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मोरपंख पहनने से कोई कृष्ण नहीं बनता — देवदत्त पटनायक #ShabdankanTalk @devduttmyth

हिंदी में देवदत्त पटनायक...सबतक पहुंचाना बहुत जरूरी है

पुराण शास्त्र का मतलब वह नहीं है जो हमें 19वीं सदी की अंग्रेज राजशाही और उनके शिक्षातंत्र के सहारे समझाया गया है। यही कारण है कि आम हिंदी भाषी नहीं जानते  कि पुराण शास्त्र दर्शन है और माइथोलॉजी का अर्थ पुराण शास्त्र है। हमें भारतीय अर्थों में भारतीय तरीके से धर्म और मिथ्या के मायने गढ़ने की जरूरत है।

विडियो




मैं पिछले 20 सालों से यही करने की कोशिश कर रहा हूँ। इसलिए मुझे शब्दांकनटॉक में अमित मिश्रा के साथ बातचीत में काफी मजा आया, क्योंकि वह बहुत ही मूल सवाल जैसेः सच क्या है, झूठ क्या है, मिथ्या क्या है, धर्म क्या है... पूछ रहे थे। इनके बारे में अंग्रेजी में फिलॉसफी के स्टूडेंट्स इपिस्टिमॉलजी* और ऑन्टॉलजी* में पढ़ते हैं लेकिन इसके मायने सबतक पहुंचाना बहुत जरूरी है। हमारी यह बातचीत उस लिहाज से काफी सार्थक रही है।

धन्यवाद

देवदत्त पटनायक


(*Epistemology ज्ञानमीमांसा | *Ontology तात्त्विकी)

#शब्दांकनटॉक 1

देवदत्त पटनायक (‘devdutt pattanaik’) लिखने पर गूगल ‘Devdutt Pattanaik Books in Hindi’ स्वयं दिखाता है यानि “हिंदी में देवदत्त पटनायक की किताबें” तलाशने वालों की संख्या बड़ी है। हिंदुस्तान का यह युवा लेखक अपने पौराणिकज्ञान को अंग्रेजी लेखन और आख्यानों के माध्यम  से आज लाखों   लोगों तक पहुंचा रहा है। इनकी पॉपुलैरिटी का कुछ अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि मुझे इनकी किताब को पढ़ने का आदेश, इनकी फैन, ज्योत्स्निका, मेरी बेटी, जो उस समय कक्षा आठ में थी, से मिला था, तब-ही मैंने इन्हें पहली दफ़ा जाना। '

‘शब्दांकन’ हिंदी की पहुँच को बढ़ाने के लिए ही है। देवदत्त पटनायक से हुई #शब्दांकनटॉक १ इसी दिशा में बढ़ाया गया क़दम है, अमित की पत्रकारिता उनके वृहत-खोजी-दृष्टि-मूल-सवाल हैं और यही कारण है कि अमित मिश्रा के लिए गए इंटरव्यू सबसे अलहदा और रोचक होते हैं।  रिकॉर्डिंग, एडिटिंग, डायरेक्शन आदि मेरी स्वयं की है। रूपा पब्लिकेशन का धन्यवाद , उन्होंने अपने दिल्ली ऑफिस को रिकॉर्डिंग के लिए उपलब्ध किया। अब यह प्रयास आपको क्या दे पाया और #शब्दांकनटॉक 1 के बाद 2,3,4... कैसे होती है, यह आप-ही बता सकते हैं।

सस्नेह

भरत तिवारी 






(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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बीजेपी का कोई नेता नहीं है नरेंद्र मोदी के अलावा — शशि थरूर


The torch has been passed to a new generation...

Shashi Tharoor quotes John F. Kennedy for Akhilesh-Rahul Gathbandhan

Shashi Tharoor quotes John F. Kennedy for Akhilesh-Rahul Gathbandhan



जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में शशि थरूर से अमित मिश्रा की बातचीत को मैंने कैमरे में रिकॉर्ड किया था. 5-7 मिनट की इस छोटी बातचीत में वो उस किस्से के बारे में बताते हैं, जब ...

कोई 18 वर्ष की आयु में शशि थरूर ने ब्रिटेन की नागरिकता का प्रस्ताव ठुकराया था. 

वे बीजेपी द्वारा कांग्रेस से 'नेशनलिस्म' छीन लिए जाने की बात भी कहते हैं और अखिलेश-राहुल के उत्तरप्रदेश में साथ आने का स्वागत करते हैं...

शशि जी उस समय चाय पी रहे थे लेकिन फिर भी उन्होंने इस रिकॉर्डिंग को होने दिया, इसके लिए उनका शुक्रिया.


Shashi Tharoor Interview



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2000 का नोट कालेघनियों की सहूलियत "बाबा रामदेव" Baba Ramdev Against Rs 2000 note


बाबा रामदेव से नवभारत टाइम्स के अमित मिश्र की  बातचीत

इस मुहिम का कोई मतलब नहीं रह जाएगा

बाबा रामदेव से नवभारत टाइम्स  के अमित मिश्रा की  बातचीत



सरकार ने 500, 1000 रुपये का नोट बदल कर 2000 रुपये का नोट चलाया है। आप तो बड़े नोट बंद करने की बात करते थे क्योंकि इससे काला धन इकट्ठा होता है। इस कदम पर आपका क्या कहना है?
मैं बड़े नोटों का विरोध की बात पर अब भी कायम हूं। मेरे हिसाब से 2000 रुपये का नोट चलाने से काला धन इकट्ठा करने वालों को और सहूलियत हो जाएगी। ऐसे में इस मुहिम का कोई मतलब नहीं रह जाएगा।
एक तरफ आम आदमी से थोड़ा एडजस्ट करने की बात कह कर उसे नोट बदलवाने के लिए घंटों लाइनों में लगवाया जा रहा है और दूसरी तरफ राजनैतिक पार्टियां अपने चंदे का श्रोत छुपाने के लिए खुद को आरटीआई से बाहर रखने के लिए एकजुट हो चुके हैं। इस पर आपका क्या कहना है?
दोहरे मापदंड नहीं चलेंगे। राजनैतिक दलों को आरटीआई के दायरे में लाने की जरूरत है जिससे यह बात साफ हो सके कि कोई भी दल काला धन नहीं ले रहा। ऐसा करना काले धन को रोकने के लिए बहुत जरूरी है।
सरकार को पास तकरीबन 141 ऐसे लोगों की लिस्ट है जो देश का लाखों करोड़ रुपये दबा कर बैठ गए हैं। कोई भी सरकार इनका नाम बताने को राजी नहीं है। आपका क्या मानना है?
सरकार को नाम बताना चाहिए। लोगों को नाम जानने का हक है और ऐसा करने से बाकियों को भी भय होगा कि वह ऐसा न करें। उन पर उचित कार्रवाई भी होनी चाहिए।
आपके प्रॉडक्ट्स और कंपनी को लेकर सोशल मीडिया में गाहे-बगाहे अफवाहें सुनने को मिलती हैं लेकिन आपकी तरफ से इन पर कोई सफाई नहीं आता ऐसा क्यों?
सोशल मीडिया पर जिम्मेदार, देशभक्त, साइंटिफिक यूनिवर्सल सेक्युलर और इंक्लूसिव सोच रखने वाले लोग भी हैं और कुछ फिजूल लोग हैं। इन फिजूल लोगों पर कमेंट न करना हमारी समझदारी और जिम्मेदारी है। ऐसे लोग तो चाहते ही हैं कि हम उनकी बातों का जवाब दें और अपनी एनर्जी उनकी बकवास बातों में लगा दें। ऐसा करने पर तो हम उनके मिशन को सफल कर रहे हैं। बेहतर है उनका जवाब न दिया जाए।
फिर भी कोई स्ट्रैटजी तो होगी इन चीजों से निपटने की?
स्ट्रैटजी की क्या जरूरत है। अगर हम सही हैं तो हमें किसी स्ट्रैटजी की क्या जरूरत है। अगर कोई गलत है तो चाहें जितनी स्ट्रैटजी बना ले सब बेकार हो जाना है।
कहा जा रहा है कि पतंजलि के प्रॉडक्ट्स की भारी डिमांड के चलते उसे आउटसोर्सिंग के जरिए पूरा किया जा रहा है इसमें कितनी सचाई है?
हमारे 90 से लेकर 99 फीसदी प्रॉडक्शन इन-हाउस है। यदि कहीं पर आउटसोर्स भी किया जा रहा है तो इससे काफी लोगों को फायदा हो रहा है। मिसाल के तौर पर नमक है, इससे कई मजदूरों और देसी कंपनियों को भी काम मिल रहा है। हम तो सबके विकास की बात करते हैं। हम सबको साथ लेकर आगे जाना चाहते हैं। यदि कुछ लोगों को हमने काम दिया तो हमारे स्वदेशी अभियान और विकेंद्रित विकास और समावेशी विकास का एक हिस्सा है। किसी से काम करवाना या उसे काम या समृद्धि देना देश की भलाई है। पतंजलि के अलावा बाकी को आगे बढ़ाना भी स्वदेशी अभियान के लिए जरूरी है।
लेकिन लोगों की चिंता क्वॉलिटी को लेकर है? मिसाल के तौर पर लोग कहते हैं कि आपका शहद जम जाता है इसलिए खराब है?
हम खुद क्वॉलिटी को लेकर सबसे सख्त हैं। एक भी प्रॉडक्ट बताएं, जिसमें हमने क्वॉलिटी के साथ समझौता किया गया है। जहां तक बात शहद की है तो इसे लेकर देश को लोगों में भारी अज्ञानता है। हमने इसके बारे में जानकारी प्रॉडक्ट के लेबल पर भी दिया है। शहद का जमना एक स्वाभाविक बात है। विदेशों में 99 फीसदी जमा शहद ही बिकता है। सरसों के फूलों से मधु लेने वाली मधुमक्खी का शहद जरूर जमेगा। दुनिया भर में लोग जमे हुए शहद को फ्रूट जैम की तरह ब्रेड पर लगा कर खाते हैं, कुछ लोग चाय में डाल कर पीते हैं। अगर कोई शहद बिल्कुल नहीं जमता तो इसका मतलब वह नैचरल नहीं है।
हाल ही में फॉर्ब्स मैगजीन में एक रिपोर्ट छपी है जिसमें आपके घी को लेकर कंपनी के बड़े अधिकारियों को कोट करते हुए स्टोरी की गई है। इस पर आप क्या कहेंगे, क्या आप कानूनी कार्रवाई करने का मन बना रहे हैं?
विदेशी मिडिया हमेशा मल्टीनैशनल कंपनियों का साथ देता है। ये उनकी हरकत है। जहां तक बात कानूनी कार्रवाई की है तो हम मीडिया पर किसी भी तरह की कार्रवाई से हमेशा बचते हैं। मैंने ये पॉलिसी बना रखी है कि मैं मीडिया और साधु-संत समाज पर कोई टिप्पणी नहीं करता। हर जगह अच्छे-बुरे लोग हैं। कोई ज्यादा ही हरकत करेगा तो हम सोचेंगे। आचार्य बालकृष्ण और सिंघलजी को पूरी तरह से गलत कोट किया गया है।
आप और आचार्य बालकृष्ण कई घरेलू नुस्खे बताते हैं। क्या आप इसके ट्रायल करके लोगों को साइंटिफिक तरीके से बताएं तो लोगों को घर पर ही सस्ता इलाज मिल सकता है। इस बारे में क्या आप कुछ कर रहे हैं?
देश में सैकड़ों तरीके की सब्जियां और अनाज खाए जाते हैं। दुनिया भर में ऐसा ही नॉन वेज खाने वालों के साथ है। क्या हर तरीके के खाने को खाने से पहले क्लीनिकल ट्रायल किए गए हैं? आहार, विचार, व्यवहार और संस्कार पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले आ रहे हैं और इनके पीछे वैज्ञानिक तथ्य है। ठीक वैसे ही हमारे नुस्खे में भी बहुत वैज्ञानिक तथ्य हैं। मिसाल के तौर पर डेंगू पर हमारे दिए नुस्खे का बेहतरीन असर रहा है। हमने अपने आसपास कई लोगों का इलाज इसके जरिए किया है। अब इसके ट्रायल की जरूरत क्या है।
आयुर्वेद एक पुराना तरीका है। तब से काफी बदलाव आ चुका है। क्या आयुर्वेद की सक्षमता हर बीमारी से निपटने में है और क्या इसमें कोई नया रिसर्च भी हो रहा है?
एक बात समझ लीजिए, धरती पर जितनी बीमारियां हैं उनके इलाज भी इसी धरती पर हैं। मॉडर्न मेडिकल साइंस कहता है कि वायरल हर वक्त शक्ल बदलता रहता है लेकिन वायरल से होने वाली बीमारियां तो मात्र 1-2 फीसदी ही हैं। बाकी डायबिटीज, बीपी, हार्ट आदि से जुड़ी बीमारियां ही ज्यादा है। ऐसे में यह कहना गलत है कि आयुर्वेद कारक नहीं है। मिसाल के तौर पर गिलोय को ही ले लें वह 90 से 95 फीसदी बैक्टीरिया और वायरस पर कारगर है। घरेलू नुस्खे हजारों हजार साल से आजमाई या रही हैं। ऐसा नहीं है कि हम रिसर्च नहीं कर रहे। हमने हाल ही में रिसर्च सेंटर बनाया है जिसमें काम हो रहा है। जल्दी ही नई रिसर्च सामने आएंगे। हमने इस पर भारी निवेश किया है।
आपके प्रॉडक्ट में काफी कृषि उत्पाद इस्तेमाल होते हैं। क्या सब ऑर्गेनिक उत्पाद हैं। अगर आप पहल करें तो लोग ऑर्गेनिक की तरफ मुड़ेंगे। क्या आप सबके सर्टिफिकेट के लिए कहेंगे?
हर चीज के सर्टिफिकेट की जरूरत क्या है। मैं बाबा हूं तो क्या मुझे किसी सर्टिफिकेट की जरूरत है। मैं हर चीज के सर्टिफिकेट की बात करना बेमायने हैं। किसान को ऑर्गेनिक सर्टिफिकेट के लिए मल्टीनैशनल कंपनी को हजारों रुपये देने होंगे। यह तो उसे परेशान करने की बात है। ऐसे तो किसान मर जाएगा। यह एक फैशन बन चुका है कि सब अपराध किसान कर रहा है। देश को असली खतरा एसी और बड़ी बिल्डिगों में बैठे लोगों से है। नैसर्गिक या ऑर्गेनिक खेती की बात तो सही है लेकिन सर्टिफिकेट को जरूरी करना किसानों के लिए एक नई समस्या पैदा करने वाला काम होगा। वो पहले ही परेशान हैं और हम उन पर एक और बोझ लाद देंगे। हां मैं इस बात की गारंटी लेता हूं कि हमारे अपने फॉर्म में हम पूरी तरह से नैसर्गिक खेती कर रहे हैं। वैसे हम जरूर सर्टिफिकेशन जैसे फूड के लिए FSSAI और आयुर्वेद के लिए आयुष मंत्रालय के लिए सर्टिफिकेट तो लेते ही हैं।
आप अपने विज्ञापनों में मल्टीनैशनल कंपनियों को भला-बुरा कहते हैं और देश विरोधी बताते हैं जबकि सरकार तो उन्हें लाइसेंस देकर काम करने का बढ़ावा देती है। आप क्या कहेंगे?
विज्ञापन हमने चलाया है और बिल्कुल सही चलाया है और आगे भी चलाएंगे। जरूरी नहीं है कि सरकार जिस काम के लिए लाइसेंस दो वह सही ही हो। मैंने तो कोई सरकारी डिग्री नहीं ली लेकिन फिर भी मैं आयुर्वेद और योग का जानकार हूं और डिग्री भी देता हूं। लेकिन मैं विद्वान हूं इसके लिए मुझे किसी डिग्री की जरूरत नहीं है। सरकार तो शराब, सिगरेट और न जाने किन-किन चीजों को लाइसेंस दे देती है तो क्या ये सब सही है। कोई चीज लीगल हो सकती है लेकिन इससे वह समाज के लिए सही हो जरूरी नहीं। सरकार ने तो गायों का कत्लखाना खोलने की भी लाइसेंस दिए हैं तो क्या ये सही है। मैं विदेशी कंपनियों के खिलाफ हूं। ये ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह हैं। सरकार ने डब्लूटीओ के साथ संधि की है जिससे वो बंधे हैं लेकिन मैंने ऐसी कोई संधि नहीं की है। इसलिए मैं खुल कर विरोध करता हूं मुझे कोई नहीं रोक सकता। ये बात और है कि पहले बीजेपी और मोदी जी भी ऐसी बातें करते थे। सरकारें संधियों की बंदिशों की वजह से ‘मेक इन इंडिया’ कहती है लेकिन मैं कहता हूं ‘मेक बाई इंडियंस’।
अब आप और क्या लाने वाले हैं?
फिलहाल टेक्सटाइल पर काम चल रहा है जिसमें 15 श्रेणियां होंगी। अंडरवियर से लेकर जींस तक सब बनाएंगे। खादी के ऊपर भी कई कंपनियां पैसे बना रही हैं। इसको तो बंद करना ही होगी। ये पूरी तरह से फरेब इंडिया है। इसे हम खत्म कर के रहेंगे। हम करीब 1000 प्रॉडक्ट्स के साथ आने वाले हैं। इसके पूरे शो रूम होंगे और अगले साल से इसे शुरू करने का इरादा है।
दूध की कीमतें कुछ वक्त के बाद बढ़ जाती हैं क्या आप इस परेशानी से निपटने के लिए दूध भी लाने वाले हैं?
हम इस साल दिसंबर तक ताजा दूध लेकर आने वाले हैं लेकिन सिर्फ गाय का।
एक तरफ कहा जाता है कि प्रेजर्वेटिव वाली चीजें न खाओ। आप भी सोडियम बेंजोनेट का इस्तेमाल करते हैं। तो ये बाकियों से कैसे बेहतर हैं?
सोडियम बेंजोनेट का इस्तेमाल काफी सीमित मात्रा में होता है जिससे कोई नुकसान नहीं है। अगर हम किसी चीज को प्रोसेस न करें तो साल भर उसे कैसे उपलब्ध करवाया जा सकता है। मिसाल के तौर आंवले को ले लें। इसे साल भर खाने के लिए ऐसा करना जरूरी हो गया है। वैसे भी आयुर्वेद कहता है कि फल तो सीजनल खाओ लेकिन आंवला और साक-सब्जियां 12 महीने खाने का विधान है।
हाल ही में आचार्य बालकृष्ण तो फोर्ब्स मैगजीन ने सबसे धनवान लोगों की लिस्ट में शामिल किया जबकि आप कहते हैं कि पतंजलि किसी एक इंसान की कंपनी नहीं है?
कंपनी बनाने के लिए कुछ नियम होते हैं जिनसे हम भी बंधे हैं। ऐसा ही एक नियम है कि शेयर कोई इंसान ही रख सकता है न कि कोई ट्रस्ट इसलिए आचार्य जी को हमने वह जिम्मेदारी सौंपी। आचार्य जी ने अपनी वसीयत के जरिए ऐसा लिख दिया है कि मेरा सबकुछ ट्रस्ट का है। वह तकनीकी रूप से भले अमीर हों लेकिन असल में वह 1 रुपये सैलरी भी नहीं लेते।
आप कहते हैं कि कंपनी प्रॉफिट नहीं कमाती लेकिन हजारों करोड़ का प्रॉफिट तो दिखाया जा रहा है। तो क्या आप प्रॉफिट के बिजनेस में आ गए हैं?
हम सस्ता बनाएं तब भी दिक्कत, हम प्रॉफिट न कमाएं तब भी दिक्कत। जो थोड़ा बहुत प्रॉफिट है वह इस वजह से है कि उत्तराखंड टैक्स फ्री जोन है इसकी वजह से 10-15 फीसदी बचत हो जाती है। बाकी अगर थोड़ा बहुत प्रॉफिट होगा तभी तो काम आगे बढ़ेगा। हम न बैंक का पैसा मारते, न किसी से दान लेते, न हम कॉर्पोरेट फैमिली से हैं। हमें तो सब इसी से करना है।
ऑनलाइन पर आपका सामान महंगा है लेकिन आपके डेडिकेटेड स्टोर पर एमआरपी पर ही मिलता है। ऐसा क्यों?
ऑनलाइन कंपनियां तो वैसे ही डूबने वाली हैं। पतंजलि के प्रॉडक्ट बेचने वाला काफी इनवेस्टमेंट करता है। अब सस्ता बेचेंगे तब कैसे सर्वाइव कर पाएंगे।
क्या अब भी आपका कोई ड्रीम प्रोजेक्ट है?
मैं अगले 5-10 साल में 100 लाख करोड़ का मैन्युफैक्चरिंग हब बनाने का सपना देखता हूं। इस तरह के सौ लोग हों तो ऐसा मुमकिन है। मैं इसमें 1 लाख करोड़ रुपये का योगदान करने को तैयार हूं।
यूपी और उत्तराखंड में चुनाव आने वाले हैं आप किसके साथ हैं?
हम फिलहाल राजनैतिक तौर पर सर्वदलीय निर्दलीय हो गए हैं। जब तक देश पर कोई भारी संकट न आए तब तक राजनीति पर कोई बात नहीं करूंगा।
दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल और पीएम नरेंद्र मोदी दोनों ही आपके करीब हैं लेकिन दोनों ही हमेशा एक दूसरे से भिड़े रहते हैं। क्या आप बीच-बचाव के लिए आएंगे?
जब मैं ऐसे मामलों में बोलता था तब मीडिया कहता था कि बाबा राजनीति में क्यों घुस रहे हैं। अब मैं कुछ नहीं बोल रहा हूं तो पूछ रहे हैं कि बीच-बचाव क्यों नहीं कर रहे। मैं पहले ही कह चुका हूं कि मैं राजनीति पर तभी कोई बात करूंगा जब देश पर कोई राजनैतिक संकट हो।
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गुलज़ार को गुस्सा क्यों आता है? — पंकज शुक्ल | Angry Gulzar @pankajshuklaa



पंकज शुक्ल भारत के एक निहायत पिछड़े गांव मझेरिया कलां, उन्नाव (उ.प्र) में पैदा हुए और दिल्ली, मुंबई से लेकर लंदन, अमेरिका तक रिपोर्टिंग और फिल्म मेकिंग कर आए हैं। महीने भर के किसिम किसिम के बिल भरने के लिए अखबार की नौकरी करते हैं और अपने लिए वक़्त मिलता है तो गाने सुनते हैं, लॉन्ग ड्राइव पर जाते हैं या फिर किताबें पढ़ते और पटकथाएं लिखते हैं। टीवी के लिए तमाम नए और अलहदा किस्म के कार्यक्रम बना चुके पंकज की डॉक्यूमेंट्री "स्वराज मुमकिन है" को हाल ही में फेस्टिवल ऑफ ग्लोब, सैन फ्रैंसिस्सको में पुरस्कृत किया गया।  




गुलज़ार बीते शनिवार मुंबई के इस्कॉन सभागार में देश के फिल्म और टेलीविजन निर्देशकों की संस्था इफ्टडा की “मीट द डायरेक्टर- मास्टर क्लास” के अतिथि थे। उनसे ये बातचीत अमर उजाला के एसोसिएट एडीटर और इफ्टडा के सदस्य पंकज शुक्ल ने वहीं की जिसे पढ़ने के बाद भरपूर अहसास हुआ कि सब पढ़ें, विचारें और बच्चों के प्रति हमारे जिस रवैया को गुलज़ार ने उजागर किया है उसे 'सुधारें'।

पंकज भाई का शुक्रिया, उनसे संपर्क pankajshuklaa@gmail.com पर किया जा सकता है।


गुलज़ार को गुस्सा क्यों आता है?

पंकज शुक्ल

बच्चों के लिए ढेर सारे चुलबुले गाने लिखने वाले गीतकार, पटकथा लेखक और निर्देशक गुलज़ार देश में बच्चों को लेकर बने हालात से बहुत नाराज़ हैं। उनका साफ कहना है कि बच्चों के लिए सिवाय जुमले कहने के हमने कुछ नहीं किया। बच्चों के लिए फिल्में बनाने वाली सरकारी संस्था चिल्ड्रेन फिल्म सोसाइटी को उन्होंने सिर्फ नए फिल्ममेकर्स के लिए हाथ साफ करने वाली संस्था करार दिया और कहा कि बच्चों के लिए नया साहित्य गढ़ने में हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी शून्य तक गिर चुकी है। 




“बाल फिल्मों में प्रोड्यूसर्स को मुनाफा नहीं दिखता”

बच्चों के लिए फिल्में न बनने की वजह के बारे में “अमर उजाला” के सवाल पर गुलज़ार ने पहले तो बहुत ही सीधा सा सपाट जवाब दिया कि इन फिल्मों में फिल्म निर्माताओं को मुनाफ़ा नज़र नहीं आता, इसीलिए वे बच्चों की फिल्में नहीं बनाते। लेकिन, जब उन्हें लगा कि जवाब थम गया है तो उन्होंने इसके जमाव में अपने गुस्से का पत्थर फेंका। वह बोले, बच्चों के लिए हम कहते बहुत हैं। उन्हें हम अपनी आने वाली नस्लें कहते हैं। हमारा भविष्य, देश का भविष्य कहते हैं। लेकिन क्या हमने कभी इसे महसूस भी किया या कि कभी ऐसा कुछ किया भी है। सिवाय जुमले कहने के हमने कुछ नहीं किया।



बच्चों के लिए हमारा रवैया घिनौना

देश में बच्चों को लेकर बन रहे हालात पर गुलज़ार का गुस्सा इसके बाद बढ़ता ही गया। उन्होंने कहा कि हमने बच्चों की दरअसल परवाह ही नहीं की है। हमने बच्चों के साथ बहुत बहुत बुरा बर्ताव किया है। हम उनका सम्मान भी नहीं करते। हम उन्हें प्यार करते हैं? हम अपने बच्चों को प्यार करते हैं और शायद सिर्फ अपने ही बच्चों को प्यार करते हैं, यहां तक कि पड़ोसियों के बच्चों को भी हम प्यार नहीं करते। हमारा मूल रवैया ही बच्चों के लिए गंदा और घिनौना हो चुका है। तीन साल, चार साल, पांच साल के बच्चों के साथ स्कूल बसों में बलात्कार हो रहे हैं, उनके शरीर के साथ खिलवाड़ हो रहा है। उन्होंने सवाल किया कि क्या एक देश के तौर पर हम बच्चों को लेकर अपने सरोकारों पर गर्व कर सकते हैं? होना तो ये चाहिए कि कोई बच्चा अगर सड़क पार कर रहा हो तो सड़क पर ट्रैफिक अपने आप रुक जाना चाहिए।

हिंदी में बाल साहित्य का स्कोर ज़ीरो

गुलज़ार ने कहा कि हमारे समाज के मूल में कहीं कुछ गड़बड़ी आ गई है। हम बच्चों को प्यार ही नहीं करते हैं। हम सिर्फ उनके भीतर इसकी आशा जगाते हैं। बच्चों को लेकर हमारे सराकोर मरते जा रहे हैं। मराठी, मलयालम और मराठी के अलावा किसी दूसरी भाषा में बच्चों के लिए नया साहित्य नहीं लिखा जा रहा है। राष्ट्रभाषा हिंदी तो शून्य पर पहुंच चुकी है और कई अन्य मुख्य भाषाओं में ये रिकॉर्ड ज़ीरो के भी नीचे जा चुका है।

चिल्ड्रेन फिल्म सोसाइटी ने कुछ नहीं किया

वापस मुख्य सवाल यानी देश में बच्चों की फिल्मों की तरफ ध्यान न होने की तरफ लौटते हुए उन्होंने बच्चों की फिल्में बनाने के लिए बनी सरकारी संस्था चिल्ड्रेन फिल्म सोसाइटी ऑफ इंडिया की जमकर खिंचाई की। उन्होंने कहा कि इस सोसाइटी के पास तीन सौ से ऊपर फिल्में ऐसी पड़ी हैं जिन्हें किसी ने देखा तक नहीं और न ही ये रिलीज़ हो सकी हैं। इसके लिए सोसाइटी ने कुछ नहीं किया। बस बच्चों की फिल्में बनाने के नाम पर हर साल कुछ नए फिल्म मेकर हाथ साफ करने पहुंच जाते हैं।



गुलज़ार का नया प्रयोग!

गुलज़ार जल्द ही कविताओं की दिशा में एक नया प्रयोग अपने चाहने वालों के बीच लेकर आने वाले हैं। वह इन दिनों हिंदी से इतर भाषाओं के कवियों और शायरों की कलम से निकले शब्दों से होकर गुजर रहे हैं। उनकी कोशिश देश की तमाम भाषाओं और बोलियों में इन दिनों लिखी जा रही कविताओं से अपने प्रशंसकों और हिंदी प्रेमियों को अवगत कराना है। इस प्रयोग को उन्होंने “ए पोएम ए डे” नाम दिया है यानी कि हर रोज़ एक कविता। गुलज़ार की ये अनूदित कविताएं जल्द ही एक संकलन के तौर पर बाज़ार में आने वाली हैं। वह कहते हैं, मैं 28 का था तो लेखक ही बनना चाहता था पर फिल्मों में आ गया। अब 82 का हो गया हूं तो वापस वही करना चाहता हूं और कर रहा हूं जो मैं शुरू में करना चाहता था।
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साहित्य की मुख्यधारा में क्या पाप धोये जाते हैं — राजेंद्र राव Rajendra Rao Interview by Geetashee



राजेन्द्र राव से गीताश्री की बातचीत

Rajendra Rao Interview by Geetashee

बीसवीं सदी के आठवें दशक में एक रचनाकार ने जिस धमाकेदार अंदाज में अपनी उपस्थिति जताई और एक के बाद एक अपनी रचनाओं के विस्फोट से साहित्यिक सन्नाटे को तोड़ा वह फिर देखने को नहीं मिला। तबसे अबतक साहित्य की मैली गंगा को साफ़ करने की योजनायें लिए न जाने कितने रचनाकार आये और गए मगर राजेन्द्र राव का पता-ठिकाना आज भी मौजूद है। गीताश्री ने राजेंद्र राव से बात-चीत की। कुछ उनको और कुछ साहित्य के वर्तमान स्वरूप को जाना। इस साक्षात्कार में पढ़ें राजेंद्र राव ने क्या कहा, गीताश्री ने क्या सुना.... निकट मई-अगस्त 2016




गीताश्री का राजेन्द्र राव के बारे में कहना है – जाड़े की गुनगुनी धूप में हम आमने-सामने बैठे थे। उनका बोलना इतिहास की सुरंगों से होकर आ रहा था। न जाने कितने पन्ने फड़फड़ा रहे थे। मेरे पास सवाल कम थे किन्तु उनके पास उन सवालों से उभरे प्रश्नों के भी ज़वाब थे। दो-तीन घंटों में जो दुनिया हमारी बात-चीत के दौरान जन्मी उसे मैंने समेटने की कोशिश तो की लेकिन लगा कि अभी बहुत कुछ है जिसे राव साहब कहना चाहते थे। लगा कि कुछ है जो अब भी छिपा रह गया। सच कई बार खुद ही झांकता है। उस सच तक किसी और बात-चीत में पहुँचने की कोशिश करेंगे। फिलहाल, सत्तर के दशक के सबसे सक्रिय, सबसे अलग और अपने समय के सबसे साहसी यानी आज की भाषा में ‘बोल्ड’ कथाकार राजेन्द्र राव से मेरी यह अधूरी बात-चीत जिसके वृत्त में मैंने नवरस का संचार होते महसूस किया...



गीताश्री : कुछ साहित्यकार आपको मुख्यधारा का लेखक नहीं मानते। आप खुद को मुख्यधारा से अलग क्यों रखते हैं ?
राजेन्द्र राव :  देखिये, मेरी समझ में लेखन नितांत एकान्तिक कर्म है। यह किसी भी स्तर पर सामूहिक गतिविधि नहीं है। हर लेखक या लेखिका के लेखन में उसका निजत्व बड़ी मात्रा में होता है। व्यक्ति से व्यक्ति के अंतर्संबंध या सूत्र हो सकते हैं, सम्प्रेषण हो सकता है, मगर यह संभव नहीं है कि दो लेखक या लेखिकाएं एक स्तर पर सोचते हों, एक तरह से रहते हों या एक तरह से रिएक्ट करते हों। चार-पांच की तो बात ही छोडिये। लेखन में यह कभी संभव नहीं है और न किसी लेखक की क्लोनिंग की जा सकती है। तो, ये जो कुनबे या ग्रुप्स बनते हैं, ये उन लेखकों के लिए ज्यादा उपयुक्त हैं जिन्हें एक सुरक्षा कवच की ज़रूरत होती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है जिसको समूह में सुरक्षा का एहसास होता है मगर मैं यह समझता हूँ कि किसी भी लेखक के लिए सुरक्षा या सुरक्षित होने का भाव एक मंद विष है। लेखक में जितनी बेचैनी होगी, जितनी ज्यादा असुरक्षा की भावना होगी, जितना ज्यादा वह हाशिये पर होगा, जितना अधिक वह उपेक्षित होगा ; उसके लेखन में धार उतनी ही अधिक होगी। साहित्य की मुख्यधारा शायद कोई ऐसी जगह होती है जैसी हमारी पवित्र गंगा नदी है। जिसमें अनेक कुम्भ आयोजित होते हैं, जिसमें डुबकी लगाकर लोग अपने परमार्थ अर्जित करते हैं, अपने पाप धो लेते हैं। अगर साहित्य में ऐसी कोई मुख्यधारा है जिसमें जाकर आप नहा लें और आपके पाप धुल जाएँ, आपकी अक्षमताएं धुल जाएँ, आपके लेखन में ओज आ जाए, आपको चार साथी ऐसे मिल जाएँ जो आपका मनोबल बढाते रहें और फिर आप लिखते रहें तो आप लेखक कम और बैसाखी पर टिके हुए व्यक्ति ज्यादा होंगे।




गीताश्री : आपके अनुसार लेखन एक एकान्तिक कर्म है तो क्या आप इसीलिए कटे-कटे रहते हैं ? आपमें महत्त्वाकांक्षा है ही नहीं जो अन्य साहित्यकारों में होती है, ऐसा क्यों ?
राजेन्द्र राव :  कटे रहने या दूर रहने में कुछ नुकसान हो सकते हैं मगर फायदे ज्यादा हैं। एक तो यह कि अपनी पसंद का जीवन जीने की स्वतंत्रता ज्यादा होती है। हम दूसरों पर जितना आश्रित होते जाते हैं, जितना दूसरों के सहारे अपने काम करने की शैली अपनाते हैं, जितना परमुखवेक्षी हो जाते हैं उतना ही हम अपनी स्वतंत्रता का हनन करते हैं। पति-पत्नी का सम्बन्ध जितना कि उसे ग्लोरिफाई किया गया है, उसके अन्दर भी दोनों का अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व होता है, एकांत होता है। दोनों के घोर सामीप्य के बावजूद दूरियां होती हैं। यह संभव नहीं कि मनुष्यों के बीच में दूरियां न हों। तो, एक संतुलन साधना होता है और शायद यह मेरी प्रवृत्ति भी है। मैं बहुत लम्बे समय तक अपने माता-पिता की एकमात्र संतान रहा हूँ। तो, अकेले रहने की आदत रही है। अकेले बैठकर सोचना, अकेलेपन का सुख भोगना मुझे ललचाता रहा है। अब भी अपने अकेलेपन में, अपने एकांत में मैं एक स्वतंत्र सत्ता की तरह हूँ। हालांकि, मैंने जीविका के लिए नौकरी की है, अब भी कर रहा हूँ, मगर आदमी जितनी ज्यादा नौकरी में जाता है, गुलामी करता है, उतनी ही ज्यादा उसे स्वतंत्रता की तलब महसूस होती है। तो, दोनों ही चीजें समानांतर चलनी चाहिए। मेरा लेखकीय व्यक्तित्व एकदम अलग है। उसे मैं निरापद रखता हूँ। यह जानबूझकर नहीं होता। यह स्वभाव में है।


गीताश्री : आप स्पष्टवादी हैं। क्या आपको लगा कि इसके कई नुकसान हैं ? क्या स्पष्टवादिता के कारण ही साहित्य में आपको वह स्थान नहीं मिला जो मिलना चाहिए था ?
राजेन्द्र राव :  इसके नुकसान हो सकते हैं। साहित्य में हम जिन्हें उपलब्धियां मानकर चल रहे हैं उसके बहुत सारे कारक हैं। जैसे – पुरस्कृत होना, सम्मान पाना, सरकारी समितियों में दाख़िल होना, विदेश यात्राएं करना। बहुत सारे आकर्षण धीरे-धीरे लेखन से जुड़ते जा रहे हैं। इसे आप ऐसे समझिये कि अगर आप ताल-मेल नहीं बिठाएँगे, अपने आपको फिट नहीं करेंगे तो आपकी इसतरह की उपलब्धियां बहुत कम होती जायेंगी। आपको लगता है कि मैं कटा-कटा रहता हूँ ? मैं साहित्य में बहुत गहरे धंसा हुआ हूँ, कहीं न कहीं आपको यह अनुभूति भी होती होगी। बहुत-से लोग हैं जो दूर से बैठकर अहले करम देखते हैं। मैं तो लम्बे समय से देख रहा हूँ। जब मैं लेखन में नया-नया आया था तो मेरे मन में बड़े-बड़े लेखकों, लेखिकाओं और कवियों की बहुत धवल और मनोरम छवियाँ थीं। सभी लेकर आते हैं। धीरे-धीरे जब उन्हें हाड़-मांस के रूप में देखा और नज़दीक आये तो लगा कि ये भी इंसान हैं, इनकी भी अपनी कमजोरियां और ताकतें हैं। मगर साथ चलते वक़्त ने बताया कि उनकी जीवन-शैली, उनके दर्शन, उनके सोच में इतनी ज्यादा गिरावट है कि उसे दारुण कहना ही उचित होगा। जो हमारे बड़े-बड़े हस्ताक्षर हैं, जिनके लेखन पर हम गर्व भी करते हैं या उनका उल्लेख बार-बार करते हैं, उन्हें अपना प्रतिमान मान लेते हैं, हम दिल में जान लेते हैं कि वे अपनी निजी जिंदगी और अपने लेखकीय – कर्म में जिस तरह की राजनीतिक जोड़-तोड़ करते हैं उससे हिंदी साहित्य में गिरावट आई है और पाठकों का पलायन हुआ है जबकि क्षेत्रीय भाषाओं के साहित्य को लगातार बढ़त मिली है। मलयालम, बांग्ला या तमिल जैसी उन्नत क्षेत्रीय भाषाओं को छोड़ भी दें तो उड़िया, असमिया या जो एनी छोटे प्रदेशों की भाषाएँ हैं, उनमें पाठकों की संख्या में तेजी से बढ़ोत्तरी होती आई है। हिंदी का ऐसा दुर्भाग्य है कि हमने पठन-पाठन की संस्कृति को विकसित करने में योगदान नहीं दिया।



गीताश्री : क्या आपको लगता है कि हिंदी में पाठक बचे हैं ? या लेखक ही पाठक हैं ? मैंने अभी कहीं पढ़ा कि आप पाठक की वापसी की बात करते हैं।
राजेन्द्र राव :  सौभाग्य से कुछ पाठक बचे हैं। पाठक शून्य न तो कोई भाषा होती है और न ही समाज होता है। यह संभव ही नहीं है। पाठकों की जो घटती संख्या की बात थी वह इस लिहाज से कि हिंदी विश्व की दो सबसे बड़ी भाषाओं में से एक है जिसे साठ-पैंसठ करोड़ लोग व्यवहार में लाते हैं, बोलते हैं। इतनी बड़ी भाषा में किताबों का पहला संस्करण ढाई-तीन सौ प्रतियों का छपे और चार साल में बिके तो यह बहुत ही दयनीय स्थिति है। अब यह अलग बात है कि वह किताब जिसका संस्करण तीन सौ प्रतियों का छपा है उसपर लेखक को ग्यारह लाख का पुरस्कार मिल जाए पर उसे ग्यारह सौ की रायल्टी मिल जाए इसकी संभावना दूर-दूर तक नहीं होती। अगर आप कुछ बड़े लेखकों से भी पूछें तो भी कुछ पता नहीं चलेगा। मैंने तो सुना है कि जैसे पठान लोग पहले किसी ज़माने में सूद की रक़म आतंकित कर-करके वसूलते थे वैसे ही कई लेखक अपने प्रकाशकों को निरंतर फ़ोन करके, उनके पीछे पड़कर किसी तरह रायल्टी वसूल करते हैं। मगर यह जानने का किसी के पास समय नहीं है कि तीन सौ उनचास रुपये पचास पैसे की एक साल की जो रायल्टी हिंदी का हमारा प्रकाशक देता है उसका आंकड़ा कितना सही है। और, यह खाली रायल्टी की बात नहीं है। हिंदी साहित्य आज अनैतिक संबंधों की गिरफ़्त में है। इस व्यतिक्रम को देखिये – मैं विश्व पुस्तक मेले में यह देखकर हैरान रह गया कि हिंदी में इतने प्रकाशक हैं ! और सब चांदी काट रहे हैं। यकीन करिए। वहां जिसने किराए पर स्टाल लिया होगा, कर्मचारी रखे होंगे, उसकी कुछ तो हैसियत होगी। मेरे ख्याल से ढाई-तीन सौ, चार सौ प्रकाशक वहां थे।चाँदनी चौक में जो छोटी-छोटी चाट की दूकानें हैं, उनसे ज्यादा संख्या प्रकाशकों की थी। आखिर यह पैसा कहाँ जा रहा है ? यह लेखक को क्यों नहीं दिया जा रहा ? और, मजेदार बात, ऐसा नहीं है। यह समाज लेखक को पैसा भी देता है मगर उसको फिर अनैतिकता के पथ पर भटकाकर। पुरस्कार का लालच दिखाकर। उसे जोड़-तोड़ करने पर मज़बूर करके। कितनी तिकड़म ! आप बताइये कि कौन-सा पुरस्कार है जो हिंदी में बगैर तिकड़म के मिल जाता है। जिनको मिला है या मिलाने वाला है या जो समितियों में हैं वे भले ही ऊपरी तौर पर कह दें कि सारे निर्णय मेरिट के आधार पर लिए जाते हैं, मगर क्या यह सच है ? हम अपने दिल से पूछते हैं तो आवाज़ नहीं आती। तो, यह एक अजीबोगरीब स्थिति है कि इतनी बड़ी भाषा का साहित्य ऐसे चक्रव्यूह में फंस गया है जिसमें सबसे ज्यादा दुर्गति और दयनीय दशा लेखक की होती है। उसके दो चेहरे हैं। एक बहुत सम्मानित है जिसे माला पहनाई जाती है, प्रशस्ति-पत्र दिए जाते हैं, पुरस्कार दिए जाते हैं, फ़्लैश बल्ब चमकते हैं, हाइलाइट होता है वह। बड़े सम्मान से उसे टी वी चैनेल्स पर बुलाया जाता है। उसी व्यक्ति का दूसरा चेहरा है जो दयनीय है, जो गिड़गिड़ाता है, पुरस्कार समितियों में जोड़-तोड़ फिट करता है, प्रकाशकों के पीछे पड़ता है कि मुझे पैसा ज़रूरत के लिए नहीं, सम्मान के लिए चाहिए। हम किस दुनिया में जी रहे हैं ? किस आत्मप्रवंचना में जी रहे हैं ? हिंदी के लेखकों को अगर यह भ्रम है कि उनके कपड़े उतरे हुए नहीं हैं तो यह बहुत बड़ा भ्रम है ! और, इन नंगों के समाज में इनकी क्या मुख्यधारा है और इनका क्या कुनबा है ? कौन खुद्दार व्यक्ति शामिल होना चाहेगा इसमें ? बताइये मुझे...



गीताश्री : लेखक एक बदलाव की आकांक्षा लेकर साहित्य में आता है, क्या सचमुच लिखने से कुछ बदलता है ? क्या लेखक बदलाव ला पाता है ?
राजेन्द्र राव :  बहुत कुछ बदलता है। सबसे पहले तो लेखन व्यक्ति को बदल देता है। आज हम एक लेखिका को देख रहे हैं, उनका नाम गीताश्री है। आज से दस-पंद्रह साल पहले यह एक युवा लड़की थी। लेखन के बीज कहीं रहे होंगे। कहीं कुछ आकांक्षा रही होगी। इन पंद्रह सालों ने आपके व्यक्तित्व को बदला है। आपका लेखन महिलाओं को प्रेरित कर रहा है। स्त्री-प्रश्नों पर आप जिस बेबाकी से लिख रही हैं वह बदलाव की आकांक्षा और तड़प नहीं तो क्या है। अपने आप में ही यह बड़े बदलाव का सूचक है। जब मैंने लिखना शुरू किया, पिछली सदी में, आठवें दशक में, उस समय जो महिलायें लिख रही थीं, उनमें न तो इतना साहस था और न उनकी आवाज़ ही इतनी बुलंद थी। आज सीन बदल गया है। आज के युवा लेखक-लेखिकाएं मठाधीशों की बिलकुल परवाह नहीं करते। और, यही व्यवहार इन लोगों के साथ होना भी चाहिए।


गीताश्री : साहित्य में अश्लील होता है कुछ ?
राजेन्द्र राव :  दो बातें हैं। या तो पूरा साहित्य ही अश्लील होता है या बिलकुल भी नहीं होता। श्लील-अश्लील साहित्य की दुनिया से बाहर की चीजें हैं। साहित्य ही नहीं कला की दुनिया से भी बाहर की चीजें हैं। अश्लीलता है क्या ? कोई भी वस्तु, कोई भी प्राणी, जो सुन्दर है, जो सौंदर्य-बोध जगाये उसके लिए अश्लील जैसा भोंडा शब्द कैसे दिया जा सकता है ? कोई निकृष्ट किस्म का व्यक्ति जिसके पास भाषा, अभिव्यक्ति या सुरुचि का नितांत अभाव होगा, जो मानसिक रूप से बहुत ही कुपोषित हो, वही अश्लील शब्द का प्रयोग कला या साहित्य के सन्दर्भ में कर सकता है। ऐसे दरिद्र व्यक्ति की चर्चा हम क्यों करें ?


गीताश्री : आजकल आपके रचना-संसार की चपेट में हूँ। कहानियां, रिपोर्ताज और भी बहुत कुछ। मुझे कहानियां लिखने से पहले आपको पढ़ना चाहिए था। आपने जो कुछ लिखा है, क्या उसे लिखते समय आपका परिवेश इजाज़त देता था ?
राजेन्द्र राव :  जब मैंने लिखना शुरू किया तब हमारा भरा-पूरा संयुक्त परिवार था। माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-ताऊ, बहुत सारे लोग थे। अब भी हैं पर सब इधर-उधर हो गए हैं। मेरे लेखन को लेकर मेरे घर में किसी ने यह महसूस नहीं किया कि इसे कहीं छिपाकर पढ़ा जाए या इन्होने ऐसा क्यों लिखा। एक उदाहरण – १९७३ में तीन महीने के लिए सरकारी काम से कोलकाता गया। मुझे वहां सरकारी हॉस्टल में रहना था। एक बड़ी पत्रिका के सम्पादक ने कहा कि वहां की जो रेड लाइट एरिया है, उसपर जीवंत रिपोर्ताज लिखो। मुझे भी लगा कि इसपर लिखना चाहिए। मैंने इन्वाल्व होकर लिखा। उन जगहों पर गया, देखा, सुना, बात-चीत की। वह सब धारावाहिक छपा। उस रिपोर्ताज की बड़ी धूम थी मगर संयुक्त परिवार होते हुए भी मेरे माता-पिता या किसी अन्य सदस्य ने कोई प्रश्नचिह्न नहीं लगाया। उन्हीं दिनों मुझे मानस-मर्मज्ञ राम किंकर जी का साक्षात्कार करना पड़ा। मेरे मन में संकोच था कि कहाँ वेश्या-जीवन पर लिखा और अब एक संत का साक्षात्कार लेकिन जब मैं उनके कमरे पर पहुंचा तो वे ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में प्रकाशित वही धारावाहिक पढ़ रहे थे। उन्होंने मुझसे कहा कि आप जैसे लेखक हमें बहुत सारे चाहिए। समाज का कलुष सामने आना चाहिए। तो, ऐसा नहीं है कि हिंदी का पाठक सजग नहीं है या उन्हें श्लील या अश्लील जैसी चीजें परेशान करती हैं, बिलकुल नहीं बल्कि यह हमारे लेखकों के दिमाग की उपज है। हम डरते हैं। हम रचनाकारों में ही यौन-प्रसंगों को लेकर काफी हिचकिचाहट और कुंठा है और वह स्वाभाविक भी है मगर यह याद रखिये कि जितनी हिचकिचाहट आपमें होगी, जितना आप छिपाना चाहेंगे, लेखन में उतना ही खुला हो जाना चाहिए। निजी जीवन में यह जो कंट्रास्ट है, बहुत खूबसूरत है। कलात्मक उपलब्धियों के लिए इस खूबसूरती की जरूरत शाश्वत है।



गीताश्री : लेखक और लेखिकाएं... दोनों डरते हैं क्योंकि उनके लिखे से उनका निजी आकलन होने लगता है। अगर रचनाकार महिला हुई तो उसपर आक्रमण होने लगता है। महिलायें ही हमला कर देती हैं कि ऐसा क्यों लिख रही हो ?
राजेंद्र राव :  क्षमा करें, मैंने कई युवा लेखिकाओं को पढ़ा है और उनमें कोई पर्दा नज़र नहीं आया। आप भी जानती हैं कि वे कहानियाँ ‘ हंस’ में भी नहीं छप सकीं लेकिन दूसरी पत्रिकाओं में छपीं।
गीताश्री जी, लेखक पर आक्रमण या उसका झेलना दो तरह का होता है। एक तो उसकी रचनाएं हर जगह से लौटती रहें। छपें नहीं। या फिर वह अपने लेखन के लिए जग-निंदा झेल ले। कौन-सा बुरा है यह आपकी दिक्कत है।


गीताश्री : आप सोनी सिंह की बात कर रहे हैं ?
राजेन्द्र राव :  जी, अब सोनी सिंह जाति-चयुत कर दी गईं या समाज से बहिष्कृत की गईं, ऐसा तो सुनने में नहीं आया, एक और लेखिका हैं, क्या है उनकी कहानी ब्लडी औरत – सोनाली मिश्र की।


गीताश्री : छपने में किसी को दिक्कत नहीं हुई। गालियाँ झेलनी पड़ीं। अब सोनाली की जो पीढ़ी है वह बहुत बेपरवाह है। सारे नैतिक मूल्य ध्वस्त करके अपना मूल्य गढ़ रही है। तो, वह नहीं डरेगी लेकिन हमारी पीढ़ी थरथरा गई।
राजेन्द्र राव :  एक बात समझ लीजिये अच्छी तरह से। नए मूल्यों का निर्माण तभी होगा जब पुराने ध्वस्त कर दिए जायेंगे। एक बार तो तोड़-फोड़ करनी ही पड़ेगी। हर पीढ़ी ने यह किया है। सक्षम पीढी याद की जायेगी और अक्षम पीढी बिना निशान छोड़े गुजर जायेगी। ऐसा नहीं है कि जो युवा आ रहे हैं उनके नैतिक मूल्य नहीं हैं, वे सिर्फ छद्म नैतिकताओं से बाहर आना चाहते हैं। इसके लिए इनमें गुस्सा है।


गीताश्री : आप लोहिया से प्रभावित लगते हैं। मेरा अनुमान सही है क्या ?
राजेन्द्र राव :  बहुत ज्यादा। लोहिया की बेस लाइन क्या थी ? जाति तोड़ो। अबतक जाति टूटी ? हिंदी साहित्य में जाति – प्रथा को लेकर आपका सामान्य ज्ञान भी काफी है, क्या जातिवाद नॉन एग्जिटेंट है ?


गीताश्री : नहीं, बहुत ज्यादा है।
राजेन्द्र राव : लोहियावाद की प्रासंगिकता उस समाज में हमेशा रहेगी जिसमें विषमताओं का जाल बिछा है। लोहिया जी जिस दिन भाषण देते थे उस दिन सदन में पूरी उपस्थिति होती थी। उन्हें सुनते हुए लोग थकते नहीं थे। अपने डेढ़-दो घंटे के भाषण में वह आदमी अंग्रेजी का एक शब्द भी प्रयोग नहीं करता था। ऐसे व्यक्ति के विचारों की छाया साहित्य में क्यों नहीं पड़नी चाहिए। हमारी पीढ़ी पर असर था क्योंकि हम लोग देख रहे थे।


गीताश्री : आपने बहुत बोल्ड स्त्रियाँ रची हैं। जिस दौर में लोग हिचक रहे थे, हिम्मत नहीं थी, तब आपने शिप्रा या कमला चाची जैसे किरदार रचे। तो, क्या यह लोहिया की स्त्रियों के प्रति नज़रिए का इम्प्रेशन था ? या आप चाहते थे कि स्त्रियों के प्रति समाज थोड़ा-सा खुले ?
राजेन्द्र राव :  नहीं –नहीं। देखिये, मेरे जीवन में स्त्रियों का बहुत महत्त्व रहा है। मैं समझता हूँ कि मेरी निर्मिति या मेरे जीवन में जो ऊर्जा है, जो उजाला है, जो धनात्मक सोच है उसमें बहुत बड़ा योगदान मेरी माँ, मेरी पत्नी और अन्य बहुत-सी स्त्रियों का है। ऐसा ज्यादातर लोगों के जीवन में होता है। स्त्रियों में जो संवेदना है वह उनका सबसे बड़ा कोष या आकर्षण होता है। हम लोग जब उनके पास जाते हैं या टूटने लगते हैं, पराजित होने लगते हैं तो नव प्रेरणा या बहुत साड़ी चीजें वहां से मिलती हैं। कई बार यह भी होता है कि उनकी वजह से भी हम टूटने लगते हैं। तो, जो पहेलियाँ स्त्री-पुरुष संबंधों की हैं उनसे अलग हटकर अगर आप देखें तो मनुष्य में प्राण का संचार स्त्री ही करती है क्योंकि वह प्राण देती है। पुरुष नहीं कर सकता।


गीताश्री : स्त्रियों के प्रति आपकी कहानियों में जो उदार दृष्टि दिखाई देती है, उसकी वजह यही है ?
राजेन्द्र राव :  देखिये, लेखन क्या है, सृजन क्या है ? उसी तरह से है कि नारी जन्म देती है। हमारे महापुरुष किसकी रचनाएं हैं, कितनी सुन्दर रचनाएं हैं। गांधी जी, जीसस और बुद्ध पैदा हुए हैं। तो, ये किनकी रचनाएं हैं, ये सब नारी की ही तो रचनाएं हैं। तो, लेखक को तो सृजन की प्रेरणा उसी से मिलेगी।


गीताश्री : असफल प्रेम कहानियों की आपने एक सीरीज लिखी जो बहुत लोकप्रिय हुई थी। क्या आपके भीतर भी असफल प्रेम को लेकर कोई कुंठा थी जो इस सीरीज को सचाई के करीब ले गई और इसे आशातीत सफलता मिली ?
राजेन्द्र राव :  देखिये, मेरी पीढ़ी में हाल यह था कि निन्यानबे प्रतिशत प्रेम सम्बन्ध असफल होते थे और जब असफल होते थे तो उनकी कुंठा होती थी मगर प्रेम में असफल होना एक अजीब किस्म की मीठी चुभन और पीड़ा है जिसको बहुत सहजता से सृजनात्मक मोड़ दिया जा सकता है। लेखक – लेखिकाओं के साथ यह आदिकाल से होता आया है। मूल स्थितियां नहीं बदलतीं। हमारे समय में नरेश मेहता थे। उन्होंने कहा कि सच्चा प्रेम होता ही वही है जो असफल हो। प्रेम का कोई और रूप नहीं हो सकता है। सफल होने का मतलब क्या हुआ ? शादी हो गई तो मतलब प्रेम की हत्या हो गई। इसे कुंठा की जगह टूटन कहना ज्यादा सही होगा। आपने देखा कि दो-तीन पीढियां शरत चन्द्र के बाद की देवदास से कितना प्रभावित रही हैं। आज भी देवदास का प्रभाव दिख जाता है।


गीताश्री : पढने-लिखने वाले लोग स्त्रियों के बारे में ज्यादा क्यों सोचते हैं ?
राजेन्द्र राव :  वे स्त्रियों के बारे में नहीं, अपने बारे में सोचते हैं। एक किशोर वय में मनुष्य सच्चा प्रेम कर लेता है। थोड़ा वयः संधि काल में भी कर लेता है। उसके बाद में तो कैलकुलेटेड प्रेम होता है। आप देखिये कि बड़े उपन्यासकार, बड़े लेखक या बड़े कवि छद्म प्रेमिकाएं रखते हैं। जैसे किसी समय में दरबार होता था, तो अकबर के नौरत्न होते थे।किसी भी लेखक के लिए उसकी रूमानी छवि बहुत ही सहायक होती है। उसको ऊंचाइयों तक पहुंचाने या उसकी दुर्गति करने में ये प्रेम-प्रसंग बहुत काम आते हैं।


गीताश्री : जब आपको यह सच पता था तो आपने उसे अपने ऊपर क्यों नहीं लागू किया ?
राजेंद्र राव :  सबको पता है और कोई भी अपने ऊपर लागू नहीं करता मगर इस जाल में फंसते सब हैं। कबीर ने ऐसे ही तो नहीं कहा – माया महा ठगिनी हम जानी। मगर यह माया केवल स्त्री ही नहीं है। माया के अनेक रूप हैं। और, एक लेखक को तो न जाने कितनी मायायें आ घेरती हैं।


गीताश्री : आपका मिजाज़ लड़कपन से आशिकाना था ?
राजेन्द्र राव :  इसमें कोई संदेह होता है तो मैं इसे बहुत ही अपमानजनक समझूंगा। यह मेरी मामूली ही सही, प्रतिष्ठा के विपरीत होगा। कम से कम यह अभियोग तो न लगाया जाए।


गीताश्री : आप जितना खुलकर लिखते हैं, उतने ही खुले क्या अपने जीवन में भी हैं ?
राजेंद्र राव :  बिलकुल। यह पारदर्शिता मेरे स्वभाव में है। तथाकथित मुख्यधारा में न होने का यह भी एक कारण है।


गीताश्री : आपकी आख़िरी प्रेमिका के बारे में जानना चाहती हूँ।
राजेन्द्र राव :  अभी तो जीवन बाकी है, आप मुझे क्यों दाख़िल खारिज कर रही हैं। रहम करिए और ‘आखिरी’ शब्द हटा दीजिये।


गीताश्री : हटा दिया। चलिए अपनी वर्तमान और लेटेस्ट प्रेमिका के बारे में ही बता दें।
राजेन्द्र राव :  मुझे बहुत अफ़सोस है कि आप इतनी प्रबुद्ध महिला होने के बावजूद ऐसा मेरे ऊपर आरोपित कर रही हैं।


गीताश्री : हर स्त्री, पुरुष के जीवन में आखिरी होना चाहती है।
राजेन्द्र राव :  आख़िरी तो कोई होता नहीं गीताश्री जी। मदर टेरेसा से खुशवंत सिंह ने पूछा – डू द मिरेकल हैपेन ?
मदर टेरेसा ने कहा – एस, एवरी डे, एवरी मिनट मिरेक्ल्स आर हैपनिंग एंड दे हैपेन। प्रेम मिरेकल के अलावा क्या है। यह चमत्कार है और होगा। आशान्वित रहिये और ‘आखिरी’ शब्द हटाइये।


गीताश्री : आपके गुरु ने ने कहा था कि प्रभु तुम कैसे किस्सागो हो ! तो, वही बात इतने साल बाद मैं कह रही हूँ कि सच में आप गज़ब के किस्सागो हैं। तो, कथागुरु का आपको लेकर जो रिएक्शन था वह क्यों था ?
राजेन्द्र राव :  बड़ी दिलचस्प कहानी है। मेरी पहली कहानी १९७१ में दो पत्रिकाओं, श्रीपद और साप्ताहिक हिन्दुस्तान में एक साथ छपी थी। उन्हीं दिनों मनोहर श्याम जोशी कानपुर आये तो मैं उनसे मिलने गया। इधर-उधर की बातों के बाद उनका सम्पादक भाव जाग्रत हुआ तो उन्होंने कहा कि यार कुछ ऐसा करो कि पाठकों को लगे कि कुछ नया हो रहा है। मेरे मुंह से निकल गया कि मेरे पास कुछ असफल प्रेम कहानियां हैं, रियल लाइफ की, उन्हें लिखूं ? उनको आइडिया स्ट्राइक कर गया। उन्होंने कहा बिलकुल लिखो। सब काम छोड़कर इसमें लग जाओ। और, वापस दिल्ली पहुंचकर उन्होंने मुझे एक पत्र लिखा कि पहली किश्त कब भेज रहे हो ?

तो, उन दिनों मैं युवा था। उत्साह से लबरेज। और, मनोहर श्याम जोशी जैसा कोई संपादक कहे तो मैंने उसी रात एक किश्त लिखी और भेज दिया। लौटती डाक से उनका पत्र आया कि दो किश्तें और भेज दो तो हम सीरीज शुरू कर दें। उसके बाद असफल प्रेम की कहानियां जो शायद आठ-दस थीं, धारावाहिक छपीं। अभूतपूर्व लोकप्रियता प्राप्त हुई। हजारों चिट्ठियां मिलीं। तो, उसके बाद जब मैं दिल्ली गया और पहली बार अपने कथागुरु से मिला तो उनके मुंह से निकला – गुरु तुम कैसे किस्सागो हो, कहाँ से ले आये। तो, यह सब मेरे भीतर था। लिख दिया।


गीताश्री : आपकी मित्रता किन लोगों से होती है, करीबी कौन हैं, किस तरह के लोगों से मिलना आपको पसंद है ?
राजेन्द्र राव :  मेरी सीमित मित्र संख्या में जो हैं वे निहायत मस्त मौला कलंदर किस्म के हैं, उदार हैं और उनमें हास्यबोध उच्चकोटि का है। अपने पर हंसना, दूसरों पर हँसना, दुनिया पर हंसना, नितांत बेपरवाह लोग जिनके मूल्य परम्परागत नहीं हैं, ऐसे लोग मेरे दिल के बेहद करीब हैं मगर ऐसे मित्र साहित्य में बहुत कम हैं।


गीताश्री : यही मैं पूछना चाहती थी कि रचनाकारों के साथ है ऐसी मित्रता ?
राजेन्द्र राव :  हाँ, कुछ के साथ है। अब जैसे आप सहमत होंगी कि राजेन्द्र यादव ऐसे मित्र थे।


गीताश्री : आप युवाओं को बहुत बढ़ावा देते हैं। तो, इसके पीछे क्या सोच है ?
राजेन्द्र राव :  दुनिया में बदलाव लाने की संभावना हमेशा युवा पीढ़ी से होती है। मेरी आस्था युवाओं में है। मुझे इनसे उम्मीद होती है कि जो काम पिछली पीढ़ियाँ नहीं कर पाईं उसे ये कर सकेंगे। जैसे मेरी अपेक्षा है कि ये लोग पाठक की वापसी करें तो सम्पादक के तौर पर मैं अगर युवाओं को सामने लाऊंगा, उनकी रचनाओं को छापूंगा तो हिंदी को युवा पाठक मिलेंगे। बात दूर तक जायेगी। आप मुझे बताएं कि मैं नब्बे या उससे अधिक उम्र का पाठक लेकर क्या करूंगा ? कितनी दूर तक ले जायेंगे ये पाठक रचना को ? एक अस्सी वर्ष के कवि या कवयित्री को बढ़ावा देकर हम हिंदी में क्या योगदान दे सकेंगे ? हमें युवा पीढ़ी को बहुत तेज़ी से आगे लाना होगा।


गीताश्री : पॉप्युलर लिटरेचर और गंभीर लिटरेचर, क्या इस तरह के विवाद में आपका भी कोई पक्ष है ?
राजेन्द्र राव :  आदर्श स्थिति तो यह होती कि श्रेष्ठ साहित्य ही पॉप्युलर हो मगर यह आदर्श स्थिति है, यह सैद्धांतिक तौर पर होती है। लेकिन, लोकप्रिय और गंभीर साहित्य का विभाजन स्वतः हो जाता है। ध्यान देने की बात यह है कि सीमारेखा के आस-पास भी बहुत-सा साहित्य होता है। वह पॉप्युलर भी होता है और गंभीर भी। हमारा लक्ष्य वह साहित्य होना चाहिए। तभी साहित्य का कल्याण होगा, भाषा का विकास होगा, लोकप्रियता बढ़ेगी। लेकिन, जहाँ तक वर्तमान स्थिति का सवाल है, हिन्दी में न तो लोकप्रिय साहित्य लिखा जा रहा है और न गंभीर। बने-बनाए सांचों में क्लोनिंग हो रही है और कुछ नहीं। मैंने पुस्तक मेले में अनुवादित साहित्य को अधिक बिकते देखा। यही यथार्थ है हमारा।


गीताश्री : आपका ‘आत्मतर्पण’ पढ़ रही थी, आपने लिखा है कि साहित्य में शुरू में अच्छा लगता है बाद में असलियत खुलती है। आपने आलोचकों की ओर भी इशारा किया जो खाल उतारते हैं। तो, यह आलोचना का संकट है ? या साहित्य का संकट है ?
राजेन्द्र राव :  देखिए, मैंने जैसा कहा कि जब अच्छा साहित्य लिखा ही नहीं जा रहा तो अच्छी आलोचना कहाँ से आएगी ? हुआ यह है कि आलोचना के ऊपर बड़ा दबाव और भार आ गया है। भार यह है कि औसत या औसत से नीचे दर्जे के साहित्य को अच्छा कहकर प्रस्तुत करके मूल्यांकन करना पड़ रहा है। क्योंकि शून्य नहीं रखा जा सकता, हम यह नहीं कह सकते कि हिंदी इतनी बड़ी भाषा है और इसमें श्रेष्ठ कृतियाँ नहीं आ रहीं तो हमें हर वर्ष कुछ न कुछ कृतियों को जरूर अच्छा बताना ही पडेगा। हमारी मजबूरी है। यही आलोचक की भी मजबूरी है। आलोचक का कोई दोष नहीं है इसमें। बल्कि आलोचक इतना सहृदय है कि वह घटिया कृतियों को भी महान बताकर, भाषा और लेखकों का सम्मान बनाए रखने का प्रयत्न कर रहा है।


गीताश्री : लेकिन साहित्यकारों का भी आरोप है कि इस समय आलोचना हो ही नहीं रही।
राजेन्द्र राव :  आप अच्छा लिखेंगी ही नहीं तो आलोचना कहाँ से होगी ?


गीताश्री : जो लिखा जा रहा है उसी का मूल्यांकन नहीं हो रहा है।
राजेंद्र राव :  अब आप देखिये कि रामदरश जी को नब्बे – इक्यानबे साल की उम्र में पुरस्कार मिला रहा है तो मतलब, यह क्या बताता है ?


गीताश्री : साहित्य में इग्नोरेंस भी बहुत है। सालों -साल आप किसी की उपेक्षा करते हैं और अचानक एक दिन पाते हैं कि वह तो बड़ा अच्छा लेखक था।
राजेन्द्र राव :  हमारे एक पुरखे कवि ने लिखा था – कवि कोई ऐसी तान सुनाओ जिससे उथल-पुथल मच जाए, कोई ऐसा लिखे तो सही कि हलचल मचे, दृश्य टूटे, उदासीनता टूटे, सीमा लांघी जाए या तोड़ी जाए।


गीताश्री : आपने रूढ़ियों पर बहुत प्रहार किया है। आप ईश्वरीय सत्ता को मानते हैं ?
राजेंद्र राव :  बिलकुल मानता हूँ।


गीताश्री : लेकिन ‘कीर्तन’ में तो आपने सब कुछ ध्वस्त कर दिया है।
राजेंद्र राव :  धर्म का जो आडम्बर वाला रूप है, जो कर्मकांड है, जो पुरोहितवाद है, वह एकदम अलग है, उसका ईश्वर से क्या सम्बन्ध ?


गीताश्री : आप प्रेम को पाप और पुण्य से परे रखते हैं। देह को कहाँ रखते हैं ?
राजेंद्र राव :  मैंने तो कभी देह को प्रेम से अलग किया ही नहीं, देह के बिना प्रेम कैसा ? मैं तो साकार का उपासक हूँ। मैं तो ऐसा प्रेमी हूँ जिसने देह से प्रेम किया। आत्मा तो बाद में आई। आप खाली किसी की आत्मा से प्रेम कर सकते हैं ? असंभव है। देह साक्षी है। देह देवता है।


गीताश्री : विमोचन संस्कृति पर आपकी टिप्पणी ?
राजेन्द्र राव :  विमोचन की प्रेरणा जैसा कि मैं समझता हूँ कि जैसे श्राद्ध के महीने में पिंडदान करते हैं, उससे प्राप्त होती है। यह पिंडदान जैसी क्रिया है। फर्क इतना है कि पिंडदान पुरखों का किया जाता है और इसमें हम अपनी कृतियों का करते हैं। एक पुरोहित बुलाते हैं, उससे माला चढ़वाते हैं,पूजा कराते हैं, फूल चढाते हैं, किताब को लेकर फोटो खिंचवाते हैं। मतलब हिंदी के बौद्धिक समाज का इतना अधोपतन !!! किसी सदी में नहीं हुआ। मतलब जब हिन्दुस्तान गुलाम था तब नहीं हुआ, जब हिन्दुस्तान आज़ाद हुआ तब नहीं हुआ, आज़ादी के तुरंत बाद नहीं हुआ। अब तो सब लकीर के फकीर हो गए हैं। ये निर्बुद्धि लोग हैं। इनमें रचनात्मकता, कल्पनाशीलता लेशमात्र भी नहीं है। सौंदर्य बोध ज़रा – सा भी होता तो ये भड़ैती या नौटंकी नहीं करते। और, मुझे अफ़सोस होता है कि युवा पीढ़ी भी इस प्रपंच में फँस रही है। वह भी अपनी किताबें लेकर खडी हो जाती है। कितना करुण दृश्य होता है कि वही नामवर सिंह और वही अशोक बाजपेयी पुस्तक मेला में। गया चले जाइए। पण्डे बैठे हुए हैं, पिंडदान करा रहे हैं। क्या है यह ? यह रचनात्मक वृत्ति है ? इसका साहित्य से लेना-देना ही नहीं। क्या यह साहित्य की कोई प्रवृत्ति है ? सूर, तुलसी, मीरां या मैथिलीशरण गुप्त ने यह किया था ? शेक्सपीयर की रचनाओं का किसने विमोचन किया था ? किसने निकाली है यह रीति ?


गीताश्री : आप विमोचन संस्कृति के खिलाफ हैं ?
राजेन्द्र राव :  बिलकुल। मैंने किसी अच्छे और बड़े लेखक को अपनी कृति का अपमान इस तरह कराते नहीं देखा। इसका मतलब यह नहीं कि जो बड़े लेखक यह सब करा रहे हैं वे बड़े लेखक नहीं हैं। बहुत-सी चीजें होती हैं जो हम लोकाचार के लिए करते हैं मगर यह निकृष्ट कर्म है। इसे तत्काल प्रभाव से बंद होना चाहिए। रायल्टी तक तो मिलती नहीं और लेखक अपने पैसे देकर विमोचन समारोह कराता है। हद्द है यार !


गीताश्री : आजकल यही हो रहा है। एक जरूरी सवाल – आप पुरुष किरदार को अच्छे-से समझ सकते हैं, लिख सकते हैं, एक स्त्री के मन को कैसे समझ सकते हैं ?
राजेन्द्र राव :  अच्छा प्रश्न है। इसको मैंने स्वयं अनुभव किया है। शायद आगे जाकर आप भी अनुभव करें। हर पुरुष के भीतर एक स्त्री होती है और हर स्त्री के भीतर एक पुरुष होता है। फर्क इतना है कि हम उसकी उपस्थिति से अनभिज्ञ होते हैं लेकिन वह हमारे भीतर है।


गीताश्री : जब सब शोर मचाते हुए लिख रहे हैं तब आप इतनी खामोशी क्यों अपनाए हुए हैं ?
राजेन्द्र राव :  लेखक क्यों लिखता है ? उसे लिखने की प्रेरणा मिलनी चाहिए। मेरा समय कुछ और था। जो स्थितियां आज हैं वे पहले से बहुत अलग हैं। फिर भी, लेखन तो ऐसी प्रक्रिया है जो छूट नहीं सकती। कहानियां अब भी लिख रहा हूँ। पत्र-पत्रिकाओं में छप भी रहा हूँ। स्वभाव से एकान्तिक हूँ तो रचना भी अकेलेपन के साथ करता हूँ। हाँ, दुनिया का जो तमाशा है उसे धंस के देखता हूँ...


गीताश्री : लगता है कि बातें तो हुईं पर मन नहीं भरा...
राजेन्द्र राव :  अगली मुलाकातों के बहाने होने चाहिए न ! फिर मिलेंगे...

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सरकार मैनेजर की भूमिका में है — पुरुषोत्तम अग्रवाल @puru_ag



'तहलका' पत्रिका वह काम कर रही है ... जिसे सारे समाज द्वारा किये जाने की ज़रुरत है - उस सच को कहने की क्षमता रखना जिसका नहीं-कहा-जाना ही अब सच बन गया है. कृष्णकांत जैसे पत्रकारों का होना और उनके साथ संपादक का खड़े होना - वर्तमान दौर के हाल-ए-मीडिया में - तक़रीबन असंभव-सा है फिर सबसे बड़ा पक्ष यह दीख पड़ता है कि अगर ये हो भी तो बगैर पुरुषोत्तम अग्रवाल जैसी बेबाकी, ज्ञान, भूत,भविष्य और वर्तमान की अचूक समझ, समाज के उत्थान को अपना दायित्व मानना, के किस काम का होगा? 

प्रो० अग्रवाल के बेहतरीन शिक्षक होने को सिद्ध करता एक बहुत ज़रूरी साक्षात्कार जिसका हर-तरफ पढ़ा जाना, समय की 'आवश्यकता' है. जिस पर चर्चा नितांत ज़रूरी है. यह लिखते समय मुझे याद आता है, जब नाकोहस को पाखी में पढ़ने के बाद मैंने प्रेम भारद्वाज से उसे शब्दांकन के लिए माँगा और किस तरह पाठकों ने उसे पसंद किया था और कुछ-एक कहानीकारों ने उसमें कहानीपन के न होने का रोना रोया था.... पुरुषोत्तम जी याद है न आपको ? आपने यदि नाकोहस कहानी नहीं पढ़ी हो तो इस बातचीत को पढ़ने समझने के बाद पढ़िएगा (लिंक बातचीत के अंत में दे रहा हूँ)

भरत तिवारी
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अगर आपके जीवन में एकांत का कोई पल न बचे तो यह आपकी मनुष्यता के समाप्त होने की हालत है

 — पुरुषोत्तम अग्रवाल

मेरे मन में हल्की-सी चिंता यह है कि मेरे मुंह से कुछ ऐसा तो नहीं निकल रहा कि जिसकी वजह से कल मुझे पकड़कर ठोक दिया जाए कि हमारी भावनाएं आहत हुई हैं. क्या आज यह डर हमारे मन में नहीं है? यह बात मैं औपचारिक-अनौपचारिक, हर रूप में कहना चाहता हूं कि क्या ये सच नहीं है कि किसी भी चीज पर बात करते समय आज स्थिति ये हो गई है कि आप आसपास देख लेना चाहते हैं कि कोई ऐसा व्यक्ति तो नहीं सुन रहा जिससे खतरा हो. असहमति व्यक्त करने में डर लग रहा है. यह स्वस्थ समाज का लक्षण नहीं है, जहां आपको अपनी आवाज से डर लगे.


आलोचक के तौर पर ख्यात पुरुषोत्तम अग्रवाल कवि भी हैं और कथाकार भी. कबीर पर लिखी उनकी किताब ‘अकथ कहानी प्रेम की’ आलोचना के क्षेत्र में मील का पत्थर है. वे लगातार कविताएं लिखते हैं पर कविरूप में बहुत कम ही सामने आते हैं. उनकी कई कहानियां समय-समय पर प्रकाशित हुई हैं. कुछ समय पहले उनकी लिखी एक कहानी ‘नाकोहस’ ने खासी चर्चा और प्रशंसा बटोरी. कहानी का दायरा इतना व्यापक था कि बाद में उन्होंने इसे उपन्यास का रूप दिया. पुरुषोत्तम अग्रवाल से बातचीत. — कृष्णकांत. (तहलका, जून 15, 2016)

आपके उपन्यास नाकोहस (नेशनल कमीशन फॉर हर्ट सेंटिमेंट्स) की खूब चर्चा हुई. मौजूदा परिवेश में बात कहते ही आहत होती भावनाओं से व्याप्त डर और अराजक माहौल के चलते उपन्यास शायद ज्यादा प्रासंगिक हो गया है. आपका क्या अनुभव रहा?

समाज में टेक्नोलॉजी और मैनेजमेंट का जो आतंक है और पढ़ने-लिखने का मतलब वही समझ लिया जाता है

यह सही है कि मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य के चलते उपन्यास को उसी संदर्भ में पढ़ा गया, लेकिन उसमें और भी बहुत चीजें थीं जिस पर लोगों का ध्यान कम गया. उपन्यास में प्रेम है, जीवन है, अंतर्विरोध है तो दुख और भय भी है.
tehelka Hindi, magazine in Hindi by Tehelka - News magazine: Vol-8 Issue-11.

उपन्यास बुद्धिजीवी समाज की विसंगतियों और विडंबनाओं पर भी चुटकियां लेता है. बुद्धिजीवी वर्ग का अंतर्विरोध बार-बार उसमें सामने आया है. उसमें एक प्रसंग है कि आजकल प्रगतिशील लोगों की थाली में भी दो-चार राष्ट्रवादी आइटम जरूर पाए जाते हैं. ऐसा नहीं है कि यह बुद्धिजीवियों के अधिकार और आत्माभिमान का ही घोषणा पत्र है. उपन्यास में बुद्धिजीवी का मतलब वो है जो किसी न किसी रूप में धरातल पर जाकर समाज से जुड़े. उपन्यास जहां से शुरू होता है, एक पात्र सुकेत की यादें जहां से शुरू होती हैं, वह सब आपको नेल्ली (असम) तक ले जाता है कि उत्तर-पूर्व आपकी सोच में भी कहीं नहीं है. किसी को पता तक नहीं है कि 1983 में नेल्ली में क्या हुआ था. नेल्ली के बाद 1984 का सिख विरोधी दंगा, हाशिमपुरा और मलियाना का संदर्भ है.

यह उपन्यास किसी समाज में बुद्धिजीवी वर्ग की भूमिका को रेखांकित करता है, समाज में टेक्नोलॉजी और मैनेजमेंट का जो आतंक है और पढ़ने-लिखने का मतलब वही समझ लिया जाता है, ये उस पर बात करता है. मैं मानता हूं कि यह उपन्यास आपको याद दिलाता है कि अगर आप साहित्य, संस्कृति, इतिहास आदि की उपेक्षा करेंगे और इन पर स्पष्ट बोलने वालों को लगभग गाली की तरह बुद्धिजीवी कहने लगेंगे तो अंतत: आप अपना ही नुकसान करेंगे. क्योंकि ऐसा समाज अनिवार्य रूप से नाकोहस की तरह है. जैसा कि नाकोहस का प्रवक्ता गिरगिट कहता है बुद्धिजीवियों के सम्मान का नाटक बहुत हो चुका. ये नहीं कि आप कुछ भी बकते रहें और हमारी भावनाएं आहत हों. उपन्यास तीनों चरित्रों की मानवीयता को भी रेखांकित करने की कोशिश करता है. उपन्यास तीन बुद्धिजीवियों का एक रात का अनुभव मात्र नहीं है.

आपकी पहचान मुख्य रूप से आलोचक की रही है फिर आपको उपन्यास लिखने की जरूरत क्यों महसूस हुई?

जीवन को उसकी समग्रता में अगर साहित्य की कोई विधा व्यक्त कर सकती है तो वह उपन्यास है.

मैं आलोचना लिखता रहा हूं लेकिन नियमित रूप से कविता भी लिखता हूं. ये बात और है कि उसे प्रकाशित नहीं कराता. यहां तक कि सुमन जी (अपनी पत्नी) को भी नहीं पढ़ाता. कभी मन हुआ तो ठीक-ठाक करके कहीं भेजा, वरना लिखकर रख लेता हूं. फिक्शन में मेरी रुचि शुरू से थी. कॉलेज के दिनों में दो-तीन कहानियां लिखी थीं, पुरस्कृत भी हुईं. बाद में आलोचना लिखने लगा. लोगों को लगने लगा कि ये आलोचना अच्छी लिखते हैं. चर्चा होने लगी. तत्काल की जो स्थितियां बन जाती हैं, वही पहचान बन जाती है. लेकिन परिवार और निजी मित्रों को मालूम है कि मैं 25 साल से ये धमकी देता रहा हूं कि मैं उपन्यास लिखूंगा. इसका कारण मैं ये मानता हूं कि कविता और तमाम दूसरी विधाओं के प्रति सम्मान के साथ, जीवन को उसकी समग्रता में अगर साहित्य की कोई विधा व्यक्त कर सकती है तो वह उपन्यास है.

मैं ये नहीं कह रहा कि सिर्फ उपन्यास ऐसा करता है. लेकिन उसी तरह जैसे भाषा का सबसे सघन और सर्जनात्मक उपयोग कविता में हो सकता है- ऐसा कहकर मैं दूसरी विधा का अपमान नहीं कर रहा, सिर्फ कविता की विशेषता बता रहा हूं- उसी तरह चाहे समाज हो, आपका अंतर्मन, आपकी अस्तित्वगत वेदना या चाहे आपकी ऐतिहासिक चिंता, उसका जिस समग्रता में अनुसंधान उपन्यास करता है, कोई दूसरी विधा नहीं कर सकती. उपन्यास में कई आवाजें होती हैं. गोदान में केवल होरी की आवाज नहीं है. गोदान में राय साहब, बदमाश अफसरों, थानेदार, झिगुरी, पंडित यानी होरी के शोषकों की भी आवाजें हैं. वह उपन्यास जो अपने पसंदीदा चरित्र के अलावा किसी और चरित्र को बोलने ही न दे या लेखक सिर्फ अपनी मर्जी की बात कहलवाए, वह काफी घटिया उपन्यास होगा. अच्छा उपन्यास वह होता है जिसमें ऐसे भी चरित्र हों जिन्हें आप लेखक के साथ जोड़कर देख सकते हैं. इसे देखते हुए मैं पिछले 25 साल से उपन्यास लिखने की बात सोच रहा था. एक वृहद उपन्यास पर काम करना बाकी है.


जब मैंने नाकोहस कहानी लिखी, जो 2014 में छपी, उस पर जिस तरह का विवाद या बहस हुई, वह बहुत रोचक था. जिन लोगों से मैं अपेक्षा करता था कि उसकी निंदा करेंगे, उन्होंने तो की ही, लेकिन बहुत सारे लोगों ने आलोचना की. यह ठीक भी है. लेकिन कुछ लोगों ने कहा कि रघु नाम का पात्र ईसाई है, तो आप हिंदू नायकत्व का पीछा कर रहे हैं. या उसको हिंदू परंपरा की जानकारी है तो आप खुद हिंदू सांप्रदायिकता को शह दे रहे हैं. इस पर काउंटर भी किया गया. कहानी पर चर्चा दिलचस्प रही. इस पर मित्रों-परिजनों ने सलाह दी कि इसको उपन्यास में बदलिए. फिर मैंने इस पर सोचना शुरू किया उपन्यास के रूप में और लिखा.

जब कहानी छपी थी तो सवाल उठाए गए थे कि इसमें कहानीपन नहीं है. क्या कहेंगे आप?

क्या देश की राजधानी में यह एक अनोखी घटना नहीं है कि कोर्ट परिसर में एक लड़के पर जानलेवा हमला हो और पुलिस कुछ न कर पाए?

मुझे कहानीपन की बात बिल्कुल समझ में नहीं आती. ठीक है कहानीपन एक बात है, लेकिन कहानीपन का कोई एक बुनियादी रूप नहीं है जिसके आधार पर आप एक कहानी को खारिज कर दें और एक को कहानी मान लें. अब मुझे नहीं पता कि कहानीपन या कथातत्व पर बात करते हुए ‘कुरु कुरु स्वाहा’ को उपन्यास माना जाएगा या नहीं. या ‘नौकर की कमीज’ को उपन्यास मानेंगे या नहीं. लेकिन ठीक है यह सवाल उठाने वालों की राय है.

मेरी समझ के मुताबिक एक बुनियादी घटनाक्रम है, एक वैचारिक संघर्ष है, कोई कहानी इस वजह से कहानी नहीं रहती, ऐसा मैं नहीं मानता. जब उपन्यास के तौर पर मैंने इसको सोचा तब तक चीजें काफी साफ होने लगी थीं और समाज की जिस परेशानी से मैं गुजर रहा था, जिसे गोविंद निहलानी ने उपन्यास पर चर्चा करते हुए ‘डिस्टर्बिंग डिस्टोपिया’ कहा था, शायद उसकी कल्पना कर रहा था. डिस्टर्बिंग यानी जो बुरी तरह आपको परेशान करे या डरा दे, ये डर कम से कम मेरा निजी है. इस डर को एक फैंटेसी के रूप में रचा गया है. उपन्यास का पात्र टेलीविजन बंद करना चाह रहा है लेकिन वह बंद नहीं हो रहा है. वह रिमोट का बटन दबा रहा है, पीछे से पावर ऑफ कर रहा तब भी वह बंद नहीं हो रहा है. उसके कमरे की हर दीवार टेलीविजन स्क्रीन में बदल गई है. एक टेलीविजन तुम फोड़ भी दो तो भी फर्क नहीं पड़ेगा.

जेएनयू प्रसंग या अन्य हालिया प्रसंगों में भी कुछ टेलीविजन चैनल जिस तरह का माहौल बनाते हैं, उसमें जिन लोगों का नाम लेकर इंगित किया जाता है, आपको नहीं पता कि उनके साथ कब, कैसी अनहोनी घटित हो सकती है. क्या देश की राजधानी में यह एक अनोखी घटना नहीं है कि कोर्ट परिसर में एक लड़के पर जानलेवा हमला हो और पुलिस कुछ न कर पाए? बाद में भी कुछ नहीं हुआ. यह ‘लिंच मेंटालिटी’ है. आप लिंच मेंटालिटी (मारपीट या हत्या करने की मानसिकता) का निर्माण कर रहे हैं और यह उपन्यास यही याद दिलाता है.

उपन्यास में एक वाक्य आता है, ‘जिससे भय होता है उस पर करुणा नहीं होती.’ लोगों के मन में भय बैठाया जा रहा है कि यह आदमी देश के लिए खतरनाक है, समाज के लिए खतरनाक है, आपके परिवार, बहन, बेटी के लिए खतरनाक है. भले ही वह आदमी अपने आप में कितना निर्दोष हो. उसकी जान लेने में न आपको संकोच होगा, न कोई अपराधबोध. अगर आप सचमुच ऐसा समाज बनाना चाह रहे हैं, जिसमें किसी निर्दोष को भी मार देने में उसे संकोच न हो तो वह समाज कैसा होगा?

उपन्यास में जिस तकनीकी अतिक्रमण का जिक्र है कि टीवी चैनल बंद नहीं हो पा रहा, मोबाइल स्क्रीन मन की बात जान ले रहा है, यह लिखते समय आपके दिमाग में क्या था? व्यवस्था द्वारा किया जा रहा अतिक्रमण या संचार माध्यमों का पूंजीपन जो लोगों के जीवन में निर्बाध प्रवेश कर रहा है?


मैं सीधे कहूंगा कि हमारी राजनीतिक व्यवस्था में ये दोनों चीजें लागू होती हैं. खुद में यह व्यवस्था भी और पूंजीवाद भी. लेकिन मैं यह मानता हूं कि अगर आपके जीवन में एकांत का कोई पल न बचे तो यह आपकी मनुष्यता के समाप्त होने की हालत है. जब आपके पास अपने भी साथ होने का थोड़ा-सा समय नहीं है, जब आप किसी से बात न कर रहे हों, फेसबुक पर किसी से दंगल न कर रहे हों, कुछ देर आप चुपचाप बैठें, संगीत सुन रहे हों, या कुछ भी करें. अपने साथ रहें. एकांत में दो चीजें होती हैं. एक तो शांत चित्त से सोचने का वक्त मिलता है. दूसरा, एकांत में आप अपनी कल्पनाओं और स्मृतियों को थोड़ा-सा व्यवस्थित होते देखते हैं. इन दोनों स्थितियों से आपको लगातार वंचित रखा जा रहा है. मनुष्य के एकांत का अतिक्रमण राजसत्ता तो कर ही रही है, लेकिन ये इस पूंजीवादी व्यवस्था या कहिए खास तरह के पूंजीवाद की बड़ी स्वाभाविक विशेषता है. उसकी हर जगह दखलंदाजी है. आपका कोई क्षण ऐसा नहीं है जो आपका अपना हो. वह एडवर्टाइजिंग कल्चर का हिस्सा है, जब आपके बेडरूम से लेकर आपका कमोड तक विज्ञापन और उत्पाद की जद में है. इसलिए जरूरी है कि वह आपकी हर चीज तक पहुंचे. इस क्रम में आपका जो भी एकांत है, जिससे आपका व्यक्तित्व परिभाषित होता है, वो खत्म हो जाता है. ये मुझे बहुत भयावह स्थिति लगती है. मैं ऐसे परिवारों को जानता हूं जहां घर में चार कमरे हैं तो चार टीवी हैं. वेे साथ खाना नहीं खाते. सब अपने-अपने कमरे में टीवी देखते हुए खाना खाते हैं.

 नाकोहस की कल्पना कैसे की?

नेशनल कमीशन आॅफ हर्ट सेंटिमेंट्स

2003 या 2004 में आपको याद हो तो एक किताब छपी थी, ‘शिवाजी हिंदू किंग इन इस्लामिक इंडिया’. उसके लेखक थे अमेरिकी विद्वान जेम्स लेन. वे पुणे में भंडारकर इंस्टिट्यूट में रिसर्च के लिए आए थे. इस दौरान महाराष्ट्र में घूमते हुए उन्हें शिवाजी के बारे में कुछ बातें मालूम हुईं, जिन पर उन्होंने किताब लिख दी. किताब में सहयोग के लिए संस्थान का आभार प्रकट किया गया था. इस पर ‘संभाजी ब्रिगेड’ नामक एक संगठन ने संस्थान में घुसकर तोड़-फोड़ की. उस समय गोपीनाथ मुंडे जी ने बयान दिया कि हमारी भावनाएं तो जवाहरलाल नेहरू की किताब से भी आहत होती हैं.

तब मैंने एक लेख लिखा कि भावनाएं बहुत आहत हो रही हैं. भावनाएं आहत होकर कूदकर सड़क पर आ जाती हैं. इससे राष्ट्रीय संपदा का नुकसान होता है तो सरकार को चाहिए कि आहत भावनाओं और आक्रांत अस्मिताओं का एक आयोग बनाए, नेशनल कमीशन आॅफ हर्ट सेंटिमेंट्स (नाकोहस). तो ये विचार दस-बारह साल पुराना है. इसका पिछले आम चुनाव के परिणाम से कोई संबंध नहीं है. पिछले पांच-छह साल में जैसा माहौल देश में बनता चला गया है, उसमें सुधारवाद और प्रतिक्रियावाद में कोई भेद नहीं है. पुणे में जब यह वाकया हुआ तब वहां कांग्रेस की सरकार थी. जब सलमान रुश्दी को भारत नहीं आने दिया तब कांग्रेस की सरकार थी. एक गांव की पंचायत आदेश दे देती है कि अब गांव की लड़कियां मोबाइल फोन नहीं रखेंगी, किसी लड़की के पास मोबाइल पाया जाता है तो मार-मारकर उसकी हालत खराब कर दी जाती है. मुख्यमंत्री अखिलेश यादव कह देते हैं कि समाज के मामले में सरकार क्या कर सकती है. इन लोगों ने सरकार की धारणा ही तब्दील कर दी है. इन लोगों को आधुनिक राजसत्ता का बोध ही नहीं है. आधुनिक राजसत्ता समाज को केवल व्यवस्थित ही नहीं करती, बल्कि समाज को बदलने की कोशिश करती है. कोई आधुनिक राजसत्ता यह नहीं कह सकती कि स्त्रियों या दलितों की क्या हालत है, इससे हमें कोई लेना-देना नहीं है, यह तो सामाजिक मसला है.

उदाहरण से समझिए कि समस्या कहां होती है. एक सज्जन ने घोषणा की कि वे कन्हैया को मार देंगे तो उनको माला पहनाई गई. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक नेता जी ने घोषणा की कि वे सलमान रुश्दी को मारने वाले 51 लाख रुपये देंगे. बाद में वो बड़े-बड़े सेक्युलर नेताओं के साथ मंच पर दिखे. पिछले दस-बारह साल में जिस तरह की स्थितियां पैदा हुई हैं कि आहत भावनाओं का मामला एक तरह से किसी भी विमर्श की सर्वस्वीकार्य शर्त बन गया है. यानी विमर्श तब ही होगा अगर आपकी भावनाएं आहत हुई हैं.

पिछले 10-15 साल में एक तरह के अनवरत गुस्से से भरे, सतत रूप से क्रुद्ध समाज की रचना हुई है

आहत भावनाओं की राजनीति और 24 घंटे का मीडिया, इसने बहुत बुरी स्थिति पैदा की है. मैं इसे असहिष्णुता नहीं कहता, यह पर्याप्त शब्द नहीं है. पिछले 10-15 साल में एक तरह के अनवरत गुस्से से भरे, सतत रूप से क्रुद्ध समाज की रचना हुई है. इस दौरान समाज में क्रोध का विस्तार होता चला गया, समझदारी की कमी होती गई, भाषा में सपाटपन आता चला गया. मैंने जनवरी में फेसबुक पर शरारत के तौर पर लिखा, विश्वस्त सूत्रों से पता चला है कि इस बार गणतंत्र दिवस पर प्रधानमंत्री जी मुख्य अतिथि होंगे. (ठहाका लगाते हुए) कुछ लोगों को पसंद नहीं आया तो उन्होंने निंदा की, कुछ ने गालियां दीं. लेकिन एक सज्जन ने बाकायदा मुझे कोसा कि आप बड़े भारी प्रोफेसर बनते हैं, बुद्धिजीवी बनते हैं, इतना भी नहीं मालूम कि प्रधानमंत्री तो हर साल गणतंत्र दिवस पर होते ही हैं.

ये जो सतत रूप से क्रुद्ध समाज तैयार हुआ है, ये कैसे संभव हुआ?

इसका सबसे बड़ा कारक है निर्बाध उपभोक्तावाद. मैं यह नहीं मानता कि आप प्रकृति की ओर लौट जाएं, लेकिन एक अर्थशास्त्री मित्र कहते हैं कि ओपन इकोनॉमी की एक सीमा तो है ही और वह है धरती पर उपलब्ध संसाधन. उससे ज्यादा ओपन तो नहीं हो सकती.

अर्थशास्त्री ब्रह्मदेव जी एक बात कहा करते थे कि अगर आपको अमेरिका और यूरोप के वर्तमान जीवन स्तर पर पूरी दुनिया को ले जाना है तो यह एक ही तरीके से संभव है कि आपके पास आठ पृथ्वियां हों और उन आठों का वैसा ही दोहन हो जैसा पिछले 400 साल में हुआ. लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा संभव नहीं है. तो निर्बाध उपभोक्तावाद नहीं चल सकता. आप किसी एक सेक्टर के लिए बाकी को छोटा करेंगे. दिल्ली में आॅड इवेन करेंगे लेकिन आॅटोमोबाइल इंडस्ट्री पर लगाम नहीं लगाएंगे. एक परिवार में चार सदस्य हैं और बारह गाड़ियां हैं. आप निर्बाध उपभोग की स्थिति पैदा करेंगे तो जाहिर है कि समाज में अंतर्विरोध पैदा होगा.

तो एक तो इस अबाध, बेरोकटोक उपभोग की स्थिति ने समस्या पैदा की है. दूसरे, पूंजीवाद का सहज स्वभाव है कि यह मनुष्य को उपभोक्ता में बदलता है. यह उसके जिंदा रहने के लिए जरूरी है, इसलिए वह मनुष्य की मनुष्यता को कमतर करेगा. प्रतियोगिता को इस स्तर तक बढ़ाएगा कि वह गलाकाट प्रतिस्पर्धा में बदल जाएगी.

किसी समुदाय के प्रतिनिधि बनकर हत्या कर दें तो आपको कुछ नहीं होगा, बल्कि आपका अभिनंदन होगा. आप मुख्यमंत्री बन सकते हैं

दूसरी समस्या है हमारे अपने समाज के संदर्भ में. हमारे लोकतंत्र का एक बुनियादी अंतर्विरोध दिनोंदिन बढ़ता चला जा रहा है कि एक स्तर पर हम लोकतंत्र हैं, चुनाव से सरकार चुनी जाती है, जनता का शासन है. लेकिन रोजमर्रा की प्रैक्टिस में सामाजिक न्याय और कानून के राज का क्या हाल है? आप निजी तौर पर हत्या करें तो आपको सजा हो जाएगी, लेकिन किसी समुदाय के प्रतिनिधि बनकर हत्या कर दें तो आपको कुछ नहीं होगा, बल्कि आपका अभिनंदन होगा. आप मुख्यमंत्री बन सकते हैं. ये हमारे अपने देश की समस्या है. एक तरह से कानून के राज की समाप्ति हो रही है. न्याय का बोध खत्म हो रहा है. तीसरी बात, पिछले 20 साल में नवउदारवादी व्यवस्था के आने के बाद आप महसूस करते हैं कि पहले एक मध्यवर्गीय आदमी यह मानकर चलता था कि व्यापक समाज के प्रति उसकी जिम्मेदारी है, जो कुछ उसे मिलता है वह एक व्यापक वितरण हिस्सा है. आजकल एक बड़ा मजबूत बोध विकसित हुआ है कि हम टैक्सपेयर हैं. टैक्सपेयर मनी, ये मुहावरा बहुत झल्लाहट पैदा करता है कि सब कुछ टैक्सपेयर मनी से हो रहा है.

सरकार मैनेजर की भूमिका में है

हमारे समाज में नई तरह की समस्या यह पैदा हुई है कि सरकार मैनेजर की भूमिका में है, संसाधनों का केंद्रीकरण हो रहा है. अमेरिका में जो बात बार-बार कही जाती है कि 99 फीसदी संसाधनों पर एक फीसदी लोगों का कब्जा है, ऐसा अमेरिका नहीं चल सकता. ऐसे समाज में गुस्सा बढ़ता है जो हिंसा या सांप्रदायिकता या दूसरे खतरनाक रूप में सामने आता है.

जिन वजहों से ऐसा समाज बनता है, जाहिर है कि वह आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था है. क्या कोई वैकल्पिक व्यवस्था है जिससे ऐसी स्थिति से बचा जा सके?

किसी भी तरह का अथॉरिटेरियन समाज, उसकी रंगत कुछ भी हो, उसका अस्तित्व नहीं हो सकता.

हां, बिल्कुल है. अार्थिक व्यवस्था से अगर आपका आशय है अर्थतंत्र तो उद्योग अनिवार्य है. अब लोग केवल प्रकृति के नहीं, बल्कि संस्कृति और प्रौद्योगिकी के नजदीक हैं. तो उद्योग होंगे, छोटे भी और बड़े भी. लोगों को वाकई अगर जीवन का एक स्तर चाहिए और विकास चाहिए तो उसके लिए एक जटिल समाज और अर्थतंत्र की जरूरत होगी. सवाल यह है कि उस अर्थतंत्र में संवेदनशीलता संभव है या नहीं. इसीलिए इस उपन्यास में बार-बार कहा गया है कि किसी भी तरह का अथॉरिटेरियन समाज, उसकी रंगत कुछ भी हो, उसका अस्तित्व नहीं हो सकता.

मोटे तौर पर आप कह सकते हैं सोशल डेमोक्रेसी या डेमोक्रेटिक सोशलिज्म. मैं निजी तौर पर मानता हूं कि नए तरह का नेहरू मॉडल हो सकता है जो अपने समय के अनुकूल हो, जो गलतियों से सीखा गया हो. मुझे अपने आपको नेहरूवादी कहने में कोई हिचक नहीं है. एक नवनिर्मित नेहरू मॉडल, एक मिश्रित अर्थव्यवस्था ही सबसे अनुकूल हो सकती है जिसका डेमोक्रेटिक इंस्टीट्यूशन का सपना हो, डेमोक्रेटिक प्रैक्टिसेज का सपना हो. देश आजाद हुआ तो लोगों ने नेहरू से कहा कि तरह-तरह की समस्याएं हैं, ये प्रेस फ्रीडम संपन्न और फैंसी देशों की लक्जरी है, इसको फ्री मत छोड़ो वरना गैरजिम्मेदार हो जाएगा और आपको परेशान करेगा. इस पर नेहरू ने कहा, मैं प्रतिबंधित प्रेस की जगह गैरजिम्मेदार मगर फ्री प्रेस को तवज्जो दूंगा. नेहरू ने गलतियां भी कीं, लेकिन उन्होंने देश की नींव रखी. विज्ञान, कला, साहित्य, सिनेमा, उद्योग हर चीज की नींव रखी.

आपने लिखा है-  ‘आज के दौर का लेखक भी उन बातों को दर्ज करने से दूर है जो सच तो है लेकिन कही नहीं जा रही है’, यह अपने समय और समाज पर गंभीर सवाल है. 

जरूरी है उसे लिखना जो दिखता नहीं है लेकिन जिसे लिखा जाना चाहिए

इसके पीछे एक वाक्य है एक इतिहासकार का, नाम याद नहीं, जो दिखता है उसे लिखना तो जरूरी है ही, लेकिन ज्यादा जरूरी है उसे लिखना जो दिखता नहीं है लेकिन जिसे लिखा जाना चाहिए. मुझे लगता है कि इतिहासकार हों, साहित्यकार, या समाजशास्त्री, सभी की मूल प्रतिक्रिया यही है कि चीजों को समग्र रूप में देख सकें और जो चीजें कही जानी चाहिए उसे कहा जाए. जैसे मिसाल के तौर पर, नाकोहस को लीजिए. असल में नाकोहस नाम की कोई संस्था तो है नहीं. लेकिन जो पूरा माहौल आपने बना दिया है कि आपसे बात करते समय मेरे मन में हल्की-सी चिंता यह है कि मेरे मुंह से कुछ ऐसा तो नहीं निकल रहा कि जिसकी वजह से कल मुझे पकड़कर ठोक दिया जाए कि हमारी भावनाएं आहत हुई हैं. क्या आज यह डर हमारे मन में नहीं है? यह बात मैं औपचारिक-अनौपचारिक, हर रूप में कहना चाहता हूं कि क्या ये सच नहीं है कि किसी भी चीज पर बात करते समय आज स्थिति ये हो गई है कि आप आसपास देख लेना चाहते हैं कि कोई ऐसा व्यक्ति तो नहीं सुन रहा जिससे खतरा हो. असहमति व्यक्त करने में डर लग रहा है. यह स्वस्थ समाज का लक्षण नहीं है, जहां आपको अपनी आवाज से डर लगे. चैनलों की इसमें अहम भूमिका है. बुद्धिजीवियों को आप अपराधी घोषित करके, उन्हें राक्षस बताकर आप जो कर रहे हैं, वो कितना खतरनाक है यह बात कोई नहीं कहता. इसीलिए दुख है कि जो कहा जाना चाहिए वो बिल्कुल नहीं कहा जा रहा है. इसीलिए मैंने यह उपन्यास लिखा है. मुझे नहीं पता कि यह उपन्यास, उपन्यास की दृष्टि से कैसा है, लेकिन एक लेखक के तौर पर अनुभव करता हूं कि कहीं न कहीं लोगों ने उसे खुद से जुड़ा पाया है और वे सिर्फ इसलिए नहीं जुड़े रहे हैं कि वह डर का एक सपाट चित्र प्रस्तुत करता है, बल्कि इसलिए जुड़ाव महसूस करते हैं कि उपन्यास के उन तीन बुद्धिजीवी चरित्रों की मानवीयता, संवेदनशीलता, मन, उनके अंतर्विरोध ये सारी चीजें कहीं न कहीं लोगों से जुड़ती हैं. यह इसलिए भी कि जिस डर को उपन्यास फैंटेसी या कल्पना के रूप में रच रहा है, वह डर लोगों के मन में कहीं न कहीं मौजूद है.

इसी से जुड़ी एक और बात लेखकों की भूमिका को लेकर है कि पहले तीन बुद्धिजीवियों की हत्या, फिर कई को धमकी और हमले, जेएनयू व अन्य विश्वविद्यालयों की घटनाएं हुईं. ऐसे में क्या मानते हैं कि लेखक उस भूमिका में नहीं हैं जिसमें उन्हें होना चाहिए?

नहीं, ऐसा मैं नहीं मानता. लेखक की भूमिका यह नहीं है कि वह हर जगह सीधा हस्तक्षेप करेगा. कुल मिलाकर मुझे लगता है कि सभी भाषाओं के लेखकों ने अपनी बात कही. विरोधस्वरूप पुरस्कार भी लौटाए. जिन लेखकों ने पुरस्कार नहीं लौटाए, उनकी प्रतिबद्धता पर भी मैं संदेह नहीं करता. मिसाल के तौर पर राजेश जोशी और अरुण कमल ने नहीं लौटाया. काशीनाथ सिंह ने लौटाया, नामवर सिंह ने नहीं लौटाया, इससे नामवर सिंह और अरुण कमल कम लोकतांत्रिक नहीं हैं. न उनकी चिंताएं कम प्रामाणिक हैं. पिछले दो-तीन साल में बुद्धिजीवियों और लेखकों ने जैसी भूमिका निभाई है, वह उम्मीद की बड़ी किरण है. आप लेखक से ये उम्मीद मत कीजिए कि वह जाकर किसी पुलिस बंदोबस्त से टकराए, लाठी खाए और जेल जाए. लेखक का बतौर लेखक वह सब कहना मायने रखता है जो कहा जाना चाहिए.
साभार तहलका 
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बाबा रामदेव — अगर सरकार गिरानी होती तो खुले-आम गिराता @Sheshprashn


बाबा रामदेव — अगर सरकार गिरानी होती तो खुले-आम गिराता @Sheshprashn

राजनैतिक उठापटक के बीच उत्तराखंड की सरकार गिर गई और राष्ट्रपति शासन लागू हो गया। 

कोई इसे भीतरी उठापटक बता रहा है तो कोई इसे बाबा रामदेव का मास्टर प्लान कह रहा है। अमित मिश्रा ने बाबा रामदेव से की ऐसे ही कई मसलों पर बात...


लोग कहते हैं कि आपको उत्तराखंड में कांग्रेस सरकार की वजह से काम करने में दिक्कत हो रही थी इस वजह से आपने उत्तराखंड की सरकार को गिरवा दिया?

बाबा रामदेव : हमें सरकार गिराने की फुर्सत कहां है। अगर हमें सरकार गिरानी ही होती तो हजार दो हजार करोड़ खर्च करके खुलेआम गिराते। हम कुछ भी लुक-छुप कर नहीं करते। जहां तक बात है यहां पर कांग्रेस सरकार में काम में परेशानी की तो अगर ऐसा है तो हम कहीं और चले जाएंगे। हमारे काम से तो उत्तराखंड के लोगों का भला ही हो रहा है। हमारा काम सरकार गिराना-बनाना नहीं है। अगर किसी के पास सबूत है तो सामने लाए।

कुछ लोगों का कहना है कि आप पीएम मोदी से खफा चल रहे हैं?

बाबा रामदेव : यह सब बकवास है। मेरा अब भी उनसे उतना ही स्नेह है जितना पहले था। जरूरी नहीं है कि मैं उनके दरवाजे यह वह मेरे दरवाजे रोज खड़े रहें। जब मेरा कोई काम होता है तो मैं उनसे या अमित शाह जी से बात करता हूं। मेरा काम लाइजनिंग करना नहीं है जो मैं रोज पीएम से बात करता फिरूं। फिलहाल मैंने खुद को राजनैतिक रूप से पीछे कर रखा है। मेरा फोकस आयुर्वेद, आरोग्य, स्वदेश, गौसेवा और एजुकेशन पर है।

आप दिल्ली में होने वाले श्रीश्री रविशंकर के प्रोग्राम में आने वाले थे लेकिन ऐन मौके पर नहीं आए। क्या ऐसा आपने प्रोग्राम पर हो रहे विवादों या श्रीश्री से किसी मनमुटाव की वजह से किया है?

बाबा रामदेव : मैं क्या उस प्रोग्राम में तो कई संत बुलाए गए थे लेकिन कोई नहीं आया। आखिर कोई क्यों नहीं आया इसका जवाब देना मुश्किल है। कोई तो कारण रहा होगा। फिलहाल मैं इसकी गहराई में नहीं जाना चाहता। श्रीश्री मेरे बड़े भाई की तरह हैं और मेरा उनसे कोई कंपीटीशन नहीं है।

आपसे कई लोग इस वजह से भी नाराज हैं कि आप लोगों को भारत माता की जय का नारा लगाने को जरूरी बनाने की बात करते हैं।

बाबा रामदेव : यह विवाद जेएनयू से शुरू हुआ था इसलिए जल्दी ही मैं जेएनयू जाने वाला हूं। वहां जाकर मैं लेफ्ट और राइट दोनों ही विंग के लोगों से खुल कर बात करूंगा।

आपको कन्हैया से बहस करने में डर नहीं लगता?

बाबा रामदेव : मैं क्यों डरूं कन्हैया से?  मैं उससे किसी भी मसले पर तार्किक बहस कर सकता हूं। डरते वो हैं जिनके पास तर्क नहीं होते हैं। मैंने अपना जीवन सामन्तवाद, साम्राज्यवाद, पूंजीवाद और ब्राह्मण से संघर्ष करके बिताया है। मैं इनके बारे में कन्हैया से ज्यादा अच्छी तरह से जानता हूं।

नूडल्स के बाद हर बार पतंजलि के नए-नए प्रॉडक्ट लॉन्च की अफवाहें आती रहती हैं। अब क्या लाने वाले हैं?

बाबा रामदेव : फिलहाल हमारा फोकस एजुकेशन सेक्टर पर काम करने का है और अगले 10 सालों में इस पर हम 20-25 हजार करोड़ रुपये खर्च करेंगे।
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अरविंद केजरीवाल - हिम्मत है तो पाकिस्तान पर दिखाओ ना @ArvindKejriwal


अरविंद केजरीवाल - हिम्मत है तो पाकिस्तान पर दिखाओ ना #शब्दांकन

बातचीत: अरविंद केजरीवाल सरकार के एक साल होने पर  

- मुकेश केजरीवाल, सर्वेश कुमार 

दिल्ली में ऐतिहासिक बहुमत से सत्ता में आई केजरीवाल सरकार रविवार 14 फरवरी को एक साल पूरे कर रही है। बड़े-बड़े वादों और एकदम नए तेवर-कलेवर के साथ मुख्यमंत्री बने अरविंद केजरीवाल पूरे साल चर्चा में रहे. विवाद भी उठे, उन्होंने पलटवार भी किया और दिल्ली से बाहर बिहार तक में राजनीति भी की. अपने अब तक के काम-काज और भविष्य की तैयारी पर उन्होंने दैनिक जागरण राष्ट्रीय ब्यूरो के विशेष संवाददाता मुकेश केजरीवाल और दिल्ली के इनपुट हेड सर्वेश कुमार के साथ खुलकर चर्चा की। साभार दैनिक जागरण पेश हैं बातचीत के प्रमुख अंश... ।


आप अफसर थे, सामाजिक कार्यकर्ता बने, फिर नेता बने। अब आप खुद को किस रूप में पहचाना जाना चाहेंगे?

अरविंद केजरीवाल : मेरी पहचान महत्वपूर्ण नहीं है। हम भ्रष्टाचार दूर करने के मकसद से लड़ रहे हैं। इसी लड़ाई में नियति, जनता और भगवान ने जो रास्ता दिखाया, उस पर चल पड़े। मैं अब भी भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहा एक आम आदमी हूं। पिछले एक साल का अनुभव भी यही रहा है। पहले सरकार बहाना करती थी कि पैसे नहीं हैं मगर कमी पैसे की नहीं सिर्फ नीयत की है। अपने यहां सरकारी काम पूरा होते-होते लागत दो से तीन गुना तक बढ़ जाती है और समय भी। मगर हमने पिछले दिनों तीन फ्लाईओवर का काम समय से पहले पूरा करवाया है और इसमें साढ़े तीन सौ करोड़ रुपये बचा लिए।

आपने चुनाव से पहले जो वादे किए थे..

अरविंद केजरीवाल : सब याद हैं। हमारे 70 वादे थे। हमने बिजली बिल आधा करने और पानी मुफ्त करने का वादा किया था तो हमारा मजाक उड़ाया गया कि पैसे कहां से आएंगे। सरकार बनने के एक महीने के अंदर कर दिखाया। भ्रष्टाचार रोक कर जो पैसे बचाए, उसी से सब्सिडी दे दी।

मगर अर्थशास्त्री संसाधनों को मुफ्त देने को गलत बताते हैं?

अरविंद केजरीवाल : जब हमने किया तो सबने कहा कि यह तो लोकप्रियता हासिल करने की चाल है, इसको अर्थव्यवस्था की समझ नहीं। दिल्ली जब बोर्ड को डुबा देगा, मगर दिल्ली जल बोर्ड का राजस्व पिछले साल के मुकाबले 176 करोड़ ज्यादा आया है। राजस्व भी बढ़ा और पानी भी फ्री हुआ। इसी तरह कहा जा रहा था पानी फ्री होगा तो बर्बादी होगी। मगर अब तीस लाख गैलन पानी प्रतिदिन की बचत होने लगी है। इससे सवा लाख लोगों को पानी अतिरिक्त दे सकते हैं।

फ्री वाईफाई का क्या हुआ?

अरविंद केजरीवाल : हम फ्री वाईफाई को अब तक लागू नहीं कर पाए हैं। दरअसल हम जितना आगे बढ़ रहे हैं, उतने ही नए-नए मॉडल्स सामने आ रहे हैं इसे बनाने के। ऑप्टिकल फाइबर और हॉटस्पॉट जैसे कई मॉडल्स हैं। कुछ में जीरो लागत है तो कुछ में हमें राजस्व भी मिल रहा है। दो-तीन महीने में तय हो जाएगा कि हम क्या मॉडल अपनाएंगे।

आपने भ्रष्टाचार घटाने का वादा किया था..?

अरविंद केजरीवाल : सब जानते हैं कि जब हमारी 49 दिन की सरकार थी, भ्रष्टाचार पूरी तरह बंद हो गया था। इस बार भी चार महीने तक किसी ने पैसे लेने की हिम्मत नहीं की। एक एसएमएस भी आ जाए तो तुरंत जांच करवा कर जेल भेज देते थे। मगर 8 जून को केंद्र सरकार ने अर्धसैनिक बल भेजकर हमारी एंटी करप्शन ब्रांच (एसीबी) पर कब्जा कर लिया। मुझे बहुत दुख हुआ। हम पाकिस्तान हैं क्या? हमारे ऊपर पैरामिलिट्री भेजने की क्या जरूरत है। हिम्मत है तो पाकिस्तान पर दिखाओ ना, मैं तो मरा-कुचला मुख्यमंत्री हूं।


दिल्ली में भ्रष्टाचार बढ़ा है?

अरविंद केजरीवाल : दिल्ली सरकार के विभागों की तो मैं गारंटी ले सकता हूं। मगर एमसीडी, डीडीए, एनडीएमसी. इनमें चल रहा है। अगर कोर्ट के फैसले के बाद एसीबी दिल्ली सरकार को मिल गई तो एक हफ्ते के अंदर दिल्ली में भ्रष्टाचार को पूरी तरह समाप्त कर देंगे।

पहले की तरह खुद राशन की दुकान या अस्पताल जाकर जायजा लेने की जरूरत नहीं लगती?

अरविंद केजरीवाल : मैं सिर्फ अफसरों के भरोसे यह काम नहीं छोड़ता। हर योजना की हकीकत जांचने के लिए अपने वालंटियर्स को भेजता हूं। जरूरी लगेगा तो खुद भी जाऊंगा। उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया तो हमेशा ऐसे औचक दौरों पर जाते रहते हैं।

आप कहते हैं कि सरकार चलाने का काम मंत्रियों को दिया हुआ है और आप खुद...

अरविंद केजरीवाल : सरकार के काम में जो अड़चनें डाली जाती हैं तो मैं बीच में दीवार बन कर खड़ा होता हूं, जो तीर चलाए जाते हैं उनको रोक लेता हूं। शॉक एबजॉर्बर का काम करता हूं। मैंने कहा हुआ है कि केंद्र से जुड़े फैसले मैं लूंगा।

लेकिन शॉक एबजॉर्बर का जो काम आपने अपने लिए चुना, उसमें कामयाब तो नहीं हो पा रहे। आप खुद कहते हैं दिल्ली सरकार काम नहीं कर पा रही?

अरविंद केजरीवाल : जितने काम गिनाए हैं मैंने। आप ये बताइए कि किस सरकार ने साल भर के अंदर इतने काम किए हैं? दिल्ली में किसानों की करोड़ों की जमीन का अधिग्रहण 54 लाख रुपये प्रति एकड़ से हो रहा था। हमने सर्किल रेट रिवाइज कर दिए.. लेकिन जैसे ही हमारी सरकार ऐसा कोई फैसला करती है एलजी (उप राज्यपाल) साहब आदेश को रद घोषित कर देते हैं। तो इससे तो लड़ना ही पड़ेगा ना। हम कोई अपनी जमीन जायदाद का झगड़ा थोड़ी लड़ रहे हैं। हमारे लोगों के साथ गड़बड़ करेंगे तो लड़ना तो पड़ेगा। अधिकारियों का तबादला करता हूं तो रोक देते हैं, दो अफसर गड़बड़ी कर रहे थे, सस्पेंड किया.. तो कहते हैं आपके पास सस्पेंड करने की शक्ति नहीं है। ये मैंने भारत के इतिहास में पहली बार सुना है कि कोई सीएम गड़बड़ी कर रहे अधिकारियों को सस्पेंड नहीं कर सकता। अगर ऐसा ही है तो दिल्ली में चुनाव क्यों कराया। राष्ट्रपति शासन लगा रहने देते।

लेकिन यह तो कानूनी लड़ाई है?

अरविंद केजरीवाल : कोई कानून का सहारा नहीं ले रहे। आप ये बताइए कि क्या देश का सबसे भ्रष्ट आदमी मैं ही मिला था.. जो मुझ पर सीबीआइ की रेड डाली। इतने बड़े-बड़े भ्रष्टाचारी बैठे हैं, उनको छोड़कर केजरीवाल के दफ्तर पर रेड मारी.. जरूर कुछ गड़बड़ है..।

आप तो कहते हैं मोदी सरकार काम नहीं करने देती। अगर वे काम करने देते फिर कितने नंबर देते?

अरविंद केजरीवाल : मैं दी गई परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए ही यह कह रहा हूं। बाकी चीजें तो हो जाएंगी, लेकिन भ्रष्टाचार से मेरे तन-मन में आग लग जाती है। एक बार मेरे किसी मंत्री को घूस लेते हुए रिकॉर्ड किया गया। मैंने बिना किसी को बताए उसे मंत्रिमंडल से निकाल दिया, जबकि इसकी सूचना मीडिया को या विपक्षी पार्टियों को नहीं थी। भ्रष्टाचार के खिलाफ ऐसा समर्पण और जज्बा और किस सरकार ने दिखाया ?

केंद्र सरकार के भी 20 महीने हो गए उनको कितने नंबर देंगे ?

अरविंद केजरीवाल : हमसे तो हमारी सरकार के बारे में पूछिए। उनके काम के बारे में उनसे पूछिएगा। मैं तो सिर्फ यह कहूंगा कि जिस तरह भारत मां के दो बेटे हैं, एक केंद्र सरकार और एक राज्य। छोटा बेटा पढ़ रहा है तो बड़ा आता है, कभी पेंसिल छीन कर ले जाता है, कभी कॉपी छीन ले जाता है। तो छोटा कह रहा है कि भैया, पढ़ने दो और आप भी पढ़ो। वर्ना 2019 की परीक्षा में फेल हो जाओगे।

पंजाब में बहुमत मिला तो आप सीएम बनने को तैयार हैं?

अरविंद केजरीवाल : पंजाब कांग्रेस के प्रधान कैप्टन अमरिंदर सिंह को सपने में भी मेरा भूत दिखाई देता है। वह कहते हैं कि हरियाणा का आदमी यहां आ रहा है। मैं कहता हूं कि मैं पाकिस्तान से नहीं आया। भारत का ही हूं। भारत में ऐसी कोई रोक नहीं। किसी राज्य का आदमी कहीं जा सकता है।

यानी आप तैयार हैं?

अरविंद केजरीवाल : मैं दिल्ली में ही खुश हूं। लेकिन पंजाब में हम जीत रहे हैं 90 से 100 सीटों पर। दिल्ली जैसा ही नतीजा वहां भी दिखेगा। पंजाब का युवा जो अपनी ऊर्जा और शौर्य के लिए प्रसिद्ध था, उसे नशे में ढकेल दिया गया। भाजपा और अकाली यह सब करवा रहे हैं और कांग्रेस भी मिली हुई है। जब केंद्र में कांग्रेस सरकार थी तो भाजपा-अकाली सरकार के मंत्री मजीठिया के खिलाफ सीबीआइ जांच होने वाली थी, मगर कांग्रेस नेता कैप्टन अमरिंदर ने ही उसे रुकवा दिया। दोनों मिले हुए हैं। जब कैप्टन थे, उन्होंने अकालियों के खिलाफ केस रजिस्टर किए, गिरफ्तार नहीं किया। दिखाने के लिए सिर्फ करते रहे। फिर अकाली आए तो अपने खत्म करवा लिए और कैप्टन के खिलाफ केस कर दिए मगर गिरफ्तार नहीं किया।

आपने भी दिल्ली में कहा था कि शीला दीक्षित के खिलाफ आपके पास कितने सुबूत हैं, लेकिन गिरफ्तार तो वे भी नहीं हुईं?

अरविंद केजरीवाल : हमारी एंटी करप्शन ब्रांच छीन ली ना। दो तो सही आप हमें एसीबी।

एसीबी मिल गई तो उन्हें गिरफ्तार कर लेंगे?

अरविंद केजरीवाल : बिल्कुल। जो गड़बड़ होगी.. जैसे ही हमारी दोबारा सरकार बनी थी, शीला दीक्षित और मुकेश अंबानी वाले केस में फिर से जांच शुरू कर दी थी। मगर इस दौरान एक साल तक इनकी सरकार थी, तो इन्होंने क्या किया? इन्होंने तो एक बार भी समन तक नहीं किया। केस दबाए। हमारे पास तो जब तीन महीने एसीबी रही तो रिलायंस के सीईओ को समन किया था। सबको समन कर रहे थे। मगर इन्होंने एसीबी छीन ली।

दिल्ली व पंजाब के अलावा किस राज्य में अपनी पार्टी की ज्यादा संभावना देखते हैं?

अरविंद केजरीवाल : मैं कोई नेपोलियन थोड़ी हूं कि घोड़े पर बैठ कर दुनिया जीतने चलें.. हम तो बस जितना काम मिला है, वही ईमानदारी से कर पाएं, वही बहुत है।

राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं तो फिर अन्ना के साथ अनशन कर रहा व्यक्ति लालू से गलबहियां क्यों कर रहा है?

अरविंद केजरीवाल : नीतीश से अच्छी दोस्ती है। ममता दीदी भी अच्छी मित्र हैं। अब उनके शपथ ग्रहण में जाओ और कोई मिल जाए तो क्या कर सकते हैं? नीतीश जी ने बिहार को बदल दिया है। उन्होंने बहुत अच्छा काम किया है।

14 फरवरी को एक साल पूरा करने पर क्या करेंगे?

अरविंद केजरीवाल : जनता को रिपोर्ट देंगे। मैं और सारे मंत्री दो घंटे बैठेंगे और जनता से सीधे फोन पर सवालों के जवाब देंगे।

वेलेंटाइन डे के मौके पर ऐसी रूखी तैयारी?

अरविंद केजरीवाल : (मुस्कुराते हुए) पिछले साल 14 तारीख को ही वेलेंटाइन डे पर दिल्ली को नई तरह की राजनीति से प्यार हो गया था.। अब यह और बढ़ रहा है।

एमसीडी हड़ताल पर बहुत देर लगा दी आपने?

अरविंद केजरीवाल : हमने ही शुरुआत से सबसे ज्यादा सक्रियता दिखाई है। सारी समस्या की जड़ भ्रष्टाचार है। मैंने हिसाब लगाया कि पूर्वी एमसीडी का विज्ञापन का राजस्व सालाना सिर्फ 12 करोड़ है। यानी एक करोड़ रुपये महीना। बड़े-बड़े होर्डिग्स जो लगते हैं उनकी एक महीने की औसत लागत एक लाख होती है। पूरी पूर्वी दिल्ली में तीन-चार हजार होर्डिग्स लगे हैं जिनका रिकॉर्ड नहीं है। वे गैरकानूनी हैं। 12 करोड़ नहीं यह राजस्व 500 करोड़ होना चाहिए। विज्ञापन, हाउस टैक्स, पार्किग और पता नहीं कितने तरह के संसाधन हैं, लेकिन सब मिलकर लूट रहे हैं। इन सबकी कमान किसी एक जगह तो होनी चाहिए।

आप तो विकेंद्रीकरण की बात करते थे?

अरविंद केजरीवाल : लेकिन कोई चेन ऑफ कमांड तो होगी ना। इस तरह खुली लूट नहीं होने दी जा सकती।

लोकपाल आंदोलन किया। मगर दिल्ली को लोकपाल अब तक नहीं दिला सके। मुख्यमंत्री और मंत्रियों के खिलाफ कोई शिकायत कहां करे?

अरविंद केजरीवाल : हमने तो पास कर दिया। अब यह केंद्र के ऊपर है कि वो क्या करती है। हम तो खुद कह रहे हैं कि हमारे खिलाफ जांच का कानून बने।

आपने आरटीआइ कानून के लिए आंदोलन किया था। आज केंद्रीय सूचना आयोग आपके कार्यालय के रवैये पर नाराजगी जताता है।

अरविंद केजरीवाल : अगर कुछ गलत हो रहा है तो उसे ठीक करेंगे. अगर कोई दिक्कत हो तो बताइए सारी जानकारी दी जाएगी।

पहले आप प्रो एक्टिव थे आरटीआइ को लेकर, अब नहीं लगते?

अरविंद केजरीवाल : आप बताइए क्या करना है बिल्कुल किया जाएगा।

राजनीति में आने से पहले आपने बिहार सरकार के सहयोग से वहां फोन पर आरटीआइ लगाने की सुविधा शुरू करवाई। दिल्ली में क्यों नहीं की ?

अरविंद केजरीवाल : हम सभी जानकारी हमारी वेबसाइट पर डाल रहे हैं। केंद्र सरकार में तो यह हाल है कि किसी ने प्रधानमंत्री की शैक्षणिक योग्यता पर सूचना मांगी तो वह भी नहीं मिली। हमारे तो सारे ब्योरे आप बिना मांगे खुद ले सकते हैं। मैने आदेश दिए हुए हैं, कोई सूचना रोकी नहीं जाए। फोन पर आरटीआइ आवेदन लेने की सुविधा भी देंगे। अगले एक यो दो साल में यह भी हो जाएगा।

सोशल मीडिया पर, चैनलों पर आप पर इतने मजाक बनाए जाते हैं, क्या प्रतिक्रिया होती है?

अरविंद केजरीवाल : मुझे बुरा नहीं लगता। (हंसते हुए) पर जिस इंजीनियर ने जूते के लिए पैसे भेजे थे मैं उनको कहना चाहता हूं कि 364 रुपये में तो जूते भी नहीं आते। वैसे वर्ष 2000 के बाद से मैंने जूते नहीं पहने।

ऑड-इवेन क्या फिर होगा?

अरविंद केजरीवाल : यह इसलिए कामयाब हुआ क्योंकि जनता ने सहयोग किया। हम फिर जनता से बात कर रहे हैं। अब उनकी राय के साथ ही शुरू करेंगे। पिछली बार तीन दिन के लिए स्कूल बंद करने पड़े थे। अबकी बार इसकी जरूरत नहीं होगी।

33 फीसद प्रदूषण तो दोपहिया वाहनों से होता है फिर इसे क्यों बाहर रखा गया?

अरविंद केजरीवाल : अभी हाल फिलहाल में इसे दोपहिया वाहन पर लागू नहीं कर सकेंगे। हमने पाया है कि सम-विषम फामरूले में जब इतनी बड़ी संख्या में कार सड़कों से हटी तो वे कार वाले लोग अधिकांशत: कार पूलिंग कर रहे थे। लेकिन बाइक वाले मेट्रो और बस का ही सहारा ले सकते हैं। एक साथ इतने यात्रियों की हमारे पास क्षमता नहीं है। हम तीन हजार नई बसें भी ले रहे हैं।


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