tag:blogger.com,1999:blog-74571037072584211152024-03-23T15:46:02.682+05:30Shabdankan शब्दांकनसाहित्यिक, सामाजिक ई-पत्रिका ShabdankanBharathttp://www.blogger.com/profile/09488756087582034683noreply@blogger.comBlogger2072110tag:blogger.com,1999:blog-7457103707258421115.post-24070206249399972512024-03-23T15:06:00.001+05:302024-03-23T15:06:29.615+05:30उसने कहा था - चन्द्रधर शर्मा गुलेरी | Usne Kaha Tha - Charndradhar Sharma Guleri<div dir="ltr" style="text-align: justify;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi_PB8Mo5T6YEH5cDccq-XffnjLBpyRiLlLj7dX2GN_xbduFJMVwj02QbAC8M2tqXs-mBDgEHajcF7cj5rpIiwwcpXsLuSielvgcM1kpxYhNRIog-nvL09eB26nTuMw6VtAsJjOTvSbgCCjdkVaAz15zczoVlkv1o5W218LktXbcq4Vpn9ZPeW5KkNOXZ0v/s903/Usne%20kaha%20tha%20kahani.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="508" data-original-width="903" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi_PB8Mo5T6YEH5cDccq-XffnjLBpyRiLlLj7dX2GN_xbduFJMVwj02QbAC8M2tqXs-mBDgEHajcF7cj5rpIiwwcpXsLuSielvgcM1kpxYhNRIog-nvL09eB26nTuMw6VtAsJjOTvSbgCCjdkVaAz15zczoVlkv1o5W218LktXbcq4Vpn9ZPeW5KkNOXZ0v/s16000/Usne%20kaha%20tha%20kahani.jpg" /></a></div><br /><div style="text-align: center;"><br /></div><h1 itemprop="headline">
उसने कहा था</h1>
<h2 itemprop="alternativeHeadline">
चन्द्रधर शर्मा गुलेरी</h2>
<div 11px="" font-size:=""> </div><div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody">बड़े शहरों के इक्के-गाड़ी वालों की जबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है और कान न पक गए हैं उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर में बम्बूकार्ट वालों की बोली का मरहम लगावें, जबकि बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ को चाबुक से धुनते हुए इक्के वाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट यौन संबंध स्थिर करते हैं, कभी उसके गुप्त गुहा अंगों से डॉक्टरों को लजाने वाला परिचय दिखाते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अंगुलियों के पोरों को चींधकर अपने ही को सताया हुआ बताते हैं और संसार भर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने नाक की सीध चले जाते हैं। तब अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले, तंग, चक्करदार गलियों में, हर एक लड्ढी वाले के लिए ठहरकर, सब्र का समुद्र उमड़ा कर, 'बचो, खालसा जी, 'हटो भाई जी, 'ठहरना माई', “आने दो लाला जी“, 'हटो बा छा” कहते हुए सफेद फेंटों, खच्चरों और बत्तकों, गन्ने और खोमचे और भारे वालों के जंगल में से राह लेते हैं। क्या मजाल है कि जी और साहब बिना सुने किसी को हटना पड़े। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती ही नहीं, चलती है, पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई। यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती तो उनकी बचनावली के ये नमूने हैं हट जा, जीणे जोगिए; हट जा करमां बालिए; हट जा, पुत्ता प्यारिए; बच जा, लंबी वालिए। समष्टि में इसका अर्थ है कि तू जीने योग्य है, तू भाग्यों वाली है, पुत्रों को प्यारी है? लम्बी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहियों के नीचे आना चाहती है? बच जा। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">ऐसे बम्बूकार्ट वालों के बीच में होकर एक लड़का और एक लड़की चौक की एक दुकान पर आ मिले। उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिख है। वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था और यह रसोई के लिए बड़ियां। दुकानदार एक परदेशी से गुंथ रहा था, जो सेर भर गीले पापड़ों की गड्डी को गिने बिना हटता न था। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“तेरे घर कहाँ हैं?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“मगरे में, और तेरे?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“मांझे में....यहाँ कहाँ रहती है?”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“अतरसिंह की बैठक में, वह मेरे मामा होते हैं।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“मैं भी मामा के आया हूँ, उनका घर गुरु बाज़ार में है।”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">इतने में दुकानदार निबटा और इनका सौदा देने लगा। सौदा लेकर दोनों साथ-साथ चले। कुछ दूर जाकर लड़के ने मुस्कराकर कर पूछा, “तेरी कुड़माई हो गई?” इस पर लड़की कुछ आँखें चढ़ाकर 'धत्” कहकर दौड़ गई और लड़का मुँह देखता रह गया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">दूसरे-तीसरे दिन सब्जी वाले के यहाँ, या दूध वाले के यहाँ, अकस्मात् दोनों मिल जाते। महीना भर यही हाल रहा। दो-तीन बार लड़के ने फिर पूछा, “तेरी कुड़माई हो गई?” और उत्तर में वही धत् मिला। एक दिन जब फिर लड़के ने वैसे ही हँसी में चिढ़ाने के लिए पूछा तो लड़की, लड़के की सम्भावना के विरुद्ध बोली, “हाँ, हो गई।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“कब?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“कल, देखते नहीं यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू!” लड़की भाग गई। लड़के ने घर की सीध ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छाबड़ी वाले की दिन भर की कमाई खोई, एक कुत्ते को पत्थर मारा और एक गोभी वाले के ठेले में दूध उड़ेल दिया। सामने नहाकर आती हुई किसी वैष्णवी से टकराकर अन्धे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुँचा। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">[2] </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“राम-राम, यह भी कोई लड़ाई है! दिन-रात खन्दकों में बैठे हड्डियाँ अकड़ गई। लुधियाने से दस गुना जाड़ा और मेह और बरफ ऊपर से। पिंडलियों तक कीचड़ में फँसे हुए हैं। गनीम कहीं दिखता नहीं, घंटे-दो घंटे में कान के परदे फाइने वाले धमाके के साथ सारी खन्दक़ हिल जाती है और सो-सो गज धरती उछल पड़ती है। इस गैबी गोले से बचे तो कोई लड़े। नगरकोट का जलजला सुना था, यहाँ दिन में पच्चीस जलजले होते हैं। जो कहीं खन्दक से बाहर साफा या कुहनी निकल गई तो चटाक से गोली लगती है। न मालूम बेईमान मिट्टी में लेटे हुए हैं या घास की पत्तियों में छिपे रहते हैं।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“लहनासिंह, और तीन दिन हैं। चार तो खन्दक में बिता ही दिए। परसों रिलीफ आ जाएगी और फिर सात दिन की छुट्टी। अपने हाथों झटका करेंगे और पेट भर खाकर सो रहेंगे। उसी फिरंगी मेम के बाग में -- मखमल का-सा हरा घास है। फल और दूध की वर्षा कर देती है। लाख कहते हैं, दाम लेती नहीं। कहती है, तुम राजा हो, मेरे मुल्क को बचाने आए हो।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“चार दिन तक एक पलक नींद नहीं मिली। बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना लड़े सिपाही। मुझे तो संगीन चढ़ा कर मार्च का हुकम मिल जाए। फिर सात जर्मनों को अकेला मार कर न लौटूँ तो मुझे दरबार साहब की देहली पर मत्था टेकना नसीब न हो। पाजी कहीं के, कलों के घोड़े संगीन देखते ही मुँह फाड़ देते हैं और पैर पकड़ने लगते हैं। यों अंधेरे में तीस-तीस मन का गोला फेंकते हैं। उस दिन धावा किया था, चार मील तक एक जर्मन नहीं छोड़ा था। पीछे जनरल साहब ने हट आने का कमान दिया, नहीं तो...” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“नहीं तो सीधे बर्लिन पहुँच जाते क्यों?” सूबेदार हजारासिंह ने मुस्कराकर कहा, “लड़ाई के मामले में जमादार या नायक के चलाये नहीं चलते। बड़े अफसर दूर की सोचते हैं। तीन सौ मील का सामना है। एक तरफ बढ़ गए तो क्या होगा?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“सूबेदारजी, सच है” लहनासिंह बोला, “पर करें क्या? हड्डियों-हड्डियों में तो जाड़ा धंस गया है। सूर्य निकलता नहीं और खाई में दोनों तरफ से चम्बे की वावलियो के-से सोते झर रहे हैं। एक धावा हो जाए तो गरमी आ जाए।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“उदी, उठ,सिगड़ी में कोयले डाल। वजीरा, तुम चार जने बाल्टियाँ लेकर खाई का पानी बाहर फेंको। महासिंह, शाम हो गई है, खाई के दरवाजे का पहरा बदला दो।” कहते हुए सूबेदार खन्दक में चक्कर लगाने लगे। वजीरासिंह पलटन का विदूषक था। बाल्टी में गंदला पानी भर कर खाई के बाहर फेंकता हुआ बोला, “मैं पाधा बन गया हूँ। करो जर्मनी के बादशाह का तर्पण” इस पर सब खिलखिला पड़े और उदासी के बादल फट गए। लहनासिंह ने दूसरी बाल्टी भरकर उसके हाथ में देकर कहा, “अपनी बाड़ी के खरबूजों में पानी दो। ऐसा खाद का पानी पंजाब भर में नहीं मिलेगा।” “हाँ, देश क्या है, स्वर्ग है। मैं तो लड़ाई के बाद सरकार से दस घुमा जमीन यहाँ माँग लूँगा और फलों के बूटे लगाऊँगा।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“लाड़ी होरां को भी यहाँ बुला लोगे या वही दूध पिलाने वाली फिरंगी मेम?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“चुप कर। यहाँ वालों को शरम नहीं।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“देस-देस की चाल है। आज तक मैं उसे समझा न सका कि सिख तमाखू नहीं पीते। वह सिगरेट देने में हठ करती है, ओठों में लगाना चाहती है, और मैं पीछे हटता हूँ तो समझती है राजा बुरा मान गया, अब मेरे मुल्क के लिए लड़ेगा नहीं।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“अच्छा, अब बोधसिंह कैसा है?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“अच्छा है।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“जैसे मैं जानता ही न होऊँ। रात भर तुम अपने दोनों कम्बल उसे ओढ़ाते हो और आप सिगड़ी के सहारे गुजर करते हो। उसके पहरे पर आप पहरा दे आते हो अपने सूखे लकड़ी के तख्तों पर उसे सुलाते हो, आप कीचड़ में पड़े रहते हो। कहीं तुम न मांदे पड़ जाना। जाड़ा क्या है मौत है और निमोनिया से मरने वालों को मुरब्बे नहीं मिला करते।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“मेरा डर मत करो। मैं तो बुलेल की खड़ के किनारे मरूँगा। भाई कीरतसिंह की गोदी पर मेरा सिर होगा और मेरे हाथ के लगाए हुए आँगन के आम के पेड़ की छाया होगी।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">वजीरासिंह ने त्यौरी चढ़ाकर कहा, “क्या मरने-मराने की बात लगाई है? मरें जर्मनी और तुरक ! हाँ भाइयो कैसे - </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">दिल्ली शहर तें पिशौर नुं जांदिए, </div><div itemprop="articleBody">कर लेणा लोगां दा बपार मडिए </div><div itemprop="articleBody">कर लेणा नाड़े दा सौदा अडिए, </div><div itemprop="articleBody">(ओयू) लाणा चटाका कदुए हैं। </div><div itemprop="articleBody">कद्दू बणया वे मजेदार गोरिए </div><div itemprop="articleBody">हुणे लाणा चटाका कदुए हैं।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कौन जानता था कि दाढ़ियोंवाले, घरबारी सिख ऐसा लब्चों का गीत गाएंगे, पर सारी खन्दक इस गीत से गूंज उठी और सिपाही फिर ताजा हो गए, मानो चार दिन से सोते और मौज ही करते रहे हों। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">दो पहर रात गई है। अन्धेरा है। सुनसान मची हुई है। बोधासिंह तीन खाली बिस्कुटों के टिनों पर अपने दोनों कम्बल बिछाकर और लहनासिंह के दो कम्बल और एक बरानकोट ओढ़कर सो रहा है। लहनासिंह पहरे पर खड़ा हुआ है। एक आँख खाई के मुँह पर है और एक बोधासिंह के दुबले शरीर पर। बोधासिंह कराहा। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">क्यों बोधा भाई, क्या है?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“पानी पिला दो।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">लहनासिंह ने कटोरा उसके मुँह से लगाकर पूछा, “कहो कैसे हो?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">पानी पीकर बोधा बोला, “कँपनी छूट रही है। रोम-रोम में तार दौड़ रहे हैं। दाँत बज रहे हैं।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“अच्छा, मेरी जरसी पहन लो।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“और तुम?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“मेरे पास सिगड़ी है और मुझे गर्मी लगती है; पसीना आ रहा है।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“ना, मैं नहीं पहनता, चार दिन से तुम मेरे लिए...” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“हाँ, याद आई। मेरे पास दूसरी गरम जरसी है। आज सवेरे ही आई है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">विलायत से मेमें बुन बुनकर भेज रही हैं। गुरु उनका भला करे।” यों कहकर लहना अपना कोट उतारकर जरसी उतारने लगा। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“सच कहते हो?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“और नहीं झूठ?” यों नाँहीं कहकर करते बोधा को उसने जबरदस्ती जरसी पहना दी और आप खाकी कोट और जीन का कुरता भर पहनकर पहरे पर आ खड़ा हुआ। मेम की जरसी की कथा केवल कथा थी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">आधा घंटा बीता। इतने में खाई के मुँह से आवाज़ आई - “सूबेदार हजारासिंह!” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“कौन? लपटन साहब? हुकुम हुजूर!” कहकर सूबेदार तनकर फौजी सलाम करके सामने हुआ। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“देखो, इसी दम धावा करना होगा। मील भर की दूरी पर पूर्व के कोने में एक जर्मन खाई है। उसमें पचास से ज़्यादा जर्मन नहीं हैं। इन पेड़ों के नीचे-नीचे दो खेत काटकर रास्ता है। तीन-चार घुमाव हैं। जहाँ मोड़ है, वहाँ पन्द्रह जवान खड़े कर आया हूँ। तुम यहाँ दस आदमी छोड़कर सबको साथ ले उनसे जा मिलो। खन्दक छीन कर वहीं, जब तक दूसरा हुक्म न मिले, डटे रहो। हम यहाँ रहेगा।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“जो हुक्म।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">चुपचाप सब तैयार हो गए। बोधा भी कम्बल उतारकर चलने लगा। तब लहनासिंह ने उसे रोका। लहनासिंह आगे हुआ तो बोधा के बाप सूबेदार ने उंगली से बोधा की ओर इशारा किया। लहनासिंह समझकर चुप हो गया। पीछे दस आदमी कौन रहें, इस पर बड़ी हुज्जत हुई। कोई रहना न चाहता था। समझा-बुझाकर सूबेदार ने मार्च किया। लपटन साहब लहना की सिगड़ी के पास मुँह फेर कर खड़े हो गए और जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगाने लगे। दस मिनट बाद उसने लहना की ओर हाथ बढ़ाकर कहा, “लो तुम भी पियो।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">आँख पलकते पलकते लहनासिंह सब समझ गया। मुँह का भाव छिपाकर बोला, “लाओ, साहब।” हाथ आगे करते! उसने सिगड़ी के उजास में साहब का मुँह देखा। बाल देखे। माथा ठनका। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">लपटन साहब के पट्टियों वाले बाल एक दिन में कहाँ उड़ गए और उनकी जगह कैदियों के से कटे हुए बाल कहाँ से आ गए? </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">शायद साहब शराब पिए हुए है और उन्हें बाल कटवाने का मौका मिल गया है? लहनासिंह ने जांचना चाहा। लपटन साहब पांच वर्ष से उसकी रेजिमेंट में रहे थे। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“क्यों साहब, हम लोग हिन्दुस्तान कब जाएंगे?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“लड़ाई खत्म होने पर। क्यों, यह देश पसन्द नहीं?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“नहीं साहब, वह शिकार के वे मजे यहाँ कहाँ?” याद है, पारसाल नकली लड़ाई के पीछे हम आप जगाधरी के जिले में शिकार करने गए थे।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“हाँ, हाँ </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“वही जब आप खोते पर सवार थे और आपका खानसामा अबबुल्ला रास्ते के एक मन्दिर में जल चढ़ाने को रह गया था?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“बेशक, पाजी कहीं का...” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">”सामने से वह नील गाय निकली कि ऐसी बड़ी मैंने कभी न देखी। और आपकी एक गोली कन्धे में लगी और पट्टे में निकली। ऐसे अफसर के साथ शिकार खेलने में मज़ा है। क्यों साहब, शिमले से तैयार होकर उस नील गाय का सिर आ गया था न? आपने कहा था कि रेजिमेंट की मैस में लगाएंगे।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“हाँ, पर मैंने वह विलायत भेज दिया...” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“ऐसे बड़े सोंग ! दो-दो फुट के तो होंगे?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“हाँ, लहनासिंह, दो फुट चार इंच के थे। तुमने सिगरेट नहीं पिया?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“पीता है साहब, दियासलाई ले आता हूँ“, कहकर लहनासिंह खन्दक में घुसा। अब उसे सन्देह नहीं रहा था। उसने झटपट विचार लिया कि क्या करना चाहिए। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अन्धेरे में किसी सोनेवाले से वह टकराया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“कौन? वजीरासिंह?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“हाँ? क्यों लहना? क्या, कयामत आ गई? ज़रा तो आँख लगने दी होती!” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">[3]</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“होश में आओ। कयामत आई है और लपटन साहब की वर्दी पहनकर आई है | </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">क्या </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“लपटन साहब या तो मारे गए हैं या कैद हो गए हैं। उनकी वर्दी पहनकर कोई जर्मन आया है। सूबेदार ने इसका मुँह नहीं देखा। मैंने देखा है और बातें की है। सौहरा साफ उर्दू बोलता है, पर किताबी उर्दू और मुझे पीने को सिगरेट दिया है?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“तो अब?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“अब मारे गए। धोखा है। सूबेदार होरां कीचड़ में चक्कर काटते फिरेंगे और यहाँ खाई पर धावा होगा। उधर उन पर खुले में धावा होगा। उठो, एक काम करो। पल्टन के पैरों के खोज देखते-देखते दौड़ जाओ। अभी बहुत दूर न गए होंगे। सूबेदार से कहो कि एकदम लौट आवे। खन्दक की बात झूठ है। चले जाओ, खन्दक के पीछे से निकल जाओ। पत्ता तक न खड़के। देर मत करो।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“हुकुम तो यह है कि यहीं”... </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“ऐसी-तैसी हुकुम की ! मेरा हुकुम...जमादार लहनासिंह, जो इस वक्त यहाँ सबसे बड़ा अफसर है, उसका हुकुम है। मैं लपटन साहब की खबर लेता हूँ </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“पर यहाँ तो तुम आठ ही हो।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“आठ नहीं, दस लाख। एक-एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है। चले जाओ।”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">लौटकर खाई के मुहाने पर लहनासिंह दीवार से चिपक गया। उसने देखा कि लपटन साहब ने जेब से तीन बेल के बराबर तीन गोले निकाले। तीनों को जगह-जगह खन्दक की दीवारों में घुसेड़ दिया और तीनों में एक तार-सा बांध दिया। तार के आगे सूत की एक गुत्थी थी,जिसे सिगड़ी के पास रखा - बाहर की तरफ जाकर एक दियासलाई जला कर गुत्थी पर रखने ही वाला था। इतने में बिजली की तरह दोनों हाथों से उल्टी बन्दूक को उठाकर लहनासिंह ने साहब की कुहनी पर तानकर दे मारा। धमाके के साथ साहब के हाथ से दियासलाई गिर पड़ी। लहनासिंह ने एक कुन्दा साहब की गर्दन पर मारा और साहब आँख! मीन गोट्ट कहते हुए चित्त हो गए। लहनासिंह ने तीन गोले बीनकर खन्दक के बाहर फेंके और साहब को घसीट कर सिगड़ी के पास लिटाया। जेबों की तलाशी ली। तीन-चार लिफाफे और एक डायरी निकालकर उन्हें अपनी जेब के हवाले किया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">साहब की मूर्छा हटी। लहनासिंह हँस कर बोला, “क्यों लपटन साहब? मिजाज कैसा है? आज मैंने बहुत बातें सीखीं। यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं। यह सीखा कि जगाधरी के जिले में नील गाय मन्दिरों में होती हैं और उनके दो फुट चार इंच के सींग होते हैं। यह सीखा कि मुसलमान खानसामा पानी चढ़ाते हैं और लपटन साहब खोते पर चढ़ते हैं। यह तो कहो, ऐसी साफ उर्दू कहाँ से सीख आए? हमारे लपटन साहब तो बिना डैम के पाँच लफज भी नहीं बोला करते थे।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">लहना ने पतलून की जेबों की तलाशी नहीं ली थी। साहब ने, मानों जाड़े से बचाने के लिए, दोनों हाथ जेबों में डाले। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">लहनासिंह कहता गया, “चालाक तो बड़े हो, पर मांझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा है। उसे चकमा देने के लिए चार आँखें चाहिए। तीन महीने हुए, एक तुरकी मौलवी मेरे गाँव में आया था। औरतों को बच्चे होने के ताबीज बांटता था और बच्चों को दवाई देता था। चौधरी के बड़ के नीचे मंजा बिछा कर हुक्का पीता रहता था और कहता था कि जर्मनी वाले बड़े पंडित हैं। वेद पढ़-पढ़कर उनमें से विमान चलाने की विद्या जान गए हैं। गौ को नहीं मारते। हिन्दुस्तान में आ जाएँगे तो गौ हत्या बन्द कर देंगे। मण्डी के बनियों को बहकाया था कि डाकखाने से रुपए निकाल लो; सरकार का राज जाने वाला है। डाक बाबू पोल्हूराम भी डर गया था। मैंने मुल्लाजी की दाढ़ी मूंड दी थी और गाँव से बाहर निकाल कर कहा था कि जो मेरे गाँव में अब पैर रखा तो...” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">साहब की जेब में से पिस्तौल चली और लहना की जांघ में गोली लगी। इधर लहना की हैनरी मार्टिनी के दो फायरों ने साहब की कपाल क्रिया कर दी। धमाका सुनकर सब दौड़ आए। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">बोधा चिल्लाया, “क्या है?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">लहनासिंह ने उसे तो यह कहकर सुला दिया कि “एक हड़का हुआ कुत्ता आया था, मार दिया।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">और औरों को सब हाल कह दिया। सब बन्दूक लेकर तैयार हो गए। लहना ने साफा फाड़कर घाव के दोनों तरफ़ पट्टियां कस कर बाँधी। घाव मांस में ही था। पट्टियों के कसने से लहू निकलना बन्द हो गया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">इतने में सत्तर जर्मन चिल्लाकर खाई में घुस पड़े। सिक्खों की बन्दूकों की बाढ़ ने पहले धावे को रोका। दूसरे को रोका। पर वहाँ थे आठ। लहनासिंह तक-तक कर मार रहा था। वह खड़ा था और अन्य लेटे हुए थे और वे सत्तर थे। अपने मुर्दा भाइयों के शरीर पर चढ़कर जर्मन आगे घुसे आते थे। थोड़े से मिनिटों में अचानक आवाज़ आई - “वाहे गुरुजी दी फ़तह ! वाहे गुरुजी दा खालसा!!” और धड़ाधड़ बन्दूकों के फायर जर्मनों की पीठ पर पड़ने लगे। ऐन मौके पर जर्मन दो चक्की के पाटों के बीच में आ गए। पीछे से सूबेदार हजारासिंह के जबान आग बरसाते थे और सामने लहनासिंह के साथियों के संगीन चल रहे थे। पास आने पर पीछे वालों ने संगीन पिरोना शुरु कर दिया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">एक किलकारी और -- “अकाल सिकक्खां दी फौज आई! वाहे गुरुजी दी फतह! वाहे गुरुजी दा खालसा! सत श्री अकाल पुरुख!!!” और लड़ाई खत्म हो गई। तिरेसठ जर्मन या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे। सिखों में पन्द्रह के प्राण गए। सूबेदार के दाहिने कन्धे में से गोली आरपार निकल गई। लहनासिंह की पसली में एक गोली लगी। उसने घाव को खन्दक की गीली मिट्टी से पूर लिया और बाकी का साफा कसकर कमरबन्द की तरह लपेट लिया। किसी को खबर न पड़ी कि लहना के दूसरा भारी घाव लगा है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">लड़ाई के समय चांद निकल आया था, ऐसा चाँद कि जिसके प्रकाश से संस्कृत-कवियों का दिया हुआ 'क्षयी’ नाम सार्थक होता है। और हवा ऐसी चल रही थी जैसी कि वाणभट्ट की भाषा में “दन्तवीणोपदेशचार्य” कहलाती। वजीरासिंह कह रहा था कि कैसे मन-मन भर फ्रांस की भूमि मेरे बूटों से चिपक रही थी, जब मैं दौड़ा-दौड़ा सूबेदार के पीछे गया था। सूबेदार लहनासिंह से सारा हाल सुन और कागज़ात पाकर उसकी तुरंतबुद्धि को सराह रहे थे और कह रहे थे कि तू न होता तो आज सब मारे जाते। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">इस लड़ाई की आवाज तीन मील दाहनी ओर की खाई वालों ने सुन ली थी। उनके पीछे टेलीफोन कर दिया था। वहाँ से झटपट दो डाक्टर और दो बीमारों को ढोने की गाड़ियाँ चलीं, जो एक-डेढ़ घंटे के अन्दर-अन्दर आ पहुँची। फील्ड अस्पताल नजदीक था। सुबह होते-होते वहाँ पहुँच जाएँगे, इसलिए मामूली पट्टी बाँधकर एक गाड़ी में घायल लिटाए गए और दूसरी में लाशें रखी गईं। सूबेदार ने लहनासिंह की जांघ में पट्टी बंधवानी चाही। उसने यह कहकर टाल दिया कि थोड़ा घाव है, सवेरे देखा जाएगा। बोधासिंह ज्वर में बर्रा रहा था। उसे गाड़ी में लिटाया गया। सूबेदार लहना को छोड़कर जाते नहीं थे। उसने कहा - “तुम्हें बोधा की कसम है और सूबेदारनी जो की सौगन्ध है जो इस गाडी में न चले जाओ।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“और तुम।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“मेरे लिए वहाँ पहुँच कर गाड़ी भेज देना। और जर्मन मुरदों के लिए भी तो गाड़ियाँ आती होगी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“मेरा हाल बुरा नहीं है। देखते नहीं, मैं खड़ा हूँ।? वजीरासिंह मेरे पास है ही।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“अच्छा, पर...” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“बोधा गाड़ी पर लेट गया? भला! आप भी चढ़ जाओ। सुनिए तो, सूबेदारनी होरां को चिट्ठी लिखो तो मेरा मत्था टेकना लिख देना। और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझसे जो उन्होंने कहा था, वह मैंने कर दिया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">गाड़ियाँ चल पड़ी थी। सूबेदार ने चढ़ते-चढ़ते लहना का हाथ पकड़कर कहा, “तूने मेरे और बोधा के प्राण बचाये हैं। लिखना कैसा? साथ ही घर चलेंगे। अपनी सूबेदारनी को तू ही कह देना। उसने क्या कहा था?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ। मैंने जो कहा, वह लिख देना और कह भी देना।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">गाड़ी के जाते ही लहना लेट गया। “वजीरा, पानी पिला दे और मेरा कमरबन्द खोल दे। तर हो रहा है।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">[4]</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ हो जाती है। जन्म-भर की घटनाएँ एक-एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ होते हैं, समय की धुन्ध बिल्कुल उन पर से हट जाती है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">लहनासिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहाँ आया हुआ है। दही वाले के यहाँ, सब्जीवाले के यहाँ, हर कहीं, उसे एक आठ वर्ष की लड़की मिल जाती है। जब वह पूछता है कि “तेरी कुड़माई हो गई?” वो धत कहकर वह भाग जाती है। एक दिन उसने वैसे ही पूछा तो उसने कहा, “हाँ, कल हो गई, देखते नहीं यह रेशम के फूलों वाला सालू?” सुनते ही लहनासिंह को दुःख हुआ। क्रोध हुआ। क्यों हुआ? </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“वजीरसिंह, पानी पिला दे”। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">पच्चीस वर्ष बीत गये। लहनासिंह नं.77 राइफल्स में जमादार हो गया है। उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा। न मालूम वह कभी मिली थी, या नहीं। सात दिन की छुट्टी लेकर ज़मीन के मुकदमे की पैरवी करने वह अपने घर गया। वहाँ रेजिमेंट के अफसर की चिट्ठी मिली कि फ़ौज लाम पर जाती है। फौरन चले आओ। साथ ही सूबेदार हजारासिंह की चिट्ठी मिली कि मैं और बोधासिंह भी लाम पर जाते हैं। लौटते हुए हमारे घर होते आना। साथ चलेंगे। सूबेदार का गाँव रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था। लहनासिंह सूबेदार के यहाँ पहुँचा। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">जब चलने लगे, तब सूबेदार बेढ़े में से निकलकर आया। बोला, “लहना, सूबेदारनी तुमको जानती हैं। बुलाती हैं। जा मिल आ।” लहनासिंह भीतर पहुँचा। सूबेदारनी मुझे जानती हैं? कब से? रेजिमेंट के क्रार्टरों में तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं। दरवाज़े पर जाकर “मत्था टेकना” कहा। असीस सुनी। लहनासिंह चुप। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“मुझे पहचाना?” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“नहीं।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“तेरी कुड़माई हो गई? - धत् - कल हो गई.... देखते नहीं रेशमी बूटों वाला सालू... अमृतसर में...” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">भावों की टकराहट से मूर्छा खुली। करवट बदली। पसली का घाव बह निकला। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“वजीरा, पानी पिला” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“उसने कहा था।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">स्वप्न चल रहा है। सूबेदारनी कह रही है, “मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया। एक काम कहती हूँ। मेरे तो भाग फूट गए। सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है, लायलपुर में जमीन दी है, आज नमकहलाली को मौका आया है। पर सरकार ने हम तीमियों की एक घँघरिया पलटन क्यों न बना दी, जो मैं भी सूबेदारजी के साथ चली जाती? एक बेटा है। फ़ौज में भरती हुए उसे एक ही बरस हुआ। उसके पीछे चार हुए, पर एक भी नहीं जिया।” सूबेदारनी रोने लगी। “अब दोनों जाते हैं। मेरे भाग ! तुम्हें याद है, एक दिन तांगे वाले का घोड़ा दही वाले की दुकान के पास बिगड़ गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाए थे। आप घोड़ों की लातों में चले गए थे और मुझे उठाकर दुकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे मैं ऑचल पसारती हूँ।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">रोती-रोती सूबेदारनी ओबरी में चली गई। लहना भी आँसू पोंछता हुआ बाहर आया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“वजीरासिंह, पानी पिला” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“उसने कहा था” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">लहना का सिर अपनी गोदी तर लिटाए वजीरासिंह बैठा है। जब माँगता है, तब पानी पिला देता है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">आधे घंटे तक लहना गुम रहा, फिर बोला, “कौन? कीरतसिंह?” वजीरा ने कुछ समझकर कहा,” हाँ”। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“भइया, मुझे और ऊँचा कर ले। अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले।” वजीरा ने वैसा ही किया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“हाँ, अब ठीक है। पानी पिला दे। बस ! अब के हाड़ में यह आम खूब फलेगा। चाचा-भतीजा दोनों यहीं बैठकर आम खाना। जितना बड़ा तेरा भतीजा है उतना ही यह आम है। जिस महीने उसका जन्म हुआ था उसी महीने में मैंने इसे लगाया था।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">वजीरासिंह के आँसू टप-टप पड़ रहे थे। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कुछ दिन पीछे लोगों ने अखबारों में पढ़ा - फ्रांस और बेल्जियम, 68 वीं सूची, मैदान में घावों से मरा, नं. 77 सिख राइफल्स जमादार लहनासिंह। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">[ प्रथम प्रकाशनः सरस्वती: जून, 495] </div><div><br /></div></div>
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(ये लेखक के अपने विचार हैं।)<br />
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<div><blockquote><div>सियोल में नौकरी से निकाल दिया गया एक रेल कर्मचारी है। उस कर्मचारी ने शहर की एक सोलह मंज़िला फ़ैक्ट्री की चिमनी पर अपना डेरा जमा लिया है और महीनों तक वहीं रहकर अपने साथ हुए इस अन्याय के ख़िलाफ़ धरने पर बैठा रहा है।</div></blockquote><div><br /></div><div>कूपमंडूकता या सबसे-बेहतर-मैं बीमारी से बचने का एक कारगर उपाय उस रोचक लेखन को पढ़ना हो सकता है जो आपसे सीधा न जुड़ा होने के बावजूद आपकी सोच का विस्तार कर सकता हो। अब पढ़िए दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया में कोरियाई भाषा एवं साहित्य की जिम्मेवार रोहिणी कुमारी का वह रोचक आलेख जिसकी बानगी आपने ऊपर पढ़ी ~ सं० </div></div><span><a name='more'></a></span><div><br /></div><div><br /></div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjWcGi5F2LAsa-hoDAlFmqsp7TgAjfEjFrfqtV6Gc3BZLJCwK-KRwlx2uDMlPa1Ygf9bEjzeDHmZATUsQCny-jrA0It1mJYIloUkdvZwOrzB-30dMQtNc9ys1tSRnAQYJ_pZFP8RIGO5XP0ChuRJvTsItlGD7mWv_tLRPnZMTFcBKmDspp-2C4B-nyynGj1/s903/The%20Complex%20History%20of%20Korea%20%E2%80%94%20From%20Miter%202-10%20to%20K-Pop%20~%20Rohini%20Kumari.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="508" data-original-width="903" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjWcGi5F2LAsa-hoDAlFmqsp7TgAjfEjFrfqtV6Gc3BZLJCwK-KRwlx2uDMlPa1Ygf9bEjzeDHmZATUsQCny-jrA0It1mJYIloUkdvZwOrzB-30dMQtNc9ys1tSRnAQYJ_pZFP8RIGO5XP0ChuRJvTsItlGD7mWv_tLRPnZMTFcBKmDspp-2C4B-nyynGj1/s16000/The%20Complex%20History%20of%20Korea%20%E2%80%94%20From%20Miter%202-10%20to%20K-Pop%20~%20Rohini%20Kumari.jpg" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">The Complex History of Korea — From Miter 2-10 to K-Pop ~ Rohini Kumari</td></tr></tbody></table><br /><div style="text-align: center;"><br /></div><h1 itemprop="headline">
कोरिया का जटिल इतिहास — मेटर 2-0 से के-पॉप तक</h1>
<h2 itemprop="alternativeHeadline">
~ रोहिणी कुमारी</h2><div><h2 itemprop="alternativeHeadline"><div 11px="" font-size:=""></div><div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody"><span style="font-size: 11px; font-weight: 400;">जेएनयू से कोरियाई भाषा एवं साहित्य में पीएचडी। रोहिणी अपने विषय में पीएचडी करने वाली भारत की पहली शोधार्थी हैं। वर्तमान में वह दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया में कोरियाई भाषा एवं साहित्य का अध्यापन करती हैं। इसके अलावा वह विकास सेक्टर की खबरों और काम से जुड़े लेखों को प्रकाशित करने वाले एक मात्र ऑनलाइन मंच इंडिया डेवलपमेंट रिव्यू की हिन्दी टीम में संपादकीय सलाहकार भी हैं। रोहिणी ने मिशेल ओबामा की जीवनी ‘बिकमिंग’, अनुपम खेर की जीवनी ‘लेशंस लाइफ टॉट मी अननोइंग्ली’ गौरांग दास की पुस्तक ‘द आर्ट ऑफ़ हैबिट्स’ जैसी किताबों का हिन्दी अनुवाद भी किया है। </span></div></div></h2></div>
<div 11px="" font-size:=""><br /></div><div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody">हाल ही में इंडियन एक्सप्रेस के सप्लीमेंट में एक बड़ी ही मज़ेदार खबर पढ़ी। मुर्शिदाबाद की दो लड़कियाँ बिना किसी साधन-संसाधन के घर से भाग गईं। इनके भागने के पीछे का कारण हैरान करने वाला था, और मुझे तो बिलकुल से हिला देने वाला। इन दोनों लड़कियों की उम्र तेरह और पंद्रह साल बताई गई और दोनों ही आर्थिक रूप से एक सामान्य परिवार से आती हैं। हालाँकि इनके साथ इनका एक भाई भी था और उसकी उम्र भी लगभग इतनी ही थी। इन तीनों को भागकर सपनों के शहर मुंबई जाना था। और अपने-अपने सपने पूरे करने थे। यूँ तो ये कहना भी सही नहीं होगा कि ये बच्चे फ़िल्म और गाने की दुनिया से प्रभावित होकर नहीं भागे थे। लेकिन रुकिए, किसी निष्कर्ष पर मत पहुँच जाइए कि इन्हें फ़िल्मों में हीरो, हीरोइन या फिर निर्देशक या संगीतकार बनना था।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">दरअसल, इन बच्चों या कहें कि किशोरों के घर से भागने का कारण आपको चौंका देगा। ये बच्चे भारत या फिर कहें के दुनिया के अधिकांश देशों के इस उम्र के किशोरों की तरह ही के-पॉप (कोरियाई संगीत और गाने) के फैन हैं और ख़ुद को बीटीएस आर्मी का सदस्य मानते हैं। दुनिया के हर कोने में बीटीएस के फैन एक दूसरे को इसी आर्मी का सदस्य मानते हैं और इन्हें आपस में जुड़ने और एक दूसरे के लिए प्रेम महसूस करने के लिए किसी और फ़ैक्टर की ज़रूरत नहीं होती है। चलते-चलते बता दूँ कि बीटीएस जिसे बांगटान सोनयोनडान भी कहा जाता है, 7 दक्षिण कोरियाई लड़कों का एक म्यूजिक बैंड है और केवल दक्षिण कोरिया ही नहीं बल्कि दुनिया भर में लोगों को अपना दीवाना बनाया हुआ है। साल 2013 में बीटीएस अपना पहला गाना ‘नो मोर ड्रीम्स’ लेकर दुनिया के सामने आया और वह दिन था और आज का दिन है कि इस ग्रुप और इसके लड़कों के प्रति ना केवल किशोरों बल्कि हर उम्र के लोगों की दीवानगी दिन-बाद दिन बढ़ती ही जा रही है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">इसी ग्रुप के दीवाने मुर्शिदाबाद के वे तीनों बच्चे भी थे जिन्होंने मुर्शिदाबाद वाया मुंबई तो सियोल पहुँचने का सपना संजो रखा था और एक दिन इसी सपने को पूरा करने के लिए बिना कुछ सोचे-समझे जेब में चंद रुपये लेकर निकल पड़े। हालाँकि घर-परिवार के लोगों को जब उनके घर से भाग जाने की बात पता चली तो उन लोगों ने इन्हें ढूँढने के लिए दिन-रात एक कर दिया और अपने बच्चों को मुंबई पहुँचने से पहले ही वापस ले आए।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कोरियाई भाषा को पढ़ने-पढ़ाने के क्षेत्र से जुड़े होने के कारण जहां एक ओर मुझे इस खबर ने बहुत अधिक उत्तेजित या परेशान उस तरह से नहीं किया जैसे कि किसी आम आदमी को किया होगा या कर सकता है। एक ओर जहां हम इस भाषा के प्रति बढ़ते प्रेम और दीवानगी को देखकर खुश होते हैं, वहीं दूसरी ओर हमें यह सवाल परेशान करता है कि क्या के-पॉप, के-ड्रामा या दूसरे शब्दों में कहें तो हाल्यू के बैनर तले दक्षिण कोरियाई समाज का इतिहास, महज़ लगभग दो दशकों में विकासशील से विकसित देश की सूची में शामिल होने के पीछे के उसके संघर्ष, उसके आधुनिक समाज की स्थिति कहीं छुप तो नहीं जा रही है?</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">हाल्यू की बदौलत दुनिया भर में अपनी सभ्यता-संस्कृति, खान-पान, गीत-संगीत को पहुँचाने वाले और दुनिया भर के किशोरों (क्या शहरी, क्या ग्रामीण) के दिलों में अपनी जगह बनाने वाले दक्षिण कोरियाई लोग क्या ख़ुद की यही पहचान चाहते हैं? क्या वे उस संघर्ष को भूल जाना चाहते हैं जो उनके पूर्वजों ने जापान से अपने देश को आज़ाद करवाने के लिए किया था? क्या दक्षिणी कोरियाई आधुनिक समाज ‘कोरियाई युद्ध’ और विभाजन के दर्द को याद नहीं करना चाहता और उसके बारे में अपनी युवा पीढ़ी को बताना नहीं चाहता? हाल्यू को इस कदर दुनिया भर में पहुँचाने का कारण अपने संघर्षों से भरे इतिहास को ढँकने-छुपाने या फिर भुला देने का प्रयास है?</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अगर एक शब्द में इन सभी सवालों का जवाब देने को कहा जाए तो मुश्किल होगी। क्योंकि इन सवाल का जवाब केवल हाँ या ना में दिया नहीं जा सकता है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">दरअसल, हाल्यू या के-पॉप, के-ड्रामा, बीटीएस, ब्लैक पिंक जैसे संगीत के ग्रुप दुनिया के सामने दक्षिण कोरिया की छवि को सशक्त करने और दुनिया के शक्तिशाली देशों के बीच अपनी एक अलग छवि बनाने का ज़रिया भर हैं या हो सकते हैं। लेकिन दक्षिण कोरिया का अर्थ केवल के-पॉप या के-ड्रामा नहीं है। उनमें भी वास्तविकता और फ़िक्शन का अनुपात वही होता है जो हिन्दी या किसी भी भारतीय भाषा में बनाए जाने वाले धारावाहिकों और गानों में होता है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मैं अपनी इस बात को मज़बूत करने के लिए आपको कोरिया से ही जुड़ी एक दूसरी खबर के बारे में बताती हूँ। पिछले दिनों 11 मार्च 2024 को इंटरनेशनल बुकर प्राइज 2024 का लौंगलिस्ट जारी किया गया। दुनिया भर की 13 किताबों की इस सूची में दक्षिण कोरियाई लेखक ह्वांग सोक-योंग की किताब ‘मेटर 2 -10’ भी शामिल है। 81 वर्षीय ह्वांग सोक-योंग की यह दूसरी किताब है जो इंटरनेशनल बुकर प्राइज के लिए नामित हुई है। इससे पहले ‘एट डस्क’ नाम का उनका उपन्यास साल 2018 की सूची में अपनी स्थान बना चुका है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कोरियाई यूनिफ़िकेशन के पैरोकार रहे ह्वांग सोक-योंग के इस उपन्यास के केंद्र में सियोल में नौकरी से निकाल दिया गया एक रेल कर्मचारी है। उस कर्मचारी ने शहर की एक सोलह मंज़िला फ़ैक्ट्री की चिमनी पर अपना डेरा जमा लिया है और महीनों तक वहीं रहकर अपने साथ हुए इस अन्याय के ख़िलाफ़ धरने पर बैठा रहा है। अपनी इस लंबी और मुश्किल भरी लड़ाई के दौरान अकेली और सर्द रातों में वह अपने से पिछली पीढ़ी के लोगों, अपने पूर्वजों से बातचीत करता है। उसकी इस बातचीत के केंद्र में जीवन का वास्तविक अर्थ, पीढ़ियों से चले आ रहे ज्ञान जैसे विषय हैं। ह्वांग इस उपन्यास के माध्यम से अपने देश को आज़ाद करवाने और कामकाज की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए जापानी और अमेरिकी प्रशासन द्वारा की गई यातनाओं, अन्यायों, हत्याओं और लोगों को जबरन जेल में डाल देनी की घटनाओं को इतनी बारीकी से बुनते हैं, कि उस रेल कर्मचारी में पाठक अपना जीवन देखने लग जाता है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उस रेल कर्मचारी की तीन पीढ़ियों के जीवन के माध्यम से ह्वांग का यह उपन्यास मेटर 2-10, कोरिया के आम लोगों के जीवन के संघर्षों को बहुत ही स्पष्टता और बारीकी से दिखाने में सफल होता है जो 1910 में जापान का उपनिवेश बनने के बाद से इक्कीसवी सदी के उत्तरार्ध तक जारी रहता है।</div><div itemprop="articleBody">यह उपन्यास दरअसल एक समय में उत्पीड़न से मुक्त होने की इच्छा रखने वाले एक देश और उसके लिए लड़ने वाले उसके लोगों की एक कहानी है जिसे लिखने में ह्वांग को लगभग तीस साल का समय लगा।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">दक्षिण कोरिया ही नहीं बल्कि वैश्विक साहित्यिक दुनिया में कोरियाई प्रायद्वीप के इस जटिल इतिहास की लोकप्रियता देखते हुए मैं एक बार फिर से आपका ध्यान उन सवालों की तरफ़ लेकर जाना चाहती हूं जिनका ज़िक्र इस लेख की शुरुआत में मैंने किया था। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">एक तरफ़ ह्वांग सोक-योंग के उपन्यास की लोकप्रियता और स्वीकृति और दूसरी तरफ़ के-पॉप और के-ड्रामा के फीवर को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि कोरिया के लोग अपनी नई पहचान बनाने के साथ ही अपने पुराने संघर्षों और मुश्किल वक्त को भी उतनी ही शिद्दत से न केवल याद कर रहे हैं बल्कि उसे अपना रहे हैं और उसका सम्मान भी कर रहे हैं।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">इसलिए मुर्शिदाबाद की उन लड़कियों की तरह दुनिया भर में आर्मी के फैन को न केवल जंगकुक के बारे में जानना चाहिए बल्कि अगर दक्षिण कोरिया और उसके गीत-संगीत के प्रति उनकी दीवानगी की यह यात्रा के-पॉप से शुरू होकर ह्वांग सोक-योंग, हान कांग, शीन क्यंग सुक जैसे साहित्यकारों की कृतियों तक भी पहुंचे तो वे कोरियाई संस्कृति और सभ्यता के वास्तविक अर्थ को समग्रता से और सही मायने में अगली पीढ़ी तक ले जाने वाले आर्मी के सदस्य हो सकेंगे, जिनमें ना केवल ब्लैक पिंक और बीटीएस होगा बल्कि कोरिया के गांव में रहने वाली वह माँ भी होगी जो सियोल की चकाचौंध में खो जाती है, वह स्त्री भी होगी जो मुख्य रूप से मांस खाने वाले एक देश में पूरी तरह से शाकाहारी बनना चाहती है।</div><div><br /></div></div>
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(ये लेखक के अपने विचार हैं।)<br />
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Bharathttp://www.blogger.com/profile/09488756087582034683noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-7457103707258421115.post-57795691189863120462024-03-09T14:46:00.000+05:302024-03-09T14:46:11.995+05:30क़िस्साग्राम: अंजाम-ए-गुलिस्ताँ क्या होगा - अनुरंजनी | Prabhat Ranjan Upanyas Kissagram<div dir="ltr" style="text-align: justify;" trbidi="on">
<div>प्रभात रंजन के हाल ही में प्रकाशित, चर्चित उपन्यास 'क़िस्साग्राम' का एक अंश आप पढ़ चुके हैं (<a href="https://www.shabdankan.com/2023/11/prabhat-ranjan-upanyas-ansh.html" rel="nofollow" target="_blank">लिंक</a>) अब पढ़ें उपन्यास पर युवा समीक्षक अनुरंजनी की बेहतर कलम! ~ सं०<span><a name='more'></a></span></div><div><br /></div><div><br /></div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiULH9zheQaeE-GCjhFJRUOgnLCjK5rB1pAWomiJ-Sp_LnA8150AnF32B5hUePF-GLwpgtt4greBRu-_lz1g3lb4v0k7xtNmd9XKana5qIYRZMQGqdJShraTJ1ZaDFPfO9Rbc39PyTDGJLB3LE2ZrUPraUpmidLZCcLfVfDkHmBi6h8KxKHN70BRI8f-GiB/s903/kissagram%20novel%20by%20prabhat%20ranjan.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="508" data-original-width="903" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiULH9zheQaeE-GCjhFJRUOgnLCjK5rB1pAWomiJ-Sp_LnA8150AnF32B5hUePF-GLwpgtt4greBRu-_lz1g3lb4v0k7xtNmd9XKana5qIYRZMQGqdJShraTJ1ZaDFPfO9Rbc39PyTDGJLB3LE2ZrUPraUpmidLZCcLfVfDkHmBi6h8KxKHN70BRI8f-GiB/s16000/kissagram%20novel%20by%20prabhat%20ranjan.jpg" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">Prabhat Ranjan Upanyas Kissagram</td></tr></tbody></table><br /><div style="text-align: center;"><br /></div>
<h2 itemprop="alternativeHeadline">
क़िस्साग्राम: अंजाम-ए-गुलिस्ताँ क्या होगा</h2><div style="text-align: right;"><h2 itemprop="alternativeHeadline" style="text-align: justify;">~ अनुरंजनी </h2><h2 itemprop="alternativeHeadline" style="text-align: justify;"><div 11px="" font-size:=""></div><div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody"><span style="font-size: 11px; font-weight: normal;">एम.ए में स्वर्ण-पदक विजेता, फिलहाल यूजीसी द्वारा ‘जेआरएफ’ पा कर दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया के‘भारतीय भाषा विभाग’ में शोधार्थी। <a href="mailto:anuranjanee06@gmail.com">anuranjanee06@gmail.com</a></span></div></div></h2><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"> </div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">शौक़ बहराइची का मशहूर शेर है – </div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"> बर्बाद गुलिस्ताँ करने को बस एक ही उल्लू काफ़ी था</div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"> हर शाख़ पे उल्लू बैठा है अंजाम-ए- गुलिस्ताँ क्या होगा</div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">जिसकी याद ‘क़िस्साग्राम’ अनायास ही दिला देती है। ‘क़िस्साग्राम’ प्रभात रंजन का हाल ही में प्रकाशित उपन्यास है जिसकी बुनियाद इतनी है कि 90 दशक के किसी रोज़ स्कूल की ‘फील्ड’ के एक कोने में एक छोटी सी मूर्ति आ गई, किसी के ध्यान जाने से पहले ही स्कूल के चौकीदार ने ईंट का एक चौतरा बनाकर उसके ऊपर दीवार से सटाकर मूर्ति को बिठाया और मूर्ति के माथे में लाल सिंदूर लगा दिया और रोज़ सुबह वहाँ आकर अगरबत्ती जलाने लगा। धीरे-धीरे और लोग उसकी पूजा करने लगे और उसी में एक छकौरी नामक पहलवान का प्रवेश होता है जिसने अपने को स्थापित करने के लिए एक महत्त्वपूर्ण दंगल में जाने से पहले उसी चौतरे वाले हनुमान जी के पैर के पास की मिट्टी उठाकर उसने अपने माथे पर लपेटी थी और चार नामी पहलवानों को धूल चटाकर सबके लिए छकौरी पहलवान के नाम से प्रसिद्ध हो गया। प्रत्येक दंगल में जाने से पूर्व वह उस मंदिर में आता रहा, हनुमान जी के चरण-धूल अपने माथे लगाता रहा और लगातार 56 दंगल जीतता रहा। फिर किसी रोज़ ऐसा हुआ कि नेपाल में सीता-जयंती पर आयोजित दंगल में वह हार गया और फिर तभी से वह गायब हो गया और उसी रात किसी ने वह मूर्ति तोड़ डाली। इसके बाद केवल किस्से ही किस्से हैं। किस्से उन तमाम राजनीतिक परिदृश्य के जहाँ सब कुछ गौण हो जाता है और मुख्य रहती है राजनीति।</div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">हम बचपन से पढ़ते-सुनते आ रहे हैं कि लोकतंत्र जनता की, जनता के द्वारा और जनता के लिए है लेकिन जैसे-जैसे हम सचेत होते जाते हैं वैसे-वैसे यह वास्तविकता दिखने लगती है कि लोकतंत्र की परिभाषा जो हमने पढ़ी, जिसपर विश्वास किया वह तो खोखली लगती है। असल में लोकतंत्र हो या कोई भी तंत्र सब अपनी सत्ता कायम रखना चाहते हैं और उसके लिए ‘लोक’ का इस्तेमाल हर तरह से करना जानते हैं। यह उपन्यास एक तरह से इसी के इर्द-गिर्द है जहाँ लेखक स्पष्ट लिखते भी हैं कि – </div><blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">जो सत्ता में होता है वह बात तो अपनों की करता है लेकिन विकास अपना करता है। उसके लिए अपने उसके अपने परिजन होते हैं। बाकी किसी की वह परवाह नहीं करता।</div></blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">अपनी सत्ता बरकरार रखने के लिए राजनीति जिन-जिन बातों का, जिन-जिन तरीकों का इस्तेमाल कर सकती है, बल्कि कहें कि करती है उन सबके किस्से बहुत ही दिलचस्प तरीके से यह किताब बयान करती है। </div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">राजनीति में धर्म अब तक एक बेहद ही प्रभावशाली ज़रिया साबित होते रहा है जिससे जनता आसानी से सत्ताधारियों के बहकावे में आ जाती है। उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं, ताज़ा उदाहरण का बृहत् रूप बीते महीने भर पहले ही बीता है। ऐसे में लियो टॅालस्टॅाय का यह कथन प्रासंगिक लगता है कि “किसी देश को बर्बाद करना हो तो वहाँ के लोगों को धर्म के नाम पर आपस में लड़ा दो, देश अपने आप बर्बाद हो जाएगा।” हालाँकि इस उपन्यास में धर्म के नाम पर लड़ाने का उल्लेख तो नहीं है लेकिन धर्म के नाम पर भोली-भाली जनता का इस्तेमाल करना प्रमुखता से है। जिस रोज़ मूर्ति टूटी, उसी रोज़ से छकौरी पहलवान गायब हो गया था लेकिन उसके बाद हर जगह उसकी उपस्थिति है। उपस्थिति इसलिए क्योंकि सबलोग उसके नाम पर अपना फायदा चाहते हैं। कब धीरे से राजनीति इसमें प्रवेश कर जाती है और अन्त-अन्त तक वही हावी रहती है यह पता भी नहीं चलता। सबसे पहले माँग होती है छकौरी पहलवान के गायब होने की जाँच की जिसके प्रतिउत्तर में एक दूसरी पार्टी के नेता द्वारा यह घोषणा कर दी जाती है कि </div><blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">अन्हारी गाँव में जनता के सहयोग से हनुमान जी के भव्य मन्दिर का निर्माण करवाया जाएगा। लोग आएँ और स्वेच्छा से इसके लिए दान दें। भगवान की मूर्ति का टूटना बहुत बड़ा अपशकुन है और इसके प्रायश्चित के लिए ज़रूरी है कि मन्दिर बनाकर भगवान को धूमधाम से उसमें स्थापित कर दिया जाए।</div></blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">इसके अलावा समाज के किसी वर्ग-विशेष द्वारा यह कहा जाना कि </div><blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">अदृश्य सत्ता इसी तरह संकेत देती है। कोई बड़ी विपदा न आ जाए कहीं। ईश्वर स्कूल के पास प्रकट हुए थे। नई उमर की नई फ़सलों के लिए कोई संदेश रहा होगा इसमें। क्या पता आने वाली संततियों को क्या भुगतना पड़ जाये। प्रकोप के आने का कोई निश्चित समय तो होता है नहीं। लेकिन उसकी शांति के उपाय तो किये ही जा सकते हैं। देवताओं के कोप को दूर करने के काम तो किये ही जा सकते हैं !</div></blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">यह जनमानस को डराने के लिए काफ़ी है। जिस देश की आर्थिक स्थिति ऐसी हो जहाँ कितनों के हिस्से सम्मानित ज़िंदगी नहीं है, जहाँ की सामाजिक स्थिति ऐसी कि हर कदम पर ऊँच-नीच का एहसास होता हो वहाँ अपशकुन के नाम से डरना-डराना कितना सरल हो जाता है ! ऐसे में स्वाभाविक ही है कि जनता भगवान से उम्मीद लगाएगी, प्रार्थना करेगी अपने जीवन की बेहतरी के लिए। इसके लिए निश्चित रूप से वह मानेगी कि हम ईश्वर को रुष्ट न करें वरना वे हमसे नाराज़ हुए तो हमारी आगे की ज़िंदगी और बेकार हो जाएगी। इसलिए तो जनमानस जीवन की जो मूलभूत ज़रूरतें हैं, अपने भविष्य को, अपनी बाद की पीढ़ी के भविष्य की बेहतरी के लिए जो अनिवार्य है उसपर ध्यान न देकर मन्दिर पर सारा ध्यान दे रहा है। हम अपने आसपास भी यह स्थिति देखते हैं कि कभी भी ऐसा न हुआ कि किसी स्कूल, कॉलेज में पढ़ाई ढंग से न हो रही हो तो उसमें पढ़ने वालों के माता-पिता या अन्य जनता भी किसी प्रकार का कोई आंदोलन करे, सुव्यवस्था की माँग करे लेकिन जहाँ कहीं धर्म की बात आ जाए तो हजारों-लाखों लोग जुट जाएंगे। इस विडंबनापूर्ण स्थिति पर लेखक बेहद ही कुशलता से संकेत में हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं – </div><blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">मन्दिर की दीवार पक्की हो गई थी। सड़क के पोल से खींचकर किसी भक्त ने वहाँ बिजली का भी इंतज़ाम कर दिया था, किसी ने ठंडे पानी के लिए कूलर भी लगवा दिया। स्कूल में पीने के पानी का कोई इंतज़ाम नहीं था इसलिए स्कूल के बच्चे भी पानी पीने उधर जाने लगे।</div></blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">आगे भी इसका उल्लेख आता है जहाँ यह प्रमाणित करता है कि हमारे समाज में शिक्षा से ऊपर धर्म का ही महत्व है। उदाहरण स्वरूप यह देखा जा सकता है – “ रामसेवक सिंह उच्च विद्यालय की बात कोई नहीं कर रहा था। बस हनुमान मन्दिर। साह जी ने घोषणा कर दी थी कि मन्दिर वहीं बनेगा। वह भी टूटने वाले मन्दिर की तरह छोटा मन्दिर नहीं उससे बहुत बड़ा मन्दिर बनेगा। स्कूल का क्या होगा कोई नहीं कह रहा था। उस पूरे इलाके में अकेला हाई स्कूल था। उस स्कूल की चर्चा कोई नहीं कर रहा था। सब मन्दिर-मन्दिर कर रहे थे।” आगे भी यह आता है कि – “महावीरी झंडे से, चमन के घर भभूति दर्शन से इतना धन जमा हो गया था कि उससे गाँव में स्कूल का भवन नया बनाया जा सकता था, स्वास्थ्य केंद्र चलाया जा सकता था लेकिन लोगों को खटिया पर लदकर अस्पताल जाना मंजूर था, पढ़ने के लिए नदी पारकर शहर जाना मंजूर था लेकिन वे नहीं चाहते थे कि धर्म काज में किसी तरह की कमी आए।” </div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">यह उपन्यास इस ओर भी संकेत करता है कि धर्म के मामले में तर्क प्रायः पीछे छूट जाता है, और जिन्हें स्थिति समझ आती है वे सब समझते हुए भी चुप रहना चुनते हैं – </div><blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">लेकिन उस समय गाँव का माहौल ऐसा था कि कोई कुछ सुनने के लिए तैयार नहीं था। सच सब समझते थे लेकिन जाने क्या हो गया था कि सब झूठ के साथ हो गए थे। आस्था सहज बुद्धि के ऊपर ऐसी हावी हो गई थी कि उससे अलग कुछ भी बोलने मे खतरा महसूस होता था। यहाँ तक कि सोचने में भी।” </div></blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">यह पढ़ते हुए <b>राजेश जोशी</b> की कविता ‘<b>मारे जाएँगे</b>’ पर सहज ही ध्यान जाता है। उसकी कुछ पंक्तियाँ यहाँ बिल्कुल सटीक बैठती हैं –</div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"> जो इस पागलपन में शामिल नहीं होंगे </div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"> मारे जाएँगे </div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"> कटघरे में खड़े कर दिए जाएँगे, जो विरोध में बोलेंगे </div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"> जो सच-सच बोलेंगे मारे जाएँगे</div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"> ...</div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"> धर्म की ध्वजा उठाए जो नहीं जाएँगे जुलूस में </div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"> गोलियाँ भून डालेंगी उन्हें, काफ़िर करार दिए जाएँगे”</div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"> </div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">इन सब के बाद भी यह उपन्यास कहीं न कहीं विश्वास भी दिलाता है कि कभी तो ‘वो सुबह आएगी’ – </div><blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">एक दिन समय आएगा जब सबको समझ में आ जाएगा। सच क्या है और झूठ क्या है, इसका अंतर साफ़ दिखाई देने लगेगा। लेकिन वह दिन आज नहीं है। कभी-कभी जनवरी की बात दिसंबर में जाकर समझ आती है। समझ लो अभी जनवरी चल रहा है। इंतज़ार करना है हमें अपने दिसंबर का। हो सकता है ग्यारह महीने के बाद आ जाये, हो सकता है ग्यारह साल के बाद भी आये। अभी जनमत एक तरफ़ है इसलिए मनमत को रोके रखने में ही समझदारी है।</div></blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">धर्म के अलावा जाति भी एक महत्त्वपूर्ण पहलू है जिसका इस्तेमाल राजनेता बखूबी करते हैं। इस ओर भी यह उपन्यास पर्याप्त संकेत करता है। बतौर उदाहरण यह पंक्ति – “नेता लोग काम के बल पर नहीं जीतते थे अपनी जाति के बल पर जीतते थे।” भले जनता भी अपनी जाति के नेता को वोट देती हो लेकिन उपन्यास में इस बात का उल्लेख होना कि युवा पीढ़ी जाति से उठकर एक ऐसे नेता को पसंद कर रही है जो किसी एक जाति के लिए काम नहीं कर के सबके हित में काम कर रहा था, यह भी एक सकारात्मक बदलाव की ओर उम्मीद है। </div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">इस उपन्यास में जितने भी नेतागण आये हैं, चाहे तथाकथित उच्च वर्ग के हों या निम्न, हिन्दू हों या मुस्लिम, वे सब अपने-अपने तरीके से चुनाव जीतने की होड़ में लगे रहते हैं, सबकी बस एक ही ख्वाहिश, कि इस बार हम चुनाव जीत जाएँ। इसमें कितने ऐसे लोग रहे जो कई वर्षों से इस क्षेत्र में प्रयासरत रहे लेकिन उनके हाथ असफलता ही लगी रही। लेकिन अन्त में एक ऐसा व्यक्ति आता है, गाँव का एक सामान्य युवक चमन, जो धर्म के नाम पर ही झूठी कहानी सुना कर ग्रामवासियों का भरोसा जीत लेता है, बड़े नेताओं की नज़र में आता है और चुनाव लड़ता है। उसकी यह रणनीति बिल्कुल अन्त में जाकर खुलती है जब चक्र छाप के नेता द्वारा उसे बुलाया जाता है और उनकी आपसी बातचीत में चमन जिस प्रकार, जिस चालाकी से जवाब देता है वही उसकी पूरी रणनीति की ओर संकेत कर देता है। </div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">इन सबके अलावा भी यह उपन्यास बहुत कुछ कहता है जिसकी शैली भी किस्सागोई ही रही है। बातों-बातों में बहुत ही गहरी स्थिति की ओर हमारा ध्यान चल जाता है, मसलन वर्तमान में इतिहास को लेकर जो भी चलाया जा रहा है, उस पर यह एकदम सटीक लिखा है लेखक ने – </div><blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">अब तो ऐसा समय आ गया है कि इतिहास के नाम पर कोई भी किस्सा-कहानी सुना देता है। जिस मन्दिर को पच्चीस-पचास साल से पहले कोई जानता तक नहीं था उसको भी प्राचीन बताया जाने लगा है। कुछ साल पुराने तालाब को भी प्राचीन नदी की सुप्त धारा के स्रोत से बना बताया जाने लगा है। पावन दिनों में लोग वहाँ स्नान करते भी दिखाई दे जाते।</div></blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">आगे वे यह भी लिखते हैं – </div><blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">इतिहास-पुस्तकों को पढ़ने वाले कम होते जा रहे थे लेकिन इतिहासकारों के लिखे इतिहास ग्रंथों को झूठा बताने वाले बढ़ते जा रहे थे। जिन्होंने इतिहास बनाया था उनको इतिहास से मिटाने की कोशिशें हो रही थीं।</div></blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">यह उपन्यास सवाल करने के लिए विनम्र निवेदन भी करता है – </div><blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">सब खत्म हो जाएगा। वर्तमान को बचाने के लिए भविष्य को नष्ट मत होने दीजिए। उठिये और सवाल पूछना शुरू कीजिए। आप जैसे ही सवाल पूछना शुरू करेंगे तो जवाब आपको अपने आप मिलने लगेंगे। नहीं तो धूल-पानी की तरह हम मिट जाएँगे और हमारी मिटने की कोई निशानी भी नहीं बचेगी।</div></blockquote><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">समय के साथ हमारे समाज में अविश्वसनीयता बढ़ी है, हमारा एक-दूसरे के प्रति सन्देह बढ़ गया है इस दुखद पहलू को भी यह उपन्यास दर्ज़ करता है। चमन छकौरी पहलवान का अंतिम दंगल देख कर आया था और वह जो भी कह रहा था लोग उसे ही सही मान रहे थे। लेकिन आज की स्थिति ऐसी नहीं रह गई है इसलिए यह पंक्ति आती है कि “ज़माना और था। कोई भी किसी की बात पर बिना पूर्वा साखी के भरोसा कर लेता था। लोग एक-दूसरे पर विश्वास करते थे और उसी विश्वास के सहारे समाज चल रहा था।” यहाँ समकालीन कवि <b>अमित तिवारी</b> की कविता ‘<b>बहुत अच्छा समय है</b>’ याद आती है जिसके शुरुआती हिस्से में वे कहते हैं – </div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"> “बहुत अच्छा समय है</div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"> देखने, सुनने और चीन्हने का </div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"> निहितार्थों को समझने का </div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"> शालीनता के शक्ति परीक्षण का </div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"> यह जान लेने का कि आप बेवजह आशावादी थे </div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"> और संदिग्ध होना अब एक काव्यात्मक टिप्पणी भर नहीं है” </div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;">उपन्यास में जिस गाँव का उल्लेख है वह नाम भी हमारा ध्यान आकर्षित करता है। ‘अन्हारी’ गाँव। नाम कुछ भी हो सकता था लेकिन अन्हारी देख कर बिहार में बोली जाने वाली भाषा के एक शब्द पर ध्यान जाता है। बिहार में अंधेरा को अन्हार भी कहते हैं। चूँकि इस उपन्यास की पृष्ठभूमि बिहार ही है और भाषा में भी वह बिहारी ‘टोन’ भरपूर शामिल है इसलिए अन्हारी से एक ध्यान इस ओर भी जाता है कि जहाँ सबलोग धर्म के नाम पर अंधेरे में जी रहे हैं, (अंधेरा इस मायने में कि यहाँ सवाल की रोशनी नहीं है) ऐसी जगह के लिए ‘अन्हारी’ नाम एक प्रतीक की तरह उभरता है। इसलिए भी यह सन्देह की स्थिति जायज़ लगती है – अंजाम-ए- गुलिस्ताँ क्या होगा</div><div itemprop="articleBody" style="text-align: justify;"><br /></div>(ये लेखक के अपने विचार हैं।)</div><div style="text-align: right;"><div style="text-align: center;"><div><b>क़िस्साग्राम</b></div><div>प्रकाशक: राजपाल एंड संस </div><div>भाषा: हिन्दी</div><div>पेपरबैक: 112 पेज</div><div>आईएसबीएन-10: 9389373948</div><div>आईएसबीएन-13: 978-9389373943</div><div><a href="https://amzn.to/3Its9uX" rel="nofollow" target="_blank">अमेज़न पर खरीदें</a> </div></div>
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Bharathttp://www.blogger.com/profile/09488756087582034683noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7457103707258421115.post-3110848688712433232024-03-08T14:07:00.006+05:302024-03-09T14:48:34.266+05:30Sahitya Akademi To Host Spectacular Festival of Letters: A Literary Extravaganza Celebrating 70 Years of Cultural Heritage<div dir="ltr" style="text-align: justify;" trbidi="on">
<h1><b style="border-color: rgb(49, 49, 49); caret-color: rgb(212, 212, 213); color: #313131; font-family: Calibri, sans-serif; font-size: 11pt; word-spacing: 1px;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiYzJiL9O5hUPVvoD4f7eR-BuJ5smezXEdpsKkelzr5o7HYzdOGHlb07OPOV-Owf-wUupmmQtEQzvJHJEU-HgjpBkXhQpEZ5dvJ0yNsSsEQm5v2ggWzzzJOerJTnDZkw70Qal2IIzPRyhBtbxC56zupi44cUXMWB8AvmEeO0mCBjNmRG_T23iGH4XhaQNxc/s903/IMG_2852.jpeg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="508" data-original-width="903" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiYzJiL9O5hUPVvoD4f7eR-BuJ5smezXEdpsKkelzr5o7HYzdOGHlb07OPOV-Owf-wUupmmQtEQzvJHJEU-HgjpBkXhQpEZ5dvJ0yNsSsEQm5v2ggWzzzJOerJTnDZkw70Qal2IIzPRyhBtbxC56zupi44cUXMWB8AvmEeO0mCBjNmRG_T23iGH4XhaQNxc/s16000/IMG_2852.jpeg" /></a></div><br /></b></h1><h1><b style="border-color: rgb(49, 49, 49); caret-color: rgb(212, 212, 213); color: #313131; font-family: Calibri, sans-serif; font-size: 11pt; word-spacing: 1px;"><span data-originalcomputedfontsize="16" data-originalfontsize="12pt" face="Arial, sans-serif" style="border-color: rgb(49, 49, 49); font-size: 1rem; line-height: 19.55px;">New Delhi, March 8, 2024</span></b><span data-originalcomputedfontsize="16" data-originalfontsize="12pt" style="border-color: rgb(49, 49, 49); caret-color: rgb(212, 212, 213); color: #313131; font-family: Garamond, serif; font-size: 1rem; line-height: 19.55px; word-spacing: 1px;"> - Sahitya Akademi is set to host its annual Festival of Letters from March 11th to March 16th, 2024. This year marks a significant milestone as Sahitya Akademi completes 70 glorious years of fostering literary excellence and preserving the rich tapestry of Indian languages and literature.<span><a name='more'></a></span></span></h1><div 11px="" font-size:=""><span itemprop="description"><p style="-webkit-tap-highlight-color: rgba(255, 255, 255, 0.25); -webkit-text-size-adjust: auto; border-color: rgb(0, 0, 0); font-family: Garamond, serif; font-size: 12pt; margin: 0in 0in 0.0001pt; text-size-adjust: auto; word-spacing: 1px;"><span data-originalcomputedfontsize="16" data-originalfontsize="12pt" face="Arial, sans-serif" style="border-color: rgb(49, 49, 49); caret-color: rgb(212, 212, 213); color: #313131; font-size: 1rem; line-height: 19.55px;"><br /></span></p><p class="MsoNormal" style="-webkit-tap-highlight-color: rgba(255, 255, 255, 0.25); -webkit-text-size-adjust: auto; border-color: rgb(49, 49, 49); caret-color: rgb(212, 212, 213); color: #313131; font-family: Calibri, sans-serif; font-size: 11pt; line-height: 16.8667px; margin: 0in 0in 10pt; text-size-adjust: auto; word-spacing: 1px;"><span data-originalcomputedfontsize="16" data-originalfontsize="12pt" face="Arial, sans-serif" style="border-color: rgb(49, 49, 49); font-size: 1rem; line-height: 19.55px;">According to Dr. K. Sreenivasrao, Secretary of Sahitya Akademi, the Festival of Letters promises to be an unparalleled celebration of literary diversity, with more than 1100 esteemed writers and scholars participating. The festival will showcase the vibrant mosaic of Indian languages, with over 175 languages being represented, reflecting the cultural richness of our nation.</span></p><p class="MsoNormal" style="-webkit-tap-highlight-color: rgba(255, 255, 255, 0.25); -webkit-text-size-adjust: auto; border-color: rgb(49, 49, 49); caret-color: rgb(212, 212, 213); color: #313131; font-family: Calibri, sans-serif; font-size: 11pt; line-height: 16.8667px; margin: 0in 0in 10pt; text-size-adjust: auto; word-spacing: 1px;"><span data-originalcomputedfontsize="16" data-originalfontsize="12pt" face="Arial, sans-serif" style="border-color: rgb(49, 49, 49); font-size: 1rem; line-height: 19.55px;">The festival's grand inauguration will feature an exhibition highlighting Sahitya Akademi's major initiatives and achievements over the past year. A pinnacle moment of the event will be the prestigious Sahitya Akademi Awards 2023 presentation ceremony, scheduled for March 12th at 5:30 pm in the esteemed Kamani Auditorium. Notably, the Awards Presentation Ceremony will be graced by the presence of the distinguished Odia writer, Pratibha Rai, as the Chief Guest.</span></p><p class="MsoNormal" style="-webkit-tap-highlight-color: rgba(255, 255, 255, 0.25); -webkit-text-size-adjust: auto; border-color: rgb(49, 49, 49); caret-color: rgb(212, 212, 213); color: #313131; font-family: Calibri, sans-serif; font-size: 11pt; line-height: 16.8667px; margin: 0in 0in 10pt; text-size-adjust: auto; word-spacing: 1px;"><span data-originalcomputedfontsize="16" data-originalfontsize="12pt" face="Arial, sans-serif" style="border-color: rgb(49, 49, 49); font-size: 1rem; line-height: 19.55px;">Renowned Urdu writer and lyricist, Gulzar, will deliver the esteemed Samvatsar lecture on March 13th at 6:30 pm at the Meghdoot open theatre, adding a touch of literary brilliance to the festival. Additionally, the festival will host a plethora of engaging sessions, panel discussions, and symposia on various topics ranging from Bhakti Literature of India to Science Fiction in Indian Languages, catering to diverse literary interests.</span></p><p class="MsoNormal" style="-webkit-tap-highlight-color: rgba(255, 255, 255, 0.25); -webkit-text-size-adjust: auto; border-color: rgb(49, 49, 49); caret-color: rgb(212, 212, 213); color: #313131; font-family: Calibri, sans-serif; font-size: 11pt; line-height: 16.8667px; margin: 0in 0in 10pt; text-size-adjust: auto; word-spacing: 1px;"><span data-originalcomputedfontsize="16" data-originalfontsize="12pt" face="Arial, sans-serif" style="border-color: rgb(49, 49, 49); font-size: 1rem; line-height: 19.55px;">Dr. K. Sreenivasrao expressed his enthusiasm for the festival, stating, "This year's Festival of Letters is not just a celebration of literature but also a tribute to the enduring spirit of Sahitya Akademi as it completes seven decades of nurturing India's literary landscape. We are honored to welcome esteemed writers, scholars, and dignitaries from across the country to partake in this literary extravaganza."</span></p><p class="MsoNormal" style="-webkit-tap-highlight-color: rgba(255, 255, 255, 0.25); -webkit-text-size-adjust: auto; border-color: rgb(49, 49, 49); caret-color: rgb(212, 212, 213); color: #313131; font-family: Calibri, sans-serif; font-size: 11pt; line-height: 16.8667px; margin: 0in 0in 10pt; text-size-adjust: auto; word-spacing: 1px;"><span data-originalcomputedfontsize="16" data-originalfontsize="12pt" face="Arial, sans-serif" style="border-color: rgb(49, 49, 49); font-size: 1rem; line-height: 19.55px;">The festival will also feature special programs such as the All India Differently Abled Writers’ Meet, LGBTQ Writers’ Meet, and seminars commemorating the birth centenary of literary luminaries like Mir Taqi Mir and Gopichand Narang.</span></p><p class="MsoNormal" style="-webkit-tap-highlight-color: rgba(255, 255, 255, 0.25); -webkit-text-size-adjust: auto; border-color: rgb(49, 49, 49); caret-color: rgb(212, 212, 213); color: #313131; font-family: Calibri, sans-serif; font-size: 11pt; line-height: 16.8667px; margin: 0in 0in 10pt; text-size-adjust: auto; word-spacing: 1px;"><span data-originalcomputedfontsize="16" data-originalfontsize="12pt" face="Arial, sans-serif" style="border-color: rgb(49, 49, 49); font-size: 1rem; line-height: 19.55px;">Noteworthy cultural performances including Bharatanatyam, Santvani singing, and theatrical presentations will further enrich the festival experience. Eminent personalities such as S.L. Bhayrappa, Chandrashekhar Kambar, Paul Zacharia, and many more will grace the occasion with their presence, adding to the festival's grandeur.</span></p><p class="MsoNormal" style="-webkit-tap-highlight-color: rgba(255, 255, 255, 0.25); -webkit-text-size-adjust: auto; border-color: rgb(49, 49, 49); caret-color: rgb(212, 212, 213); color: #313131; font-family: Calibri, sans-serif; font-size: 11pt; line-height: 16.8667px; margin: 0in 0in 10pt; text-size-adjust: auto; word-spacing: 1px;"><span data-originalcomputedfontsize="16" data-originalfontsize="12pt" face="Arial, sans-serif" style="border-color: rgb(49, 49, 49); font-size: 1rem; line-height: 19.55px;">In a testament to its national significance, the Festival of Letters will see the participation of Governors from three states - Arif Mohammed Khan (Kerala), Shri Bishwabhusan Harichandan (Chhattisgarh), and Shri C.V. Anand Bose (West Bengal), underscoring the event's importance in the cultural landscape of India.</span></p><p style="-webkit-tap-highlight-color: rgba(255, 255, 255, 0.25); -webkit-text-size-adjust: auto; border-color: rgb(0, 0, 0); font-family: Garamond, serif; font-size: 12pt; margin: 0in 0in 0.0001pt; text-size-adjust: auto; word-spacing: 1px;"></p><p class="MsoNormal" style="-webkit-tap-highlight-color: rgba(255, 255, 255, 0.25); -webkit-text-size-adjust: auto; border-color: rgb(49, 49, 49); caret-color: rgb(212, 212, 213); color: #313131; font-family: Calibri, sans-serif; font-size: 11pt; line-height: 16.8667px; margin: 0in 0in 10pt; text-size-adjust: auto; word-spacing: 1px;"><span data-originalcomputedfontsize="16" data-originalfontsize="12pt" face="Arial, sans-serif" style="border-color: rgb(49, 49, 49); font-size: 1rem; line-height: 19.55px;">Sahitya Akademi, India’s National Academy of Letters, is an autonomous organization established by the Government of India to promote and preserve literature in various Indian languages. Since its inception in 1954, Sahitya Akademi has been at the forefront of recognizing literary excellence through its prestigious awards and fostering literary dialogue through various initiatives and programs.</span></p></span></div>
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Bharathttp://www.blogger.com/profile/09488756087582034683noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7457103707258421115.post-58928673992915625672024-03-04T20:29:00.000+05:302024-03-04T20:29:10.707+05:30कहानी: इंसानी जंगलराज - रीता दास राम | Kahani: Insani JungleRaj - Reeta Das Ram<div dir="ltr" style="text-align: justify;" trbidi="on">
<div>जब कहानी मासूमियत को बरक़रार रखते हुए संदेश देने की कोशिश करती है तब उसे सफल कहानी माना जाना चाहिए। रीता दास राम की कहानी 'इंसानी जंगलराज' पढ़िएगा, अपनी राय रखिएगा। ~ सं० </div><span><a name='more'></a></span><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgtfB38jMUdht_pLyGeqpH_6o1VSgGVKF2hh6TEPiAbJKcj1MFXnfn2jx6ezgq5y2z2ecuf_eCUMCcU-Pm7GxMHzeDR3bc_ylmAL7YrTvlOQJx42FuwOswdyfCugWqY24BCUOLR0YIDNarPJgME87ts3Ft_zooI7bvIQ05wIWmg1o5L8YjgzLDvANw2uauO/s903/Reeta%20Das%20Ram%20kahani%20Insani%20JungleRaj.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="508" data-original-width="903" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgtfB38jMUdht_pLyGeqpH_6o1VSgGVKF2hh6TEPiAbJKcj1MFXnfn2jx6ezgq5y2z2ecuf_eCUMCcU-Pm7GxMHzeDR3bc_ylmAL7YrTvlOQJx42FuwOswdyfCugWqY24BCUOLR0YIDNarPJgME87ts3Ft_zooI7bvIQ05wIWmg1o5L8YjgzLDvANw2uauO/s16000/Reeta%20Das%20Ram%20kahani%20Insani%20JungleRaj.jpg" /></a></div><br /><div style="text-align: center;"><br /></div><div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody"><h1 itemprop="headline">इंसानी जंगलराज</h1><h2 itemprop="alternativeHeadline">~ रीता दास राम</h2><h2 itemprop="alternativeHeadline"><div 11px="" font-size:=""></div><div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody"><span style="font-size: 11px;">कवि / लेखिका / एम.ए., एम फिल, पी.एच.डी. (हिन्दी) मुंबई विश्वविद्यालय, मुंबई </span></div><div itemprop="articleBody"><span style="font-size: 11px;"><div itemprop="articleBody"><span style="font-weight: normal;">प्रकाशित पुस्तक: “हिंदी उपन्यासों में मुंबई” 2023 (अनंग प्रकाशन, दिल्ली), / उपन्यास : “पच्चीकारियों के दरकते अक्स” 2023, (वैभव प्रकाशन, रायपुर) / कहानी संग्रह: “समय जो रुकता नहीं” 2021 (वैभव प्रकाशन, रायपुर) / कविता संग्रह: 1 “गीली मिट्टी के रूपाकार” 2016 (हिन्द युग्म प्रकाशन) 2. “तृष्णा” 2012 (अनंग प्रकाशन). विभिन्न पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित: ‘हंस’, कृति बहुमत, नया ज्ञानोदय, साहित्य सरस्वती, ‘दस्तावेज़’, ‘आजकल’, ‘वागर्थ’, ‘पाखी’, ‘शुक्रवार’, ‘निकट’, ‘लमही’ वेब-पत्रिका/ई-मैगज़ीन/ब्लॉग/पोर्टल- ‘पहचान’ 2021, ‘मृदंग’ अगस्त 2020 ई पत्रिका, ‘मिडियावाला’ पोर्टल ‘बिजूका’ ब्लॉग व वाट्सप, ‘शब्दांकन’ ई मैगजीन, ‘रचनाकार’ व ‘साहित्य रागिनी’ वेब पत्रिका, ‘नव प्रभात टाइम्स.कॉम’ एवं ‘स्टोरी मिरर’ पोर्टल, समूह आदि में कविताएँ प्रकाशित। / रेडिओ : वेब रेडिओ ‘रेडिओ सिटी (Radio City)’ के कार्यक्रम ‘ओपेन माइक’ में कई बार काव्यपाठ एवं अमृतलाल नागरजी की व्यंग्य रचना का पाठ। प्रपत्र प्रस्तुति : एस.आर.एम. यूनिवर्सिटी चेन्नई, बनारस यूनिवर्सिटी, मुंबई यूनिवर्सिटी एवं कॉलेज में इंटेरनेशनल एवं नेशनल सेमिनार में प्रपत्र प्रस्तुति एवं पत्र-पत्रिकाओं में आलेख प्रकाशित। / सम्मान:- 1. ‘शब्द प्रवाह साहित्य सम्मान’ 2013, तृतीय स्थान ‘तृष्णा’ को उज्जैन, 2. ‘अभिव्यक्ति गौरव सम्मान’ – 2016 नागदा में ‘अभिव्यक्ति विचार मंच’ 2015-16, 3. ‘हेमंत स्मृति सम्मान’ 2017 ‘गीली मिट्टी के रूपाकार’ को ‘हेमंत फाउंडेशन’ की ओर से, 4. ‘शब्द मधुकर सम्मान-2018’ मधुकर शोध संस्थान दतिया, मध्यप्रदेश, द्वारा ‘गीली मिट्टी के रूपाकार’ को राष्ट्र स्तरीय सम्मान, 5. साहित्य के लिए ‘आचार्य लक्ष्मीकांत मिश्र राष्ट्रीय सम्मान’ 2019, मुंगेर, बिहार, 6. ‘हिंदी अकादमी, मुंबई’ द्वारा ‘महिला रचनाकार सम्मान’ 2021 / </span><span style="font-weight: normal;">पता</span><span style="font-weight: normal;">: 34/603, एच॰ पी॰ नगर पूर्व, वासीनाका, चेंबूर, मुंबई – 400074. /</span><span style="font-weight: normal;"> </span><span style="font-weight: normal;">मो</span><span style="font-weight: normal;">: 09619209272.</span><span style="font-weight: normal;"> </span><span style="font-weight: normal;">ई मेल</span><span style="font-weight: normal;">: reeta.r.ram@gmail.com </span></div><div><br /></div></span></div></div></h2></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">शहर की चिकनी सपाट साफ़ सड़क आगे बढ़ती चौराहे से मिलती चार रास्तों को जोड़ती चौड़ी हो गई है। इसी शांत सड़क पर कुछ आवारा कुत्तों की मटरगश्ती हमेशा चलती है। आवारा इसलिए कि उनका कोई मालिक नहीं है। उन्हें बाँध कर रखने वाला कोई नहीं। रोटी देने वाला कोई नहीं। वे खुली आज़ाद गलियों में पले हैं जिन्हें कोई इंजेक्शन नहीं दिया गया। कोई उनकी देखभाल नहीं कर रहा है। कचरे में पड़ा जूठा खाते हैं और इन्ही रास्तों पर पड़े रहते। वे अपनी गली के बादशाह है। किसी पर भी भौंक सकते है। गुर्रा सकते है। काट सकते है। भगा सकते है। पीछा कर सकते है। अब भी पाँच-छह कुत्ते अपनी गली के शेर बने बैठे हैं। ये गली कुत्तों की है इस पर राज भी इन्हीं का। </div><div itemprop="articleBody"> </div><div itemprop="articleBody">कुत्तों ने देखा, पट्टे में बंधे एक कुत्ते को अपनी मालकिन के साथ आते हुए। बहुत सुंदर सफेद स्वच्छ धुला-धुला-सा साफ़ कुत्ता। अपनी मालकिन के कभी आगे तो कभी पीछे चलता। सूँघता हुआ सड़क को, जैसे पता करना चाहता हो, क्या कुछ घट चुका है -- इस सड़क पर उसके आने के पहले और क्या कुछ घटने वाला है उसके आने के बाद। चौकन्ना। सतर्क। इधर-उधर ताकता हुआ। वह देखता है, उन आवारा कुत्तों को देखते हुए अपनी ओर। थोड़ा डरते, थोड़ा सहमते, सकुचाते हल्का-सा गुर्राते, बीच-बीच में पूंछ हिलाते, बहुत कम पर भौंकते, चला जा रहा है वह उस ओर मालकिन के इशारे पर जहाँ चलने का उसे आदेश मिलता है। </div><div itemprop="articleBody">हंसने लगे सभी आवारा कुत्ते। समाज ने जिन्हें आवारा नाम जो दिया है। किसी पर भी हँस सकते है। किसी को भी देख सकते है। किसी की भी खिल्ली उड़ा सकते है .... क्या फरक पड़ता है। भौंकते हुए आपस में बतियाते वो सभी लगे उड़ाने खिल्ली। चिढ़ाने लगे मासूम को, जो बँधा है मालकिन के आज्ञा के घेरे में जबकि वे सभी है आज़ाद। उस बेचारे की मजबूरी या किस्मत वो सभी क्या जाने। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“अरे देखो !! वो कुत्ता। कुत्तों के नाम पर धब्बा। इंसानों का गुलाम। कैसे पट्टे में बँधा चला जा रहा है। मालिक के पीछे-पीछे दुम हिलाते। बेचारा। बँधा हुआ है। मन की कर भी नहीं सकता। मन-मुताबिक घूम भी नहीं सकता। दौड़ के कहीं आ-जा भी नहीं सकता। जहाँ उसे ले जाया जाता है वो वहीं जा पाता है।” बंधे हुए कुत्ते ने चौंकते हुए कान खड़े किए। उनकी बातें सुनी। नजरंदाज़ किया। फिर असहनीय अंदाज में अपमानित-सा पलटा, उन कुत्तों को देखकर लगा भौंकने। उसकी मालकिन उसे दूसरी ओर खींचे लिए जा रही थी ताकि वह इन आवारा कुत्तों से दूर रहे। लेकिन उसने बोलना जारी रखा, </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“ओ आवारा! कुत्तों ... कमीनों सबके सब। दिन भर गली में घूमते हो इधर-उधर मुँह मारते हुए। तुम्हारा कोई पता ठिकाना नहीं। कचरे में मुँह घुसाते फिरते हो। कुछ नहीं मिला तो मैला खाते हो। एक दूसरे को काट खाने को दौड़ते हो। दिन भर गली में भौंकते रहते हो। झगड़ा करना ही जैसे तुम्हारा मकसद है। दिन भर झगड़ते हो। और मुझ पर कीचड़ उछालते हो .... शर्म आनी चाहिए तुम्हें !!” सुनकर एक वरिष्ठ आवारा कुत्ते को चोट पहुँची। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“ओए पालतू। नौकर कहीं का। दिन भर जी हुजूरी करने वाले। पट्टे और मालिक के बल पर इतरा रहा है? अच्छा खाना तू खा रहा है ना! तो खा। आलीशान रह। लेकिन याद रख ये सब तुझे तभी मिलता है जब तू इनकी चाकरी करता है। चापलूसी करता है। इनके घर की पहरेदारी करता है। ‘उठ’ बोले तो! उठता है, ‘बैठ’ बोले तो! बैठता है। अगर ये नहीं करेगा ना! तो ये लोग तुझे लात मार कर घर से बाहर निकाल देंगे। समझा ना। ज्यादा इतरा मत। है तो तू दरकारी नौकर ही ना। जिस दिन तेरी कोई दरकार नहीं होगी तुझे धक्के मार कर भगा देंगे। फिर तू भी किसी गली में पड़ा मिलेगा धूल में लोटता। समझा ना! कार्पेट पर सोने वाले इतरा मत।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“ओ समझ लो !! मैं कोई नौकर नहीं। अपनी मर्ज़ी का मालिक हूँ। इन्होंने मुझे पसंद किया इसलिए मैं यहाँ हूँ। तुम्हारा क्या जाता है। मुझे गुलाम कहने वाले अपनी आज़ादी की फिक्र करो। मैं तो फिर भी मेहनत की खाता हूँ। गली-गली भटकता नहीं। किसी को बेवजह काटता नहीं। जितना मिलता है खाता हूँ। संतोषी हूँ।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“अरे जा-जा, मेहनत की खाने वाला। इसके लिए तुझे कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं हम नहीं जानते क्या? दरवाजे पर खड़े रहना, आंगतुक को देख कर भौंकना, गेंद उठाकर लाना, जो दिया जितना दिया खाना, मालिकों को देखकर पूंछ हिलाना। ना-नुकूर किया तो डाँट खाना। कभी मालिक पर भौंक कर तो देख पता चल जाएगा तुझको उनकी नज़रों में तेरी अपनी असलियत.... समझा ना।” सुनकर पट्टे में बँधा कुत्ता हल्के से गुर्राते हुए खींचे जाने की वजह से अपने रास्ते चला गया। जैसे कि कर रहा हो सच का सामना। सोचते। मुसकुराते। मालकिन की राह पर चलते जो अगले मोड़ से अपने घर की तरफ ले जा रही है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">रास्ते के किनारे तटस्थ खड़ी बिल्ली देख रही थी, सच क्या है और क्या है झूठ। कुछ कुछ झिझकते, समझते, रास्ता बदलते उसने ‘म्याऊँ’ कहा। जैसे सलाम दुआ दिया लिया जा रहा हो। एक कौवे ने ‘काँव-काँव’ की चीख पुकार मचाई जैसे कह रहा हो ‘बस बस यहाँ यह सब चलता रहता है। अपनी दादागिरी अपने पास रखो’। कुछ चिड़िया भरभरा कर उड़ चली दूसरे मुहल्ले की ओर के ‘हमें नहीं पड़ना इनके पचड़े में’। पेड़ खामोशी से खड़े मुँह फेर हवा के साथ देखने लगे दूसरी ओर। कुत्ते मजे से पत्थरों को सूंघते पिशाब करने में लग गए। पौधों ने मुँह सिकोड़ कर नजरें भींच ली। बिल्ली ने इतने आहिस्ते से दूसरी गली का रुख किया कि किसी को पता भी न चला। चीटियाँ अपना खाना ले जाती निरंतर गतिशील रही बांबी की ओर। चूहे कचरों में घूमते अचानक बिलों की ओर दौड़ पड़े। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">तेज आती गाड़ी ने पास आकर जोर से हॉर्न बजाई और कुत्ते बौखलाकर तितर-बितर हो गए। गाड़ी पट्टे वाले कुत्ते के घर के सामने रुकी। और पट्टे वाला कुत्ता पूरी मासूमियत से दुम हिलाते बाहर निकला। मालिक को देख लगा सूंघने और पूँछ हिलाने। मालिक की नजरों में देखता रहा जैसे हालचाल पूछ या बता रहा हो। दूर से देखते रहे चिड़िया, कौवे, चीटियाँ, चूहे और कुत्ते ना समझते हुए सही-गलत। बिल्ली ने धीरे से पालतू कुत्ते के घर प्रवेश किया, इधर-उधर देखते हुए बड़ी सतर्कता से छुपते हुए कि कोई देख ना ले। मालिक और कुत्ते की तुकबंदी में व्यवधान ना पड़े जो अपनी तर्ज पर आवभगत में व्यस्त थे। मालिक ने कुत्ते को गोद में उठाया पुचकारा, प्यार किया और साथ लिए अंदर जाने लगा। बिल्ली जल-भुन कर कह उठी, </div><div itemprop="articleBody">“ ‘म्याऊँ’, हाँ हाँ ठाठ है तुम्हारी, कभी गोद में तो कभी बिस्तर पर, कभी नाश्ते तो कभी डॉगस फूड। नहाने का अपना लुत्फ, जिसका तो हमने कभी स्वाद भी नहीं चखा। हाँ बारिश के पानी में भीगे जरूर हैं” बिल्ली खिसियाहट में कह गई। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मालिक की वाहवाही लेने के लिए कुत्ता बिल्ली को देख भौंकने लगा। कुत्ते के भौंकते ही घर के लोगों ने बिल्ली को भगाने और दूध की पतीली को फ़िज़ में रखने की क्रिया में शीघ्रता दिखाई। बिल्ली ने मुँह फुलाकर जल्दी से दूसरे कमरे की ओर रुख किया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“कौन है ये ‘इंसान’। जो एक कुत्ते पर शासन कर रहे है। क्यों बंदी बना रखा है उसे। सिर्फ अपने घर की शोभा बढ़ाने।” बिल्ली की बड़बड़ाहट कुत्ते ने सुन ली। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“नहीं सुख का भोग है बस। सुविधानुसार राजसी ठाठ” बिल्ली ने चौंक कर देखा किसने बोला है। कुत्ता अपने जगह को सूँघता, गोल गोल घूम तसल्ली करता अपने जगह पर बैठ गया।</div><div itemprop="articleBody"> </div><div itemprop="articleBody">“कुछ भी बोल रहा है! ऐसी बात होती तो और भी होते कई... !” बिल्ली ने अचरज से पूछा। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“तुम्हें पता है म्याऊँ ! यहाँ एक खरगोश भी था। दो तीन सफेद चूहे भी।”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“क्या बात कर रहा है!! मैंने तो नहीं देखा” बिल्ली की निगाह चमकी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“हाँ-हाँ बहुत प्यारे थे वे सभी” कुत्ता कह उठा। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“तो ... कहाँ है वो ? कुछ भी बोल रहा है।” बिल्ली ने चंचलता से तुरंत पूरे घर की तलाशी ली। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“दो दिन पहले जाने क्या हुआ कोई नज़र नहीं आते, मुझे लगा तुमने ही खाए होंगे!” कुत्ते की बात सुनकर बिल्ली सहमकर दो कदम पीछे हो गई। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“क्या बक रहा है। मैंने तो देखा ही नहीं ... खाती कैसे? तुम्हारे मालिक ने किसी को बेच दिए होंगे। आज कल ये इंसान हम जानवरों की अच्छी नस्ल को पालने और बेचने के धंधे में बहुत पैसा कमा रहे हैं। और तो और पता है ‘डॉग शो’ भी होते हैं। प्रतियोगिताएं होती है। कुत्तों को कपड़े भी पहनाए जाते हैं। बिलकुल इंसानों जैसे।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“हाँ, पता है मुझे ..।“” कुत्ते ने उपेक्षित हामी भरी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“जाने क्यों ! ये इंसानों को नंगापन बर्दाश्त नहीं होता। ये लोग इसे इतनी अहमियत देते हैं। मान-सम्मान से जोड़ते हैं। इसके कारण हत्या और आत्महत्या तक कर बैठते हैं। पता नहीं क्या है ये नंगापन ... ये ही जाने।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“ये लोग जिसे नंगा होना कहते हैं सभी तो वैसे ही पैदा होते हैं। जानवर क्या और इंसान क्या, पक्षी भी सारे ही।“” कुत्ते ने सोचनीय मुद्रा बनाई और कहा। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“हाँ और जीवन भर नंगे ही रहते हैं। हमें तो कुछ नहीं लगता। ये लोग जाने क्या-क्या सोचते हैं। उसे अपनी नाक कहते हैं याने कि इज़्ज़त। इनकी ही नाक जाने क्यों इतनी ऊँची।” </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“सब किया धरा है इनकी बुद्धि का। जिसे दिमाग कहा जाता हैं। इसमें सोचने समझने की शक्ति होती है। इससे विचार करने की राहें खुलती है, इसलिए इंसान इतना पेचीदा है। किसी को नंगई से परेशानी है कोई नंगई को इन्जॉय करता है। बात समझ में आई!” कुत्ते ने ज्ञानी होने की भूमिका निभाई। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“बस बस! चुप कर। लगता है कोई आ रहा है। किसी ने हमें बोलते सुन लिया तो!” बिल्ली शंकित हुईं। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“तो क्या इन लोगों को हमारी बात समझ में थोड़ी ना आती है” कुत्ते ने हल्की-सी मुस्कान में जवाब दिया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“तुझे कैसे पता ? अगर आती हो तो?” बिल्ली बोली। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“नहीं भई। अभी इन्होंने इतनी भी प्रगति नहीं की हैं कि हमारी जुबान समझ लें। चाँद पर जा चुके हैं। मंगल पर जाने की कल्पना करते हैं। जबकि अपनी पृथ्वी को ही अब तक नहीं समझ पाए हैं। जहाँ रहते हैं उसी का दिन-रात दोहन करते रहते हैं।”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“क्या मतलब? तुम्हारी बातें मेरी समझ से बाहर है” बिल्ली ने उपेक्षा में मुँह फिरा लिया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“खैर जाने दो। तुम अपने काम से मतलब रखो” कुत्ते ने कहा और मुँह घुमा कर बैठ गया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“क्या मतलब? तुम्हें क्या लगता मैं बुद्धू हूँ?” बिल्ली की त्यौरियाँ चढ़ गई। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“नहीं मेरी अम्मा! बहुत होशियार हो तुम। दबे पाँव आती हो और दबे पाँव चली जाती हो किसी को पता भी नहीं चलता। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“हाँ-हाँ, इस बात में तो मैं माहिर हूँ।” बिल्ली ने मान से कहा। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“तुमसे कोई बात छुपी रह सकती है भला।” कुत्ते ने बकवास से बचने में खैरियत समझी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“एक बात बताओ? ये इंसान है क्या चीज ? कौन है ये लोग? कहाँ से आए हैं? क्यों सभी पर राज करना चाहते हैं?” बिल्ली ने उत्साहित हो पूछा। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“ये तो पता नहीं। हाँ इतना जानता हूँ। ये लोग भी यहीं पैदा होते हैं हमारे ही जैसे, और यहीं मर जाते हैं। पर जब तक जीवित रहते हैं एक स्पर्धा में जीते हैं। एक अंजानी होड। एक प्रतियोगिता हरदम-हरपल। सभी में बेहतर होने की भूख। सबसे अलग होने की आकांक्षा। इच्छानुसार पाने की जिद्द जिसकी कोई सीमा ही नहीं।”</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“अच्छा?” बिल्ली ने आश्चर्य से आँखें फैलाई। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“हमारी भूख पेट से शुरू होकर वहीं खत्म हो जाती है। पर इनकी भूख इनके दिमाग पर राज करती है। सबसे आगे निकलने की होड़ में जीती है इंसानी दुनिया। यह एक तरह से इनका जंगल ही है जहाँ इनका ही राज है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“क्या! क्या मतलब? जंगलराज याने !! जंगल मैंने भी देखा है। बहुत बड़ा होता है और डरावना भी। बहुत पहले मैं वहाँ से भाग आई।” बिल्ली बोल उठी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“सच है। जंगल में हिंसा और ताकत का राज चलता है। जिसके पास यह चीज हो वही वहाँ रह सकता है। कमजोर पर ताकत से जीत हासिल करते हुए। बिलकुल ऐसा ही जैसा ये इंसानी समाज।” कुत्ते ने कहा। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“हाँ देखती हूँ ये इंसान भी सब पर अपना कब्ज़ा क़ायम करना चाहता है। क्या जानवर, क्या पक्षी, क्या पेड़, पौधे, पहाड़, जमीन क्या आसमान। ये लोग इंसानों को भी नहीं छोड़ते। कमजोर इंसानों पर तो तानाशाही होती है। उनका हर तरीके से इस्तेमाल करते है। किसी-किसी इंसान की हालत तो जानवरों से भी बदतर होती है” बिल्ली ने कहा। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“इंसानों के बीच भी बसते है जैसे शेर, चीते, लकड़बग्घे, सियार... चालाक और रक्त पिपासु।” कुत्ते ने भड़ास निकाली। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">“ओए चुप कर, मुझे डर लगता है। जंगल से यहाँ आई थी यह सोचकर कि यहाँ सभ्यता बसती है चैन से रहूँगी, लेकिन नहीं। यहाँ भी एक दूसरे ही जंगल के दर्शन होते है। इंसानों का बनाया हुआ जंगल। जो ताकतवर हो उसी की जीत, उसी का राज।” बिल्ली ने घबराकर स्थिति का जायजा लिया जाने में भलाई समझी। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कहीं सोच-सोच कर बीपी ना बढ़ जाए इंसानों की तरह और वह निकल पड़ी खिड़की से बाहर इंसानों की दुनिया के बीच अपनी दुनिया की ओर। अपनी आज़ाद दुनिया में जहाँ आज़ादी का मतलब ‘सतर्क जिंदगी’ था। किसी ट्रक या गाड़ी के नीचे आकर मिलने वाली मौत नहीं जिसे वह इंसानी जंगलराज की देन कहती है। </div><div><br /></div></div>
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(ये लेखक के अपने विचार हैं।)<br />
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Bharathttp://www.blogger.com/profile/09488756087582034683noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-7457103707258421115.post-351362930511943402024-02-24T12:31:00.003+05:302024-02-24T12:32:13.054+05:30नंद चतुर्वेदी: एक समय सचेत कवि ~ प्रो. मलय पानेरी | Nand Chaturvedi: A time-conscious poet<div dir="ltr" style="text-align: justify;" trbidi="on">
<div itemprop="articleBody"><blockquote><div itemprop="articleBody">पराजय कब नहीं थी<div itemprop="articleBody">कब नहीं थे झूठ के वाहवाह करने वाले</div><div itemprop="articleBody">लेकिन तभी दल-दल से</div><div itemprop="articleBody">निकल आया था समय</div><div itemprop="articleBody">करिश्में और भाग्य से नहीं</div><div itemprop="articleBody">मनुष्य के उत्साह और संसर्ग से। </div><div itemprop="articleBody"> ~ नंद चतुर्वेदी</div></div></blockquote><span><a name='more'></a></span><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">नंदबाबू पराधीन भारत के युवा कवि थे। उन्होंने आजादी से पहले के परिवेश में जीवन-मूल्यों के महत्व को समझा था, किंतु आजादी मिलने के बाद इनका महत्व कम होने लगा, इनकी ग्लानि कवि को हमेशा रही ; लेकिन अपनी रचनाओं में वे हमेशा मूल्यों और संस्कारों की अपेक्षित गरिमा को बनाये रखते थे। स्वाधीनता प्राप्ति के लगभग ढाई साल बाद नया संविधान हमारे यहाँ अस्तित्व में आया फिर भी लोकतंत्र की दृष्टि से हम अपूर्ण ही रहे, जिसे कवि ने गैर मामूली समय के तौर पर देखा था।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">शायद हिन्दी से जुड़े एक वर्ग को कवि नंद चतुर्वेदी के बारे में अधिक जानकारी न हो, उनके लिए और जो नंदबाबू को जानते हों उनके लिए, हमसब के लिए प्रो. मलय पानेरी का यह आलेख पढ़ना आवश्यक है जिसमें उनके काव्य के महत्त्व का उल्लेख है और कुछ संस्मरण भी। ~ सं० </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody" style="text-align: center;"> <table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhTT-NpvJ8jBUS3dzj9r8doTopz32zTE8UW1rWpQ0E5yI6uKT9GTsbJvVMKMQYlsee6tC99UhCMuOqNumKPDlgUcJwAvxvUJ86K7PkCUfrTIxJtRFyqs6rb9nGQ2rFV8NVU3IQLCN3jz02f6O2Bq2xAyhuOiWA43a8BROfKQ28e8ARoRyNTIhmMiWSalyuq/s903/Nand%20Chaturvedi%20a%20time%20conscious%20poet.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="508" data-original-width="903" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhTT-NpvJ8jBUS3dzj9r8doTopz32zTE8UW1rWpQ0E5yI6uKT9GTsbJvVMKMQYlsee6tC99UhCMuOqNumKPDlgUcJwAvxvUJ86K7PkCUfrTIxJtRFyqs6rb9nGQ2rFV8NVU3IQLCN3jz02f6O2Bq2xAyhuOiWA43a8BROfKQ28e8ARoRyNTIhmMiWSalyuq/s16000/Nand%20Chaturvedi%20a%20time%20conscious%20poet.jpg" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">Nand Chaturvedi: a time-conscious poet</td></tr></tbody></table><br /></div><h1>नंद चतुर्वेदी: एक समय सचेत कवि</h1><h3>प्रो. मलय पानेरी</h3><div><span style="font-size: 12px;">आचार्य एवं विभागाध्यक्ष, जनार्दन राय नागर राज. विद्यापीठ , (डीम्ड टू बी विश्वविद्यालय), उदयपुर (राज.), मो.नं. 9413263428 </span></div><div><span style="font-size: 12px;"><br /></span></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उदयपुर में साहित्य-जगत की रौनक माने जाने वाले प्रो. नंद चतुर्वेदी का जन्म राजस्थान की तत्कालीन मेवाड़ रियासत के गाँव रावजी पिपल्या में सन् 1923 में हुआ था। उसी गाँव में उनके बचपन का कुछ हिस्सा गुजरा था, उनका मकान भी वहाँ था। वहाँ की हालात-परिस्थितियों में जैसा जीवन मिलना संभव रहा होगा, वैसा ही उन्हें स्वीकारना पड़ा था। गाँव का जीवन कभी सुविधाओं वाला नहीं रहा है और फिर उस समय के घनघोर अभावों से सामना करते हुए जीना केवल बाध्यता की श्रेणी में आता है। सो नंदबाबू का जीवन शायद इन्हीं परिस्थितियों से आरंभ हुआ था। मेरे लिए यह संयोग ही माना जाना चाहिए कि मुझ से पहले की चार पीढ़ी के पारिवारिक पुरखे का गाँव भी यही रावजी पिपल्या रहा था, उसी वजह से मेरा आना-जाना भी यहाँ रहा, लेकिन तब यह नहीं पता था कि यह उन्हीं नंदबाबू का पुश्तैनी गाँव है, जो अब उदयपुर में 30, अहिंसापुरी, फतहपुरा का सुगंधी वृक्ष बन चुके हैं। अभी कुछ समय पहले पुनः रावजी पिपल्या जाना हुआ, तब स्थानीय रिश्तेदारों से उस मकान का पता पूछते-पूछते अन्ततः नंदबाबू के तत्कालीन आवास के सामने जा खड़ा हुआ। हल्के पीले रंग में पुता हुआ मकान और उसके पास ही सटा हुआ एक रामद्वारा भी है। गाँव की पुरानी बसावट और तंग गलियाँ, जीवन यापन मुख्य रूप से काश्तकारी पर आधारित, खेतों से थककर लौटते काश्तकारों को थोड़ा सुकून मिल सके इसके लिए कहीं-कहीं छोटे मंदिर, कबूतरों को दाना डालने का निश्चित स्थान, जो आसपास के लोगों के लिए सरकारी सेवा से आती डाक का स्थायी पता देता हुआ, गाँव की संरचना में सामन्ती आवास (रावला) गाँव के पास की छोटी पहाड़ी पर, जो सामान्य गाँव-वासियों से थोड़ा अलग परकोटे के अंदर है। इन सबके बीच में (स्थित कहना ठीक नहीं होगा) फंसा हुआ है नंदबाबू का मकान जिसके किवाड़ों के ऊपर बचे स्थान पर आज भी चौबे परिवार की एक इबारत लिखी हुई है, जिसमें कुछ ऐसा (पूज्य पिताजी श्री गोकुलचंद जी चौबे माताजी श्री गोविन्दी बाई के पावन स्मृति में सुपुत्र मुरलीधर चौबे ठि. पिपल्या रावजी) अंकित है, जिससे यह पता चलता है कि नंदबाबू के परिवार से संबंधित कोई वहाँ आज भी निवास कर रहा है। घर के मुख्य दरवाजे पर एक ताला लगा हुआ है एवं उस पर सूखी घास की चूड़ी बनाकर फंसा रखी है। पूछने पर पता चला कि यदि घर में कोई व्यक्ति नहीं मिलता है तो ताले या कुंडी पर घास फँसाकर यह संकेत किया जाता है कि आज गाँव में किसी के यहाँ भोजन/जीमण है एवं आपके परिवार को नूंता गया है। इस गाँव में आज भी परंपरा के रूप में पुरानी प्रथाएँ अपने पूरे देहातीपन के साथ जिंदा हैं। वरना मोबाईल और वाट्सअप के ज़माने में कौन ऐसे संकेतों के सहारे चलता है! खैर! गाँव की इस पारंपरिक व्यवस्था में ही यहाँ के बाशिंदों का विश्वास है। नंदबाबू के मकान के आगे खड़ा-खड़ा मैं यहाँ के लोगों के जीवन के बारे में सोच रहा हूँ, देख रहा हूँ, तरक्की पसंद ये लोग आज भी नहीं हैं; पर हाँ! जीवन तो चल ही रहा है। कुल मिलाकर यहाँ लोग सुखी हैं।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">यहाँ जिस रोमांच का मैं अनुभव कर रहा हूँ, उसे किससे साझा करूँ? यहाँ के लोग चौबे परिवार को जानते हैं लेकिन नंदबाबू को नहीं जानते हैं। इसका मुझे तनिक भी मलाल नहीं हुआ, क्योंकि नंदबाबू की प्रसिद्धि का आधार यह गाँव नहीं है। फिर काश्तकारों का पढ़े-लिखे से नाता ही क्या? अपनी भावनाओं को यहाँ व्यक्त करने की किसी भी कोशिश में असफलता ही हाथ लगनी थी। सो मैंने भाई पल्लव (सह-आचार्य, हिंदी विभाग, हिंदू कालेज, दिल्ली) को उसी वक्त स्वयं के यहाँ होने की बात बताई और नंदबाबू के मकान की फोटो भी शेयर की। थोड़ी देर बाद पल्लव जी का वाणी संदेश मेरे मोबाईल पर आया। उन्होंने कहा “अरे सर, यात्रा का एक बहुत बढ़िया संस्मरण लिख दीजिए; अद्भुत काम होगा।” यह बात फरवरी 2021 की है। आवश्यक व्यस्तताओं से भी अधिक आलस्य के चलते यह संस्मरण तैयार नहीं हो सका और बाद में कोविड की बिगड़ी परिस्थितियों ने दो साल और अनुपयोगी कर दिये। खैर! कुछ अपना, कुछ पराया, किसे दोष दें ? अब लगभग दसेक दिन पहले भाई पल्ल्व का सदेंश मिला कि इस वर्ष “नंदबाबू के जन्म-शताब्दी वर्ष“ पर “उद्भावना” का एक अंक नंदबाबू पर तैयार हो रहा है, आप उसमें जरूर लिखिए। यह अवसर अब मेरे लिए दूसरी बार आ गया है। अपनी छवि सुधारने और आलस्य पर विजय पाने का यह मौका अब मैं गँवाना नहीं चाहता हूँ। अतः नंदबाबू के गद्यकार एवं कवि-रूप पर अपनी बात मैं कुछ यूँ व्यक्त कर लूँ....!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">एक कवि, चिंतक और विचारक के रूप में नंदबाबू इस देश के प्रबुद्ध रचनाकारों में गिने जाते हैं। काव्य विधा के साथ-साथ नंदबाबू ने कथेतर गद्य विधा में खूब लिखा है। सिर्फ लिखने वाला रचनाकार नहीं होता है, लेखक होता है। रचनाकार तो विचार-मंथन के हर मंच पर अपनी सक्रिय उपस्थिति से सार्थक हस्तक्षेप की भूमिका-निर्माण करता है। सही और लोकपक्ष के लिए व्यक्ति को मानसिक रूप से तैयार करना भी रचना का एक प्रकार है। रचने के इस क्रम में नंदबाबू समता के पक्ष में विभिन्न आयोजनों में और यों भी लगातार बोलते रहे हैं। चाहे वे सामाजिक विषय हों अथवा राजनीतिक मुद्दे हों, उन्होंने मनुष्य के पक्ष को हमेशा मजबूती दी है। एक सामाजिक की व्यक्तिगत स्वाधीनता के प्रश्न को उन्होंने हमेशा जिलाये रखा। एक साधारण मनुष्य के संघर्ष में वे अपने कवि-कर्म से सम्मिलित होते हैं। मनुष्य के अस्तित्व के लिए वे अपना रचना-धर्म बखूबी निभाते रहे हैं। चाहे वे बुनियादी सरोकार हों या सांस्कृतिक सवाल नंदबाबू का लेखन पूरी क्षमता और संभावनाओं के साथ पाठकों के सामने होता है। यह सही है कि बदलते समय के साथ उनकी टिप्पणियाँ तल्ख होती गई और उनमें छिपा अर्थ अधिक वक्र हुआ है। अनेक आयोजनों में उन्हें निरंतर सुनने का मौका मुझे मिलता रहा है। मैं देख पाता हूँ कि उन्हें इस बात का मलाल अधिक है कि मनुष्य और समता की दुनिया की संबद्धता अभी भी नहीं बन पाई है। जिस समाज का सपना दुनिया के लिए नंदबाबू देखते हैं वह समाजवादी समाज है, किंतु उसकी स्थापना का अभाव उन्हें हमेशा खलता रहा है। अपनी एक कविता में वे द्वापर के कृष्ण की तुलना पूँजीवादी राष्ट्र के नायकों से कर समाजवाद और पूँजीवाद के गहरे अंतर को रेखांकित करते हैं—</div><blockquote><div itemprop="articleBody">कार के द्वार पर ठाड़ो रह्यौ जौ</div><div itemprop="articleBody">वह गाँव को दीन मलीन सुदामा</div><div itemprop="articleBody">द्वारिका में अब कृष्ण नहीं</div><div itemprop="articleBody">रहते बिल क्लिंटन और ओबामा।</div></blockquote><div itemprop="articleBody">यहाँ व्यक्ति चरित्र प्रमुख नहीं है, बल्कि वैश्विक वर्तमान की विडंबना है कि साधारण मनुष्य भ्रष्ट और कुरूप समय से मुठभेड़ कर रहा; जिससे रचनाकार सवालिया लहजे में टकरा रहा है। इसका कारण स्पष्ट है कि उसे बीत चुके का अफसोस है और उससे अधिक चिंता आने वाले उस समय से है, जिससे रचनाकार ने और हमने मनुष्य की बेहतरी की अभिलाषा पाल रखी है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">नंदबाबू की रचनाएँ सामाजिक जड़ताओं और रूढियों पर पूरे दम से प्रहार करती हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि लक्ष्य का संधान साधारण और लुंज-पुंज प्रयासों से संभव नहीं है। उन्होंने बीसवीं शताब्दी का पूरा दौर देखा है एवं इक्कीसवीं शताब्दी के लगभग डेढ़ दशक के भी वे साक्षी रहे हैं— इसलिए उनकी कविताएँ आने वाले समय के लिए भी मनुष्य में आशा जगाती हैं। अपनी कविताओं में वे शिक्षित अभिजात्य को विशेष उम्मीद से देखते हैं। उनकी कविताएँ कहीं भी सपने नहीं दिखाती हैं, बल्कि जो संभव हो सकता है ; उसके लिए व्यक्ति को सचेत और सजग अवश्य करती हैं। “निष्फल वृक्ष” कविता का यह अंश देखिए—</div><blockquote><div itemprop="articleBody">समय सिर्फ भागदौड़ का है</div><div itemprop="articleBody">सारे आने वाले दिन</div><div itemprop="articleBody">श्मशान में बैठे औघड़ की तरह</div><div itemprop="articleBody">डरावने हैं।</div></blockquote><div itemprop="articleBody">एक रचनाकार के रूप में भी और सामान्य व्यक्ति के रूप में भी नंदबाबू का यह मानना रहा कि कहीं भी कोई विकृति या अन्याय सामने आए तो उसका प्रतिवाद किया जाए या और कुछ न हो तो कम से कम विरोध तो दर्ज कराना ही चाहिए। ऐसा करना सिर्फ हक के लिए नहीं, बल्कि मनुष्य होने के लिए भी किया जाना चाहिए। सामाजिक वैषम्य के समय में ही समता के लिए लड़ना प्रासंगिक होता है, इसी कारण उनकी कविताएँ सार्थक प्रतिवाद करती हैं। उनका यह भी मानना है कि विरासत में मिली सामन्तशाही अचानक जनोन्मुखी नहीं हो जाती हैं। व्यवस्था को जनता के बीच लाना पड़ता है, लड़कर। नंदबाबू का रचनाकर्म मानवीय मूल्यों के लिए है, वे दुनिया के लिए ऐसी व्यवस्था देखना चाहते हैं जहाँ कभी ईमानदारों की तलाश में असफलता नहीं मिले। उनकी कविताएँ मनुष्य को इस तरह तैयार करती प्रतीत होती हैं कि कभी अवसर मिलने पर मनुष्यता के लिए उपलब्ध हुए निर्णायक मोड़ पर केवल द्रष्टा की तरह वह निरीह खड़ा न रहे। वह स्त्रष्टा होने के खतरे उठाना सीखे। वे मनुष्य को स्त्रष्टा होने के सुखों की बात नहीं करते हैं, बल्कि तमाम प्रकार की परेशानियों के बाद रूपायित होने वाली सृष्टि को स्वीकारने की बात करते हैं। नंदबाबू अपनी कविताओं के माध्यम से यह संदेश देते रहे हैं कि जब तक विषमतावादी समाज-रचना या किसी भी प्रकार की गैर बराबरी मौजूद है तब तक कविता सार्थक नहीं होगी। साहित्य की भूमिका सिर्फ विचार के माध्यम से शुरू होती है एवं चेतना-निर्माण पर पूरी होती है। इसके बाद सारी जिम्मेदारी उस मनुष्य की है जो समाज की बेहतरी चाहता है, न केवल चाहता है; बल्कि कुछ करना चाहता है। साहित्य कभी भी शस्त्र-क्रांति की बात नहीं करता है, वह तो युद्धरत आदमी से भी शस्त्र-त्याग का आह्वान करता है। उनकी “अजीब बात है” कविता का यह अंश उल्लेखनीय है – </div><blockquote><div itemprop="articleBody">नाटक का पटाक्षेप होते-होते</div><div itemprop="articleBody">दुनिया उन्हें सौंप देते हैं</div><div itemprop="articleBody">जो हमेशा अपने पक्ष में सोचते हैं</div><div itemprop="articleBody">संगठित तरीके से</div><div itemprop="articleBody">संगठित होकर बेच देते हैं</div><div itemprop="articleBody">ईश्वर की मर्जी, मुर्गी</div><div itemprop="articleBody">राजतंत्र और बंदूकें</div><div itemprop="articleBody">अजीब बात है</div><div itemprop="articleBody">फल वे ही खाते हैं</div><div itemprop="articleBody">जो ईमानदार नहीं हैं।</div></blockquote><div itemprop="articleBody">पाठक के मन में बेचैनी पैदा कर देना उनकी कविताओं का मुख्य लक्ष्य है। अपने आसपास की सामान्य घटना को वे इस तरह अभिव्यक्त करते हैं कि पाठक की आँखों के सामने वर्णित चरित्र का बिंब उभर आता है। इस तरह अभिव्यक्ति पायी घटना तब स्थानीय न रहकर एक ऐसे व्यापक सत्य के तौर पर पाठक-स्वीकार्य हो जाती है जैसे वह केवल उसके लिए ही लिखी गई है। नंदबाबू की कविताओं का ऐसा साधारणीकरण अतुलनीय है। नये-नये शब्द गढ़कर वे अपने भावों को आकृतियाँ देते थे। वे इसकी कतई परवाह नहीं करते थे कि उनकी कविता सरस हो बल्कि इसके लिए अधिक सचेत रहते थे कि कविता का रचना-लक्ष्य पूरा हो, चाहे कितना ही बीभत्स बिंब बन रहा हो। नंदबाबू पराधीन भारत के युवा कवि थे। उन्होंने आजादी से पहले के परिवेश में जीवन-मूल्यों के महत्व को समझा था, किंतु आजादी मिलने के बाद इनका महत्व कम होने लगा, इनकी ग्लानि कवि को हमेशा रही ; लेकिन अपनी रचनाओं में वे हमेशा मूल्यों और संस्कारों की अपेक्षित गरिमा को बनाये रखते थे। स्वाधीनता प्राप्ति के लगभग ढाई साल बाद नया संविधान हमारे यहाँ अस्तित्व में आया फिर भी लोकतंत्र की दृष्टि से हम अपूर्ण ही रहे, जिसे कवि ने गैर मामूली समय के तौर पर देखा था। वे अपने एक लेख में लिखते हैं- </div><blockquote><div itemprop="articleBody">वस्तुतः स्वतंत्रता के बाद वाले पच्चीस वर्ष हमारी बेचैनी के वर्ष रहे हैं विशेषतया इसलिए कि हमने एक विशिष्ट आचरण वाले हिंदुस्तान की कल्पना की थी जो धीरे-धीरे मिटती रही और वहीं स्थिर, कट्टर और जाति-हितों में बैठा पुराना हिंदुस्तान बनने लगा।</div></blockquote><div itemprop="articleBody">ये रचनाकार की स्वाभाविक चिंता है। देश के लिए जिस नयी संरचना की उम्मीद थीं, उसके विपरीत जब यहाँ की व्यवस्थाएँ पश्चगामी दिखाई देने लगीं तो निश्चित ही अच्छे दिन नहीं आने वाले थे। गैर बराबरी को तोड़ने के क्रम में सत्ता के पुराने स्वभाव को बदलना जरूरी था। लेकिन ये अन्तर्विरोध कायम रहे इसलिए उस समय व्यवस्था में तब्दीली नहीं हो पाई। किंतु नंदबाबू व्यवस्था के पुनर्निर्माण के प्रति आशान्वित रहते हैं। क्योंकि उनकी यह दृढ़ मान्यता है कि चाहे जितना उथल-पुथल मच जाए किंतु अंत में समता और स्वाधीनता के प्राप्त हुए बिना मनुष्य का बचना मुश्किल है। उनकी कविता में बहुधा मनुष्य की तलाश दिखाई देती है क्योंकि कैसा भी समाज हो, वह मनुष्य विहीन तो नहीं हो सकता है। नंदबाबू अपनी रचनाओं का कथ्य हमारे बीच से उठाते हैं। उनकी ये पंक्तियाँ – </div><blockquote><div itemprop="articleBody">हमारे पास लिखने को कुछ नहीं है</div><div itemprop="articleBody">बाहर से ही आता है सब कुछ</div><div itemprop="articleBody">दुनिया के दुर्दान्त क्लेशों, दुखों से</div><div itemprop="articleBody">जन्मा, गला</div><div itemprop="articleBody">इतना बेतरतीब ऊबड़ खाबड़</div><div itemprop="articleBody">नुकीली घास की तरह उगा।</div></blockquote><div itemprop="articleBody">सिद्ध करती हैं कि कवि की रचना-प्रेरणा यही दिखता हुआ समाज है। वे जितने मनुष्य और मनुष्यता के कवि हैं उतने ही समाज और समाजवादी विचारधारा के चिंतक रचनाकार भी हैं। वे अपने रचनाकर्म में समता और स्वाधीनता के लिए किये जा रहे संघर्ष को निरन्तर अभिव्यक्ति देते रहे हैं। अपनी कविताओं में वे जनसंघर्ष की खरी अभिव्यक्ति करते हैं और साथ ही मौजूद सत्ता-व्यवस्था की जनविरोधी नीतियों के विरूद्ध प्रतिरोध का स्वर भी बुलंद करते हैं। इसीलिए वे लिख पाते हैं—</div><blockquote><div itemprop="articleBody">यह कविता हार की नहीं है</div><div itemprop="articleBody">बल्कि फिर से उन संकल्पों को</div><div itemprop="articleBody">दुहराने की है जिसके लिए हम सब इस क्रूर शताब्दी के सारे</div><div itemprop="articleBody">मोर्चों पर युद्धरत हैं।</div></blockquote><div itemprop="articleBody">सबसे बड़ी बात यह कि उनकी कविताओं में कोई नामधारी नायक नहीं होता है, बल्कि समय ही एक चेहरा बन जाता है। इसका कारण भी स्पष्ट है कि वे अपने पाठक को समाज की जड़ व्यवस्था को बदलने के लिए चेतन करते हैं। नंदबाबू की कविता आरंभ से उत्तरोत्तर अंत तक मानवीय प्रतिबद्धताओं की मूल्यवत्ता सिद्ध करती है। उनकी कविताएँ एक बेहतरीन संसार और मनुष्य की उम्मीद हममें जिंदा रखती हैं। समय और परिस्थितियाँ कितनी भी प्रतिकूल क्यों न हों हताशा और निराशा का कोई स्थान उनके यहाँ नहीं होता है। हाँ! उनका उल्लेख अवश्य होता है, किंतु वह भी सकारात्मकता के अर्थ में ही होता है। जीवन की इन स्थितियों को वे अपने ही विरूद्ध लड़ने के अर्थ में व्यक्त करते हैं –</div><blockquote><div itemprop="articleBody">जिसे अपने ही विरूद्ध लड़ते हुए</div><div itemprop="articleBody">हमने प्रेम के लिए बोया है</div><div itemprop="articleBody">जब कभी उगे यह वृक्ष</div><div itemprop="articleBody">शायद न भी उगे</div><div itemprop="articleBody">तब भी वह फलहीन सार्थकता रहित नहीं होगा</div><div itemprop="articleBody">कम से कम पृथ्वी को अनुर्वरा होने का</div><div itemprop="articleBody">कलंक तो नहीं लगेगा।</div></blockquote><div itemprop="articleBody">यह कवितांश नंदबाबू की लेखकीय प्रतिबद्धता को बखूबी दर्शाता है। इससे वे अपनी कविता को मानवीय सृजन के बहुत समीप ले आते हैं। सतत् प्रयत्नशील रहने का भाव उनकी कविताओं में पाठकों के लिए हमेशा उपलब्ध रहता है। मनुष्य के लिए वे भाग्य के विरूद्ध संघर्ष और प्रयत्न को अधिक महत्व देते हैं। क्योंकि उनका यह मानना है कि भाग्य इंसान को केवल प्रतीक्षा देता है एवं उस प्रतीक्षा में समय गुजर जाने के बाद के पछतावे के अलावा कुछ नहीं मिलता है। इसलिए वे भाग्य को मानवीय जीवटता का विलोम मानते हैं।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">नंदबाबू की कविताएँ पढ़कर कभी-कभी यह भी लगता है कि एक कवि अन्य व्यक्तियों की तुलना में अधिक संवेदनशील होता है, इसलिए उनकी भावनात्मक बुनावट उनकी रचनाओं का एक पक्ष बनाती है। राग-विराग के प्रसंग भी कहीं-कहीं उनकी कविताओं के ग्राह्य आधार होते हैं। नंदबाबू की काव्य-दृष्टि उनकी संवेदना का ही अंश होती है, और ये संवेदना उन्हें अपने ही समाज में रहते हुए अनुभव होती है। उनकी कविताओं में सामाजिक दृष्टि बराबर विद्यमान रहती है, क्यों समाज से भिन्न व्यक्ति कभी परिपूर्ण नहीं हो सकता है। समाज से व्यक्ति के अभिन्न संबंध ही उसे मनुष्य की श्रेणी में रखते हैं। नंदबाबू का यह मानना है कि जो समाज व्यक्ति को पग-पग पर विचलित कर सकता है, वही उसे मनोबल देता है और संवेदनाओं का विस्तार करता है। नंदबाबू उन कई घटनाओं के साक्षी रहे हैं, जहाँ उन्हें यह महसूस हुआ कि मनुष्य और मनुष्य के बीच विभाजन हुआ है; इससे हमारा समाज बहुत से हिस्सों में बँट गया। बँटा हुआ समाज फिर अनेक प्रकार की आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं कर सकता है। समाज और मनुष्य का अन्तःसंबंध तब ही सार्थक होगा जब मनुष्य और मनुष्य में एक आपसदारी होगी। एक साधारण व्यक्ति जिस तरह अपने अधिकारों और आसपास घटने वाली घटनाओं के प्रति चौकन्ना रहता है, ठीक उसी तरह का स्वभाव रचनाकार का भी होना चाहिए। नंदबाबू रचनाकार की इस सैद्धान्तिकी पर एकदम खरे उतरते हैं। उनकी कविताएँ इस बात का प्रमाण हैं कि वे सिर्फ कविता लिखते वक्त के कवि नहीं हैं, बल्कि आठों पहर के कवि हैं; सोते भी और जागते भी। नंदबाबू की कविताएँ उनके अनुभव का सार्वजनीकरण का काम करती हैं इसीलिए कोई स्थान और काल उनके लिए सीमा नहीं बनते हैं।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">नंदबाबू की कविता उपदेश नहीं देती है, संदेश देती है। उनका दैनंदिन स्वभाव रचनाओं में साफ झलकता है। जितनी सहजता और सरलता से वे बातपोशी करते हैं उतनी बोधगम्य उनकी काव्य-भाषा भी होती है। समाज और आम आदमी को लेकर उनकी जो चिंताएँ हैं, यथासंभव उन्हीं की अभिव्यक्ति के लिए वे भाषा के सर्जनात्मक पक्ष पर अधिक ध्यान देते-से लगते हैं, उदाहरण के तौर पर “कुछ काम और करने थे” कविता का अंश देखा जा सकता है—</div><blockquote><div itemprop="articleBody">बाजार जाना था</div><div itemprop="articleBody">शाम होने के पहले</div><div itemprop="articleBody">जो बच गया था उसमें से चुनने</div><div itemprop="articleBody">जो किसी ने नहीं लिया</div><div itemprop="articleBody">उसे लाना था घर तक</div><div itemprop="articleBody">चुनने की जिंदगी जब न बची हो</div><div itemprop="articleBody">और अज़ीब-अज़ीब वस्तुएँ हों</div><div itemprop="articleBody">चुनने के लिए।</div></blockquote><div itemprop="articleBody">यहाँ कितनी सरल भाषा में साधारण व्यक्ति के जीवन में बाजार की बाध्यकारी शक्तियों के प्रभाव को रेखांकित किया है कवि ने। लगभग इस शैली में अभिव्यक्ति दी है कि मनुष्य और बाजार के खींचतान वाले रिश्तों की मजबूरी पाठक आसानी से समझ जाए। इसीलिए हम देखते हैं कि उनकी कविताएँ एक जनकवि के स्वर के रूप सामने आती हैं। किसी जटिल परिवेश की अभिव्यक्ति के लिए भी उनके पास सीधी और सरल भाषा है, उसमें किसी प्रकार का आडंबर नहीं है। वे अपनी कविताओं के जरिये ये बताना चाहते हैं कि एक रचनाकार के तौर पर वे किस समाज की कल्पना कर रहे हैं, वे स्पष्ट लिखते हैं कि </div><blockquote><div itemprop="articleBody">हर प्रकार की संकीर्णता से मुक्त होने का उत्फुल्ल सपना सारी दुनिया के साहित्यकारों का एक काम्य सपना है।</div></blockquote><div itemprop="articleBody">वे मनुष्य की दीनता और पराजय, असहायता आदि को कम करने में रचनाकारों की भूमिका को महत्वपूर्ण मानते हैं। मनुष्य के जीवन में निराशा के सन्नाटे को कम करने एवं उत्साह-संचार उनका रचनात्मक लक्ष्य रहा है—</div><blockquote><div itemprop="articleBody">इस संशय, प्रश्न और अवसाद में डूबे</div><div itemprop="articleBody">रोशनी की तलाश में निकले लोग</div><div itemprop="articleBody">समुद्र को पार करेंगे, लेकिन हारेंगे नहीं।</div></blockquote><p>उनकी कविता की ताकत शब्दों के सही इस्तेमाल पर निर्भर है, इस दृष्टि से नंदबाबू की रचनाएँ भाव-सम्पन्नता का ताप देती हैं।</p><p>नंदबाबू को तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी एक बेहतर भविष्य का अटूट विश्वास है। वे अपनी कविता को सभ्यता के अंतिम बिंदु तक जीवित रखना चाहते हैं—</p><blockquote><div itemprop="articleBody">मेरी कविता</div><div itemprop="articleBody">सूर्य जब तक शेष है</div><div itemprop="articleBody">तुम रोशनी का हिस्सा बनी रहो</div><div itemprop="articleBody">मेरी कविता! इतिहास जब</div><div itemprop="articleBody">निःशब्द होने लगे</div><div itemprop="articleBody">तब तुम एक सार्थक शब्द बनो</div><div itemprop="articleBody">चाहे हवा, चाहे आकाश, चाहे अग्नि।</div></blockquote><div itemprop="articleBody"></div></div></div><p> जब तक मनुष्य शब्द पहचानता रहे, तब तक उसके लिए कविता कल्याणकारी रहे; यही सार्थकता नंदबाबू चाहते हैं। जिस बेहतर भविष्य के लिए वे सोचते हैं वह हमारी व्यवस्था मे व्याप्त गैर बराबरी और अनादर भाव के उन्मूलन से जुड़ा हुआ है। जब तक मनुष्य को समता का महत्व नहीं पता चलेगा तब तक इस व्यवस्था की स्थापना संभव नहीं है। समाज से छोटे-बड़े का भेद मिटना चाहिए। उनके अनुसार छोटे वे हैं, जिन्हें शिक्षित होने और स्व-विवेक विकसित करने के कम अवसर मिलते हैं तथा बड़े वे हैं; जो किसी शारीरिक काम में निपुण नहीं होते हैं तथा वे कर्म-संस्कृति के आल्हाद को नहीं जानते हैं। फिर भी व्यवस्था के नियंत्रक ये बड़े ही होते हैं। नंदबाबू व्यवस्था के इस भेद को समानता के धरातल पर लाना चाहते हैं। अपने एक उद्बोधन में वे कहते हैं- </p><blockquote><div itemprop="articleBody">कविता लिखने के सिलसिले में यह बात दुहरानी चाहिए कि वह “अंधेरे में छलांग लगाना नहीं है। अंधेरे से मुक्त होने की छलांग लगाना है।</div></blockquote><div itemprop="articleBody"></div> नंदबाबू की काव्य-रचना का यही आशय है। वे सदैव मनुष्य को बचाने की चिंता करते हैं और उसी के लिए कविता लिखते हैं। मनुष्य के लिए यदि किसी भी रूप में यह दुनिया अवांछित है तो उसके विरूद्ध लड़ने के पक्ष में उनकी कविता होती है; पढ़ते हुए पाठक निश्चित तौर पर एक मानसिक आश्वस्ति का अनुभव करता है जैसे— <blockquote><div itemprop="articleBody">पराजय कब नहीं थी</div><div itemprop="articleBody">कब नहीं थे झूठ के वाहवाह करने वाले</div><div itemprop="articleBody">लेकिन तभी दल-दल से</div><div itemprop="articleBody">निकल आया था समय</div><div itemprop="articleBody">करिश्में और भाग्य से नहीं</div><div itemprop="articleBody">मनुष्य के उत्साह और संसर्ग से।</div></blockquote><div itemprop="articleBody"></div><p> वे भाग्य और ईश्वर के भरोसे बैठकर अकर्मण्य होते लोगों को शिष्ट शब्दावली में प्यार से लताड़ते हुए आह्वान करते हैं कि स्वयं को जानिए, क्योंकि स्वयं को जानना ही इस दुनिया को जानने के समान है। हर व्यक्ति को अपनी रचनात्मक क्षमता और सामर्थ्य से परिचित होना चाहिए तब ही वह कुछ रचने का विचार कर सकता है। नंदबाबू की कविता “क्या थे!” और “क्या होंगे!” की बात कभी नहीं करती है, बल्कि अपने वर्तमान को बेहतर से बेहतर सजाने की प्रेरणा देती है।</p><p>श्रेष्ठ कवि, विचारक और चिंतक होने के साथ-साथ नंद चतुर्वेदी उस व्यक्ति का नाम भी है जो अपने समय की समाज-हित की गतिविधियों को स्वयं सक्रिय होकर आगे ले जाने का काम करता है। समाज की गैर बराबरी को समाप्त करने के लिए चलाये गए समाजवादी आंदोलन को गति देने वालों में राजस्थान से नंदबाबू अग्रणी थे, वे इस आंदोलन में इसलिए साथ थे कि उन्हें विश्वास था कि भारत के स्वभाव को देखते हुए यह कुछ सकारात्मक निर्माण समाज के लिए कर पाएगा। किंतु ऐसा नहीं हो सका और धीरे-धीरे वह आन्दोलन समाप्त ही हो गया, जिसका दुःख नंदबाबू को अपने जीवन के अंत तक रहा; लेकिन इसका विषाद या निराशा उनके लेखन में फिर भी कभी नहीं दिखी। उमंग, उत्साह और ऊर्जा उनके लेखन में हमेशा बनी रहीं। इस रूप में नंदबाबू सदैव स्मृतियों में रहेंगे—</p><blockquote><div itemprop="articleBody">तुम्हारे हाथ अभी थके नहीं हैं</div><div itemprop="articleBody">यह कहने का सुख ही</div><div itemprop="articleBody">इस कविता का कथ्य है। थोड़े से दिन और हैं सहने के</div><div itemprop="articleBody">फैलाने के लिए ये हाथ नहीं है।</div></blockquote><div itemprop="articleBody"></div><p>ये केवल कवि का आशावाद नहीं है बल्कि इस सदी के मनुष्य को बेहतर मनुष्य में रूपायित होने की बलवती आशा है। हम यह उम्मीद कर सकते हैं कि जब तक नंदबाबू की कविता पढ़ी जाती रहेंगी, वे हमारी स्मृतियों में मूर्त होते रहेंगे।</p>
<div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div>
<div style="text-align: right;">
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)<br />
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
००००००००००००००००</div>
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Bharathttp://www.blogger.com/profile/09488756087582034683noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7457103707258421115.post-46939263775633052082024-02-12T22:44:00.003+05:302024-02-12T22:44:28.079+05:30शोक -स्मृति: उषा किरण खान - रास्ता गुम गया अम्मा! ~ अणु शक्ति सिंह | Anu Shakti Singh on UshaKiran Khan<div dir="ltr" style="text-align: justify;" trbidi="on">
<div>उषाकिरण खान का जाना हिन्दी जगत को स्तब्ध कर गया है। हिन्दी वाला चाहे जहां का भी हो उनसे प्यार पाता था। ऐसे ही प्यार को युवा लेखिका अणु शक्ति सिंह साझा कर रही हैं अपनी 'शोक -स्मृति' में! ~ सं० <span><a name='more'></a></span></div><div><br /></div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjfcihJUfXHcRZu-Oc6N6HBAf1OkVP7XJ-WZp-3_ZiZ6uaQ9GdF-uYJtmo04lmqe_5TMcT5YeVLYZmG6iiwomn_xOCW7gLkeApsZZbUPTSSPHzntZ50wReMI_azJnEotHsLlFvl7LBi_E1I9D4ap2FerVrl1M1Nyxj8nhr417bQi4_NWNuL7kA-g3BTFoEy/s903/Anu%20Shakti%20Singh%20on%20UshaKiran%20Khan.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="508" data-original-width="903" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjfcihJUfXHcRZu-Oc6N6HBAf1OkVP7XJ-WZp-3_ZiZ6uaQ9GdF-uYJtmo04lmqe_5TMcT5YeVLYZmG6iiwomn_xOCW7gLkeApsZZbUPTSSPHzntZ50wReMI_azJnEotHsLlFvl7LBi_E1I9D4ap2FerVrl1M1Nyxj8nhr417bQi4_NWNuL7kA-g3BTFoEy/s16000/Anu%20Shakti%20Singh%20on%20UshaKiran%20Khan.jpg" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">Anu Shakti Singh on UshaKiran Khan ( Photo: Geetashree)</td></tr></tbody></table><br /><div style="text-align: center;"><br /></div><h2>शोक -स्मृति</h2><div><br /></div><h1 itemprop="headline">
अम्मा उर्फ उषाकिरण खान उर्फ मैथिली-हिन्दी की जगमगाती पहचान उर्फ धवल दंत पंक्ति पर लहकती चौड़ी मुस्कुराहट</h1>
<h2 itemprop="alternativeHeadline">
~ अणु शक्ति सिंह</h2>
<div 11px="" font-size:=""><br /></div>
<br />
<div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody">उन्हें गये हुए एक दिन से अधिक हो गया है। पुस्तकों के मेले में रेले थे। लोगों की भीड़ थी। हँसी-मज़ाक था। बहुत सारी जानकारियाँ थीं। कई सूचनाएं भी। उसी दौरान फोन के निस्संग कोने में एक तस्वीर चमकी। उस ओर अपार दु:ख था। उषा किरण खान नहीं रहीं, यह सूचना बस सूचना नहीं थी। एक पूरे संसार के गुम हो जाने की ख़बर थी।</div><div itemprop="articleBody"> </div><div itemprop="articleBody">मन बोझिल हुआ। खोने के दर्द से आकुल घर लौटा। एक खट्टे-मीठे रिश्ते को फिर-फिर जीने की कोशिश की गई। हम शब्दों के दौर में जी रहे हैं। लिखित शब्दों के... मेरे और उनके दरमियान बहुत सारे लिखे हुए शब्द थे।</div><div itemprop="articleBody"> </div><div itemprop="articleBody">कुछ साल पहले उनसे पहचान हुई थी। शब्दों के मार्फत ही। गीताश्री ने उनसे वाबस्ता करवाया था। इसी उहा-पोह में कि उन्हें किस नाम से पुकारूँ, एक साथी कवि से उनकी ख़ातिर उसका सम्बोधन उधार ले लिया था। वह उन्हें अम्मा बुलाती थी। मैंने भी उन्हें अम्मा बुलाना शुरु किया।</div><div itemprop="articleBody"> </div><div itemprop="articleBody">अम्मा उर्फ उषा किरण खान उर्फ मैथिली-हिन्दी की जगमगाती पहचान उर्फ धवल दंत पंक्ति पर लहकती चौड़ी मुस्कुराहट। उस मुस्कुराहट जितना ही मीठा एक रिश्ता।</div><div itemprop="articleBody"> </div><div itemprop="articleBody">मैं उनकी ही ज़ुबान की एक बिगड़ी हुई लड़की जिसे छेड़ना उन्हें खूब पसंद था। मेरी अजीबो-गरीब तस्वीर पर उनकी लाजवाब कर देने वाली टिप्पणियाँ।</div><div itemprop="articleBody"> </div><div itemprop="articleBody">भाषा की उस मलिका ने नेह का सरापा पहन रखा था। मुझे याद है उनसे हुई पहली मुलाक़ात... वह भी किसी और साल में किताबों का ही मेला था। वे व्हील चेयर पर थीं। शायद बहुत चलते हुए थक गई थीं। मैं उनके पाँव के पास बैठी। उन्हें किसी ने बताया था कि मैं जगह और भाषा की वही थाती लेकर इस दुनिया में चली आई हूँ, जो उनकी ज़मीन रही है। उन्होंने बड़े स्नेह से सिर पर हाथ फेरा था। वही हाथ जो कल अचानक सिर से उठ गया।</div><div itemprop="articleBody"> </div><div itemprop="articleBody">यादों के सिरे एक बार खुलते हैं तो कुछ रुकता है क्या? अपनी ही ज़ुबान से झिझकती रहने वाली मैं, पहली बार मैथिली में संवाद का एक मौक़ा मिला था। अपने आप को संक्रमण काल की पीढ़ी कहती हूँ मैं। वह पीढ़ी जिसे मैथिली सही-सही नहीं आती। ऑनलाइन चल रहे उस कार्यक्रम में उस ओर वे थीं। मिलते ही उन्होंने कहा, बोलो जैसे बोल रही हो, खूब हो।</div><div itemprop="articleBody"> </div><div itemprop="articleBody">कोई बड़ा हो हाथ पकड़ने को, बच्चे चलना खुद सीख जाते हैं। वे मेरी बुज़ुर्ग थीं, अपनी बुज़ुर्ग। मेरे शराब के साथ अपनी कोल्ड ड्रिंक का ग्लास खनकाने वाली। जन्मदिन के मौके पर मुझे अपनी वैचारिकी की मौलिकता को संभाल कर रखने की सलाह देने वाली, बाज़ दफा मैथिली में न लिखने की वजह से मुझे झिड़कने वाली भी। उनका अक्सर यह कहना कि अपनी ज़मीन लिखो, अपना गाँव लिखो। राजधानी की रंगीनियों में गुम मैं हर बार भूल जाती।</div><div itemprop="articleBody"> </div><div itemprop="articleBody">हर बार वे पूछतीं और मैं कहती, अगली बार पक्का... अब यह लिखते हुए सोच रही हूँ, कौन पूछेगा ‘कब लिखोगी?’</div><div itemprop="articleBody">किस्से कहूँगी मैं, अगली बार पक्का!</div><div itemprop="articleBody"> </div><div itemprop="articleBody">यह ठीक नहीं हुआ अम्मा... आपकी इस बलुआ प्रस्तर खंड अभी अपनी ज़मीन ही तो तलाश रही थी। कैसे मुमकिन हो पाएगा आपके बिना?</div></div><div style="text-align: right;">
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Bharathttp://www.blogger.com/profile/09488756087582034683noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7457103707258421115.post-64893022260039868112024-01-29T18:21:00.007+05:302024-02-24T12:26:47.353+05:30हे वलेक्सा एक फ़ड़कता व्यंग्य लिखो ना ~ मलय जैन | Vyangya by Maloy Jain<div dir="ltr" style="text-align: justify;" trbidi="on">
<div>मलय जैन भाई का लेखन इतना परिपक्व है कि बार-बार पढ़ा जा सकता है. 'जय हिंदी' बोलते हुए पढ़िए उनका ताज़ा क़रारा व्यंग्य! ~ सं० </div><span><a name='more'></a></span><div><br /></div><div><br /></div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg7LBUbb21SMSQsz43VZZLKoavCKBcdKWw0-pjc_Ko8aw_SXvmOa7n7qoDiyPYMSZ2JKEScLKFdC7VSEaLpvKmSKRPlseRjzQufAef-7YNALfaYH8_1afbX_aUOUKh2yRqpTVvw5Cbr87CXL1Bg30P4ZLRgw0lWYOPvel37xEYnJwxz0hPALgvHIZKmq8cy/s903/Vyangya%20by%20Maloy%20Jain.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="508" data-original-width="903" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg7LBUbb21SMSQsz43VZZLKoavCKBcdKWw0-pjc_Ko8aw_SXvmOa7n7qoDiyPYMSZ2JKEScLKFdC7VSEaLpvKmSKRPlseRjzQufAef-7YNALfaYH8_1afbX_aUOUKh2yRqpTVvw5Cbr87CXL1Bg30P4ZLRgw0lWYOPvel37xEYnJwxz0hPALgvHIZKmq8cy/s16000/Vyangya%20by%20Maloy%20Jain.jpg" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">Vyangya by Maloy Jain</td></tr></tbody></table><br /><div style="text-align: center;"><br /></div><div><br /></div>
<h2 itemprop="alternativeHeadline">
हे वलेक्सा एक फ़ड़कता व्यंग्य लिखो ना</h2>
<h3>मलय जैन</h3><div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody">
<div style="font-size: 12px; line-height: 14px;">
जन्म 27 फरवरी 1970 को मध्य प्रदेश के सागर में. (मूल भूमि राष्ट्र कवि मैथिली शरण गुप्त की जन्मस्थली चिरगाँव जिला झाँसी). प्रकाशित कृतियां: व्यंग्य उपन्यास ' ढाक के तीन पात (2015), व्यंग्य संग्रह हलक़ का दारोग़ा (2023) राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित। व्यंग्य नाटक लेखन के साथ पोलिश लेखक वलेरियन डोमिंस्की की अंग्रेज़ी कहानियों एवं व्यंग्य रचनाओं के हिन्दी अनुवाद। <b>सम्मान / पुरस्कार </b>•साहित्य अकादमी मप्र से उपन्यास ढाक के तीन पात पर बाल कृष्ण शर्मा नवीन पुरस्कार • रवींद्रनाथ त्यागी स्मृति सोपान पुरस्कार • सरदार दिलजीत सिंह रील व्यंग्य सम्मान • दुष्यंत पांडुलिपि अलंकरण अंतर्गत कमलेश्वर सम्मान •अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान •भगवती चरण वर्मा कथा पुरस्कार • ज्ञान चतुर्वेदी राष्ट्रीय व्यंग्य सम्मान 2023 <b>सम्पर्क: </b>सेक्टर K- H50 , अयोध्यानगर , भोपाल मप्र 462041 मोबाईल 9425465140 ई मेल <a href="mailto:maloyjain@gmail.com">maloyjain@gmail.com</a> </div>
</div><div><br /></div></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">बलिहारी तकनीक की। जिसका इंतजार था, वह आ ही गई आख़िरकार। ख़ुद व्यंग्य लिखना उनसे कभी सधा नहीं और अब व्यंग्य लेखन एक्सेस वाली तकनीक वलेक्सा आ गई तो सीरी और अलेक्सा की तरह वह वलेक्सा के पीछे भी हाथ होकर पड़ गए, "हे वलेक्सा," उन्होंने वलेक्सा का आवाहन किया। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"नमस्ते महोदय, मैं व्यंग्य लेखन एक्सेस एआई चैटबॉट वलेक्सा, आपकी क्या मदद कर सकती हूं?"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"हे वलेक्सा, मेरे नाम से एक तड़कता फ़ड़कता व्यंग्य लिखो ना"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"महोदय, आप किस तरह का व्यंग्य लिखवाना पसंद करेंगे?"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"एकदम वैसा जैसा शरद जोशी और परसाई लिखते थे"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"महोदय, राजनीति पर व्यंग्य पसंद करेंगे या सामाजिक विसंगति पर?"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"राजनीति पर भी चलेगा। कोई बांदा नहीं। एक बार ट्राई करो।"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अगले ही पल उनके स्क्रीन पर एक व्यंग्य प्रकट होता है। फड़कता हुआ व्यंग्य पढ़ते ही उनकी बांई आँख फड़कती है, </div><div itemprop="articleBody"> "यह क्या, तुमने तो नेताजी का सीधा नाम लेकर ही व्यंग्य लिख दिया?"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"महोदय, मैं आपको बताना चाहूंगी कि शरद जोशी और परसाई ऐसा ही लिखते थे, तभी वो सीधी मार करता था।"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">" अ..अ .. वलेक्सा, यू नो सीधी मार करना तो थोड़ी टेढ़ी खीर है। नेताजी नाराज हो गए तो सीधी मार मेरी खोपड़ी पर पड़ेगी। कोर्ट वोर्ट में घसीट लिया तो लेने के देने पड़ जाएंगे। तुम ऐसा करो, परसाई और शरद जोशी दोनों को ही छोड़ो। कुछ और ट्राई करो। "</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"महोदय, आप कहें तो सामाजिक विसंगति पर व्यंग्य प्रस्तुत करूं"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"हां हां करो, समाज में विसंगतियों की कौन सी कमी है" वह ख़ुश होकर चहके। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">एक मिनट बाद ही स्क्रीन पर अगला व्यंग्य प्रकट होता है। वह उसे जल्दी-जल्दी पढ़ते हैं। उनके चेहरे पर चिंता की लकीरें आती हैं, </div><div itemprop="articleBody">"यार वलेक्सा यह तो कुछ ज्यादा ही हो गया, इससे तो मेरी ही सोसायटी वाले मुझ पर नाराज हो जाएंगे। पड़ोसी अलग बुरा मान जाएंगे।"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"ठीक है महोदय, सामाजिक विषय छोड़ देते हैं। आप कहें तो धार्मिक विसंगति पर ट्राई करूं? धर्म में तो विसंगतियों की कोई कमी नहीं"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"ध .. ध ... धार्मिक विसंगति पर? तुम तो जानती हो किसी धर्म पर कुछ भी ऐसा वैसा लिखो तो फालतू बखेड़ा खड़ा हो जाता है। पिटने पिटाने की नौबत तक आ जाती है। फ़ालतू रिस्क क्यों ली जाए !"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"ठीक है महोदय, फिर हम सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक इस प्रकार के सारे रिस्की फ़ील्ड्स छोड़ देते हैं। मैं आपको बताना चाहूंगी कि लेखक द्वारा स्वयं पर लिखा गया व्यंग्य बहुत इफेक्टिव होता है। जैसा कि मैंने आपसे अब तक की बातचीत में पाया, आपके स्वयं के भीतर अनेक विसंगतियां हैं। आप कहें तो मैं आपके ऊपर सर्वश्रेष्ठ व्यंग्य लिखकर प्रस्तुत कर सकती हूं।"</div><div itemprop="articleBody">"मेरे अपने ऊपर ही व्यंग्य? हें हें हें वलेक्सा, तुम भी मज़ाक करती हो। तुम्हें तो पता है तुम जो भी लिखोगी, वो मेरे नाम से छपेगा। अब कौन इस चक्कर में पड़ता है"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"तो फिर महोदय आप ही बताएं मैं किस विषय पर व्यंग्य लिखकर पेश करूँ !" यदि सिर खुजलाने की सुविधा होती तो वलेक्सा यही करती। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"अ .. वलेक्सा, ऐसा करो, कुछ फूल पत्ती, चिड़िया विड़िया टाइप लेकर व्यंग्य लिखो।"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"महोदय, मैं आपको बताना चाहूंगी कि ये व्यंग्य के फ़ील्ड्स नहीं हैं। इन विषयों पर सिर्फ रूमानी कविता ही लिखी जाना ठीक होगा जो मेरे वर्क फ़ील्ड में नहीं है।" </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">ज़ाहिर है यदि बाल नोचने की सुविधा होती तो वलेक्सा अपने साथ लेखक के भी बाल नोच चुकी होती। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">लेखक महोदय ने अभी भी उम्मीद नहीं छोड़ी और कहा, </div><div itemprop="articleBody">"तो फिर वलेक्सा तुम सजेस्ट करो मैं क्या करूं?"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">"महोदय, व्यंग्य लिखना-लिखवाना भूल जाएं और अब यहां से दफा हो जाएं"</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">स्क्रीन पर वलेक्सा की व्यंग्य से भरी इमोजी प्रकट हुई और फिर वहां वीरानी छा गई। </div><div><br /></div></div>
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(ये लेखक के अपने विचार हैं।)<br />
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Bharathttp://www.blogger.com/profile/09488756087582034683noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7457103707258421115.post-13317734247939888392024-01-18T21:14:00.001+05:302024-01-18T21:14:24.282+05:30घूमर - मधु कांकरिया, श्रीलाल शुक्ल स्मृति इफ्को साहित्य सम्मान २०२३ से सम्मानित कथाकार की कहानी | Madhu Kankaria ki Kahaniyan<div dir="ltr" style="text-align: justify;" trbidi="on">
<div>श्रीलाल शुक्ल स्मृति इफ्को साहित्य सम्मान २०२३ से सम्मानित कथाकार मधु कांकरिया की कहानियाँ इस पाठक को पसंद आती रही हैं लेकिन, 'घूमर', उनकी प्रस्तुत कहानी कुछ अधिक ही अच्छी, सच्ची, हमसब के आसपास गुज़री कहानी लगी. वक़्त मिले तो ज़रूर पढ़िएगा ~ सं० <span><a name='more'></a></span></div><div><br /></div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiMDJm-i48ctUT_TmaXmhWzm8usq2SyJ4iHCtuGjGphI5jr4NVGW2QjjaDKm8nTclP5BeZ1EF6HNQS3DzHztq2Rc73csWGfoFy-cDOMLBZrPuzsc46IeOUOPGx9ekYzAGF1Xw_2NShEnrOrG0FPGd72L-iN8OYaiDxs7zF0tORy8Xs5LV3K-IqcpeLAegmC/s903/Madhu%20Kankaria%20ki%20Kahaniyan.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="508" data-original-width="903" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiMDJm-i48ctUT_TmaXmhWzm8usq2SyJ4iHCtuGjGphI5jr4NVGW2QjjaDKm8nTclP5BeZ1EF6HNQS3DzHztq2Rc73csWGfoFy-cDOMLBZrPuzsc46IeOUOPGx9ekYzAGF1Xw_2NShEnrOrG0FPGd72L-iN8OYaiDxs7zF0tORy8Xs5LV3K-IqcpeLAegmC/s16000/Madhu%20Kankaria%20ki%20Kahaniyan.jpg" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">Madhu Kankaria ki Kahaniyan</td></tr></tbody></table><br /><div style="text-align: center;"><br /></div><h1 itemprop="headline">
घूमर</h1>
<h2 itemprop="alternativeHeadline">
मधु कांकरिया</h2>
<div 11px="" font-size:=""><br /></div><div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody">वह देश में नोटबंदी और मुहबन्दी का ज़माना था, जिसका असर उन घरों में भी हो रहा था जिसकी कहानी कही जा रही है। ज़माने के ऐसे ही एक घर में दिन की आख़िरी धूप में, उस वर्ष की सबसे मोहक और सबसे भयानक घटना एक साथ घटी थी। मोहक इसलिए कि जत्न से संजोयी एक मुराद आज पूरी होने जा रही थी, मीरा की बेटी सुहानी के सुहाने सपनों के साकार होने का दिन था वह। भयानक इसलिए कि हॉस्पिटल गए थे वे चार पर दिन के आखिरी छोर में लौट कर आए थे तीन — लोग पूछेंगे तो क्या जवाब देगी वह? भीतर दबे अनकहे ज्वालामुखी को फटने से बचाने के लिए अस्पताल से लौटते ही वह सीधे नहानघर पहुंची, नहानघर के प्रति कृतज्ञ थी वह। पिछले दस दिनों की एक एक घटना, एक एक दृश्य जैसे चीख चीख कह रहे थे कि यह जीवन बचाया जा सकता था, बिल्कुल बचाया जा सकता था पर वही चूक गयी। ओंठों को गोल कर लगातार गर्म गर्म भांप छोड़ती रही वह कि धुंआ कुछ तो कम हो। धरती धूज रही थी उसके आगे। निढाल हो जमीन पर धंस गयी वह। ऊफ कैसी चरम विवशता! जीवन का पहला मृत्यु दुःख! आषाढ़ की पहली बारिश के पहले बादलों-सा बार बार उमड़ घुमड़ आता दुःख और जी भर रो लेने की इजाज़त नहीं। उसने चाहा था कि आँख मूँद आंसुओं और हाहाकार को मुक्त बहने दे वह पर आँखों के मूंदते ही चमक उठता ढहते मेघेन का निचुड़ा-सा चेहरा और ऊपर की ओर उठी हुई निष्प्राण मुंदी हुई वे आँखें जो कभी जीवन से भरी रहती थी। उड़ान भरते भरते जैसे एकाएक पंख टूट गए हो और अब पल पल फ़ैल रहे हों अवसाद के डैने!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उफ़! काश दो दिन और जीवित रह जाता मेघेन!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">दुःख यह नहीं कि मेघेन गया। दुःख था कि काश उसकी आत्मा शांति से उसके शरीर को छोड़ पाती। स्वप्न था कि मस्त उड़ान भरते हुए एक दूसरें को अलविदा कहेंगे पर हक़ीक़त में अलविदा तक न कह सकी। अंदर ही अंदर दरक रहा था वह पहाड़ और उसे अहसास तक नहीं हुआ!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कितना कुछ है जो दृश्य के बाहर छिपा रहता है …सोच रही है मीरा! शादी के लिए इतनी दौड़ धूप कर रहा था मेघेन … शुरू शुरू में उसे अच्छा लग रहा था पर नहीं भी लग रहा था। अरे भाई शादी है कोई युद्ध नहीं! मन ही मन सोचती पर भोली आँखें देख नहीं पायी कि मौत जाल बिछा रही थी। चिंता की चिड़िया चोंच मारती रही पर उम्मीद से भरी रही वह और अंजुली के जल-सा बह गया मेघेन। रह गया पछतावा!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">ज़िन्दगी की ठोकर ने ज़िन्दगी पर उसकी राय को बदल दिया है। विचार बदल रहे हैं, जन्म ले रहे हैं नए विचार — कितनी बनावटी है ज़िन्दगी! हर पल मुखौटा! उफ़! क्यों लेने दिया उसने इतना कर्जा! क्यों होने दिया वह सब जो नहीं होना था। माना, उसकी ट्रेवलिंग एजेंसी ठीक ठाक चल रही थी फिर भी क्या ज़रुरत थी हैसियत से बढ़कर हैसियत दिखाने की? होने में नहीं, दिखने में क्यों विश्वास करता है आदमी? कैसा समय! छिलका ही गूदा हो गया है। हे देव! समय रहते चेत जाती तो यह चूक तो नहीं होती! नहीं होता बीपी इतना हाई! इतनी मोटी बात भी क्यों नहीं समझ पायी वह कि बिना दिखावे के भी सब कुछ कितना तो खूबसूरत चल रहा था। हल्की हल्की लहरें बीच बीच में उठ रही थी पर जीवन शांत था। जीवन का असली आनंद तो वही था।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">पर समय के माया जाल में फंस गयी वह। समय तेजी का था। तेजी युग सत्य था। मौसम में तेजी। महंगाई में तेजी, औपचारिकता में तेजी, दिखावे में तेजी, भाषणों में तेजी, वादों में तेजी! बाजार में तेजी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">क़तरा-क़तरा समय की किरचें लहूलुहान कर रही थी उसे — क्यों नहीं चेती वह जब ख़तरे के स्याह मेघ खंड इकट्ठे हो रहे थे मेघेन के इर्द गिर्द। जब मौत चमक रही थी किसी स्वप्न भरी आँखों की तरह पर वह ग़ाफ़िल रही। शादी के खर्च और ज़िन्दगी में पहली बार लिया क़र्जा मेघेन की स्वाभिमानी आत्मा को चूहे की तरह कुतर रहा था। उसका ब्लड शुगर और बीपी दोनों ही ख़तरे की सीमा छू रहे थे। जब बोलते बोलते हांफने लगा था वह तभी जैसे आकाशवाणी हो गयी थी। आधा तभी मर गया था। लेकिन बेईमान मन और जीवन की घिस घिस ने इतना घिसा दिया था उसे कि कुछ भी नहीं व्यापा, नहीं सुनी मन की आवाज़? भोले मध्यवर्गीय आशावाद और नियतिवाद ने जैसे सब आशंकाओं पर पोंछा लगा उम्मीद से लबालब भर दिया था उसे। बेटी की शादी की ख़ुशी की चादर में जैसे ज़िन्दगी के सारे छिद्र ढक गए थे। स्वप्न और यथार्थ के दोराहे पर खड़ी मीरा ने बहने दिया मेघेन को भी ज़िन्दगी के तेज प्रवाह में। जिम्मेदारियों के तीव्र अहसास ने न मेघेन को मेघेन रहने दिया न मीरा को मीरा।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">नतीजा?</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">भूसा रह गया, तत्व निकल गया। वह स्थूलताओं में घिरी रही और वह ढह गया। किनारा क़रीब आ ही रहा था कि छूट गयी पतवार।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">पीड़ा का समुद्र हिलोरे ले रहा है भीतर। काश समय में वापस जाकर उन पलों को लौटा लाती वह। काश ज़िन्दगी में भी होता कोई रिवाइंड बटन। काश अपने घर कोलकाता से ही किया होता विवाह! पर समधी समधन का आग्रह! उसने तो हल्के से आनाकानी भी की कि रिवाज़ तो यही है कि बरात उनके द्वार पर आए, पर नहीं नहीं नहीं नहीं। समधी नहीं माने। ठुकरा नहीं पाए उनका आग्रह। अब जिस घर में जन्म भर के लिए बेटी को रहना है उनके आग्रह का तो मान रखना ही था। आज अहसास हो रहा है उसे कि वह सब अधूरे सत्य थे। असली था जीवन, सबसे ऊपर था जीवन। मना कर देना था उसे, माना मेघेन थे घर के मुगले आज़म पर वह यदि दृढ रहती तो मानना पड़ता मेघेन को। मेघेन ज़रूर सुनते उसकी मन की बात! और इतनी झुलसती गर्मी में नहीं आना पड़ता दिल्ली। गर्मी तो कोलकाता में भी पड़ती है पर दिल्ली की गर्मी दिमाग़ के अंदर घुस जाती है। उफ़! ज़िन्दगी की सबसे बड़ी भूल हुई उससे। पर आत्मविश्वास उसी का धक्के खा रहा था, साथ ही विवेक बुद्धि भी, माना अगले आठ महीने तक कोई मुहूर्त ही नहीं था और दोनों ही पक्ष इसे टालने के पक्ष में नहीं थे। फिर समधी जी का आश्वासन — आप सिर्फ बारात की ख़ातिर-दारी की ज़िम्मेदारी संभाल लें, गीत संध्या और शादी की सारी ज़िम्मेदारी हमारा इवेंट मैनेजर संभाल लेगा।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">आश्वासन भला भी था!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">और बुरा भी!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">भला था कि परिवार की पहली शादी टनाटन हो यह सत्य किसी बेताल की तरह उसकी पीठ पर ही नहीं उसकी चेतना पर भी हावी था। बुरा था कि मेघेन का स्वास्थ्य इसके भी लायक कहाँ था? क्या मिला इतनी उतावली कर? न गेह बचा, न देह, न नेह। बहरहाल शादी के लिए बन्ना बन्नी गाते गाते और बंद खिड़की के कांच से पटरी पर पॉटी करते देशबासियों को गाहे बगाहे देखते देखते वे कोलकाता से दिल्ली आए। घर से शादी के निमित लिए गए ‘सुरुचि भवन’ में पंहुचे भर थे कि लोडशेडिंग!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"> गर्मी इतनी कि लोगबाग मिलते तो ‘जय राम जी की!’ कहने की बजाय कहते ‘उफ़ कितनी गर्मी है!’ रुक जाना था उसे नीचे ही कहीं! पर जगह जगह बिखरे काम, सफ़र की थकावट, पोर पोर में चिंता, सूरज के ताप और गुल बत्ती ने जैसे दिमाग़ को ही सुन्न कर दिया था, देख ही नहीं पायी कि इन सबके बीच जर्जर हो चुकी नाव को। बाघ की तरह झपट्टा मारती जानलेवा धूप ने जैसे संवेदनाओं को ही सुखा डाला था।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">दिखी तो उसे सिर्फ ज़िम्मेदारियाँ, दिखावे और औपचारिकताओं की बर्फीली सिल्लियां जो हिमालय बन खड़ी थीं सामने, जिसने बादलों से झूमते लहराते मेघेन को मेघेन नहीं बैल बना दिया था।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">धरती धधक रही थी साथ ही वह। फिर भी वे पैदल ही चढ़ गए सात मंजिल। उसने भी नहीं रोका। अगली शाम गीत संध्या थी उसकी तैयारी और अगले के अगले दिन शादी! होने दिया उसने जो हो रहा था क्यों नहीं सोचा कि सबसे ऊपर जीवन है पर सोचने का वक़्त ही कहाँ बचा था। दुश्चिंताओं को कुछ दिनों के लिए तह कर रख लिया। नकली चिंता में असली चिंता को खड़े रहने की जगह ही नहीं मिली। शरीर तो लगातार दिखा रहा था लाल बत्ती। एक के बाद एक योजनाएं बना रहा था मेघेन इस बात से बेख़बर कि ज़िन्दगी उसके लिए अंतिम योजना बना चुकी थी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">बस अंत की शुरुआत शायद तभी से हो गयी थी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उन दो दिनों ने ज़िन्दगी के सारे रंग दिखा दिए थे मीरा को। रात-सी रात हुई, धरती सपनों में सोइ हुई थी। सुबह हुई। निर्वाण-सी सुबह! मन चिड़िया-सा चहक उठा था। गुलजार घर में बन्ना बन्नी के गीत गाये जा रहे थे — एक बार आओ जी जंवाई जी पावना। …जीवन का उत्सव था। जमाने की चिरसंचित मुराद आज पूरी हुई थी मीरा की। उसकी बेटी सुहानी को हल्दी चढ़ रही थी। ज़माने बाद परवरदिगार ने दिखाया था उसे यह दिन। शादी का बजट ज़रूर अनुमान से काफी ज्यादा हो गया था पर मन सन्तुष्ट था क्योंकि वर होनहार मिला था, घर भी बहुत समृद्ध था। बड़े घर में रिश्ता होने की तरंग कब तेज गति से बहते समय में दवाब की जानलेवा लहर बन गयी जब तक हुआ अहसास देर हो चुकी थी। समधी जी शहर के बहुत बड़े उद्योगपति थे, उनकी इज़्ज़त के अनुसार ही बारातियों की ख़ातिरदारी करनी थी। आज के दिन कम से कम सब कुछ वैसा ही हो रहा था जैसा सोचा था उसने…. कि तभी जाने कहाँ से बिजली गिर गयी उनपर। ‘सुरुचि भवन’ पहुंचे भर कि बिजली चली गयी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">पूरी दोपहर भाग दौड़ में बीती। शादी के घर में पचासों काम। इससे सम्पर्क उससे सम्पर्क। बिजली का कहीं अता पता नहीं। जेनेरेटर और लिफ्ट नकारा। इसी बीच फिर एक बार नीचे जाना पड गया फिर सात मंजिल की चढ़ाई। दम फूल गया था पर फूलते दम के साथ ही कैटरिंग वालों से, डेकोरेटर से, हलवाई से, बिजली फिटिंग करने वालों से बात की मेघेन ने। हर खाली जगह को तो उसी को भरना जो था। सोया सोया जगा-सा लग रहा था मेघेन। कभी का इतना सुदर्शन मेघेन इन दिनों पलस्तर उखड़ी दीवार-सा किसी अभिशप्त श्रम देवता-सा मुरझाया और निस्तेज दिखने लगा था। मीरा ने कहा भी कि शांति रखें, कुछ नाश्ता पानी ले ले पर तभी ध्यान आया कि कुछ मेहमानों को लाने की व्यवस्था करनी है। उसी में लगे थे कि अचानक चक्कर आ गया। सोफे पर बैठे बैठे ही लुढ़क गए। देखा भी सबसे पहले मीरा ने ही था। वह आधा-सा पल खंजर की तरह गड़ गया था भीतर। क्षण के क्षणांश में भी देख लिया था मीरा ने उस गुलमोहर के रंग को उड़ते हुए। उस बुलंद इमारत को ढहते हुए। मीरा अपने भाई और भाभी को लेकर जब तक एम्स पहुंची कहानी ख़त्म हो चुकी थी। भक-से बुझ गया था वह! श्रम, थकान और तनाव से भरपूर ज़िन्दगी में बेटी विदाई के सुकून भरे दो पल नसीब होते कि उसके पहले ही बादलों के पार जा चुका था मेघेन।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">****</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">एक घुटी हुई-सी गहरी आवाज़ में दुनियादारी देख चुके भाई ने बूत बनी मीरा को झकझोरा। अवरुद्ध कंठ से सिर्फ यही कहा — देखो ज़िन्दगी अपने हाथों में नहीं है। पंद्रह बीस मिनट देता हूँ तुम दोनों को, जितना रोना है रो लो, फिर आंसुओं को बहने की इज़ाज़त नहीं होगी। पहले कर्तव्य फिर शोक। यह राज कि मेघेन नहीं रहे सिर्फ हम तीन तक ही रहे। रीति रिवाजो और नेकचारों के इस समाज में शादी के सारे नेकचार वैसे ही हों जैसे मेघेन के रहते होते… इस शादी के क़र्ज़ ने पहले ही जान ले ली है अब यदि इसे भी अंजाम न दिया गया तो दोनों बेटियों के भविष्य क्या बच पाएंगे? इस शादी को यदि टाल दिया जाए तो कौन जाने फिर सुहानी उस घर में जा भी पाए या अपशकुनी कहकर यह शादी ही तोड़ दी जाए ... बोलते बोलते अपनी बाहर निकली आँखों को पल भर के लिए मूँद एक गहरी निश्वास छोड़ी उन्होंने।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">लाश को वहीँ एम्स के मुर्दाघर में जमा कर वे तीनों कलेजे पर पत्थर धर घर लौट आए।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">****</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">नदी की धारा रुके तो जीवन रुके। बाहर जयजयकार भीतर हाहाकार! मीरा की चेतना को जैसे काठ मार गया है। शादी भी अजब चौपाल है, कहीं २१वीं सदी इठला रही है तो कहीं २०वीं सदी अंगड़ाई ले रही है। शाम के लिए ओर्केस्ट्रा की तैयारी चल रही है तो अभी गणेश पूजन की। फूफाजी बाई सुखिया पर झल्ला रहे हैं कि खाली घड़ा लेकर वह सामने क्यों आ गयी, अपशकुन होता है। पान चबाती रानी बुआ अलग फनफना रही है — कुंवरसा की घोड़ी के लिए चने की दाल भिगोनी है, नहीं मिल रहा है दाल का डब्बूसा (कटोरदान)। सुगंधित फूलों की वेणी से महकती मालती जीजी को केसर की डिब्बी नहीं मिल रही है। बिखरे बालों को हाथ के जुड़े में समेटती कमला मासी को चाँदी का आरती का थाल चाहिए…तो लीला चाची को आम के अचार की बरनी … सुरभि की अस्सी वर्षीया नानी की कमर में चनक आ गयी है तो खोज जारी है किसी ऐसे की जो पांव से जन्मा हो, जिसकी लात से चनक दूर हो जाएगी। शादी का घर जैसे भिंडी बाजार। इन सब हो हल्ले के बीच पंडित जी गणेश पूजन करवा रहे हैं उससे और वह मन ही मन बुदबुदा रही है — तुम तो सिर्फ एक बार मरे पर कल से जाने कितनी बार मरी हूँ मैं और उठ कर खड़ी हुई हूँ। इतना जानलेवा है झूठ बोलने की कला साधना। लगता है जीवन भी मैं हूँ और मृत्यु भी मैं हूँ। कार्य को सही दिशा में सम्पूर्ण करने का और कौन मार्ग था मेरे पास? भंवर में डूबती नैया को मैं इसी प्रकार बचा सकती थी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">******</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">रात कितनी लम्बी हो सकती है, पहली बार हुआ यह अहसास। न ढले न बीते न रीते। जैसे ख़ुद ही रात हो गयी है वह। सुबह होते न होते पूरा घर जाग गया था। आज सगाई का दिन। यूं इन दिनों जेठ की दिल्ली में सुबह बहुत कम सुबह होती थी, दोपहर शेर के खुले जबड़े-सी खुली रहती — दहकती, गरजती, झपटती। सपनों से भरी सुहानी को बादाम का उबटन करना था पर वह कहीं मिल नहीं रहा था। माँ भी नदारद! फोन मिलाया तो स्विच ऑफ! पूरे अड़तालीस मिनट बाद दिखी माँ। मुलायम मुलायम स्वरों में पूछा उसने</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">— सुबह सुबह कहां गयी थी मम्मी?</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">— तुम्हारे पापा से मिलने, काँपी चेहरे की खाल। किसी प्रकार अवरुद्ध कंठ से बाहर धकेला चंद शब्दों को। जीवन पूरी तरह एक नाटक बन गया था। आकाश धूल के बादलों से ढक गया था, अंतस में धुंआ जमा हो रहा था … काश निकाल पाती इस जमा हुए धुंएँ को … अनायास ही सोचने लगी वह।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">— मुझे भी मिलना है। मम्मी, मैं आज संगीत शाम के पहले ही मिल आऊंगी पापा से। उसके वाक्य को अधबीच में ही झपट्टा मार कहा बुआ ने,</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">— नहीं लली, तुम कैसे जा सकती हो? हल्दी चढ़ने के बाद लली घर से बाहर नहीं निकल सकती। कल फेरे के बाद हम सब चलेंगे उन्हें लाने। कल तो छुट्टी मिल जाएगी उनको….</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">— आज नहीं मिल सकती?</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">— नहीं, अभी बीपी बहुत हाई है। बोलते बोलते वह मुस्कुरायी, बित्ता भर, पर उस मुस्कराहट का जुगाड़ करने में ही चेहरा नीला पड़ गया, नीचे का ओंठ काँपता रहा, निगाहें नीची कर नाखुनों से धरती को कुरेदती रही। आंसुओं को जबरन रोका तो गला भर गया, आँखें मूंदी तो भीतर के पर्दे पर तैरने लगी — गिरते ढहते मेघेन की तस्वीर! समुद्र में डोलती डोंगी-सा हिचकोले लेते मन का राज खुले उसके पहले ही कांपती देह के साथ किसी बहाने वहां से हटकर वह सीधे बाथरूम में पंहुची। मुट्ठियां भींच, गोल गोल ओंठों से गर्म गर्म भाप छोड़, हाथ पैर पटक उसने नल को खुला छोड़ा और ह्रदय में उठे रुलाई के आवेग को किसी प्रकार बाहर निकाला और मुंह पर पानी के छींटे डाल मुंह पोंछती बाहर निकली।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">खंड खंड खंडित मन। रंगीन माहौल में संगीन मन! सोच रही है मीरा — न उन्होंने अपना आप जीया न मैंने। ज़िन्दगी का सबसे बढ़कर शोक यही कि शोक मनाने का भी अवसर न मिले। देख रही है विधाता की इस सृष्टि को गहरी उदासी से — दृश्य वही है दृष्टि बदल गयी है। समय बलवान है वह किसी की प्रतीक्षा नहीं करता, उनको गए साढ़े बारह घंटे हो गए पर सबकुछ वैसे ही चलरहा है। एक पवित्र इच्छा — कोई चूक न रहे कर्तव्य पालन में। रह रह कर उठती लहरें — कभी भीतर कभी बाहर! मन करता — इतना रोए इतना रोए कि धरती डूब जाए पर इजाज़त नहीं इसकी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">***</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">दुःख के दोराहों पर खड़ी सोच रही है मीरा — पहर बीतने के साथ बदल जाता है दुःख का चेहरा — रात को जुदा, दिन को जुदा। दिन में ख़ुद को लोगों से छिपाना तो रात को ख़ुद से ख़ुद को छिपाना। असहनीय को सहन करना ही ज़िन्दगी है! किसी तपस्वी से गृहस्थन का धर्म भी कम नहीं होता! जीवन और मौत से बड़ा है फ़र्ज़! फ़र्ज़ की डोर से बंधे मन ने वह सब किया जो उससे करने को कहा गया।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">हर पल का इम्तहान था ज़िन्दगी के ये अढ़ाई दिन जो रस्मों से भरे हुए थे। ठहरकर रोने का न समय था न स्थान। आखिर शादी के घर में कितनी बार जा सकती थी वह बाथरूम, आंसुओं से भरे दिल को हल्का करने। ख़ुद को लोगों की आँखों से बचाने।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">आज के दिन की शुरुआत हुई हल्दी की रस्म से।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘आना भोला जी के लाल, हमारे घर हल्दी में</div><div itemprop="articleBody">आकर डमरू बजाना हमारे घर हल्दी में ‘</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">गीतवाली जमुना बाई पंचम स्वर में गा रही थी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">फिर आयी मेहँदी की रस्म !</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">हाजिर थी दो मेहँदी लगाने वालियां। सहमी हुई गोरैया-सी फड़फड़ायी वह। कई बार मना भी किया। सगुन के लिए चिटकी अंगुली पर मेहँदी लगाईं भी पर किसी ने न सुनी उसकी। रिश्तेदारों से भरा घर। छोटी बेटी ने भी ठुमक कर कहा — ममा नहीं लगवाएगी मेहँदी तो हम भी नहीं लगवाएंगे।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"> भावहीन जड़ आँखें ऊपर उठी, बिटिया के मासूम चेहरे पर टिकी, भाव उमड़े! आत्मा तक में उतर गया था वह जादुई पल जब पहलीबार गोद में लिया था उसने सुहानी को। वही सुहानी आज ज़िन्दगी की एक नयी शुरुआत करने वाली है। परायी होने जा रही है। कितना अरमान था मेघेन का कि धूम धाम से विदा किया जाय उसे।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">फैला दी उसने हथेलियां! निस्पंद, निष्प्राण हथेलियां!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">जैसे समर्पण किया हो दुनिया के सामने! भीतर ही भीतर चलता रहा नवकार मंत्र — ॐ नमो अरिहंताणं…ॐ नमो सिद्धाणं। साथ ही परिताप भी — स्वप्न और सुहानी रात अभी ढली न थी पर तुम ढल गए!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मेहँदी वालियों से निपटी तो मेकअप वालियां!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उनको भी अच्छा खासा पैकेज दिया गया था।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">अबकी रिश्तेदारों ने पकड़ लिया! कर दिया ख़ुद को हवाले दुनिया के रस्मों रिवाज के आगे।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">हो गया मेकअप! जब दर्पण दिखाया ब्यूटी पार्लर वाली ने तो दर्पण भी दगा कर गया, ख़ुद की सूरत की बजाय दिखने लगी उसे मेघेन की अधमुंदी उदास आँखें। भीतर उमड़ते आवेग को थामने के प्रयास में आँखें बह निकली, मन से आह निकली — कितना अच्छा है कि मरी हुई देह सबको दिख जाती है पर मरा मन नहीं दीखता किसी को। रुलाई को रोकना चाहा तो हिचकियाँ शुरू हो गयी। किसी प्रकार पानी पीने के बहाने वहां से खिसकी। पर जाए तो जाए कहाँ? हर जगह मेहमान। समझदार भाई कान में फुसफुसाया — बस तीस घंटे की मोहलत दे दो। कल विदाई का मुहूर्त भी मैंने जल्दी का निकलवा लिया है, कल शाम नौ बजे फेरे के साथ ही कर देंगे विदाई फिर जितना चाहे रो लेना, अभी क़ाबू रखो ख़ुद पर नहीं तो सब किया कराये पर पानी फिर जाना है। याद रखना — तेल डालने से बुझी हुई बाती आग नहीं पकड़ती, जो जा चुका है उसके लिए शोक स्थगित करो, जो है उसके लिए सोचो, गीत संध्या में एकदम सामान्य रहना, सामान्य ही नहीं बल्कि चेहरे पर ख़ुशी का भाव रहना चाहिए। लोग देखें तो कहें अच्छा दिन!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">ज़रा भी शक न होने पाए किसी को। ध्यान रखना, शक की हज़ार आँखें होती हैं। कइयों को बड़ी मुश्किल से ऐम्स जाने से रोका है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">बोलते बोलते डब डबा गयी पीड़ा से उफनते भाई की आँखें! दो दुखी मन एक हुए!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">*****</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘किसे पता था, तुझे इस तरह सजाऊंगा, ज़माना देखेगा और मैं न देख पाऊंगा ‘</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">सुरमई शाम। समधी जी के भेजे इवेंट मैनेजर का पिलपिला-सा अनुरोध, सूत्रधार था वह — इस कल्चरल प्रोग्राम की जान तो आप दोनों समधन ही हैं। आपकी समधन ने बहू का स्वागत अपने नृत्य से कर दिया है, आप की तरफ से भी तो दामाद का अभिनन्दन होना चाहिए न! कोरियोग्राफर का भी अनुरोध — आंटी, महीने भर से तो आप अभ्यास कर रही हैं, अंकल ठीक हो रहे हैं, सुबह ही मैंने एम्स के डॉक्टर से अंकल के बारे में पूछा था — कल तक तो वे घर भी वापस आ जाएंगे।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">— हाँ, कल सुबह वे आ जाएंगे, तेज हवा में हिलते पत्ते-सी कांपती वह बुदबुदायी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">— ममा, पापा ठीक नहीं हैं क्या? तुम्हारा चेहरा देख कर लगता है। मुझे तो मामा ने बताया था कि पापा को थकावट बहुत आ गयी है इसलिए जान बूझकर एम्स में आराम के लिए रखा गया है कि शादी के घर में ज्यादा तनाव न लें वे। सच, बताइये अम्मा! सुहानी के चेहरे पर चिंता की गाढ़ी लकीरें। द्रवित हुई वह! देखा बेटी की ओर। सगाई की ड्रेस में लाल सेबों से लदे मोहक पेड़-सी दिख रही थी वह! काश देख पाता मेघेन अपनी लाडो को! बस कुछ घंटे और निकल जाए। फेरे हो जायँ फिर जी भर रो लेगी वह! फिर तो ज़िन्दगी भर शोक ही मनाना है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">कुछ अबोले पल! बोलने की भीतरी ताकत इकट्ठी की उसने, फिर गिरती आवाज में बोली,</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">— पापा ने कहा है मुझे, सुहानी जैसा कहे करना।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">— पापा ने? पापा से बात हुई आपकी? फिर मुझसे बात क्यों नहीं करायी? टोहती नजरों से घूरा सुहानी ने।</div><div itemprop="articleBody">बस पल भर के लिए ही हुई बात। डॉक्टर ने अधिक बात करने नहीं दी।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">— हुर्रे! तो ममा भी नाचेगी। चेहरे पर छाया मीठा मीठा सोना सोना भाव और गहरा गया बिटिया के। बेटी के सिर पर हाथ फेरते हुए भींगे और उदास स्वरों में कहा उसने,</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">— तथास्तु!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">आज के उत्सव के देवता समधी और जतनों से तराशी प्राण प्यारी बेटी का अनुरोध! कैसे टाले वह? एक चाह बंधन मुक्ति की तो एक चाह बंधन की भी। समुद्र की लहर-सी उठी, जल से निकली मीन-सी तड़पी। सनसनाते एक संदेह ने अलग से सर पर हथोड़ा चलाया — कहीं मेघेन का राज खुल गया तो … पूरी ताकत से इस ‘तो’ को दरकिनार करते हुए अंतरात्मा के दरवाज़े बंद किये, दुःख को पंखुड़ी पंखुड़ी नोचा। ख़ुद को सिद्धार्थ से बुद्ध होते हुए देखा। ख्याल ख्याल में बसे मेघेन के ख्याल को हल्के से परे सरकाया। एक आर्त नजर देह की खोल में लिपटे सजे धजे बाराती और घराती पर डाली। झिलमिल झूमर और जादुई समां। सूख में डूबे हुए सब। देह की खोल से बाहर निकलते मैं को सूखी पत्ती की तरह रस्मों रिवाज़ों की हवाओं के हवाले किया। उस अनुपस्थित को नमन किया जो हर जगह उपस्थित था — माफ़ करना प्रिय, मेरी अंतिम उम्मीद! तुम्हें चिता को समर्पित करने के पहले रंग और नूपुर की दुनिया में शामिल होना पड़ रहा है कि कहीं अंतस के भीतर दबा ढका रहस्य उजागर न हो जाए। कहीं सुहानी को आभास न हो जाए कि पिता को कुछ हो गया है कि कहीं आग्रह ठुकरा देने पर समधी समधन बुरा न मान जाए!</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">देखते देखते मीरा जाने कहाँ लुप्त हो गयी और अब जो थी सामने वह एक छाया थी, उस छाया ने लिया एक जोरदार प्रलयकारी घूमर — आली मैं हार गयी! लहर लहर लहरायी देह। शोक और श्रृंगार का मिला जुला घूमर! चप्पे चप्पे में काँपा दर्द पर लिया घूमर — साथ साथ जिए गए प्यार के लिए। भीतर के खालीपन को भरने के लिए। संसार में रहते सांसारिक रहने के लिए, अगली पीढ़ी की बेहतरी के लिए.जीवन के स्वभाविक आनंद के लिए। फिर लिया दूसरा घूमर — माया से सत्य, ज्ञात से अज्ञात की ओर बढ़ती महायात्रा के लिए। अप्रत्याशित आगत के लिए। वैराग्य को साधने के लिए, दुखों के पार जाने के लिए, कुछ हद तक दर्द बहा भी। दम थामे देख रहे थे लोग इस उन्मत्त घूमर को, लगा जैसे अनंत काल से ले रही है वह घूमर जिसे लेते लेते देह से बाहर आ गयी है वह कि तभी लिया उसने तीसरा घूमर — जंजीरों में कैद आत्मा की मुक्ति के लिए। जीवन और मृत्यु के पार के रहस्य को जानने के लिए पर तीसरा घूमर लिया कि जैसे तूफ़ान आ गया हो सागर में। लेते लेते जाने कैसा तो अँधियारा छाया पलकों पर कि दुखों के पार जाते जाते वह उसी में धंस गयी और वहीँ गिर पड़ी, स्टेज पर ही।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"> सृष्टि और समय से परे थे वे पल जो सनातन बन रहे थे।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"> दम साधे लोग नृत्य देखते रहे। ऐसा प्रलयकारी घूमर तो पहले कभी न देखा था। नील बटे सन्नाटे के कुछ निस्तब्ध पल गुजरने पर लोग जैसे समाधी से जागे, आसमान से कोई तारा टूटा। लोगों को समझ आया कि मीरा अचेत पड़ी थी और घूमर दुर्घटना में तब्दील हो चुका था।</div></div><div style="text-align: right;">
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<div>बीते दिनों बाबा, गुलज़ार साहब हमारे शहर फ़ैज़ाबाद गए थे. बड़ा मन था वहाँ उस समय होने का, जा नहीं सका लेकिन, शहर की उभरती लेखिका कंचन जायसवाल ने अपने (प्रस्तुत) संस्मरण के ज़रिये कुछ-कुछ वहाँ पहुँचा दिया. आप भी हो आइये ... सं० <span><a name='more'></a></span></div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhB0nFgrTrKMDwH7QgBJg3bIMMXpK9aIakNES_2ubxz4AbBqxUQy2VJvppXqCbK1jZzNYcKnH5BaCQHaIvCmfDRqB6aTf_0gUE_K1Oec_wSqQv0THpbWnK1MEib25q1E-WudLncWojRVkYT-JeBqbgAhhZH3PTgNJzmR5KzOy6iI-w47nAv-HSOsS6Yrbub/s903/_Gulzar%20in%20Faizabad.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="508" data-original-width="903" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhB0nFgrTrKMDwH7QgBJg3bIMMXpK9aIakNES_2ubxz4AbBqxUQy2VJvppXqCbK1jZzNYcKnH5BaCQHaIvCmfDRqB6aTf_0gUE_K1Oec_wSqQv0THpbWnK1MEib25q1E-WudLncWojRVkYT-JeBqbgAhhZH3PTgNJzmR5KzOy6iI-w47nAv-HSOsS6Yrbub/s16000/_Gulzar%20in%20Faizabad.jpg" /></a></div><br /><div style="text-align: center;"><br /></div><h1 itemprop="headline">गुलज़ार फ़ैज़ाबाद </h1>
<h3>कंचन जायसवाल </h3><h2 itemprop="alternativeHeadline"><div style="font-size: medium; font-weight: 400;"></div><div 11px="" font-size:="" style="font-size: medium; font-weight: 400;"><span style="font-size: 11px;">पेशे से अध्यापक. भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं की भूमिका 1857 से 1947 तक विषय पर पी.एच.डी. स्त्रियां और सपने कविता संग्रह प्रकाशित. कथादेश,रेवान्त, आजकल पत्रिकाओं में कविता, कहानी प्रकाशित. मो. न. 7905309214 </span></div></h2>
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<div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody">रास्ते कब गर्द हो जाते हैं और मंज़िल सराब</div><div itemprop="articleBody"><div itemprop="articleBody">हर मुसाफ़िर पर तिलिस्म-ए-रहगुज़र खुलता नहीं</div><div itemprop="articleBody">~ सलीम कौसर</div><div><br /></div></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">शहर फ़ैज़ाबाद में गुलज़ार जब एक रोज़ जब आते हैं तो धूल-मिट्टी, तोड़-फोड़ से गुज़र रहे शहर को, एक पल के लिए ही सही, थोड़ा क़रार आ जाता है। गुलज़ार अज़ीम फनकार, शायर, उम्दा इंसान, दिलकश आवाज़ के मालिक। वे जब सफेद लिबास में, अपने पुर-ख़ुलूस अंदाज़ में महफिल में आते हैं तो इक बारीक-सी खुशी वहाँ मौजूद हर आम-ओ-खास में पसर जाती है। </div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">उनके इस्तिक़बाल में जो महफिल सजाई गयी है, उसमें वे ख़ुद के ख़ास होने को दरकिनार करते हैं और मिलने के ख्वाहिश मंद लोगों के बीच वो खुद आ बैठते हैं। ऐसे हैं गुलज़ार मानो खुशबू, मानो ख़्वाब अपने समय का बेजोड़ नगीना अपनी चमक को, अपने चाहने वालों के रौशन चेहरों में खोजता है और बेशुमार पाता भी है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">गुलज़ार कहते भी हैं तमाम पुरस्कारो, इनामों से मुझे वो खुशी नहीं मिलती जो मुझे अपने चाहने वालों के बीच आकर मिलती है। उनका बचपन उनकी रचनात्कता का एक ज़रूरी हिस्सा हैं। फिर जब नर्सरी में पढ़ने वाली बच्ची बोस्की का पंचतंत्र खरीदने के लिए मचल उठती है और पापा से उनका पर्स निकलवा कर किताब खरीदवाती है तो ऐसा लगता है मानो वह गुलज़ार के लिखे को पहले से जानती है और उस किताब में उसे अपने बचपन को कोई नायाब खजाना मिल गया हो। बच्चों के प्यारे गुलज़ार ऐसे ही हैं।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><b><br /></b></div><div itemprop="articleBody"><b>आज बच्चें अपने बीच गुलज़ार को पाकर अभिभूत हैं।</b></div><div itemprop="articleBody"><b><br /></b></div><div itemprop="articleBody">वो उनके लिखे गानों को अपनी आवाज दे रहे हैं – 'तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी हैरान हूँ मैं, हैरान हूँ / तेरे मासूम सवालों से परेशान हूँ, मैं परेशान हूँ...' बच्चे खुश हैं, यह यादगार पल है, अपने फेवरेट 'मोगली' वाले गुलज़ार को अपने बीच पाकर। गुलज़ार भी बाँहे फैलाकर उन्हें अपने पास समेट लेते हैं। ये पल शायद उनके लिए भी यादगार है। वो ढ़ेर सारा निश्छल प्यार, छलछलाती खुशी अपनी बांहो में समेट लेना चाहते हैं।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मोहित कटारिया से अपनी बातचीत में गुलज़ार बताते चलते हैं कि ‘जंगल-जंगल बात चली है पता चला है’ गाने में चड्डी शब्द कितना मौजूं है क्योंकि जंगल में रह रहे उस बच्चे की देह पर केवल चड़ढी है और यह शब्द उस माहौल के औचित्य को निखारता है। </div><div itemprop="articleBody">इसी प्रकार ‘लकड़ी की काठी / काठी का घोड़ा’ गाने में घोड़े की जो पदचाप है टक बक-टक बक वह बंगाली रचना आबोल-ताबोल से प्रेरित है मगर गुलज़ार इस शब्द को रिक्रिएट करते हैं। घोड़े की पदचाप आते हुए टक बक-टक बक से जाते हुए बक टक, बक-टक में पुनरचित कर देते हैं। अनोखापन, भाषा का टटकापन गुलज़ार के रचना संसार की खासियत है। गुलज़ार बताते हैं कि भावों और भाषा की यह विविधता उनके सघन पढ़त का नतीजा है। अनुभवों की विशालता उनके भाव-संप्रेषण को मुखर और विविधवर्णी बनाती है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">मैं जब <b>यशवंत व्यास</b> से मुखातिब हो कहती हूँ बहुत दिलचस्प रही आपकी और गुलज़ार साहब की बातचीत। वो झट से कहते हैं - <b>वो शायर ही ऐसा है। अगर मैं सिर्फ पत्ता कहूँ तो वे पूरे पेड़ की रचना कर देंगे।</b> व्यास जी बार-बार गुलज़ार से इसरार कहते हैं कि कैसे आपके भावों में इतने मौजूं किस्म के शब्द चले आते हैं गुलज़ार बताते हैं मान लो किसी बीच पर हजारों लोग डूबते हुए सूरज का नजारा कर रहे हों और फिर हजारों लोग इस नजारे को अपने-अपने तरीके से बयान करेंगे। </div><div itemprop="articleBody">कोई कहेगा कि </div><div itemprop="articleBody">डूबते हुए सूरज की लालिमा लाल चुनरी सी फैली हुई है, </div><div itemprop="articleBody">कोई इसे गुलाल कहकर अपनी हथेलिये में ले अपनी माशूका के गाल लाल कर देगा और कोई कहेगा कि </div><div itemprop="articleBody">कैसे पानी में लाल गोला डूब गया और लाल आग का सागर पल भर को बन गया। </div><div itemprop="articleBody">सब के अपने-अपने तजुर्बे हैं और इन तजूर्बो को वजन - जीवन के तमाम पड़ावों से.</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody"><b><br /></b></div><div itemprop="articleBody"><b>गुज़र कर ही मिलता है</b></div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">जीवन में अनुशासन और अपने काम से बेशुमार प्यार को गुलज़ार ज़रूरी मानते हैं। व्यास जी जब हंसते हुए पूछते हैं कि ‘बीड़ी जलइले जिगर से पिया’ जैसा गाना भी आपने लिखा। ये कैसे संभव हुआ। गुलज़ार बताते हैं कि गाने के बोल में बीड़ी की जगह सिगार जलइले या सिगेरेट जलइले कर देता तो यह बड़ा ही अटपटा लगता है। बीड़ी जलइले ही सटीक लगा इसलिए यह संभव हुआ।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">गुलज़ार सचेत, रचनारत तमाम स्त्रियों को अपने शानदार अंदाज़ में कहते हैं कि ‘कितनी हांडियाँ डबल रही हैं, जरा देखो तो।‘ अपनी तमाम फिल्मों में गुलज़ार ने स्त्री संसार की जटिलता, उनके संघर्ष उनके सवालों और उनकी आजादी को विषय बनाया है। ‘लेकिन’, ‘मीरा’, ‘आंधी’, ‘ख़ामोशी’, ‘इजाज़त’, ‘रूदाली’ बहुत लंबी लिस्ट है, स्त्री जीवन को दर्शाती उनकी फिल्मों की।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">गुलज़ार एक पूरा जीवन हैं, पूरा दर्शन है। गुलज़ार मानते हैं कि इंसान का अच्छा होना सबसे ज़रूरी है। ख़राब शायर हो तो चल जाएगा, मगर इंसान ख़राब नहीं होना चाहिए। अगर वो इंसान ख़राब होगा तो यकीनन शायर तो वो बहुत ख़राब होगा। यही सादगी गुलज़ार को गुलज़ार बनाती है।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">दूर से सफेद एक छाया सी हिलती, उन्हें दूर से देखना मानों हवा में फैली खुशबू को छूना। सफेद कागज सी तिरती नाव का देर तक हिलना-डुलना बस .............।</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">‘हमने देखी है इन आँखों की महकती खूशबू’ इस खूबसूरत गाने की तरह ही गुलज़ार भी एक महक की तरह इसी आबोहवा में रह जाने वाले हैं। उनके लिखे को सुनकर, गुनगुनाकर इस पल को जिसमें गुलज़ार हैं, उनकी सादगी है उनके वजूद की लकीर है उसे जिए जाना है बस। और जीवन है भी क्या, गुलज़ार के ही शब्दों में, ‘नाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जाएगा, मेरी आवाज ही पहचान है, गर याद रहे...’</div><div itemprop="articleBody"><br /></div><div itemprop="articleBody">आपके बाद हर घड़ी हमने</div><div itemprop="articleBody">आप के साथ ही गुज़ारी है।</div></div><div style="text-align: right;">(ये लेखक के अपने विचार हैं।)<br /></div>
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