विपश्यना : जीवन-सत्य का अन्वेषण ~ डॉ व्यास मणि त्रिपाठी | इन्दिरा दाँगी के उपन्यास ‘विपश्यना’ की आलोचना | Critical review Indira Dangi's novel 'Vipshyana'


इन्दिरा दाँगी के उपन्यास ‘विपश्यना’ की आलोचना | Critical review Indira Dangi's novel 'Vipshyana'

विपश्यना : जीवन-सत्य का अन्वेषण

डॉ व्यास मणि त्रिपाठी

[अब तक 21 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनके अतिरिक्त  29  पुस्तकों  में सहलेखन।    साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली की साधारण सभा सहित कई संस्थानों-समितियों के सदस्य/दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन में ‘विश्व हिंदी सम्मान’ सहित कई पुरस्कार-सम्मान प्राप्त। संप्रति जवाहरलाल नेहरू राजकीय महाविद्यालय पोर्ट ब्लेयर, अंडमान के हिंदी विभाग में एसोशिएट प्रोफेसर तथा अध्यक्ष। | मोबाइल: 9434286189 ईमेल: tripathivyasmani@gmail.com ]


‘मैं कौन हूँ’, ‘क्यों हूँ’, ‘कहाँ से आया’, ‘कहाँ जाना है’ आदि प्रश्न तत्व-चिन्तकों और दार्शनिकों के लिए जितने अबूझ रहे हैं उतने ही साहित्यकारों के लिए भी। इनसे जूझने और टकराने का कार्य सदैव होता रहा है। संभवतः इन्हीं से जूझती हुई इन्दिरा दाँगी को भी ‘विपश्यना’ लिखने की ज़रूरत पड़ी हो। तभी तो उन्होंने चेतना के माध्यम से यह प्रश्न उठाया है-
“सच कहूँ तो मुझे बरसों से एक सवाल का जवाब नहीं मिल रहा है। चेतन, अचेतन, उसके होने की कुछ वजह है। मेरे होने की क्या वजह है ?” ( पृष्ठ संख्या 29 )
इस पर रिया कहती है-
“अपनेआप को खोजना तो ईश्वर को खोजना है। इस यात्रा के उस छोर पर रोशनी है।” 
फिर चेतना पूछती है-
“तो फिर मैं कौन हूँ जो उस छोर की रोशनी की तलाश में हूँ।” 
रिया जवाब देती है – 
“ये भी तुम हो। वो भी तुम हो। …अपनी ही कस्तूरी की तलाश में भटकते हिरन की तरह। जो भटक रहा है उसे अंत में पहुँचना अपनेआप तक ही है।”
यहाँ कबीर की याद स्वाभाविक है। कबीर ही क्यों पूरी भारतीय दार्शनिक परंपरा और अध्यात्म-चिंतन के मूल में ये ही प्रश्न हैं और समाधान के अनवरत अनिष्कर्षात्मक प्रयत्न। इंदिरा दाँगी का प्रयत्न भी कोई मौलिक एवं सार्थक निष्कर्ष दे सका हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता। हाँ, उनके यहाँ भी खोज का अनथक प्रयत्न है। चेतना उसे अपने ढंग से खोजती है और रिया अपने ढंग से। चेतना की खोज में स्त्री-विमर्श का पाथेय साथ है तो रिया की खोज में सफलता का उद्दाम उत्साह।

आलोच्य उपन्यास ‘परिन्दा बीहड़ों में’, ‘लव स्टोरी मत सुनाओ’,‘ पर्दा,जर्दा,गर्दा और नामर्दा’, ‘योग्य जन जीता है’, ‘मौसम बदलने के दिन’, ‘ विधवा कॉलोनी’, ‘गिद्ध भोज’, ‘पाइका फुड फ़ैक्ट्री’, और ‘विपश्यना’ उपशीर्षकों में विभक्त है। नवजात बच्ची के साथ रिया के भोपाल में अपनी सहेली चेतना के यहाँ पहुँचने से उपन्यास की शुरुआत होती है।

रिया और चेतना दोनों ही विवाहिता हैं। रिया को उसके पति ने तलाक़ देकर घर से निकाल दिया है जबकि चेतना अपने पति को छोड़कर भोपाल में स्वच्छंद जीवनयापन कर रही है। पति भी कैसा ? ऐसा पति जिसमें चेतना अपने पूरे वैवाहिक जीवन में कोई भी कमी नहीं ढूँढ पाई है। जिसे सुपारी तक का भी शौक़-ऐमाल नहीं है। जिसके शान्त, संस्कारित और समझदार व्यक्तित्व की प्रशंसा सभी रिश्तेदार, मित्र और परिचित करते हैं। ऐसे विराट आभामंडल वाले पति ज्ञान को छोड़कर चेतना भोपाल में जो जीवन जी रही है उसका वर्णन उसी के शब्दों में-
“मैं कमाती हूँ। फ़िल्म का आख़िरी शो देख कर देर रात अपनी कार से घर लौटती हूँ। पर्यटन स्थलों पर अकेली घूमती हूँ। डिस्कोथेक जाती हूँ। हर तरह के कपड़े पहनती हूँ। अपनेआप पर अपनी पूरी कमाई खर्च करती हूँ। जिस तरह पसंद है, उस तरह जीती हूँ। शादी मेरी नज़र में ग़ुलामी है इसीलिए मैं दिल्ली के अपने प्रोफ़ेसर पति, उसका फ़्लैट, प्लॉट, कार, ज्वेलरी वाली सब सुखोंदार ज़िन्दगी के पिंजरे से निकल कर आज़ाद चिड़िया की तरह यहाँ आ बसी हूँ। मैं एक ऐसी चिड़िया हूँ जिसे सिर्फ़ अपने पंखों पर भरोसा है, किसी डाल पर नहीं। मेरा एक मित्र है जो मेरी बौद्धिक और कभी दैहिक भी ज़रूरत पूरी करता है। मैं खाना नहीं पकाती।मैंने बच्चे नहीं पैदा किए। मैंने अपनेआप को उन सब बेड़ियों से आज़ाद कर लिया है जिन्होंने औरत को सदियों से लहूलुहान किया है।” (पृष्ठ 24-25 )
चेतना अपना यह आख्यान स्त्री-विमर्श के मंच से प्रस्तुत करती है। यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आज का स्त्री-विमर्श स्त्री को कौन सा पाठ पढ़ा रहा है ? आज़ादी के नाम पर स्वच्छन्द यौनिकता ही क्या स्त्री-विमर्श का ध्येय है ? पति को छोड़कर परपुरुष से दैहिक ज़रूरत पूरी करने में कौन सी नैतिकता है ? बच्चे पैदा नहीं कर सृष्टि के विकास में बाधा डालने के पीछे कौन सा षड्यंत्र है ? ज़ाहिर है इन्दिरा दाँगी ने व्यंग्य के धरातल पर स्त्री-विमर्श के नाम पर चल रहे अतिचार का पर्दाफ़ाश किया है।

इन्दिरा दाँगी ने चेतना के पति ज्ञान का जो व्यक्तित्व निर्मित किया है,वह यहाँ अवश्य पठनीय है-
“ज्ञान के जीवन में सिवाय चेतना के कोई स्त्री कभी न आई थी-वही पत्नी, वही प्रेयसी, वही साथी। एक स्त्री अपने पुरुष के जीवन में जो कुछ भी होती है या हो सकती है, वो सब कुछ थी चेतना ज्ञान के लिए।”( पृष्ठ-72 ) 
किन्तु चेतना के मन में उस बाबू के प्रति ज़्यादा आकर्षण है जो पहले से ही शादी-शुदा है। वह बाबू के बारे में रिया से कहती है –
“अरे यार ! कुछ मत पूछो। पहले तो सब कामों के बीच में उसके साथ वक़्त बिताना अच्छा लगता था लेकिन धीरे-धीरे मुझे उसकी इतनी आदत हो गई कि एक वो ही जैसे मेरा सबकुछ है दुनिया में। ऐसे में कभी जब वो आता है तो एक-एक पल में एक-एक ज़िन्दगी जी लेना चाहती हूँ।” (पृष्ठ-19 )

रिया जिस दिन भोपाल पहुँचती है उसी रात बाबू चेतना के घर आने के लिए फ़ोन करता है। चेतना चाहती है कि रिया कुछ देर के लिए उसे एकांत दे दे। रिया समझ जाती है कि उसे पाँच मिनट के अंदर सहेली के फ़्लैट से बाहर हो जाना होगा। बर्फीली हवा वाली जनवरी की रात के नौ बजे नवजात बेटी को गोद में चिपकाये रिया को सीढ़ियाँ चढ़कर पाँच मंज़िला के ऊपर छत पर जाना पड़ता है। खून जमा देने वाली सर्दी में कुछ देर छत पर इधर-उधर टहलती रिया को लगता है कि वह बर्फ़ की तलवार पर चल रही है। वह अपने मन को समझाती है कि बस थोड़ी ही देर की बात है। बाबू के चले जाने के बाद रिया का फ़ोन आयेगा और वह नीचे उसके फ़्लैट में चली जायेगी लेकिन वह अपनी नवजात बिटिया को कैसे समझाए जो ठंड के मारे लगातार रोये जा रही है। उसे लगता है कि बेटी रो रोकर मर जायेगी। वह नीचे उतर आती है। दरवाज़े पर खड़ी रिया को चेतना देख लेती है। उसने माँ-बेटी को अन्दर कर लिया और दरवाज़ा झट लगा दिया। वह नहीं चाहती कि पड़ोसी देखें कि बाबू आया हुआ है और इस वजह से उसकी सहेली को अपनी बच्ची के साथ छत पर जाना पड़ा है। भीषण ठंड के कारण रिया और उसकी बच्ची की हालत बहुत ख़राब देख बाबू बेचैन हो उठता है। थोड़ी देर रिया से बातचीत के बाद वह चला जाता है। इधर चेतना अपने बिस्तर की सिलवटें ठीक कर चुकी है 
“लेकिन फिर भी उसे लग रहा है कि सहेली को पता चल गया है कि अभी कुछ वक़्त पहले इस बिस्तर पर वो बाबू के साथ थी।” ( पृष्ठ-23 )
अब यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि नारी स्वतंत्रता पर लेख लिखनेवाली, नारी संगठनों के कार्यक्रमों में भाषण देनेवाली, लोकल टेलिविज़न चैनल पर डिबेट करनेवाली, वाइन पीनेवाली महिलाओं के कैफ़िटेरियाई स्त्री-विमर्श को आगे बढ़ाने वाली चेतना अपने इस वासना-प्रसंग के द्वारा समाज को कौन सी शिक्षा देना चाहती है ? जिसे वासना के उद्दाम आवेग में घर आयी सहेली और उसकी नवजात बच्ची की भी परवाह नहीं है, वह समाज के सम्मुख कौन सा आदर्श प्रस्तुत करना चाहती है ? स्वच्छंद यौनिकता में वह जीवन का कौन सा सत्य ढूँढना चाहती है? प्रशंसा करनी चाहिए इन्दिरा दाँगी की जिन्होंने स्त्री-विमर्श के नाम पर चलनेवाली विकृत मानसिकता और उसके षड्यंत्र को उजागर किया है। उनकी प्रशंसा इस अर्थ में भी होनी चाहिए कि उन्होंने वासना-प्रसंगों को उद्घाटित करतेसमय भाषा के सांकेतिक सामर्थ्य का अद्भुत सहारा लिया है। कहीं भी चटखारे लेने की प्रवृत्ति नहीं है।

स्त्री –विमर्श के एक और पहलू की ओर इन्दिरा दाँगी ने ध्यान आकृष्ट किया है-वह यह कि इस विमर्श के प्रवक्ता अपना निजी जीवन चाहे जैसा भी जियें लेकिन अगर कोई दूसरा थोड़ा भी स्वच्छंद जीवन जीना शुरू कर दे तो वह खटकने लगता है। रिया ने पाँचवीं मंज़िल वाली जोशी आँटी की मदद से अपना आधार और राशन कार्ड बनवा लिया है। इस पर चेतना का रिया पर किया गया यह व्यंग्य-प्रहार उसके चरित्र के दोहरेपन को ही नहीं बल्कि स्त्री-विरोधी स्वभाव को भी प्रकट करता है –
“दो-ढाई महीने की बच्ची को लिए अकेली, परेशान और हाँ, भरपूर जवान और खूबसूरत माँ दोपहर-दोपहर भर किसी दफ़्तर में खड़ी रहे तो कर्मचारी आधार-कार्ड या राशन-कार्ड ही क्या बनाते, तुम जो-जो कहतीं, सो-सो कर देते तुम्हारे लिए।” (पृष्ठ-51 )
मंचों पर स्त्री – विमर्श को लेकर धारदार भाषण करनेवाली चेतना का रिया के बारे में यह कथन कि 
“किसी मर्द का कन्ट्रोल नहीं रहा, तो हद आवारा हो गई है ! गृहस्थी में लॉक रहनेवाली औरतें अचानक मिली आज़ादी में ऐसी ही आवारा बदमाश हो जाती हैं।” ( पृष्ठ-52 )
चेतना के चरित्र को और भी हास्यास्पद बना देता है।

रिया का पति रंजीत चेतना के पति ज्ञान से बिल्कुल विपरीत है। आमिर के प्यार की रोशनी में रिया जब अपने अतीत के पृष्ठ पलटती है तब उसे लगता है कि उसने रंजीत के साथ कितने वर्ष व्यर्थ में बिता दिये। रिया को 
“आमिर के हाथों का स्पर्श याद आया। …उसके बाँहों की गर्मी महसूस हुई। दो पल के उस साथ में उसने जो अपनापन, प्यार और सुरक्षा महसूस की वो रंजीत के साथ इतने लंबे वैवाहिक जीवन में कभी न की थी। रंजीत बड़ी निर्ममता से,किसी वस्तु की तरह उसे प्रयोग में लेता था। उसने आमिर की तरह कभी उसके बालों को न चूमा था, कभी अपने हाथों से उसे कुछ न पहनाया था। …तो रंजीत को उससे कभी प्यार था ही नहीं ? ? इतनी आज्ञाकारी पत्नी होने के बाद भी मारपीट, बलात्कार और खाने-पहनने के अभाव तक सहे रिया ने उस घर में।” ( पृष्ठ-125) 

चेतना ने जान बूझकर अपना जीवन त्रासद बनाया है जबकि रिया का उसके पति ने। ज्ञान चेतना के लौट आने की प्रतीक्षा में है। वह उसके जीवन में वापस लौटती भी है लेकिन रिया के पति रंजीत ने दूसरी शादी कर उसे धक्के मारकर घर से निकाल दिया है। चेतना के जीवन में बाबू आता है और रिया के जीवन में आमिर। बाबू भी विवाहित है और आमिर भी। बाबू के साथ की 
“सुखद कल्पनाओं में चेतना ने ज़िन्दगी को उन दिनों जन्नत की तरह जिया। शराब पी। सिगरेट के पैकेट पर पैकेट फूँके। डिस्कोथेक गई। सुबह होने-होने तक रातें सड़कों पर काटीं। सेक्स में नये-नये प्रयोग किये। फ़िल्में और नाटक देखे। होटलों, रेस्तराँओं और ढाबों का खाना खाया। पुरुष सत्ता के ख़िलाफ़ मंचों पर ऐसे करारे भाषण दिए, लेख लिखे कि नाम और दाम दोनों मिले। एक घरेलू औरत की ठहरी ज़िन्दगी के विरोध में वो ख़ुद को जितना आवारा बना सकती थी, बनाया उसने। पुराना पिंजरे में बंद जीवन याद आता तो वो स्वतंत्रता-स्वच्छंदता के आसमान में और-और उड़ान भरने की कोशिश करती। इस स्वच्छंद जीवन का आधार था बाबू।” ( पृष्ठ-63 )
उधर रिया को 
“आमिर का साथ उसे किसी सुरक्षित खोह में होने का एहसास कराता है।” ( पृष्ठ-149 )
चेतना जिस बाबू के साथ उड़ रही थी जब उसने रास्ता बदल लिया यानी अपने परिवार (पत्नी और बाल-बच्चों ) के साथ अधिक समय बिताने लगा तब चेतना डिप्रेशन में चली जाती है। उससे उबरने के लिए गोलियाँ खाती है। मुल्तानी मिट्टी भूनकर खाती है। स्लेट पेंसिल भी खाती है। वह अपने को जीवन की परीक्षा में फेल हो जाने की भावना से ग्रस्त मानती है। रिया की नौकरानी आरती के यह कहने पर कि – 
“भगवान का दिया सबकुछ तो है आपके पास” चेतना दार्शनिक अंदाज़ में कहती है “सबकुछ का मतलब पता नहीं क्या होता है ? पहले भी सबकुछ था मेरे पास पति, गहने, सब घरेलू सुख-सुविधाएँ लेकिन … पता नहीं, ये क्या तलाश है और मैं आख़िर चाहती क्या हूँ ज़िन्दगी से ?”( पृष्ठ-75 )
इससे यह समझना कठिन नहीं है कि इन्दिरा दाँगी के इस उपन्यास का उद्देश्य जीवन-सत्य का अन्वेषण है। इस अन्वेषण में स्त्री-विमर्श को एक कारगर हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया है।

चेतना अपनी स्मृति में बाबू को बसाये रखकर आख़िरी साँस तक उससे प्यार करती रहने की बात रिया से बताते हुए उससे जब यह जानना चाहती हैकि उसका किसी से सच्चा प्यार हुआ है अथवा नहीं तब रिया कहती है –
“सच्चा प्यार ? पता नहीं, फ़िलहाल मैं मर्दों के बारे में नहीं सोचती। मैं बस अपने काम के बारे में सोचती हूँ और अपनी माँ को खोजना चाहती हूँ।” ( पृष्ठ-81 )
रिया को भोपाल में भोजन और छत की व्यवस्था करनी है, साथ में भोपाल गैस त्रासदी की शिकार अपनी माँ को ढूँढना है। इन्दिरा दाँगी ने उसको एक दृढ़ प्रतिज्ञ, कर्मठ,परिश्रमी और साहसी महिला के रूप में उपस्थित किया है। वह अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किसी भी तरह का परिश्रम करने से पीछे नहीं हटती। चेतना के व्यंग्य-बाण के बावजूद भी वह दूसरों के घर में खाना बनाने का काम करती है। तलाक देते समय पति रंजीत के द्वारा उसके खाते में डाले गए पैसों की मदद से वह फ़्लैट ख़रीदती है। माँ को ढूँढने के लिए पत्रकारिता की नौकरी करती है। इसी अख़बारी नौकरी के दौरान एक फ़ोटोग्राफ़र के रूप में आमिर उसका सहयोगी बनकर उसके जीवन में आता है लेकिन लेखिका ने इन दोनों के आचरण को चेतना और बाबू के आचरण में प्रविष्ट छिछोरेपन से थोड़ा मुक्त रखा है। पत्रकारिता की नौकरी के कारण रिया का अंकुरित दाने बेचने का उसका कुटीर उद्योग बंद हो गया था। इधर पत्रकारिता-जगत की गलाकाट प्रतियोगिता और तरह-तरह की विसंगतियों के चलते रिया को अख़बार की नौकरी छोड़नी पड़ती है। वह यह दलील देती है-
“अच्छा हुआ ये कॉलम बंद हो गया क्योंकि इसको लिखते हुए मैं अपनी माँ को खोजने भी नहीं जा पाती थी।”(पृष्ठ-114 ) 
किन्तु अब उसके सामने रोज़ी-रोटी की समस्या उत्पन्न हो गई है।

अब वह मिट्टी बेचने का काम शुरू करती है। रात-रात भर वह मुल्तानी मिट्टी पावडर, खड़ी मुल्तानी मिट्टी, भुनी मुल्तानी मिट्टी, खड़िया बत्ती, लाल मिट्टी, सफ़ेद मिट्टी, पीली मिट्टी और काली मिट्टी के सौ-सौ ग्राम के पैकेट्स बना उसमें हाथ से लिखा हुआ ‘पाइका फ़ूड फ़ैक्टरी’ की पर्ची डाल उन दुकानों में सप्लाई करने लगती है जहां पहले वह अंकुरित दाने सप्लाई करती थी। बाद में वह दुकान-दुकान सप्लाई करना छोड़ ख़ुद की एक फ़ैक्ट्री खड़ी कर लेती है। आमिर की मदद से वह अपनी रुग्ण, जर्जर, घावों, पीब और रिसते-छलछलाते ख़ून से तर हथेली वाली माँ को ढूँढने में भी सफल होती है। इस तरह इन्दिरा दाँगी ने रिया को एक परिश्रमी व्यक्तित्व के रूप में सफलता के सोपान चढ़ने वाली महिला के रूप में उभारा है। वह स्त्रियों के लिए एक अनुकरणीय चरित्र बन गई है। इस दृष्टि से ‘विपश्यना’ को स्त्री-सशक्तीकरण के एक पाठ के रूप में पढ़ने में कोई अनौचित्य नहीं है।

चेतना भोपाल और बाबू को छोड़कर अपने पति ज्ञान के पास लौट जाती है। लेखिका ने चेतना को उसके पति ज्ञान के पास भिजवाकर स्त्री-विमर्श का झंडा लेकर पति को कठघरे में खड़ा करने वाली स्वच्छंद आचरण वाली महिलाओं को भी एक संदेश देने की कोशिश की है – 
“मंच पर माइक लेकर बोलते समय नारी-स्वतंत्रता की बातें करना कितना सरल है और ज़िन्दगी में ज़िम्मेदारी से स्वतंत्रता का निर्वाह कितना कठिन ! तो क्या वो नारी-विमर्श का मंचीय संस्करण है और रिया असली ज़िन्दगी की सफलता …असली ज़िन्दगी, असली सफलता जहां न जेंडर कार्ड चलते हैं न मंचीय वाचालता,योग्यता के इम्तहान की असली ज़मीन ! तो क्या चेतना नारी-विमर्श के अपने सब मुखौटे समेटे असफल होकर लौट रही है और रिया इस ज़मीन पर टिक सकी असली विजेता है?” ( पृष्ठ-85 )
चेतना इधर-उधर भटकने तथा धर्म, दर्शन,मनोविज्ञान आदि की सैकड़ों पुस्तकें पढ़ने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँची है कि जीवन की सच्चाई को उसके वास्तविक रूप में स्वीकारना विपश्यना है जिसकी साधना से बुद्ध को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी। इसी के आलोक में चेतना को यह महसूस होता है कि 
“जीवन का सबसे बड़ा सत्य है-खुश रहना और ये  साकार होता है-दूसरों को खुश रखने से।” (पृष्ठ-86)
दिल्ली में वह अपने पति ज्ञान के साथ मिलकर एक विकलांग बच्ची को गोद लेकर सेवा का व्रत लेती है जिस पर रिया कहती है 
“तो आख़िर तुमने जीवन का सार जान ही लिया। सेवा ही सबसे बड़ा सत्य है। तुम्हारी विपश्यना पूरी हुई।”(पृष्ठ-147)
इस तरह इन्दिरा दाँगी का यह उपन्यास जीवन-सत्य को पाठकों के समक्ष रखनेमें पूर्ण सफल है। पठनीयता इसकी सबसे बड़ी विशेषता है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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