस करना। 5 बजे भवतु सब्ब मंगलं हो गया और साधु साधु करते हम नाश्ते के लिए भोजनालय की ओर दौड़ पड़े।

शाम की 6 बजे से 9 बजे तक की सामूहिक साधना चलती थी, जिसमें डेढ़ घंटे तक गोयनका जी का प्रवचन चला। इस दौरान कुछ कुछ विपश्यना के बारे में और थोड़ा बहुत धर्म के बारे में एक मोटी सोच विकसित होने लगी थी। हालांकि यह संशय बरकरार रहा कि क्या इस तरह से शारीरिक अनुभूतियों से राग, द्वेश निकल जाएगा और दुखों से मुक्ति मिल जाएगी? हालांकि बात तर्कसंगत लगती है कि शरीर तमाम परमाणुओं से बना हुआ है, उसमें हलचल होती है। लेकिन उसकी अनुभूति... यह बड़ा मुश्किल है। बौद्धिक स्तर पर तो यह साफ लगता है कि अपने शरीर की अनुभूति को जानें और उसमें बदलावों को अनुभव करें। लेकिन यह खुद करके देखने वाला काम थोड़ा मुश्किल है।

कल्पना से नहीं, अनुभूति से सच्चाई को जानना है। अनित्य का अनुभव करना है। अनित्य के साथ तादात्मय स्थापित करके उससे मुक्त होते चले जाना और नए कर्म नहीं बनाना और पुराने को निकालते जाने से ही सत्य की अनुभूति होगी। अंतर्मन के स्वभाव को पलटना प्रमुख है। कोई निर्माण नहीं करना है, कुछ आरोपित नहीं करना है। सच्चाई को देखना है। जब यह अनुभूति करने लगेंगे तो यह महसूस होने लगेगा कि संसार के सभी प्राणी दुखी हैं। दुख है, यह सत्य है। यह जीवन जगत की सच्चाई है, इसे नकारा नहीं जा सकता।
अगर दुख है तो उसका कारण होगा। कुछ अकस्मात नहीं होता। कारणों से ही दुख की उत्पत्ति होती है। अगर कारणों को दूर कर दिया जाए, उसका निवारण कर दिया जाए तो दुख दूर हो जाएगा। अगर दुख को साक्षी भाव से देखते देखते गहराइयों तक चले जाएंगे तो दुख का असल कारण पकड़ में आ जाएगा। जड़ों से दुख का कारण निकालने के लिए दुख को साक्षी भाव से देखेंगे, उसे केवल देखेंगे तो यह साफ हो जाएगा कि दुख है। यह साफ हो जाएगा कि दुख है, यह समझ में आ जाए तो यही आर्य सत्य हो जाएगा। साक्षी भाव से दुख को देख लिए तो यह पहला आर्य सत्य है। उसके कारण को अनुभूति से जानें। कारण को भी भोक्ता भाव से नहीं साक्षी भाव देखेंगे तो यह कारण भी आर्य सत्य हो जाएगा। सही कारण पकड़ में आएगा। जब कारण पकड़ में आ जाए तो उसे निकलने का रास्ता भी निकाल लिया। कारण का निवारण संभव है, यह पता चल गया तो यह भी आर्य सत्य हो गया। इस तरह से अनुभूति कर उस कारण को भी दृश्टा भाव से साक्षी भाव से देखना शुरू करेंगे तो स्वभाव पलट जाएगा और उसका निवारण हो जाएगा तो यह निवारण भी आर्य सत्य बन जाएगा।

जन्म लेते ही बच्चे की जरूरतें शुरू हो जाती हैं। पहली जरूरत बच्चे को सांस की होती है। पैदा होते ही बच्चा चिल्लाता है। उसे सांस मिल जाती है। उसके बाद भूख। तमाम बीमारियां आती हैं। वह दुख पैदा करती हैं। तमाम इच्छाएं जगती हैं, उसके न मिलने का दुख होता है। तमाम प्रिय चीजें, वस्तुएं, लोगों के बिछड़ने का दुख होता है। तमाम अप्रिय चीजें पास आने पर दुख होता है।

चिंतन मनन से यह दूर नहीं होता, बल्कि सच्चाई में जाना पड़ता है। बगैर सच्चाई जाने उसका निवारण नहीं किया जा सकता। यह कारण भीतर ही मिलता है कि शरीर की संवेदनाओं में क्या बदलाव हो रहा है, जिसकी वजह से दुख हुआ। जो कुछ कामना की जाती है, वह पूरी न होने पर बहुत दुख होता है। यह बुद्धि से समझने पर समझ में आता है कि ऐसा होने की वजह से दुख हुआ, लेकिन अनुभूति के स्तर पर देखे बगैर इसका निवारण नहीं हो सकता। शरीर की पीड़ा बढ़ती जाती है और व्यक्ति ब्याकुल होता जाता है। अनुभूतियों के स्तर पर समझने पर यह समझ में आता है कि यह कामना पूरी नहीं होने पर क्या बदलाव हुआ, जिसकी वजह से दुख हुआ। संक्षिप्त होकर इसकी गहराइयों में देखने पर बात समझ में आता है कि दुख का सही स्वरूप क्या है। इससे साफ होता है कि उस दुख से चिपकाव या आशक्ति पैदा कर ली गई, जिसकी वजह से दुख पैदा होता है। मैं या मेरे के भाव से जितनी ही गहरी आसक्ति होती है, उतना ही दुःख होता है। यह अनुभूति से समझ में आने लगता है।



आसक्तियां व्याकुल करती हैं। तृष्णा- यह दुख का ही एक स्वरूप है। जो कुछ है, उससे तृप्ति नहीं है, जो नहीं है उसकी इच्छा होती है। इसी को तृष्णा कहते हैं। तृष्णा ही हमको व्याकुल करने के लिए बहुत है। अगर तृष्णा के प्रति आशक्ति हो जाए तो व्याकुलता कई गुना बढ़ जाती है। अगर किसी को खुजली हो जाए तो खुजलाने की इच्छा होती है, खुजलाने की तृष्णा जागती है। उसे खुजलाते हैं। लेकिन वह खुजलाने की तृष्णा पूरी नहीं होती। एक तृष्णा के बाद दूसरी तृष्णा जागती जाती है। प्रज्ञा यानी प्रत्यक्ष ज्ञान के अनुभव से ही इसे जाना जा सकता है। उसे ही देखना होता है कि संवेदना क्यों जागी। शरीर की विभिन्न इंद्रियों की वजह से संवेदना जगती है और उससे राग और द्वेश जगता है। जन्म के बाद से कर्म संस्कार बनाते हैं। लोग प्रतिक्षण कर्म का संस्कार बनाते हैं और उसके मुताबिक राग द्वेश जगता जाता है। जो ज्ञान स्ववेदन से जाना जाता है, वही सत्य होता है।

अविद्या की वजह से संस्कार बनते हैं। वेदना अगर है तो विद्या है, वेदना नहीं है तो अविद्या है। स्ववेदन से जागा ज्ञान विद्या है। स्ववेदन से पता चलेगा कि दुख है, दुख का कारण है, देखते देखते स्वभाव को तोड़ लें तो उसका निवारण है, अगर इस अनुभूति तक पहुंच गए कि तृष्णा या दुख जागे ही नहीं तो यह इसका नितांत निरोध है। अगर इसको अनुभूति के स्तर पर नहीं जानें तो यह केवल बुद्धि विलास है। बगैर अनुभव के विद्या नहीं है, अविद्या ही अविद्या है। अविद्या अगर जड़ों से दूर हो जाए, वेदना को जानते रहें तो कष्टों का निवारण हो जाता है।

घंटों बैठे रहने, हाथ पांव, आंख न खोलने पर हाथ, पांव सब दुखने लगता है। दर्द ही अनुभूति होने लगती है और लगने लगता है कि कितनी मुसीबत में फंस गए। एक एक मिनट घंटे के बराबर लगने लगता है। उस समय जो गुरु जी की आवाज आती है तो लगता है कि अब इस बंधन से मुक्ति मिलने वाली है। वह गजब की खुशी देती है। इसी तरह तमाम सांसारिक बंधनों में व्यक्ति बंधा रहता है। अगर इन बंधनों से मुक्ति मिल जाए तो...

अगले सप्ताह पढ़ें आठवां भाग



(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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1 टिप्पणियाँ

  1. थोड़ा साधना गंभीरता से और कि होती सारे प्रश्नों।का एक बार मे उत्तर मिल।जाये इतनी समझदारी तो आपकी बातों में नही झलकती । जब मन ही हर जगह मनोरंजन तलाशता हो तो उसे अपनी कमियां और उसे सुधारने का कठिन परिश्रम कहाँ से सूझेगा ।

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