tag:blogger.com,1999:blog-7457103707258421115.post4048801246078715121..comments2024-03-29T09:31:38.264+05:30Comments on Shabdankan शब्दांकन: रवीन्द्र कालिया - दस्त़खत (नवम्बर 2013) | Ravindra Kalia - Dastakhat (Nov 2013)Bharathttp://www.blogger.com/profile/09488756087582034683noreply@blogger.comBlogger1125tag:blogger.com,1999:blog-7457103707258421115.post-3696358597137756512013-11-08T11:52:58.858+05:302013-11-08T11:52:58.858+05:30भरत जी इस आपाधापी भरे जीवन में जहाँ घर को चलाने कि...भरत जी इस आपाधापी भरे जीवन में जहाँ घर को चलाने कि ज़द्दोज़हद में दिन कहाँ निकल जाता हैं पता नहीं चलता ,पेट्रोल के बढे हुए दाम बार बार यात्रा करने से रोकते हैं ,राशन के सब्ज़ियों के बढे दाम मित्रों कि दावतों और महफ़िलो को ही खाने लगे हैं ,बच्चों के वीकली टेस्ट मनोरंजन के अन्य साधनो का प्रयोग करने नहीं देते वहॉ फेसबुक और अन्य सोशल साइट्स हैं जो थोड़ी देर के लिए दोस्तों कि महफ़िल में ले आती हैं सब के मन कि बात सुनने और अपने मन कि कहने का अवसर मिलता हैं न पेट्रोल का खर्चा हैं न चाय नाश्ते के दौर हैं न समय कि कोई पाबन्दी हैं ,न जगह कि समस्या न दूरी ही मायने रखती हैं दुनियाँ के इस शोरगुल में यदि कुछ पल सुकून के मिले तो बुरा क्या हैं हाँ रवीन्द्रजी कि एक बात से सहमत हूँ कि लत चाहे किसी भी चीज़ कि हो बुरी हैं <br />लेकिन थोड़ी देर बंद मकान कि खिड़की खोलकर मित्रों के अभिवादन करने उनके हॅसी ठहाको में सुख दुःख में शामिल होने में कोई बुराई नहीं Pratibha gotiwalehttps://www.blogger.com/profile/04354545551414989170noreply@blogger.com