रुद्रवीना के भाई सुरबहार वादक डॉ आश्विन दलवी



डॉ अश्विन दलवी से सवाल-जवाब

राजस्थान ललित कला अकादमी के चेयरमैन डॉ अश्विन दलवी देश के प्रसिद्ध एवं स्थापित सुरबहार वादकों में से एक हैं. वे “नाद साधना इंस्टिट्यूट फॉर इंडियन म्यूजिक एंड रिसर्च सेंटर” के सचिव भी हैं. उन्होंने सुरों को साधा है और अब राजस्थान ललित कला अकादमी का भार भी उनके कंधो पर है. उनसे सुरों और रंगों भरे जीवन के बारे में एक बातचीत.

आपकी कलात्मक पृष्ठभूमि के बारे में बताइए. आप विज्ञान के विद्यार्थी होते हुए संगीत से कैसे जुड़े? 

मेरे पिता श्री महेश दलवी देश के प्रसिद्ध तबला वादक थे, इसीलिए संगीत से मेरा पहला परिचय तबले के द्वारा हुआ. मैं तबला बजाया करता था. मेरी माता जी सितार बजाया करती थीं. इसलिए मैं कह सकता हूं कि सितार की मेरी पहली गुरु मेरी माँ थीं. संगीत को कैरियर के रूप में लेना है, ऐसा मैंने कभी नहीं सोचा था. प्रोफेशनली मैं लॉन टेनिस खेलता था और विज्ञान का स्टूडेंट था. मेरे पिता कल्चरल एक्सचेंज प्रोग्राम के तहत विदेश जाते रहते थे. ऐसे में बारह्र्वी तक की शिक्षा मेरी भारत से बाहर ही हुई. भारत आने के बाद मैंने महाराजा कॉलेज में दाखिला लिया. वह समय मेरे जीवन का एक संक्रमण काल था जब मुझे निर्णय लेना था की जीवन में क्या करना है. मुझे धीरे धीरे अहसास होने लगा कि मैं अपने जीवन में सिर्फ संगीत के साथ ही न्याय कर सकता हूँ. उसके बाद मैंने राजस्थान युनिवेर्सिटी से सितार में ग्रेजुएशन, पोस्ट ग्रेजुएशन और फिर पीएचडी किया. मेरे माता-पिता का इसमें जो सहयोग रहा है उसके लिए कृतज्ञता अभिव्यक्त करने को मेरे पास शब्द नहीं है. वो अपनी रातों की नींद खराब करते, मुझे रात के दो बजे या ये कह लीजिये सुबह के दो बजे मुझे उठाते ताकि मैं रियाज कर सकूं. उन दिनों मैं १० से १२ घंटे रियाज़ किया करता था. घर का माहौल बहुत आध्यामिक और संगीतमय था, साधना के लिए कड़ा अनुशासन था. उसके बाद संगीत में घरानेदार उच्च शिक्षा के लिए पिताजी ने इटावा घराने के विश्व प्रसिद्ध सितार वादक पंडित अरविन्द पारीख का शिष्यत्व ग्रहण करवाया. उन्होंने मुझे पहले सितार वादन की और बाद में सुरबहार वादन की विधिवत शिक्षा दी.

मैं पंडित निखिल बनर्जी से बहुत प्रभावित था, पर उनसे मिलने का मौका नहीं मिल पाया. मेरी पीएचडी उनके संगीत पर है, जिसे मैंने अपने दृष्टिकोण से लिखा.

भारत में सुरबहार वादक उँगलियों पर गिने जा सकते हैं. सुरबहार के साथ एक कलाकार के रूप में आपकी यात्रा के बारे में बताइए? सुरबहार की उत्पत्ति कैसे हुई इस बारे में भी कुछ जानकारी दीजिये.
डॉ आश्विन दलवी
सुरबहार, देखने में भले ही सितार जैसा लगता हो पर वाद्य और वादन शैली दोनों सितार से काफी अलग हैं. सुरबहार कैसे आया इसके भी दो-तीन मत हैं. पुराने समय में एक वक्त ऐसा भी आया जब गुरु लोग अपनी कला को लेकर बहुत पजेसिव हो गए थे. वह अपनी कला को अपने परिवार में तो रखना चाहते थे पर शिष्यों में नहीं देना चाहते थे. कहा जाता है कि रुद्रवीणा वादक उस्ताद उमराव खान बीनकार के एक बहुत टैलेंटेड स्टूडेंट थे गुलाम मोहम्मद खान. अपने परिवार की चीज (बीन) उनको ना सिखाकर उन्होंने उस समय प्रचलित वाद्य “कछुआ” का एक बड़ा रूप निर्मित करके एक नया साज़ बनाया जिसकी वादन शैली रुद्रवीणा जैसी ही रखी. इस यंत्र को “सुरबहार” नाम दिया गया. दूसरे मत के अनुसार इटावा घराने के उस्ताद साहिबदाद खान ने सुरबहार बनाया. सुरबहार को रुद्रवीना का भाई भी कहा जा सकता है. इसकी चाल धीर गंभीर और लय विलम्बित होती है. पखावज के साथ संगत में सुरबहार पर ध्रुपद बजाये जाते हैं. सुरबहार में बजने की संभावनाएं रूद्र वीणा से कहीं ज्यादा हैं.

मैं सुरबहार से कैसे जुड़ा ये भी एक दिलचस्प किस्सा है. मुझे सुरबहार शुरू से पसंद था. मैंने अपना सुरबहार बनवाया और इसे बजाना शुरू किया. एक कार्यक्रम में बजाने के बाद मेरे गुरु पंडित अरविन्द पारीख ने कहा –“आश्विन तुम सितार ही अच्छा बजाते हो, सुरबहार रहने दो”.

गुरु की आज्ञा मान मैंने सुरबहार बजाने का ख़याल छोड़ दिया. परन्तु मन में कारण जानने की जिज्ञासा के साथ संकोच भी था की गुरुजी से कारण कैसे पूछूं. हिम्मत जुटा कर पूछने पर गुरुजी ने eye opener जवाब दिया. उन्होंने कहा की तुमने सुरबहार वैसे ही बजाय जैसे सितार बजाते हैं. उस दिन एहसास हुआ की दोनों वाद्य पूरी तरह से भिन्न हैं और दोनों की वादन शैली पृथक है. उसके बाद मैंने उनके बताये अनुसार सुरबहार का अभ्यास शुरू किया. कुछ दिनों बाद एक बड़े कार्यक्रम में किसी सुरबहार वादक के न पहुँच पाने पर मुझे बुलवाया गया. गुरु की आज्ञा लेकर मैंने वहां सुरबहार बजाया, जिसे बहुत पसंद किया गया.

उसके बाद गुरु जी ने मुझे विधिवत तरीके से सुरबहार में प्रशिक्षित किया. धीरे धीरे मैंने सितार के स्थान पर पूरी तरह सुरबहार पर ही ध्यान केंद्रित किया. मेरी सारी यात्रायें मेरे वाद्य के साथ बेहद सुखद रहीं हैं, जहाँ ये ले जाता है मैं वहीं जाता हूँ.

अपने प्रोफेशनल करियर के विषय में जानकारी दीजिये 
ईश्वर की अनुकम्पा से मैं उन चुनिंदा संगीतकारों में रहा जिन्हें संगीत के प्रायोगिक पक्ष के साथ साथ शास्त्रीय पक्ष भी अध्ययन करने का अवसर मिला. राजस्थान विश्वविद्यालय से पीएचडी करने के उपरांत मुझे उदयपुर के मीरा गर्ल्स कॉलेज में पढ़ाने का अवसर मिला. फिर कई वर्षों तक वनस्थली विद्या पीठ में प्राध्यापक रहा. और फिर देश के प्रसिद्ध महाराजा सायाजी राव विश्वविद्यालय में प्राध्यापक रहा. इतने वर्षों तक पढ़ते हुए स्वयं का भी अध्यापन सतत चलता रहा और इसी दरमियान संगीत का एक रिसर्च सेंटर बनाने की परिकल्पना हुई जिससे संगीत के अन्यान्य आयामों का अन्वेषण किया जा सके. २०१० में नादसाधना इंस्टिट्यूट फॉर इंडियन म्यूजिक एंड रिसर्च सेंटर की स्थापना इसी लक्ष्य को लेकर की गई जिससे संगीत में प्रस्तुतियों के साथ साथ शोध प्रविधियों को भी बढ़ावा मिल सके. नादसाधना में संगीत के वाद्य यंत्रों का एक म्यूजियम भी बनाया गया जिसे हाल ही में sahaapedia ने वर्ल्ड museums के साथ मैप किया है. यहाँ पर लगभग 19000 घंटे की ऑडियो और वीडियो रिकॉर्डिंग्स का संग्रह है जो की विश्व से आये शोधार्थियों के शोध में मददगार सिद्ध होता है. इसके अतिरिक्त नादसाधना अनेकानेक संगीत के कार्यक्रम, सेमिनार, सीम्पोसिए, कार्यशाला इत्यादि आयोजित करवाती है. यहाँ काम करके मुझे ऐसा महसूस होता है की मैं अपने जीवन के लक्ष्य को पूरा कर रहा हूँ. अंततः संगीत की सेवा करना ही तो मेरे जीवन का लक्ष्य है. जीवन का जुनून अगर आपका कार्यक्षेत्र बन जाये तो इससे बड़ी परमात्मा की कृपा और कोई नहीं हो सकती, ऐसा मेरा मानना है.

आप संगीत की पृष्ठभूमि से हैं तो संगीत और ललित कला को जोड़ने की किस तरह कोशिश करेंगे ?


मेरी पृष्ठभूमि निश्चित रूप से संगीत की रही है पर मेरी जो कॉलेज की एजुकेशन हुई है वह ललित कला संकाय में हुई. हमारा सिलेबस इस तरह से डिजाइन किया गया था कि संगीत के छात्रों को फाइन आर्ट्स पढ़ना पड़ता था और फाइन आर्ट्स के छात्रों को संगीत पढ़ना पड़ता था. ताकि ललित कलाओं में जो भी विषय हैं, उनके परस्पर संबंध पर भी स्टडी की जा सके. तो संस्कार तो मुझमें कला के हैं ही !

 ललित कला अपने आप में सभी को समाहित करती है चाहे वो दृश्य कला हो, नाट्य कला हो, संगीत कला, चित्र, मूर्ति, वास्तु कला हो.

अकादमी की दृष्टि से मैं संगीत और चित्रकला को जोड़ने का प्रयत्न भी नहीं करूंगा क्योंकि अगर मुझे ललित कला अकादमी का दायित्व दिया गया है तो मैं फोकस ललित कला और उससे जुड़ी एक्टिविटीज पर ही करूंगा. मैं संगीतकार हूं, यह महज संयोग है.

नई पीढ़ी का शास्त्रीय संगीत के प्रति रुझान बढ़ा है या घटा है? उन्हें भारतीय संगीत की परंपरा से जोड़ने के क्या प्रयास किए जाने चाहिए

नई पीढ़ी का शास्त्रीय संगीत के प्रति निश्चित रूप से रुझान बढ़ा है. इसका एक छोटा सा उदाहरण देना चाहूंगा कि आप किसी भी म्यूजिक रियलिटी शो को देखेंगे तो पता चलेगा की उसके टॉप लेवल के प्रतिभागी सभी कहीं ना कहीं किसी गुरु से शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ले रहे होते हैं. इससे दर्शकों में भी बच्चे और उनके पेरेंट्स तक यह संदेश जाता है कि उस स्तर तक जाने के लिए शास्त्रीय संगीत सीखना जरूरी है.

हां, साधना तत्व जो शास्त्रीय संगीत के प्राण हैं, उसमें जरूर कमी आई है. आजकल जो भी सीख रहा है, उसकी थोड़ा सा सीखते ही मंच पर जाने की लालसा रहती है. जबकि पुराने समय में जब गुरु सिखाता था तब शिष्य को ना तो कोई दूसरा संगीत सीखने सुनने की अनुमति होती थी और ना ही दूसरे संगीत की नकल करने की अनुमति होती थी और शिष्य पूरी तरह साधना में लीन रहता था. गुरु जैसी आज्ञा देता था, शिष्य उसका पालन करता था. अब गुरु शिष्य की परंपरा वैसी नहीं रह गई है.

टैलेंट तो बहुत है बच्चों में लेकिन जिस तरह की साधना की उम्मीद शास्त्रीय संगीत में की जाती है आज के जमाने में उसकी कमी है.

शास्त्रीय संगीत से समाज को जोड़ने का प्रयास हर स्तर पर होना चाहिए चाहे वह सरकार हो या संगीत के गुरु हो. गुरु की जिम्मेदारी होती है कि वह अपनी कला का प्रचार- प्रसार करें, विस्तार करें और खुले हृदय से अपने पात्र शिष्यों को सिखाये. सरकार को भी विचार करना चाहिए की शास्त्रीय संगीत जो भारतीय संस्कृति की विशेषता है और पहचान भी है, उसके प्रचार प्रसार के लिए क्या-क्या कदम उठाए जा सकते हैं जिससे उसकी उन्नति हो सके.


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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