मृदुला गर्ग की कहानी — सितम के फ़नकार | Hindi Short Story Writers: Mridula Garg


Hindi Short Story Writers: Mridula Garg

गारत हो दिमाग़! कमबख्त डिश कहीं की हो, क्या फ़र्क़ पड़ता है। पर दिमाग़ है कि सबकुछ नोट किये बिना मानता नहीं, बस जीवन की मुफ़लिस-सी आवाज़ में बयान किये तबील ब्यौरे ही दस्तक नहीं दे पाते।

सितम के फ़नकार

— मृदुला गर्ग


खाने की मेज़ के पास, जिस कुर्सी पर मैं बैठी थी या कहना चाहिए कि जिस कुर्सी पर, बतौर हिन्दुस्तान से आए मेहमान, जीवन वर्मा ने इसरार करके मुझे बिठलाया था, उसके ठीक सामने, दीवार पर एक लम्बा-चौड़ा चित्र टंगा हुआ था। 40X30 इंच का; इतना बड़ा कि भरसक कोशिश करके भी, उससे नज़र हटाई नहीं जा सकती थी। दाएं–बाएं जितनी दूर तक आँखों को घुमाया जा सकता था, घुमा लेने पर भी नज़र चित्र से फिरती न थी; कोई न कोई हिस्सा दृष्टि में समाये रहता था। आप कहेंगे नज़र फेरने की ज़रूरत क्या थी? उम्दा मेहमाननवाज़ी की रिवायत है कि मेहमान को दीवार पर जड़ी बेशक़ीमती पेन्टिंग के सामने बिठलाया जाए। जानती हूँ। जापान तक हो आई हूँ, जहाँ ऐसी हर रिवायत को बिला शर्त, बिला बहस अंजाम दिया जाता है। मेहमान के महत्व का अंदाज़ा इसीसे लगाया जाता है कि उसकी कुर्सी, कमरे की एकमात्र बेहतरीन पेन्टिंग, पुष्प सज्जा या अन्य कलाकृति से कितनी दूर और किस कोण पर है। कलाकृति मूर्ति हो, पेन्टिंग हो या फूलों की सजावट, होती कमरे में एक ही है, जिससे इधर-उधर ताक कर, उससे बेनियाज़ न हुआ जाए। पर इस वक़्त मैं जापान नहीं अमेरिका में थी। न्यू यॉर्क के एक मंहगे, आलिशान सबर्ब में। घर न जापानी का था, न अमरीकी का, बल्कि विशुद्ध भारतीय का था। विशुद्ध माने जन्म से... पर क्या अमरीकन नागरिक बन चुके एन.आर.आई या प्रवासी भारतीय को हम विशुद्ध कह सकते हैं, भले जन्म से? अमरीका में नई-नकोर दूसरी ज़िन्दगी मिलती है न? खालिस अमरीकी कहलवाने की क़शिश और कोशिश, क्या कुछ नहीं करवा जाती! फिर भी मेरे मेज़बान, जीवन वर्मा, बेचारे क़िस्मत के मारे, थे जन्म से विशुद्ध भारतीय। माँ भारतीय, पिता भारतीय, नाना-नानी, दादा-दादी भी भारतीय। दूर-दूर तक विदेशी ख़ून का कतरा उनकी वंश वेल में दाख़िल नहीं हुआ था। यह सब बकवास मैं क्यों सोचे जा रही थी? मैं नस्ली शॉविनिस्ट नहीं हूँ, बिल्कुल नहीं; न कभी थी, न कभी हूँगी। मेरे ज़्यादातर दोस्त-अहबाब मिली-जुली नस्ल के औरत-मर्द हैं; इस तरह कि उनके माँ-बाप अलग-अलग मुल्कों और क़ौमों के बाशिन्दे हैं। उस वक़्त ये फ़िज़ूल ख़ुराफ़ात सोचने का मकसद था, चित्र से ध्यान हटाना। बार-बार एक ही विचार मन में कौंध रहा था। इसे खाने की मेज़ के सामने लगाने की क्या तुक थी? घर में और कहीं जगह नहीं मिली? मेरे हाथ में होता तो कहीं भी न लगाती। जानबूझकर मैं न चित्र को ज़ेहन में उतार रही थी, न नज़रअंदाज़ कर रही थी। जो हो रहा था, ख़ुद-ब-ख़ुद हुए जा रहा था। उस चित्र की फितरत ही ऐसी थी। उसे नज़र की ओट न कर पाने की ख़लिश, मुझे निवाला नहीं निगलने दे रही थी। बेख़्याली में जो एक-दो लुक्मे शुरु में खा लिये थे, उनसे इतना कह सकती थी कि जो बना था, ठीक-ठाक था। उतना लज़ीज़ नहीं जितना मेज़बान ने उसकी तारीफ़ में फ़रमाया था पर बेस्वाद कतई नहीं। जीवन वर्मा ने बड़ी आज़िज़ी से मुझे समझाया था कि वह तेल में सना, ज़रूरत से ज़्यादा पका बेहूदा हिन्दुस्तानी व्यंजन नहीं बनाने जा रहा था। यह ज़रूर कोई युरोपीय डिश होगी, पास्ता-वास्ता जैसी आम फ़हम नहीं, एकदम गूरमे... क्या तो नाम लिया था उसने... चिमीचुर्री? उसने जो कहा हो, मैंने वही सुना था और दुबारा नाम पूछने की हिम्मत नहीं हुई थी। जो भी वह थी, बढ़िया ही बनी होगी, इतना गुमान मुझे था। अगर मुझे उतनी लज़ीज़ नहीं लग रही थी जितनी लगनी चाहिए थी तो क़सूर, पकाने वाले या पके हुए का नहीं, मेरी ज़बान की कमतरी का था। फिर भी यानी उस कमतरी के बावजूद, न खा पाने लायक़ उसमें कुछ नहीं था। न ज़्यादा लहसुन, न बैंगन, न नाक़ाबिले बर्दाश्त अफ़लातूनी महक। हाँ, कुछ कच्ची ज़रूर थी पर क्योंकि जीवन पहले ही बतला चुका था कि ज़रूरत से ज़्यादा पकाना, हिन्दुस्तानी बेहूदगी की निशानी थी, इसलिए कचास से नज़र चुराने में मैं कामयाब हो गई थी। पशेमां जो कर रहा था, वह नज़र में गड़ा, सामने दीवार पर टंगा, 40 x 30 इंची चित्र था।         

एक बार सोचा पूछूँ, क्या मैं कुर्सी बदल सकती हूँ? पर पूछा नहीं। सोच पूरा भी नहीं हुआ कि वह बेहूदा सवाल करने से चेत गई। मेज़ के इर्द-गिर्द सिर्फ़ मेज़बान दम्पत्ति, जीवन और सुरुचि नहीं, दो और मेहमान बैठे थे, जीवन के दोस्त मुरलीधर गुप्त और उनकी बेटी सपना। कुर्सी बदलने को कहती तो उसीसे, जो चित्र के बाज़ू बैठा था, सामने नहीं। यानी मेज़बान-पत्नी सुरुचि से या मेहमान मुरलीधर गुप्त से। मेज़बान मर्द की बगल से उठ कर मेहमान मर्द की बगल में जा बैठना अभद्र लगता, नहीं? ख़ास कर जब मैं वहाँ बिला शौहर बैठी थी, अकेली औरत। अभद्र कहलवा भी लेती पर जानती थी, जीवन उसे बेहूदा हिन्दुस्तानियत कह कर नवाज़ेगा। “हाँ-हाँ ज़रूर। जानता हूँ, हिन्दुस्तान में उठने-बैठने के तौर-तरीकों को तरजीह देने का रिवाज नहीं है।”

न मुझे हिन्दुस्तानी होने से एतराज़ था, न बेहूदा होने से। पर बेहूदा हिन्दुस्तानियत से नवाज़ा जाना कुबूल न था।

लिहाज़ा मैं सुनहरे बेल-बूटे वाली बोनचाइना की प्लेट पर नज़रें गड़ाये चिमीचुर्री नामक या भ्रामक व्यंजन के टुकड़े इधर-उधर घुमाती बैठी रही।

“कैसी बनी है?” सुना जीवन पूछ रहा था। जी, सुरुचि नहीं, जीवन। सबसे पहली बात उसने यही कही थी, “पोंगापंथी हिन्दुस्तानियों की तरह यहाँ मर्द खाना पकाने या घर का  काम करने से परहेज़ नहीं करते। पर चूंकि मैं पकाता बढ़िया हूँ, इसलिए वही करता हूँ; मोटे-झोटे काम सुरुचि निबटा लेती है।”

“शेफ़ हैं शेफ़!” सुरुचि ने कहा था, दाद दे कर या तंज़ से, स्पष्ट नहीं हुआ था।

ज़ाहिर था, शेफ़ की बनाई डिश में दिलचस्पी शेफ़ की ही होगी।

“कैसी बनी है?” उसने दुहराया तो मुझे अपनी बदतमीज़ी का अहसास हुआ; जवाब देने के बजाय मैं बदबख्त यह सोच रही थी कि जब मुझे यही नहीं पता कि बनने पर उसे कैसा लगना चाहिए तो यह कैसे बतलाऊं कि बनी कैसी है? हिन्दुस्तानी पूरी-तरकारी, हलवा, छैना पायस, ढ़ोकला, इदली, भरवां करेला होता तो कह सकती थी, तला या भुना ठीक था कि नहीं, मुलायम या करारा कम-ज़्यादा था; मिर्च मसाला तीखा या फीका था। पर यह उन जैसा बेहूदा व्यंजन नहीं था। पता नहीं इसे कम या ज़्यादा भूना या उबाला गया भी था या नहीं? कहीं रेयर बीफ़ की तरह कच्चा का कच्चा तो नहीं पेश कर दिया गया? अब मुझे नीची नज़र भी उबकाई आने को हुई। किसी तरह भेंगी नज़र से, न यहाँ न वहाँ देख, खासे नाटकीय अंदाज़ से कहा, “सुपर्ब!”

पता नहीं क्या ग़लती हुई कि सुरुचि खिलखिला कर हँस दी, बोली, “सब यही कहते हैं, टेन्डर्लोइन है जनाब!” अचरज कि इतनी खिली-खिली हँसी में भी व्यंग झलक सकता है। हो सकता है मेरे फितूरी दिमाग़ को लगा हो।

जीवन ने एक जलती नज़र उसकी तरफ़ फेंक कर मुझसे कहा, “इतने बरस हो गये पर सुरुचि अब तक अपनी माँ के बनाये आलू के पराँठों और दही भल्लों की मुरीद है। बेचारी उनसे ऊपर उठ ही नहीं पाई। बनाती भी वही सब है।”

“हैं क्या?” मैंने दबी ज़बान से सुरुचि से पूछा। “बाद में”,  उसने चुपके से जवाब दिया।

“टेन्ड्रलोइन क्या होता है, बीफ़ तो नहीं?” मैंने ज़बान कुछ और दबाई।

“नहीं, जीवन पक्के हिन्दु हैं। यह वाला टेन्डर, चिकन चिमीचुर्री का है, हेल्थ की ख़ातिर कुछ भाजी-तरकारी भी मिला दी गई है।” वह फिर तंज़िया हँसी हँसी।

चिकन तो ठीक है, चिमीचुर्री क्या होता है, मैंने नहीं पूछा; जीवन बुरा मान जाता। मुझे यक़ीन था उसने काफ़ी विस्तार से उसके बारे में व्याख्यान दिया होगा; मेरा ही ध्यान इधर-उधर बिला गया होगा। जब भी वह भारतीय काहिली, गरीबी, पिछड़ेपन के हवाले से अमरीकी ज्ञान-विज्ञान, आर्थिक विकास, आरामदेह रहन-सहन के कसीदे काढ़ते हुए, अमरीकी हेल्थ फूड और युरोप के गूरमे खान-पान तक आता, मेरा ध्यान पहले चरण पर ही बिला जाता, कमबख्त मैं हिन्दुस्तानी, हिन्दुस्तान में अटकी रह जाती, गूरमे छोड़, हेल्थ तक कान में न पड़ता।

मैंने फिर आँखें प्लेट पर टिकाईं और चिकन चिमी की चुर्री बनाने में लगी। पर लाख न चाहने पर भी नज़र बार-बार चित्र की तरफ़ जाती रही।

“आप हिन्दुस्तान की किस स्टेट से हैं?” कानों में पड़ा, मुरलीधर गुप्त पूछ रहे थे।

जवाब देने के लिए उनकी तरफ़ देखना लाज़िमी था। मतलब, चित्र को भी देखो। अनदेखा करने की कोशिश में मनोयोग से चिकन चिमीचुर्री मुँह में डाली और उचारा, “उत्तर प्रदेश...कानपुर।”

“हम भी यू.पी के हैं, “उन्होंने ऐसे कहा जैसे उत्तर प्रदेश को यू.पी बना कर, उस पर और मुझ पर करम कर रहे हों। 

“मेरा ख्याल था, आप अमरीका, न्यू यॉर्क से हैं”,  मैंने कहा।

वे तृप्त भाव से बिहँसे मानो महानता का तमगा पहना दिया गया हो।

“मैं अपनी पत्नी को केरल के आश्रम में छोड़ कर आया हूँ, आप कभी गई हैं वहाँ?”

आश्रम में! क्यों? वे तो बूढ़े नहीं लगते कतई, यानी पचास के आसपास होगी उम्र। फिर पत्नी क्योंकर बूढ़ी होंगी? हो भी सकती हैं; मान लीजिए कि वे खाती हों हिन्दुस्तानी बेहूदगी और ये, अमरीकन हेल्थ फूड! तब वे पचास में साठ की लग सकती हैं और ये सत्तर में पचास के। मगर ये चिकन चिमीचुर्री तो हेल्थ फूड नहीं गूरमे है (किस मुल्क की, ठीक से सुना नहीं, पर इतालवी या फ्रान्सीसी नहीं है, इतना अहसास उसके तबील तब्सिरे से है)। जैसे मुरलीधर उस पर हाथ साफ़ कर रहे थे, क्या हरिद्वार का कोई पण्डा करता। ग़ौरतलब बात यह थी कि उन्हें चित्र नहीं देखना पड़ रहा था। देखते भी तो ज़रूरी नहीं था कि मेरी तरह खाने से बेरुख़ी हो जाती। अपनी फ़ितरत दूसरों पर क्यों थोप रही हूँ? छोड़ परे; दूसरे सवाल पर ध्यान दे, आश्रम में छोड़ा क्यों और छोड़ा तो उत्तर प्रदेश छोड़ केरल में क्यों?

“केरल गई हो कभी?” मेरी तन्द्रिल हालत का जायज़ा ले, सुरुचि ने सवाल दुहराया; मेरा नहीं उनका। मैंने तो सोचा भर था, पूछा नहीं। लगा, सुरुचि अनकहे को सुनने में खासी उस्ताद थी।

“हाँ गई हूँ। कोच्चि, तिरुवनन्तपुरम, कोषिक्कोड।”

“हम तो सिर्फ़ कोचिन, त्रिवेन्ड्रम और कालीकट गये हैं।”

“एक ही बात है, ये उनके मलयाळम नाम थे और अब भी हैं।”

“होंगे।” उन्होंने कन्धे उचकाये, “हम अंग्रेज़ी नाम ही जानते हैं।”

“ज़ाहिर है”,  मैंने हँसी रोकी और सुरुचि की तरफ़ देखा। वह ज़रूर हँस रही होगी। पर नहीं; वह बिल्कुल संजीदा थी, शर्मसार और ग़मगीन, हँसी से कोसों दूर। प्लेट में नज़रें गड़ाये, चिकन चिमी की चुर्री बना रही थी।

“उन्हें टर्मिनल कैंसर है”,  वह मेरे कान में धीमे से फुसफुसाई कि मुरलीधर ने उसी बात को ज़ोर से उचार दिया।

मैं सकते में आ गई। न चाहते हुए भी मुँह से निकल गया, “वहाँ कौन है उनके पास?”

सोचा पत्नी वहाँ मर रही है तो पति यहाँ बैठा चिकन चिमीचुर्री क्यों उड़ा रहा है? आख़िरी वक़्त में उसके पास क्यों नहीं है?

“सच्चिदानन्द आश्रम के तमाम लोग हैं। त्रिवेन्ड्रम का वह नेचुरोपैथी आश्रम दुनिया भर में मशहूर है।”

“वहाँ जाने से पहले हमने गूगल करके उसके बारे में सबकुछ मालूम कर लिया था, “बेटी सपना ने सगर्व जोड़ा।”

“वे एकदम नेचुरल तरीके से उनका इलाज कर रहे हैं, बिना पेनकिलर्स, ड्रग्स, कीमो, रेडियशन वगैरह।”

“पर दर्द? दर्द और अकेले!” मैं लफ़्फ़ाज़ हिन्दुस्तानी बेहूदगी पर उतर आई।

“वै हैं न? वे कहते हैं मन पर अंकुश रखो तो दर्द से भी छुटकारा मिल सकता है।”

“मिला?”

“शायद”,  उन्होंने कौंचा-भर चिकन चिमीचुर्री अपनी प्लेट में और पलटी। सॉरी, कौंचा नहीं सर्विंग स्पून।

“आप उनके पास क्यों नहीं हैं”,  मेज़ के नीचे जीवन के पैर के टोहके को नज़र अंदाज़ करके मैं लगी रही।

“यह उनका प्राइवेट मामला है”,  जीवन ने फुसफुस करके घुड़का।     

जीवन की चीं-चीं आवाज़ मुरलीधर की दमदार आवाज़ के नीचे दब गई, “मैं! “मैं कैसे जा सकता हूँ! इतना बड़ा बिज़नेस है, सिर खुजाने की फ़ुर्सत नहीं है। केरल तक आने-जाने में पन्द्रह दिन खप गये। कितना नुकसान हुआ! रात-रात जग कर काम किया तब जा कर भरपाई हुई।” 

“और तुम?” मैं बेटी से मुखातिब हुई।

“मैं?” वह जैसे आसमान से गिरी, “मैं अपनी कम्पनी के पी.आर विभाग की हेड हूँ। साल में कुल पन्द्रह दिन की छुट्टी मिलती है।”

“यह हिन्दुस्तान नहीं है कि जब चाहो छुट्टी मार कर बैठ जाओ। यहाँ जितनी छुट्टी मिलने का नियम हो, उतनी ही मिलती है। भाई-भतीजावाद नहीं चलता।” जीवन ने तुर्श सुर में बाधा दी पर सपना अपनी रौं में कहती गई, “इस साल सारी छुट्टी केरल में बिताई। एक दिन के लिए रिलेक्स करने कहीं नहीं गई। मन ही नहीं हुआ। इससे ज़्यादा मैं क्या कर सकती हूँ”,  अंतिम बात तक आते-आते वह रुआँसी हो गई। “मैंने कहा था ममी को यहीं रहने दें, पेन मेनेजमेन्ट कितना विकसित हो गया यहाँ। नर्स रख लेंगे, रात दिन की अलहदा, दो। और वीकएण्ड पर तो हम, कम से कम मैं उनके पास रह सकती हूँ। पर डैडी ने कहा, वहाँ स्प्रिचुअल अप्रोच है, सेवा भाव है, उनकी नेचुरल पद्धति युनीक है और...और हो सकता है... वहाँ वे ठीक हो जाएं। उन लोगों की ईश्वर पर आस्था है, इसलिए ईश्वर की भी...उन पर... अनुकम्पा हो...ती ...है...” अब वह रो ही तो दी।

मुरलीधर ने बहुत प्यार से एक कौंचा चिकन चिमीचुर्री उसकी प्लेट पर उलटाई, कहा, “कितनी लाजवाब बनी है, नहीं, अर्जन्टीना के “पारिल्ला” में भी नहीं मिलेगी।”

ओह तो अर्जन्टीना की डिश है यह! गारत हो दिमाग़! कमबख्त डिश कहीं की हो, क्या फ़र्क़ पड़ता है। पर दिमाग़ है कि सबकुछ नोट किये बिना मानता नहीं, बस जीवन की मुफ़लिस-सी आवाज़ में बयान किये तबील ब्यौरे ही दस्तक नहीं दे पाते।

“मैंने ग़लत क्या कहा था। वे लोग एक पैसा नहीं लेते; निस्वार्थ सेवा करते हैं, आध्यात्मिक हैं, यहाँ जन्मी तुम्हारी पीढ़ी को क्या मालूम। भूल चुकी सब कुछ। अरे मिलियन डॉलर खर्च करके भी हम उन लोगों जैसा सेवा भाव और परमात्मा पर आस्था नहीं ख़रीद सकते।” वे सपना को समझा रहे थे।

“असल बात पैसा नहीं, यह है कि कुछ फ़ायदा है कि नहीं?” मैंने कहा।

“कैसी भारतीय हैं आप! आस्था पर विश्वास नहीं करेंगे तो फ़ायदा होगा कैसे? पॉज़िटिव वाइब्स भेजनी होती हैं रोगी के पास, एक-एक आदमी को, जिससे उसकी मानसिक और आत्मिक शक्ति सबल-प्रबल हो सके, शरीर को नीरोग कर सके।”

“पर दर्द?”

“हाँ डैडी, दर्द? हम जानते भी नहीं उन्हें कितना दर्द है।”

“जान कर क्या होगा? उन्होंने कहा था न, एक समय आएगा जब उनका मन-मस्तिष्क ईश्वर में स्थित हो जाएगा और वे स्वयं पीड़ा से अनभिज्ञ हो जाएंगी।”

ज़ाहिर था वे शुद्ध हिन्दी में उनके कहे शब्द दुहरा रहे थे; पता नहीं वाक़ई उन पर आस्था थी या सपना को फुसला रहे थे। या अपने को?

सपना बेख़याली में बहुत जल्दी-जल्दी, बिना चखे, चिकन चिमीचुर्री निगल रही थी।

जीवन अपनी करिश्माई डिश की बेनियाज़ी को घूर रहा था पर सपना उसकी नज़र से बेअसर, आँखों में आँसू संजोये, चम्मच भर-भर कर ठूंस रही थी। तभी सुरुचि ने अपनी आधी भरी प्लेट आगे खिसका कर आहिस्ता से कहा, “मुझे नहीं खाना।”

उससे बल पाकर मैंने भी हौले से अपनी प्लेट इंच भर आगे की, कहा, “मुझे भी।”

“दिमाग़ ख़राब हो गया है तुम लोगों का।” जीवन ने चीखना चाहा पर तुनक कर रह गया। “प्लीज़ खत्म करो”,  उसने घिघिया कर जोड़ा”,  पता है कितनी मेहनत की मैंने, कितनी कला लगी है इसे बनाने में?” सुरुचि पिघली नहीं बल्कि उसके चेहरे पर वितृष्णा की परत पुत गई। उसे महसूस कर, जीवन हिंसक हो उठा।

बोला, “हिन्दुस्तान में इंसान की ज़िन्दगी की कीमत क्या है जो वे लोग एक आदमी की मौत को ले कर परेशान होंगे! उनके लिए जीवन-मृत्यु ईश्वर की इच्छा है, माया है, नियति है। संसार क्षण-भंगुर है, जो आता है, जाता भी है फ़लसफ़ा झाड़ कर अलग हो जाएंगे।”

“अलग हम हो रहे हैं, वे नहीं। वे तो सेवा कर रहे हैं”,  सुरुचि तंज़ से आगे बढ़ गई।

“हाँ-हाँ मालूम है। अंतिम समय जान कर सेवा कर रहे है, अपना परलोक सुधारने को, उनकी ज़िन्दगी बचाने की ख़ातिर नहीं।”

“किसने कहा!” अब बारूद-सा फटने की बारी सपना की थी। “हम उन्हें वहाँ मरने के लिए नहीं छोड़ कर आये, ठीक होने के लिए भेजा है।”

“पिछड़े हिन्दुस्तान में! ज़िन्दगी की वहाँ क्या कीमत है, जानती नहीं? कम अज़ कम तुम्हारे डैडी तो बख़ूबी जानते हैं। याद है इस चित्र को देख कर क्या कहा था तुमने?”                         

“छोड़ो, उसकी क्या बात...” आवाज़ का दम घोट कर मुरलीधर ने मिन्नत की।

“भूल गये? कोई बात नहीं, याद दिला देता हूँ। तुमने कहा था, यह हिन्दुस्तान की बर्बरता की एकदम सही तस्वीर है। साले बड़े स्प्रिचुअल बने फिरते हैं, बकवास! अपने मतलब के लिए सैंकड़ो-हज़ारों की जान ले सकते हैं, यह फ़लसफ़ा झाड़ कर कि मरना तो उन्हें एक दिन था ही। प्रभु इच्छा! हम क्या कर सकते हैं! अवसरवादी बास्टर्ड्स! आयुर्वेदिक डिस्पैन्सरी खोल कर, उन्हीं के मुफ़्त इलाज करने का दिखावा करते हैं, जिन्हें बेघर करके करोड़ों कमाये थे। कोई पूछे, अगर आयुर्वेद में इतनी ताक़त है तो ख़ुद एलोपैथिक इलाज क्यों करवाते हैं, तमाम सत्तासीन अमीर जन!”

“डैडी!” सपना ने कातर स्वर में गुहार लगाई।

“बोलो, कहा था कि नहीं?”

“कह दिया होगा। बहस में आदमी बहुत कुछ कह जाता है...पर मेरा विश्वास...”

“कचरा विश्वास! हर हिन्दुस्तानी की तरह तुम भी हिपोक्रिट हो!”                     

“पर यह चित्र आपने खाने की मेज़ के सामने क्यों लगा रखा है?” अब जाकर मेरे मुँह से फूटा।

“क्यों उबकाई आती है? सच देखने की कूवत नहीं है! नज़रें फेर कर भकोसना चाहते हो? जैसे चौराहे पर भीख माँगते बच्चों और विकलांगों से नज़रें फेर कर मोबाइल पर केक आर्डर करते हो!”

मेरे कण्ठ से आवाज़ नहीं निकली। हतप्रभ सपना भी चुप रही। सुरुचि ने हिम्मत करके मीठे स्वर में कहा, “छोड़ो भी। अब कोई खुशनुमा बात करते हैं। पता है जीवन ने लेमन सूफ़्ले बनाया है। देर हुई तो बैठ जाएगा। बड़ी नाज़ुक डिश है।”

“सोनिया!” जीवन ने सीधा मुझे धर पकड़ा, “जानना नहीं चाहतीं चित्र है कहाँ का? बूझो कहाँ का है?”

“मुझे नहीं पता”,  मैं मिमियाई।

“सूरत का है, 2012 की बाढ़ का। बहुत लोग डूब गये थे, “सुरुचि बीच में कूद गई।” मैं सूफ़्ले ले कर आती हूँ।”

“नहीं, मैं ख़ुद लाऊंगा। अभी समय है। बाढ़ आई क्यों वह भी तो बतलाओ। डैम को बचाने की ख़ातिर पानी, शहर की निचली ग़रीब बस्तियों और गाँवों की तरफ़ छोड़ दिया गया था। दो हज़ार, एक सौ पिचासी लोग डूब कर मर गये थे। उसीकी फोटो है यह। देखो, कितने लोग मरते दिख रहे हैं। गिनो। एक-दो-तीन... गिनती जाओ...देखो वे बच्चे हैं, वे बूढ़े मर्द-औरत, वे गर्भवती औरतें, देखो वह वाली पूरे नौ महीने की लगती है। देखा।”

जिसे नहीं देखने का नाटक करती रही थी, उसे अब रेशा-रेशा साफ़ देख रही थी। 40x30 इंच के चित्र का हर मिलिमीटर लाश बनते इंसान की शक्ल ले चुका था। चित्र बेआवाज़ था पर मुझे बेपनाह चीखोपुकार सुनाई दे रही थी। बेहरकत था पर उसमें बसी  छटपटाहट साफ़ दिख रही थी, इतनी कि हर मौत को मैं अलग महसूस कर रही थी। सामूहिक नरसंहार, रेशा-रेशा मेरे सामने घटित हो रहा था। चुम्बकीय आकर्षण से बँधी, चित्र पर आँखे गड़ाये मैं, निस्तब्ध उसे देखे जा रही थी।

“इसके फोटोग्राफ़र केरल के मशहूर चित्रकार श्रीनिवासन हैं। बढ़िया कलाकृति है न? जैसे फ़ोटो न हो कर पेन्टिंग हो। एक बात है, केरल में और जो हो-न-हो, कला ज़बरदस्त है, क्यों सोनिया?” मैंने कुछ नहीं कहा पर सपना कुर्सी पीछे धकेल, खड़ी हो गई। “चलूँगी, “उसने सपाट लहज़े में कहा, “दफ़्तर में काम है।”

“बैठो”,  जीवन ने हुक्म दिया। उसकी आवाज़ में गज़ब का रौब था, “मैं सूफ़्ले ला रहा हूँ, बहुत नायाब रेसिपी है, उसे बनाना जीनियस कारीगिरी की माँग करता है, इस चित्र की तरह। नियंत्रण ज़रा बिगड़ा नहीं, सामग्री का बेलेन्स गड़बड़ाया नहीं, पानी की मिकदार बढ़ी नहीं कि सूफ़्ले कोलाप्स हुआ। खाये बग़ैर नहीं जा सकतीं तुम!” वह रसोई में चला गया।

सपना बैठी नहीं पर जाने के लिए क़दम आगे नहीं बढ़ाये; मूर्तिवत खड़ी रही। हम सब भी क़हर के अहसास से थर्राए, चित्र की तरह विचल-अविचल बैठे रहे। 

मृदुला गर्ग
ई 421(ग्राऊंड फ़्लोर) ग्रेटर कैलाश -2
नई दिल्ली 110048
फ़ोन 01129222140
ईमेल mridula.garg7@gmail.com


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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