चौं रे चम्पू, 'ज़रा सी ज़िंदगी ज़रा सा ज्ञान' —अशोक चक्रधर | Choun re Champoo - Ashok Chakradhar

संस्थान और अकादमी का यह योगदान मैं कैसे भूल सकता हूं कि इन्हीं के ज़रिए एक से एक दिग्गज महनीय साहित्यकार और श्रेष्ठ व्यक्तियों के निकट आने और सम्मान देने-पाने का सुयोग मिला — अशोक चक्रधर


चौं रे चम्पू 

ज़रा सी ज़िंदगी ज़रा सा ज्ञान 

—अशोक चक्रधर


—चौं रे चम्पू! तेरे अंदर काए बात कौ गरूर ऐ?

—मैं तो समझता हूं कि मगरूर नहीं हूं, गुरूर से दूर हूं, पर अंदर-अंदर गुरूर जैसा कुछ ज़रूर होगा। इंसान को अपना गुरूर और अपने अवगुण मुश्किल से दिखाई देते हैं। कमंडल में कसैला जल होगा तो पीने वाले के मुख पर कसैला भाव आएगा। कुंडल में कस्तूरी होगी तो महक अपने आप फैलेगी। चचा, बताओ क्या मैं आपको आत्म-मुग्ध मृग दिखाई देता हूं।

—फेसबुक पै अपनी फोटू चढ़ाइबे वारे खुद पै लट्टू होंय कै नायं?

—ओहो, अब आप मुझ पर व्यंग्य कर रहे हैं चचा। चाहने वाले बढ़ते जाएं या कुछ न चाहने वाले भी हों तो वे जानना तो चाहेंगे कि बंदा कर क्या रहा है इन दिनों। श्वेत-श्याम में तो कुछ नहीं होता। ज़िंदगी सिलेटी होती है। फेसबुक की स्लेट पर हर तरह की रंगीन-संगीन इबारत दिखाई देती हैं। प्रशंसाएं मुग्ध तो करती हैं, पर आत्म-मुग्धता नहीं बढ़ातीं, कुछ और अच्छा करने की चुनौतियां बढ़ाती हैं। हां, निंदानुमा कुछ ज़रा सा भी आ जाए, तो दग्धता स्वाभाविक है, पर उसमें भी मैं ’सुखे-दुखे समेकृत्वा’ वाला भाव बनाए रखने का प्रयास करता हूं। इंटरनेट के जनतंत्र में सबको बोलने का अधिकार है। मैंने एक मुक्तक बना कर स्वयं प्रसन्न रहने का एक नुस्ख़ा तैयार किया था।

—हमैंऊ बताय दै।

—मैंने लिखा, ’मदद करना सबकी, इनायत न करना। न चाहे कोई तो हिदायत न करना। शिकायत अगर कोई रखता हो तुमसे, पलट के तुम उससे शिकायत न करना।’ लेकिन दिक़्क़त ये है कि आदमी हर हाल में प्रसन्न रहना नहीं चाहता। मदद करते हो, फिर जताते हो कि इनायत की है। कुपात्रों को नसीहत देने से बाज़ नहीं आते। ज़रा सी निंदा हो जाय तो स्वयं को शिकायतों का पुलिंदा बना लेते हो। अरे, ज़िंदगी में जो अच्छा किया है वह एक मधुर गीत है। उसकी अनुगूंज में मुग्ध रह लो तो बुरा नहीं, आत्म-मुग्ध होते ही गीत बेसुरा होने लगता है। ज़रा सी ज़िंदगी, ज़रा सा ज्ञान, कैसा मान कैसा अभिमान! तो आपने मुद्दा उठाया था गुरूर वाला। उसका उत्तर सुनिए!

—मोय पतौ ऐ कै तू का जबाब दैबे वारौ ऐ! छोड़!

—क्यों छोड़ूं? आपको सब पता है, फिर भी सुन लीजिए। अहंकार और स्वाभिमान में अंतर होता है। उर्दू में कहूं? गुरूर और ख़ुद्दारी में फ़र्क़ होता है। मैं स्वाभिमान और ख़ुद्दारी का पक्षधर हूं। अभिमान या अहंकार तो आडंबरपूर्ण होता है। उसमें खरदिमागी रहती है, वह मदांध बना सकता है। दिमाग अर्श पर हो तो फ़र्श पर आते देर नहीं लगती। दर्प-दंभ किसका टिकता है भला? ऐंठ में रहकर पेंठ जाओगे तो कोई टके सेर नहीं पूछेगा। घमंडी का मंडी में क्या काम? मिजाज़ सातवें आसमान पर होगा तो सात लोग साथ नहीं रहेंगे। अहम्मन्यता आक्रामक बनाती है। जबकि स्वाभिमान और ख़ुद्दारी विनम्र और सकारात्मक। हां, स्वाभिमान के साथ आत्मगौरव, आत्मसम्मान, आत्मप्रतिष्ठा और ग़ैरतमंदी आने से अपने अंदर एक हवा सी तो बनती है। स्वयं कुप्पा होने को जी चाहने लगता है।

—तू सब्दन की हुसियारी मती दिखा चम्पू!

—शब्दों की हुशियारी से कई बार गड़बड़ हो जाती है चचा। होली के दिन लंदनवासी तेजेन्द्र शर्मा से बात हो रही थी। वे भी फ़ुरसत में थे और मैं भी। काफ़ी लंबी बातें हुईं। मित्रों के साथ तो दुख-दर्द सांझा किए ही जाते हैं। उन्होंने पूछा आपकी तकलीफ़ फेसबुक पर चढ़ा दूं? मैंने भी आत्मीयता में कह दिया, जैसा मन करे। बातचीत में कहीं मैं कह बैठा था, ‘अकादमियों से जुड़ा तो आदमियों से दूर होता चला गया’। बातचीत में मेरा भाव था कि दो-दो संस्थाओं की व्यस्तता के रहते अपने आदमियों को पर्याप्त समय नहीं दे पाया। उन्होंने फेसबुक पर इसे शीर्षक बना दिया। मेरे बारे में अच्छा ही लिखा, पर लोग तो इस शीर्षक के कितने ही अर्थ निकाल सकते हैं, जो मैंने स्वप्न में भी न सोचे हों। अब बताइए, संस्थान और अकादमी का यह योगदान मैं कैसे भूल सकता हूं कि इन्हीं के ज़रिए एक से एक दिग्गज महनीय साहित्यकार और श्रेष्ठ व्यक्तियों के निकट आने और सम्मान देने-पाने का सुयोग मिला। हां, कुछ के कोसने भी मिले। मैं क्या करूं बताइए!

—भौत मैं-मैं कल्लई। सब्दन के खेल ते कबहुं-कबहुं खेल बिगरि जायौ करै चम्पू! अपनी तकलीफन की नायं, जमाने की और जमाने की तकलीफन की बात कियौ कर।

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