चित्तकोबरा क्या है? पढ़िए मृदुला गर्ग के उपन्यास का अंश - कुछ क्षण अँधेरा और पल सकता है | Chitkobra Upanyas - Mridula Garg




मृदुला गर्ग के उपन्यास चित्तकोबरा का 'इडिशंस बैन्यन' से फ्रेंच संस्करण CHITTAKOBRA, Le cobra de l'esprit (चित्तकोबरा, कोबारा दे ले'इसप्री) एक बेहद संजीदा आवरण के साथ आया हुआ था। इसी खुशी के बीच उनके घर पर हो रही बातचीत में मृदुला जी ने मुझे बताया कि किस तरह प्रो० हरीश त्रिवेदी ने चित्तकोबरा के अंग्रेज़ी संस्करण को पढ़ने के बाद उन्हें ईमेल लिखकर कहा - "मैंने अभी चित्तकोबरा को इस आदर और आश्चर्य दोनों के साथ पढ़ा/दोबारा पढ़ा कि आप वर्षों पहले ही वहाँ हो आयी हैं और लिख चुकी हैं — जहाँ नारी-नज़र, विदेशी प्रेमी सबकी 'बोल्डनेस' आज भी बोल्ड दीखती है..." मैंने उनसे वह ईमेल मांगी, क्योंकि वह एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है, जिसके बारे में  भारतीय साहित्य से जुड़े लोगों को मालूम होना चाहिए। 26 मई 2017 को प्रो हरीश त्रिवेदी जी द्वारा मृदला गर्ग को लिखी यह चिट्ठी (ईमेल) और उसके बाद चित्तकोबरा का एक अंश ~ भरत तिवारी 

आप वर्षों पहले ही वहाँ हो आयी हैं और लिख चुकी हैं

~ प्रो० हरीश त्रिवेदी


Dear Mridula ji

I have just re/read Chittacobra with both admiration and wonder that you had already been there and done all that so many years ago: the foreigner-lover, the female gaze and agency, the meta-narcissistic self-regard capped  by the unusual wish for jhurriyan, the lyrical and unguilty 'boldness' that still looks bold, and the dialogue so unflaggingly pert and witty that it is on occasion perhaps too much of a good thing!

I also noted that while the parts concerning Richard are abstracted from social reality, those concerning Mahesh and the in-laws are delightfully dense with it. Both Kafka and kofta in their place.

I want to ask some basic questions. When was it first published?My Mayur paperback says 1986, 1988 etc.  but didn't it come out before that? Had you by then already spent time abroad, or was that after you brought that foreigner home? Has anyone read this book alongside those by Bharati Mukherjee and Jhumpa Lahiri etc, the expat pack? Have you in your computer a detailed CV of yours that you can send me? And was it this novel that brought the police to your door or Kathgulab?

Hope all goes well with you. With warm regards,

Harish


बाहर बारिश बराबर बरस रही है। रसोईघर को आसमान की स्याही पी गई है। मेरे चारों तरफ़ झुकमुखी अँधेरा है। बस,सामने दो छोटे गोल दायरों में बँधी आग जल रही है।

…चाय बनेगी,भुट्टा भुनेगा…हम लोग रोशनी के नीचे साथ बैठ कर खाऐंगे, पिएंगे…

पर…अभी देर है…कुछ क्षण अँधेरा और पल सकता है।


चित्तकोबरा

कुछ क्षण अँधेरा और पल सकता है


अगस्त का महीना है।  तीन दिन से लगातार बारिश हो रही है। 

दिन के तीन बजे हैं । मेरे कमरे में गुफ़ा सा अँधेरा है।

दिन का अँधेरा ख़तरनाक होता है। रात का अँधेरा नींद लाता है, दिन का अँधेरा ख़्वाब। हर मुश्किल आसान नज़र आने लगती है।

वर्षा की बूंदें मेरे बालों की तरह सफ़ेद हैं। पीछे कभी अँधेरा झिलमिला जाता है कभी,उजाला। बाहर बारिश बरस रही है,भीतर ख़्वाब पल रहे हैं…

आसमानी स्याही उँडेल रहा है…बारिश सफ़ेदी… सब कुछ सम्भव है…


यह शायद बरगद का पेड़ है। घनेरा। हम उसके नीचे बारिश से बचने के लिए नहीं,भीगकर सुस्ताने को घुसे हैं।

आसमान तोप की तरह स्याह है। बरगद के नीचे झुकमुक छाँव है।

सिर पर छाया छप्पर चू रहा है। पारे-सी झिलमिल बूँदें मुख से शरीर पर फिसल रही हैं।

बाहर बारिश ज़ोर पकड़ रही है। अभी हम और भीगेंगे। मुझे बारिश में भीगना बहुत अच्छा लगता है।

"तुम नियागरा फ़ॉल्स के नीचे नहाई हो?" उसने पूछा है। 

"तुमने वैसुवियस पर भुट्टे भूने हैं?" मैंने जवाबी सवाल किया है।

"चेरापूंजी में बारिश होती है तो लगता है नियागरा फ़ॉल्स के नीचे बैठे हैं।"

"ओह उस तरह।" मैं हँस पड़ी हूँ।

"भुट्टे खाओगी?"

"कहाँ हैं?"  

"नहीं हैं।"

"तब?" 

"अगर हमारे पास भुट्टे होते तो हम उन्हें आग पर भूनकर खा सकते थे।"

"अगर आग होती"

"अगर तुम शादीशुदा न होतीं तो मैं तुमसे शादी कर लेता…अगर मैं शादीशुदा न होता।"

हम दोनों हँस दिये। हँसते- हँसते पास सिमट आये। उसने मेरा भीगा मुँह चूम लिया।

"आग जलायें," उसने पूछा। 

"इतनी बरसात में?"

"तो क्या धूप में जलाएंगे?"

"जलाओगे कैसे?"

"गड्ढा खोदो। नीचे मिट्टी सूखी होगी। बरगद की जड़ में ढ़ूँढ़ो। सूखी लकड़ियाँ मिल जाएंगी। एक के ऊपर एक, आड़ी तिरछी रखो। पत्थर रगड़ो …और आज खाओगी क्या?"

"कुछ नहीं मिला?"

"नहीं। बारिश के झुटपुटे में शिकार, अँधेरे कोने ढ़ूँढ़ छिप जाता है। आज कुछ मिलने से रहा।"

"कल?" मैंने ऊपर देखा।

"यह बरगद का पेड़ है।"

"हम यहाँ क्यों आये?"

"हम प्रेमी हैं –अभिशप्त।"

"वे लोग पत्थर पत्थर मार मार कर हमारी जान ले लेंगे।"

"अगर पकड़ सके।"

"आग मत जलाना।"

"आग गरमाई देती है तो रोशनी भी।"

"रोशनी में साये मिट जाते हैं। हम तभी तक हैं जब…"

कमरे में अँधेरा बढ़ता जा रहा है।

बाहर बारिश ऊँघ ऊँघ कर बरस रही है।


दबे पाँव रिचर्ड भीतर आया है।

"आसमान तुम्हारे बालों की तरह स्याह है।" उसने कहा है।

मैं भौचक हूँ। यह किस युग में जी रहा है…अब तक।

"आग जलायें," उसने पूछा है।

"हाँ, यहाँ डर नहीं है। प्रेमियों को पत्थर फेंक कर मारने की प्रथा अब नहीं रही।" 

आजकल प्रेमी सभ्य हो गये हैं। समाज से भाग कर गुफ़ाओं में पनाह नहीं लेते। सामजिक नियमों का उल्लंघन कर भी जाएं तो कुछ दिन बाद स्वयं लौट आते हैं और ख़ुद अपने आप को ज़िन्दा मौत के हवाले कर देते हैं। 

जब तक भगवान था,इन्सान अपराध करता था,सज़ा की ज़िम्मेवारी भगवान पर छोड़ देता था। कभी साफ़ बच निकलता था,कभी सज़ा पहले मिल जाती थी, अपराध करने की छूट अगले जन्म में। स्थिरबुद्धि समाज भगवान भरोसे सुरक्षित था। अब भगवान नहीं रहा, तमाम ज़िम्मेवारी व्यक्ति पर आ पड़ी। फिर भी समाज अपनी जगह ठहरा हुआ है—आदमी सभ्य जो हो गया। समाज से विद्रोह करता है तो स्वयं अपने को अपराधी मान, सज़ा सुना देता है। 

जब हम सभ्यता के शिखर पर पहुँच जाएंगे तो जो भी अन्याय करेंगे, मिलजुल कर, आपसी सलाह मशविरे से, सामूहिक जयनाद के साथ। उन्नीस सौ उनतालीस में जर्मनी सभ्यता के शिखर पर था न? और इंगलेंड को सभ्य हुए तो शताब्दियाँ बीत गईं।

फिर रिचर्ड आज मेरे पास कैसे लौट आया?

"आग जलायें?" उसने फिर पूछा।

"अगर तुम्हें डर न हो।"

आग जल उठी…या बाहर बिजली चमकी…बारिश की नींद खुल गई…

"बरिश की लड़ियाँ तुम्हारे बालों की तरह सफ़ेद हैं।" रिचर्ड ने कहा।

समय का अन्तराल बह गया…

रिचर्ड कल की गिरफ़्त से बाहर आ गया।

उसने मुझे अपनी ढ़ीली बाँहों में घेरा और झुर्रियोंदार चेहरा मेरी गोद में छिपा लिया। मैं उसके सफ़ेद बालों में अंगुलियाँ चलाने लगी।

मैंने उसका मुँह ऊपर उठाया और नाक की दोनों तरफ़ खुदी गहरी लकीरों को अंगुलियों की पोरों से भर लिया…

…हमारे चेहरे एक दूसरे की तरफ़ बढ़े और ठंडे नीले ओंठ आपस में मिल गये…

इतने बरस बाद मिलने पर यही होता है? हम समय के पदचिह्न गुनते रहते हैं? क्या सपने भी इतने सही हुआ करते हैं?

रिचर्ड ने अपनी ज़बान से मेरे ओंठों को गीला किया और पूछा—"तुम नियागरा फ़ॉल्स के नीचे नहाई हो?"


कमरे में बरगद का पेड़ उग आया। घनेरा। बाहर बारिश ज़ोर पकड़ने लगी। बिजली बार बार चमक उठी। बरगद के नीचे झुकमुख छाँव घिर आई। आसमान तोप सा स्याह पड़  गया। मेरे बाल उसके रंग में रंग गये।

उसके ओंठों ने हरकत की। मेरी देह में ऊष्मा भर गई।ओंठ जल उठे।

"अपने ओंठों पर तुमने कभी भुट्टे भूने हैं?" उसने पूछा।

मैंने उसे बाँहों में मसल डाला। उसके चेहरे की झुर्रियाँ मिट गईं। बालों से सफ़ेदी रूठ गई। ढ़ीली बाँहों में कसाव आ गया। मेरे हल्के हो आये शरीर को उसने पास समेटा… लिहाज़ कर बिजली बादलों की ओट हो गई। बारिश की बौछार ने पर्दा कर दिया। मैं और रिचर्ड सभ्य अपराध और सज़ा की ज़िम्मेवारी से बरी हो गये। 


"अँधेरे में बैठी हो?" खट से बत्ती जल गई।

महेश को रोशनी से लगाव है। रोशनी उसका स्वभाव है। अँधेरे से उसका साबका नहीं पड़ा और पड़ा भी तो उसने रोशनी को चुना।

"अँधेरे में क्यों बैठी हो? तबीयत तो ठीक है?" उसने फिर कहा।

"दिन है," मैंने कहा।

"पर रात सा अँधेरा है। कितनी मूसलाधार बारिश है। रास्ता चलना मुश्किल हो गया। पेड़ के नीचे पनाह लेनी पड़ी।"

मैंने आँखें बन्द कर लीं। सामने बरगद का पेड़ उग गया। रिचर्ड मेरे आग़ोश में लौट आया। अँधेरा अपना निजी होता है,बाहर चाहे कितनी भी रोशनी क्यों न हो।

"आज तो भुट्टे खाने का दिन है।" मैंने सुना।

"तुमने वैसूवियस पर भुट्टे भूने हैं?" मैंने पूछा।

"क्या, क्या कह रही हो?"

"कुछ नहीं।"

"सपना देख रही थीं?"

"हाँ।"

"दिन में?"

"नहीं, सूरज लिहाज़ कर गया। निकला नहीं।"

"क्या मतलब?"

"कुछ नहीं।"

"तुम्हारी तबीयत ठीक न हो तो चाय मैं बना लूँ?"

"नहीं, तबीयत बिल्कुल ठीक है।"

"सो गई थीं?"

"नहीं," मैंने कहा," दिन की रोशनी में भी भला कोई सोता है।"

नहीं, अँधेरा भी निजी नहीं होता। हर चीज़ में साझा करना पड़ता है।


"मैं चाय लाती हूँ," मैंने कहा।

"इतने कपड़े बदल डालूँ। भीग कर चोड़ा हो गये।" महेश ने कहा।

"हाँ बदल डालो। आग जलाने की ज़रूरत नहीं है।"

"आग? कैसी आग?"

"चुल्हे की," मैंने कहा और ठठा कर हँस पड़ी।

महेश भौचक मुझे देखता रहा।

मैंने नज़र जलते बल्ब की तरफ़ कर ली। पास जाकर उसकी गीली कमीज़ की बाँह पकड़ी और सावधानी से कहा,"जाओ कपड़े बदल लो। मैं चाय बनाती हूँ। चूल्हे की आग है नहीं, गैस पर ही भुट्टा भून देती हूँ। मुझे यक़ीन है अब ज़रा देर में बारिश थम जाएगी। सूरज निकल आएगा। दिन के अँधेरा का ख़तरा टल जाएगा।"

मैं रसोईघर में पहुँच गई। गैस के संक्षिप्त, सीमित दायरे में आग जलाई। एक पर पानी का भिगौना चढ़ा दिया, दूसरे पर भुट्टा रख दिया।


बाहर बारिश बराबर बरस रही है। रसोईघर को आसमान की स्याही पी गई है। मेरे चारों तरफ़ झुकमुखी अँधेरा है। बस,सामने दो छोटे गोल दायरों में बँधी आग जल रही है।

…चाय बनेगी,भुट्टा भुनेगा…हम लोग रोशनी के नीचे साथ बैठ कर खाऐंगे, पिएंगे…

पर…अभी देर है…कुछ क्षण अँधेरा और पल सकता है।

मैंने आँखें बन्द कर ली हैं…बरगद की घनेरी छाया के बीच पहुँच गई हूँ…रिचर्ड मेरे साथ है…

रोशनी में साझा करते चलो…अँधेरा टूट- टूट कर भी भीतर पल लेगा।



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