शुभ्रवस्त्रा — रघुवंश मणि की कहानी | Shubhravastra - Story by Raghuvansh Mani

आलोचक, कवि, प्रो रघुवंश मणि को कहानियाँ ज़रूर लिखनी चाहिए। उनकी नई कहानी 'शुभ्रवस्त्रा' पढ़िए, आप भी शायद मेरी बात से सहमत होंगे। ~ सं० 


यह एक अलग किस्म का स्पर्श था सहानुभूतिपूर्ण और ममतामयी। एक अजीब-सा ठंडापन था उस हाथ में। वह छुवन जो तुरंत धुले हाथों में होती है। यह स्पर्श ठीक उसके माँ के स्पर्श जैसा था, जब वह बर्तन मांजने के बाद उसे सुलाने आती थी। उसने युवती के हाथों को मस्तिष्क की गहराई तक महसूस किया। ऐसी ठंडक का अहसास हुआ जैसे वह कड़ी धूप से गुजरते-गुजरते किसी घने पेड़ की छाया में आ गया हो, हालाँकि वहाँ न तो धूप थी और न ही कोई घना पेड़। उसे हाथ की यह ठंडक असामान्य-सी लगी।

कहानी 

शुभ्रवस्त्रा

~ रघुवंश मणि

[डब्ल्यू. बी. यीट्स की कविताओं पर शोध कार्य। कृतियां: हरा केन्द्रीय रंग नहीं है (कविता संग्रह), निर्वचन (आलोचना) , समय में हस्तक्षेप (अनुवाद), साधनाशरण्यस्तव: का अंग्रेजी अनुवाद, बदलते समय में (विचारात्मक लेख), रौशनी की आवाज़ (संपादन)। W.B.Yeats : Indian Influences (आलोचना)। आलोचना कार्य के लिए वर्ष २००५ का डॉ.रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान। सम्प्रति: प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, अंग्रेजी विभाग, शिवहर्ष किसान स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बस्ती, उ. प्र.। पता: ३६५, (५/८/१०४) इस्माइलगंज, अमानीगंज, फैजाबाद, अयोध्या, उत्तर प्रदेश। raghuvanshmani@yahoo.co.in ]



उसे लगा कि सूरज कुछ जल्दी ही ढल रहा है। 

सूर्य की किरणें सीधे उसके मुड़े हुए सिर पर गिर रही थीं, लेकिन वे हल्की पड़ चुकी थीं। उसे दोपहर के सूर्य की प्रचंडता की याद आयी और साथ ही साथ स्मरण हो आयीं यज्ञोपवीत की वे सारी औपचारिकताएं जिनसे उसे और उसके छोटे भाई को गुज़रना पड़ा था। उसने नदी की रेती में धंसते अपने पांवों को देखा और हल्की-सी थकान महसूस की। दायीं ओर उसका छोटा भाई चल रहा था। दोनों के कद में करीब आधे फुट का अंतर ही उनके उम्र के अंतर को दर्शा रहा था। कुछ दूर दायें नदी शांतभाव से बह रही थी।

उसकी बायीं ओर उसके पिता जी चल रहे थे। धीरे-धीरे ताकि वे उन दोनों साथ चल सकें। यदि वे अकेले होते तो शायद अधिक तेज चलते। वे वही काली पतलून और सफ़ेद कमीज़ पहने हुए थे जिन्हें वह सर्वाधिक पसंद करता था। उसके दुबले-पतले पापा जी जिनके बारे में अंकल ने कहा था कि वे दकियानूसी और प्रोग्रेसिव विचारों के संगम हैं। उसे अंकल की बात ठीक से समझ में तो नहीं आई थी, परन्तु याद ज़रूर रह गयी थी, उन तमाम विवरणों की तरह जिन्हें वह अकारण याद कर लेता था। उसने पिता जी के सर पर शाम की रोशनी में चमक रहे बालों को देखा और फिर अपने चुरमुंडे सिर पर हाथ फेरा। उसे बड़ा अजीब लगा। उसे प्रतीत हुआ कि जैसे एक ही घंटे में उसके चुरमुंडे सिर पर ढेर सारी खूँटियाँ उग आई हैं। उसका छोटा भाई एक केला खाकर ताज़ा दम हो चुका था और उत्साहपूर्वक इधर-उधर के दृश्यों को देख रहा था। मगर उसकी थकान तो अजीब-सी थी, जैसे उसके रोमछिद्रों से होती हुई उसके खून में बह रही हो। उसे दोपहर में हुए अपने घुटनों का दर्द याद आया जो पालथी मार कर लम्बे समय तक बैठने के कारण हुआ था। वह जान रहा था कि यह थकान बढ़ती ही जाएगी।

कुछ दूर पर सड़क दिख रही थी जिसके बगल में बसों का अस्थायी स्टैंड बना था। बसें मंथर गति से रेत उड़ाती हुई बढ़ती थीं और सड़क पर पहुँचने के बाद तेज़ी से निकल जाती थीं।

“मुन्नू, बस से चलोगे या नाव से?” पिता जी ने छोटे भाई से पूछा।

“नाव से चलेंगे, पापा।” छोटे भाई ने उत्साह से भरकर कहा। उसकी उमर के बच्चे के लिए नाव पर चलना किसी एडवेंचर से कम नहीं था।

“लेकिन बेटे! नदी पार करने के बाद कुछ दूर तक चलने पर ही बस मिलेगी पैदल ही चलना पड़ेगा। बोलो?”

“ठीक है पापा जी, हम नाव से चलेंगे।” मुन्नू ने उत्तर दिया।

“और तुम बोलो बेटा?” पिता जी ने उससे प्रश्न किया।

उसे अपनी सारी थकान के बावजूद लगा की उसे “हाँ” कर देनी चाहिए। वह अपने छोटे भाई से भी गया-गुज़रा नहीं दिखना चाहता था। उसने स्वीकारोक्ति में गर्दन हिला दी। मगर अपनी थकान को देखते हुए उसे तुरंत लगा कि कहीं कुछ ग़लत तो नहीं हो गया।

“ठीक है तब फिर नाव से ही चलते हैं।” पापा निर्णायक स्वर में बोले, “उस पार थोड़ा पैदल चलना होगा, फिर स्टेशन मिलेगा। वहां से हम बस पकड़ेगें।”

सूर्य डूब चुका था। मगर उसका प्रकाश अवश्य आकाश में फैला रह गया था। वे नदी की ओर बढ़ चले जहां नावें घाट पर खड़ी थीं। उनको देख एक अर्धनग्न नाविक उनकी ओर बढ़ आया। पापा ने उनसे कुछ बातें कीं और वे एक ऊँचे स्थान से नाव पर चढ़ गए। नाविक भी नाव पर सवार हो गया और नाव पानी में बढ़ा दी। नाव धारा की ओर बढ़ चली। नदी का जल अत्यंत शांत था एवं उसकी घाटी में प्रकाश धीमा हो चला था। अतः वस्तुएं बहुत साफ़ नहीं दिख रहीं थीं। छोटा भाई नदी के पानी में हाथ डालकर खेल रहा था। पापा दूर क्षितिज पर कुछ देखने का प्रयास कर रहे थे। उसे अपनी थकान बढ़ती लगी। उसके जाँघों की नसें कस गयीं थीं।

नाव धीरे-धीरे मझधार की ओर बढ़ रही थी। अजीब-सा अनुभव था उसके लिए नाव पर चलना। उसे लगा की जैसे उसका शरीर हवा में गतिमान हो। मुन्नू बेहद प्रसन्न था, वह पानी से खेले जा रहा था। नाव के हिलने और किसी जलीय जीव को देखकर वह खिलखिला उठता था। पापा मुस्करा देते थे। वे उनको बता रहे थे कि वहाँ से शहर पहुँचने के दो रास्ते थे। एक उस अस्थाई बस स्टैंड वाला और दूसरा नदी के पार वाला। वे एक बार नदी के पार वाले रास्ते से ही शहर गए थे। थोड़ा पैदल चलने पर ही बस स्टेशन मिलता है जहां से शहर सिर्फ एक घंटे दूर है। अस्थायी बस स्टेशन वाले रास्ते से कई घंटे का सफ़र है क्योंकि घूम के जाना पड़ता है। 

वह पापा की बात सुनता जा रहा था, अनमनस्क होकर। उसे उनकी बातों का काफी हिस्सा समझ में नहीं आ रहा था। पिता जी के शब्द और वाक्य दूर स्थित धुंधलके के पेड़ों जैसे थे जो दिखते तो थे, मगर स्पष्ट नहीं होते थे। पिता जी ने और भी बहुत-सी बातें कहीं थी। शायद शहर या रास्ते के बारे में। परन्तु थकान ने उसे तटस्थ बना दिया था। उसे सिर्फ पिता जी के हिलते होठ ही दिखाई दे रहे थे जिसकी गति के साथ वे अपना सर भी हिलाते जा रहे थे। यह उनकी आदत थी। बोलते समय वे अपनी बातों को स्पष्ट करने के लिए सर हिलाते रहते थे जिसके कारण उनके बेहद काले और चमकीले बाल हिलते रहते थे। उसे अपने पिता के सुंदर बालों पर गर्व था। महेश के पिता के सिर पर तो एक भी बाल नहीं थे।

नाव मंझधार में आ गयी थी। नदी के दोनों पाटों पर स्थित पेड़ आदि धुंधले पड़ गये थे। बीच प्रवाह में दोनों ओर जल ही जल दिखाई दे रहा था जो नाव को ऊपर की ओर उछाल रहा था। पिता जी ने बताना शुरू किया कि नाव पानी के ऊपर क्यों तैरती है। वे जलप्लावन बल के बारे में बताने लगे। उसे तो नदी किसी स्पंज के गद्दे की तरह लग रही थी। उसके मन में एक बेतुका सवाल आया कि पिता जी से पूछे कि क्या स्पंज के दस बहुत बड़े गद्दों पर नाव चल सकती है? पर उसके पिता बिलकुल अध्यापकों की तरह बताते जा रहे थे। कभी-कभी उसे अपने पिता जी एकदम अपने अध्यापकों की तरह लगते थे। उसे आश्चर्य होता था कि उसके पिता के पास इतनी अधिक जानकारियां कैसे हैं? पिता जी दुनिया के सबसे बुद्धिमान आदमी होंगे, उसने सोचा।

नाव का अगला हिस्सा पानी को चीरता हुआ नदी के दूसरे तट की ओर बढ़ रहा था। जैसे-जैसे नाव उस तट की ओर बढ़ती जा रही थी, उधर के पेड़, झाड़ी आदि दृष्टिगोचर होते जा रहे थे। अंततः नाव तट पर आ लगी। एक झटका-सा लगा, मानो वह किसी स्वप्न से जागा हो। मुन्नू नाव पर से नीचे आना ही नहीं चाहता था। वह मचल गया। परन्तु जब पिता जी ने आदेशात्मक स्वर में उतरने के लिए कहा तो उसे उतरना ही पड़ा। पापा और नाविक पहले ही उतर चुके थे। वह भी चुपचाप नाव से उतर गया। पिता जी ने नाविक को पैसे दिये और कुछ पूछा जिसे वह सुन नहीं सका।

“आओ चलते हैं।” पिता जी ने कहा। वे तीनों आगे बढ़ गये। पीछे से पानी की खलखलाहट सुनाई दी। उसने मुड़कर देखा। नाविक ने नाव नदी में बढ़ा दी थी जो तेजी से विपरीत तट की ओर बढ़ रही थी।

प्रकाश मंद हो रहा था। दूर की वस्तुएं आँखों से ओझल हो रही थीं। वे एक कच्चे रास्ते पर बढ़ चले जिसकी बलुई सफेदी कम प्रकाश में भी चमक रही थी। रास्ता शांत था और उसके दोनों ओर घनी झाड़ियाँ थीं जो अक्सर नदी के तटों पर उग आती हैं। मुन्नू का कद छोटा था, इतना छोटा कि वह झाड़ियों के अतिरिक्त कुछ नहीं देख पा रहा था। इसलिए उसने सीधे रास्ते पर दृष्टि डाली और बालू में धंसते चलते अपने पाँवों को देखने लगा। पापा उससे थोड़ा तेज़ चलने के लिए कह रहे थे ताकि अन्धेरा होने से पहले बस स्टेशन पहुंचा जा सके। उसका ध्यान अपनी थकी हुई जाँघों पर गया। थकान के बावजूद वह थोड़ा तेज़ चलने लगा। 

कुछ आगे चलने पर छोटी झाड़ियों का क्रम समाप्त हो गया। उनके स्थान पर ऊँची-ऊँची झाड़ियाँ शुरू हो गयीं जिसके पार देखना किसी के लिए भी संभव नहीं था। मुन्नू अब काफी थक चुका था। वह तेज़ी से आगे नहीं बढ़ पा रहा था। प्रकाश कम होता जा रहा था और थकान भारी। वह पापा को अंततः यह बताने ही जा रहा था कि वह काफी थक चुका है कि मुन्नू बोल पड़ा:

“पापा, पैर दुःख रहा है।”

उसने राहत की सांस ली। आख़िरकार उसे यह बात नहीं कहनी पड़ी। यदि मुन्नू ने यह बात न कह दी होती तो कुछ देर बाद उसे ही कहना पड़ जाता। पापा ने मुन्नू की पीठ थपथपाई। “थोड़ा और चलो बेटा! कुछ ही देर में हम बस स्टेशन पहुँच जायेंगे।”

मुन्नू फिर चल पड़ा, यद्यपि अब उसकी चाल में पहली जैसी बात नहीं थी। वह अब गर्दन लटकाए चल रहा था। कम प्रकाश में भी उसने मुन्नू के चेहरे पर लिखी थकान को पढ़ लिया था। वह भी अनमनस्क भाव से आगे बढ़ने लगा। बालू में धंसते सभी के पाँव गोल-गोल निशान छोड़ते जा रहे थे। बालू काफी भुरभुरी थी जिसमें पांवों के धंसने के कारण चलना और भी कठिन लग रहा था। कुछ दूर तक वे शांत चलते रहे सिर्फ़ पैरों से उठती-गिरती बालू की हल्की आवाज़ सुनाई दे रही थी।

“पापा, पैरों में बहुत दर्द हो रहा है।” मुन्नू ने दुबारा कहा। परन्तु पापा बिलकुल चुप रहे। उसे पापा की चुप्पी आश्चर्यजनक लगी। उसने सिर उठाकर देखा तो वे बिलकुल शांत थे। उनके धुँधले चेहरे पर उनकी चमकती आँखें रास्ते के आगे कुछ देखने का प्रयास कर रही थीं। उनकी शांति में भी उसे एक चिंता की परछाई दिखाई दी। रास्ता कुछ दूर बाद धुंधलके में खो गया लगता था। पापा किसी विचार में डूब गये थे और उन्होंने मुन्नू की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया था। उनके चेहरे पर अजीब किस्म का खिंचाव आ गया था। ऊँची झाड़ियों की अजीबोगरीब धुंधली आकृतियों के बीच चलते पापा को देखकर उसे एक अनजान-सा भय हुआ कि कहीं वे रास्ता तो नहीं भूल गए हैं। उनकी चुप्पी उसके हृदय में एक भय पैदा कर रही थी।

उसके संदेह की पुष्टि तब हुई जब पापा एकाएक रुक गए। उन्होंने दायीं और बायीं ओर घूमकर देखने के बाद पीछे भी मुड़कर देखा। परन्तु कुल मिलाकर एक ही रास्ता था। जिस पर वे चल रहे थे। असमंजस में ही उन्होंने मुड़कर पहले की तरह आगे बढ़ना प्रारंभ कर दिया। “पापा अभी और कितनी दूर जाना है।” उसने अपनी आशंका से परेशान होकर पूछा।

पापा ने हड़बड़ा कर उसकी ओर देखा और बड़े ही अव्यवस्थित ढंग से उत्तर दिया कि बस कुछ ही दूर बाद वे स्टेशन पहुँच जायेंगे। परन्तु उसे पापा के उत्तर में आत्मविश्वास की कमी लगी। पापा उसके इस प्रश्न का या तो सही उत्तर नहीं जानते या फिर झूठ बोल रहे हैं, उसने सोचा।

काफी थकान के बाद भी उसने अपना ध्यान रास्ते पर केन्द्रित किया और चलने लगा। लेकिन अब वह इस बात को समझ रहा था कि इतनी थकान के बाद अधिक चलना संभव नहीं होगा। अब उसे थकान का दर्द पैर की अँगुलियों से लेकर रीढ़ की हड्डी तक महसूस होने लगा था। 

“पापा अब हम नहीं चलेंगे!” , मुन्नू ने भिन्नाते हुए कहा। “हम बहुत थक गए हैं।”

“थोड़ी दूर और है बेटा बस थोड़ी ही दूर।” पापा ने पुचकारते हुए कहा। पर मुन्नू ने पैर पटक कर रोना शुरू कर दिया। पापा झुंझला उठे और उन्होंने मुन्नू को डांट दिया। मुन्नू सहम गया। वह चुपचाप चलने लगा पर अब उसकी सूरत एकदम रोनी हो गयी थी। पापा जल्दी उसको डांटते नहीं थे इसलिए वह और भी सन्नाटे में आ गया था।

आकाश में कहीं चाँद पर था, मगर कहाँ था, कुछ पता नहीं लग पा रहा था। वह कहीं बादलों के पीछे था। परन्तु उसका हल्का प्रकाश आकाश में फैला था। धुंधली झाड़ियाँ अब सायों में बदलने लगीं थीं। पर रास्ता चाँद के हलके प्रकाश में अस्पष्ट दृष्टिगोचर था। वे उस हल्के प्रकाश में आगे बढ़ने लगे पर एक स्थान पर जा कर तीनों को एकदम रुक जाना पड़ा। वहां रास्ता तीन शाखाओं में विभाजित हो गया था। वे कुछ देर किंकर्तव्यविमूढ़ खड़े रहे। पापा दायीं तरफ बढ़ना चाहते थे। मगर वहां पर एक कुत्ते की लाश पड़ी हुई थी। जिसे एक गीदड़ चपड़- चपड़ खा रहा था। गीदड़ को एकाएक उनकी उपस्थिति का अहसास हुआ। उसने अपनी चमकीली आँखों से उनकी ओर देखा। मुन्नू भयाक्रांत होकर पापा से लिपट गया। वह भी पापा से लगभग सट गया और उनका हाथ थम लिया।

उस मोड़ पर वे तीनों कुछ क्षण अनिश्चय में खड़े रहे। उस निर्जन स्थान पर मार्ग बताने के लिए किसी की प्रतीक्षा करना व्यर्थ था। परन्तु गलत रास्ते पर जाने का मतलब था भटक जाना। अभी तक रास्ते भर में न तो कोई गांव मिला था, न ही किसी प्रकार की आबादी। गीदड़ ने उनकी तरफ से दृष्टि हटाई और अपने भोजन पर जुट गया। परन्तु इस बार वह लाश को एक तरफ खींच रहा था। वह उसे किसी सुरक्षित स्थान पर ले जाकर खाना चाहता था। 

उसने पापा के चेहरे पर ओर निगाह घुमाई इस बार उसे पापा के अस्पष्ट चेहरे पर चिंता की स्पष्ट छाया दिखाई दी। वे अपनी रुमाल निकाल कर अपना माथा पोंछ रहे थे।

“इधर को आइये”, दूसरे रास्ते से एक आदेशात्मक नारी स्वर सुनायी दिया। परन्तु रास्ते पर कहीं भी कोई स्त्री दिखाई नहीं पड़ रही थी। उसने अपने पिता के हाथों में उठी एक सिहरन महसूस की, एक थरथराहट, एक कंपकंपी। एक क्षण वे ठिठके। उस नारी स्वर में एक रहस्यमय आकर्षण था। वे तीनों उस रास्ते पर बढ़ चले जिधर से वह स्त्री स्वर सुनाई पड़ रहा था। लगभग चार कदम बढ़ने पर ही उसे एक नारी की धुंधली आकृति दिखाई दी। उसने सफ़ेद साड़ी पहन रखी थी। उस दूरी से उसका चेहरा स्पष्ट नहीं हो रहा था। उसके अन्य वस्त्र भी सफ़ेद थे।

इतने समय एक बियाबान स्थान पर एक नारी का मिलना विचित्र था। वह भी एक ऐसे रास्ते पर जहां मीलों तक कोई आबादी नहीं मिली थी। पापा ने दोनों के कन्धों को हथेली से थपथपाकर कर रुकने के लिए कहा। वे तुरंत रुक गए, मानो उन्हें पहले से ही इस संकेत की प्रतीक्षा रही हो। उत्सुकतापूर्वक वे उस दिशा में देखने लगे जहाँ वह औरत खड़ी थी।

एक अजीब-सी उपहासपूर्ण हंसी हवा में बिखर गयी। धीरे-धीरे वह धुंधली आकृति उनकी ओर बढ़ने लगी। जैसे-जैसे वह करीब आती गयी, उसकी आकृति स्पष्ट होती गयी। उसने स्पष्ट देखा कि वह एक युवती थी जिसकी उम्र पिता जी की उम्र से थोड़ा कम ही लग रही थी। इकहरे बदन की यह युवती प्रयासहीन गति से उनकी ओर बढ़ रही थी मानो चलने के बजाय हवा में फिसल रही हो। उसके करीब आने पर उसने देखा कि वह सुन्दर स्त्री थी और उसके बाल खुले हुए थे। शायद वह नंगे पांव थी क्योंकि उसके पैरो से बालू में कोई आवाज़ नहीं हो रही थी।

वह उनसे कुछ दूरी पर पापा की ठीक सामने खड़ी हो गयी। उसने पापा की आँखों में सीधे आँखें डाली। पिता जी ने अपनी आँखें झुका ली, जैसे कि वे उस दृष्टि का सामना नहीं कर सकते हों। उसे बड़ा अजीब लगा।

“बहुत चालाक हैं आप। क्यों? सारे के सारे पैसे बचा लिए?” उसने सीधा प्रश्न पिता जी की तरफ दागा। उसके इस प्रश्न में व्यंग, उलाहना और नाराज़गी एक साथ झलक उठी। वह धीरे से उनके पास गयी और मुन्नू को अपने करीब खींच लिया। मुन्नू डरा हुआ था। उसे पिता जी का चुपचाप रहना एकदम असामान्य लगा।

वह उनके और करीब आई, ठीक उसी तरह से प्रयासहीन, मानो फिसलती हुई। उसने धुंधले प्रकाश में औरत के पांवों को देखना चाहा। वह ऐसा न कर सका क्योंकि उसके पांव सफ़ेद सारी से ढंके हुए थे। कहीं इसके पैर उलटे तो नहीं, उसने सोचा। स्त्री ने उसके मुड़े हुई सिर पर अपना हाथ रखा और उसे सहलाने लगी। 

यह एक अलग किस्म का स्पर्श था सहानुभूतिपूर्ण और ममतामयी। एक अजीब-सा ठंडापन था उस हाथ में। वह छुवन जो तुरंत धुले हाथों में होती है। यह स्पर्श ठीक उसके माँ के स्पर्श जैसा था, जब वह बर्तन मांजने के बाद उसे सुलाने आती थी। उसने युवती के हाथों को मस्तिष्क की गहराई तक महसूस किया। ऐसी ठंडक का अहसास हुआ जैसे वह कड़ी धूप से गुजरते-गुजरते किसी घने पेड़ की छाया में आ गया हो, हालाँकि वहाँ न तो धूप थी और न ही कोई घना पेड़। उसे हाथ की यह ठंडक असामान्य-सी लगी।

“बहुत थक गये हो न?” उसने पूछा। तब उसे एकाएक अपनी कुछ देर पहले की थकान याद आ गयी। उसकी सारी थकान दूर हो गयी थी उस वात्सल्यपूर्ण स्पर्श से। उसने उत्तर देना चाहा कि अब थकान नहीं है, परन्तु अनिश्चय में कोई उत्तर न दे सका। उसने पापा की ओर देखा, शायद किसी संकेत की सम्भावना में। परन्तु पापा के चेहरे के भाव अजीब थे। वे कहीं और ही खोये हुए थे। अंततः उसने चुप रहना ही उचित समझा।

“आइये आपको स्टेशन तक छोड़ दूं।” शुभ्रवसना ने कहा। उसने मुन्नू और उसे बीच के रास्ते पर आगे बढ़ाने के लिए अपने ठन्डे हाथों से हल्की-सी थपकी दी। वे आगे बढ़ चले रास्ता पहले से ही निर्जन था। बलुई जमीन का सफ़ेद रास्ता काफी दूर तक फैला हुआ था। पिता जी और वह शुभ्रवसना साथ साथ पर कुछ दूरी बनाकर चल रहे थे। पिता जी के चेहरे पर एक तनाव बना हुआ था जिसमें भय जैसा प्रकट हो रहा था। 

मुन्नू और वह दोनों शुभ्रवसना के आगे-आगे चल रहे थे। आकाश पर बादल और अधिक आ गये थे और तारे कहीं-कहीं ही दिखाई दे रहे थे। रात प्रारंभ हो चुकी थी। हल्का हवा का झोंका आया और फिर वातावरण पूर्ववत हो गया। उसे अब थकान का अनुभव बिलकुल नहीं हो रहा था। मुन्नू भी बिना किसी शिकायत के बढ़ता जा रहा था। अभी भी उसे उस सर्द हाथ का अनुभव अपने कंधे पर अपनी सूती कमीज़ के बावजूद हो रहा था।

“कहिये आप कैसे हैं?” शुभ्रवसना ने पूछा। एक अजीब-सा लम्बा मौन उभर आया लगता था। एक बहुत लम्बे समय को यह मौन समेटे हुए था। उसे लगा कि इस मौन के विस्तार को पार करना उसके पिता जी के लिए काफी कठिन है। परन्तु पिता जी ने निर्वाक को तोड़ा। 

“ठीक ही हूँ।” पिता जी ने जैसे बहुत सोच-समझ कर उत्तर दिया। शायद विचारों में कहीं गहरे खो गये थे और इसी कारण उत्तर कहीं दूर से आता हुआ प्रतीत हुआ। उसने गर्दन को पूरी तरह मोड़ कर उस स्त्री को देखना चाहा, परन्तु धीमे प्रकाश में उसे सिर्फ उसकी चमकती आँखें ही दिखाई दे पायीं। पता नहीं क्यों उसकी फिर उधर देखने की हिम्मत नहीं हुई। उसने दृष्टि सामने रखी और सीधे चलना आरम्भ किया। अचानक उसके मुड़े हुए सर पर पानी की एक बूँद गिरी। उसने अपने हाथ से अपना सर पोछा और उस बूँद के गीलेपन को अनुभव किया। यह पानी कहाँ से आया उसने अपने आप से पूछा। परन्तु फिर साहस के अभाव में उत्तर प्राप्त करने की चेष्टा नहीं की।

वे चारों कुछ दूर तक चलते रहे ऐसे ही चुपचाप। रात की नीरसता को भंग करते कुछ हल्के स्वर सुनाई पड़ने लगे। पास ही कोई गाँव है, उसने सोचा। निकट ही लोगों के होने के ज्ञान ने उसे लगभग भयमुक्त कर दिया। मुन्नू भी अपने को इसी स्थिति में पा रहा था। उनके पांवों की गति तेज़ हो गयी। 

“अच्छा तो अब मैं चलती हूँ।” श्वेतवसना के स्वर ने उन्हें रोक-सा लिया। एक लम्बी चुप्पी के बाद आया उसका यह वाक्य कुछ बदले-बदले लहजे में था, मानो वह घुटे हुए गले से निकली एक आवाज़ हो। पापा थोड़ा आगे बढ़ आये थे। वे किंकर्तव्यविमूढ़ निरुत्तर खड़े रहे। “सीधे चले जाईयेगा, कुछ दूरी पर सड़क मिल जायेगी। बायीं ओर मुड़ने पर बस स्टॉप मिल जाएगा।” श्वेतवसना एक झटके में कह गयी। 

वह कुछ दूरी पर चुपचाप खड़ी थी, छायावत। पापा भी अपने स्थान पर झुक कर खड़े थे, मानो दोनों एक दूसरे से कुछ कहना चाह रहे हों, पर कोई बात आरम्भ न हो पा रही हो। दोनों को चुप्पी असह्य लग रही थी। 

“अब तो बस मिलेगी नहीं।” पापा ने बिलकुल औपचारिक लहजे में कहा जैसा कि अक्सर वे मेहमानों को विदा करते समय कहा करते थे। शायद उन्होंने कुछ भी कहने लायक न होने के कारण ऐसा कहा था। 

“क्यों नहीं मिलेगी,” उसने तेज़ शब्दों में कहा। शुभ्रवस्त्रा की सांसे तेज़ हो गयीं। फिर उसने स्वयं को सँभालते हुए स्वाभाविक ढंग से कहा, “जाइए, बस मिल जायेगी।”

पापा धीरे से मुड़े, भयवश या उसकी आज्ञा जैसी बात के अनुपालन हेतु। वे उसे रास्ता बताने के लिए धन्यवाद तक देना भूल गए। तीनों धीरे-धीरे रास्ते पर बढ़ चले। पापा एकदम चुप कहीं खोये हुए आगे बढ़ रहे थे। उसने पीछे मुड़ कर देखा वह अब भी वही खड़ी थी। एक मद्धिम होती आकृति सी।

चाँद खो-सा गया था। बादलों ने उसे कसकर घेर लिया था। अन्धेरा गहराता जा रहा था। पिता जी ने एक बार फिर अँधेरे में परछाईं-सी खड़ी श्वेतवस्त्रा को देखा और एक लम्बी सांस भरते हुए बढ़ चले। चाँद के छिपने के साथ साथ अँधेरा गहराता गया और दूर की वस्तुएं अँधेरे में खोने लगीं। वह बार-बार मुड़ कर उसे तब तक देखता रहा, जब तक वह भी झाड़ों और पेड़ों की तरह गहराते अँधेरे में विलीन नहीं हो गयी।

आगे थोड़ी दूरी तय करने पर एक बिजली का खम्भा दिखाई दिया जिसके मरियल प्रकाश में तारकोल की सड़क दिख रही थी। कच्चा रास्ता समाप्त था। वहां से बायीँ ओर मुड़कर वे बस स्टॉप पहुंचे। बस स्टॉप पर एकदम सन्नाटा था। बगल में एक जर्जर मकान था जिसमें एक वृद्ध भोजन बना रहा था। किसी और को न पाकर तीनों सीधे वही पहुंचे। 

“बाबा क्या शहर को जाने वाली कोई बस है।” पापा ने पूछा।

 वृद्ध ने मुड़कर उन्हें आश्चर्य से देखा, “काफी देर से आये हो। बस को तो दो घंटा पहले ही चले जाना था। मगर पता नहीं क्यों अभी तक आई नहीं।” उसने सांस लेते हुए कहा, “लगता है बिगड़ गयी है। आज आएगी नहीं।”

पापा ने निराशापूर्वक कंधे झटकाए। वृद्ध ने उन्हें बतलाया कि यह जीर्ण-शीर्ण इमारत एक धर्मशाला है और यदि वे चाहें तो वहाँ रात्रि विश्राम कर सकते हैं। अंततः झख मारकर वे तीनों कमरे के कोने में पड़ी एक पुरानी झोल खाई चारपाई पर बैठ गए। पुरानी खाट चरमरा उठी, मुन्नू खिलखिला उठा। वह भी हंसने लगा। मगर पापा विचारमग्न थे।

उसी समय बहुत तेज़ी से आती हुए एक बस ने ठीक धर्मशाला के सामने ब्रेक लगाई। तीनों चारपाई से एकाएक उठ खड़े हुए। बिजली की फुर्ती से बस का दरवाजा खोलकर परिचालक बस से उतरा और जोर से चीखा,

“अरे कोई सवारी है भाई!!”

“हाँ तीन हैं भैय्या!” वृद्ध ने जवाब दिया। 

वे तीनों धर्मशाला से बाहर निकले और बस की तरफ बढ़ चले। कंडक्टर बड़बड़ता जा रहा था।

“आज कोई सवारी ही नहीं मिली, बस तो लौटाना ही था। अच्छा हुआ आप लोग मिल गए वरना गाड़ी खाली ही जाती। सरकार अलग से पीछे पड़ी है। क्या करें। पता नहीं क्या बात है आज।” 

तीनों चुपचाप गाड़ी पर चढ़ गए। मुन्नू अपनी आदत के अनुसार खिड़की के पास वाली सीट पर जा बैठा। उसने देखा गाड़ी पूरी खाली थी। पापा ने परिचालक की ओर यंत्रवत पैसे बढ़ाये। टिकट देते हुए भी परिचालक बोलता ही जा रहा था। “आज घंटों इंतज़ार किया कि कोई सवारी मिले। मगर नहीं। कोई दिखाई ही नहीं दिया। यही आलम रहा तो गाड़ी चलाना बंद करना पड़ेगा। भाई! कम से कम तेल का तो पैसा निकलना चाहिए, नहीं तो सरकार गाड़ी क्यों चलाएगी।“

पिताजी उसके प्रलाप से मानो कोसों दूर थे। वे उसके बगल बैठ गए। उनकी बेरुखी ताड़ कर अंततः परिचालक भी चुप हो गया। ड्राईवर ने झटके से गाड़ी आगे बढ़ा दी। कुछ दूर जाने पर बादलों की गर्जना सुनाई दी और फिर तेज़ आंधी आई। बस की खुली खिड़कियों से धूल अंदर आने लगी।

“भाई साहब, खिड़की बंद कर लीजिये।”

पिता जी मानो किसी स्वप्न से जागे। उन्होंने तेज़ी से मुन्नू की तरफ वाली खिड़की बंद की। परिचालक बस के पिछले हिस्से की ओर भागा और एक-एक कर सभी खुली खिड़कियाँ बंद करने लगा। गाड़ी की गति तेज़ हो गयी। बारिश की बूँदें खिड़की के शीशों से टकराने लगीं। यह बारिश बहुत तेज़ नहीं थी, फुहार भर थी। धूल का उड़ना बंद हो गया था। कुछ देर बाद गाड़ी एक झटके से रुक गयी। 

“भाई साहब स्टेशन आ गया है।”

पापा हड़बड़ा कर उठे। तीनों बस से उतरने लगे।

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उसने पापा के कमरे में प्रवेश किया।

पापा के घने काले बाल अब पूरी तरह सफ़ेद हो गए थे। उनकी आँखों पर एक मोटा चश्मा था और उनका शरीर भी कुछ स्थूल हो गया था। वे कमरे के कोने में रखी अपनी रीडिंग टेबल पर बैठे कुछ लिख रहे थे। टेबल लैंप का प्रकाश मेज पर से परावर्तित होकर उनके चेहरे पर पड़ रहा था। शेष कमरे में मद्धिम प्रकाश था। मम्मी कमरे में पिता जी की पुस्तकों पर जमी धूल साफ़ कर रही थीं। 

वह भी तो अब एक दस वर्षीय बालक नहीं रह गया था। उसका एकहरा पुष्ट बदन बता रहा था कि वह अपनी उम्र के चढ़ाव पर है। उसके हाथ में एक निमंत्रण-पत्र था। 

“पापा आप यज्ञोपवीत संस्कार अटेंड करेंगे न?”

पापा ने मेज पर से अपना ध्यान हटाया और उसकी ओर मुखातिब हुए। 

“हाँ, सोच तो रहा हूँ। मगर स्वास्थ्य कुछ ठीक नहीं है। तुम्ही हो लो।” पापा बोले। 

“यह वहीँ हो रहा है जहां हमारा जनेऊ हुआ था?”

“हाँ… हाँ, वहीँ तुम्हारा भी सिर मूड़ा गया था।” पापा हल्का-सा मुस्कुरा दिए। माँ के चेहरे पर भी एक स्मित रेखा खिंच गयी। वह शर्मा गया। फिर वह भी हंसने लगा। फिर उसने अपने को सामान्य रखते हुए पूछा;

“पापा जब हम यज्ञोपवीत से लौट रहे थे तो आपको याद होगा कि हम नदी वाले रास्ते से आये थे।”

“हाँ,” पापा ने आश्चर्यपूर्वक कहा मानो उन्हें उसकी याददाश्त पर अचम्भा हुआ हो।

“तो पापा आपको याद होगा कि हमें रास्ते में सफ़ेद कपड़े पहने हुए एक औरत मिली थी। क्या आप उसे पहचानते थे?”

मम्मी के काम करते हाथ एकाएक रुक गए। हाथ में किताबें लिए पापा की ओर मुड़ीं। पापा हतप्रभ उसकी ओर देखने लगे। ऐसा लगा कि उसे शायद यह प्रश्न नहीं पूछना चाहिए था।

“नहीं, मैं नहीं पहचानता।” पापा ने सप्रयास उत्तर दिया। मम्मी भी ध्यानपूर्वक सुनने लगीं। उन्होंने हाथ में पकड़ रखी पुस्तकों को रख दिया।

“पापा आप उसे जरूर जानते रहे होंगे। वह आपसे इस तरह बात कर रही थी जैसे आप लोगों का पुराना परिचय हो।” उसने फिर पूछा।

मम्मी की भौहें जुड़ गयीं और एक प्रश्न-सा उनकी आँखों में झलक आया। पापा के चेहरे पर लैंप के प्रकाश में भाव तेज़ी से बदलते नज़र आये, मानो वे एक गहरी वेदना को दबाने की चेष्टा कर रहें हों।

“नहीं, मेरा उससे कोई परिचय नहीं था।” पापा ने काफी प्रयासों के बाद अपने स्वर को संयत किया। परन्तु इन शब्दों के पीछे छिपा विचलित मन चेहरे पर आ ही गया था। एक विचित्र-सा असहनीय सन्नाटा कमरे में लहरा उठा जिससे सब कुछ असामान्य-सा हो चला। 

“मगर पिता जी वह तो आपसे……”

पापा ने धीरे से लैंप की स्विच ऑफ कर दी। शायद इसलिए कि उनके चेहरे के भाव को कोई स्पष्ट न देख सके। कमरे में मद्धिम प्रकाश ही रह गया था, वातावरण को धुंधला छोड़ता।

“सौम्या,” पापा ने एकाएक मम्मी को संबोधित करते हुए कहा, “ये साइकोलॉजी के स्टूडेंट होते हैं न। सब ऐसी ही अजीबोगरीब बातें करते हैं।” और फिर वे हंस पड़े। पूरे कमरे में उनकी खोखली हंसी सबको निरस्त करती निकल गयी।

“तुम रहने दो।” उन्होंने उठते हुए कहा, “मैं खुद ही वहाँ चला जाउंगा। तुम्हारी परीक्षा भी तो करीब है।” उनका स्वर बेहद स्वाभाविक हो गया था। वे अपने सोने के कमरे की ओर बढ़ गए। मम्मी की प्रश्नवाचक निगाहें उनकी गति के साथ मुड़ती गयीं। पापा ने कमरे का दरवाजा खोला और अंदर जाने लगे। उसके मन में आया की पापा से कुछ और सवाल पूछता। 

परन्तु पापा कमरे में जा चुके थे और उन्होंने अंदर की चिटकनी चढ़ा ली थी। 

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