राष्ट्र भक्ति का भभूत - डॉ. रमेश यादव की कविताएँ

मुझे कवि से बचाओ !


एक दिन
आम आदमी चिल्लाया
बोला
हमें कविता से नहीं
कवि से बचाओ

हमने आश्चर्य से पूछा
क्यों भाई
आपको
कवि से क्या ख़तरा
आम आदमी ने कहा
तुम भी कवि हो क्या
हमने कहा
नहीं
मैं पाठक हूँ
फिर
उसकी आवाज़ आयी

हमें पढ़ो
कवि की कविता और
भावना में
हमारे
दर्द, पीड़ा और कसक की
अभिव्यक्ति

मैं कवि का
कच्चा माल हूँ
हमारे ही संवेदनाओं और संभावनाओं को
देता है
वह आकार
पकाता, गढ़ता और रचता है
शिल्प का संसार

हमारे ही जीवन संघर्ष को
बनाता है
‘शब्दों‘ का संग्रह

ले जाता है
वैश्विक बाज़ार में
जहाँ सजी होती है
कविता की मंडी

हमारे दुखों पर चढ़ाकर
रस, छंद, अलंकार, मुहावरा, लक्षणा-व्यंजना
और लोकोक्तियों की परत

जहाँ मिलते हैं
रंग-बिरंगे मुखौटा लगाये
समीक्षक /आलोचक
और खरीदार
दुकान लगाये पुरस्कारों की

बिचौलिए संचालित करते हैं
गढ़ों और मठों को
क्षेत्र, जाति, धर्म
और संप्रदाय की टोपी पहने

कवि
जीतने में कामयाब होता है
‘कविता‘ का पुरस्कार
देखते-देखते
भर जाती है
उसकी झोली
रुपयों, पदों, सम्मानों
और अवसरों से

हमारे भविष्य के चिन्तक
बना लेते हैं
अपने भविष्य की उज्जवल ईमारत
हम बन जाते है
उनकी नींव

हम जहाँ थे
सदियों पहले
आज भी पड़े हुए हैं
वहीँ पर

हम ठहरे
अनपढ़
गंवार
पढ़ते नहीं हैं
हम कविता
हम तो जीते हैं
कविता में उद्घाटित जीवन को

कविता में मौजूद है
हमारे जीवन संघर्ष का अंश
हमारे जड़ों तक नहीं पहुंचा है
कोई कवि
वह कल्पनाओं से खेलता और रचता है
हम जीते हैं यथार्थ को

21 वीं सदी में भी हम
किसी का
‘होरी‘
और
‘झुनिया‘ हैं

आम आदमी चिल्लाया
हमें बचाओ

शब्दों के इन जादूगरों से
हमारे दर्दों के सौदागरों
और भावना के बिचौलियों से

हम खुद लड़ेंगे
अपनी मुक्ति की लड़ाई
सुबह होने तक

     आदमी और गेहूँ


     एकांत में बैठ
     सोच रहा कि
     आदमी और गेहूँ
     के जीवन में
     कितनी समानतायें हैं
     बचपन में मेड़ पर बैठकर
     पिता को हल जोतते हुए
     एकटक देखता
     आगे-आगे बैल चलते
     पीछे-पीछे पिता
     और उनके पीछे
     माँ
     कुरुई में गेहूँ लिए
     हल से बने
     कोंड़ में गिराती जातीं
     अंत में हेंगा
     दिया जाता
     गेहूँ खेत में
     दफ़न हो जाता
     सोचता हूँ
     गेहूँ खेत में बोया जाता है
     और
     आदमी समाज में
     दोनों का पालन-पोषण
     देख-रेख कितनी
     लगन, भावना, उम्मीदों
     उत्साह से की जाती है
     लोग गेहूँ से पेट भरने
     आदमी से पेट
     पालने की उम्मीद रखते हैं
     गेहूँ को किसान-मजदूर
     सींचता है और
     खाद-गोबर देता है
     आदमी जब
     शिशु होता है
     उसकी भी तो परवरिश
     गेहूँ की तरह ही तो करते हैं
     माँ-पिता
     गेहूँ के लहलहाती बालियों को देख
     प्रफुल्लित होता है किसान
     ठीक वैसे ही
     जवान होते बच्चे को देख
     भाव-विभोर होते हैं
     माँ-बाप
     दोनों का सतह से उठने का
     जीवन संघर्ष भी
     एक ही तरह का है
     गेहूँ
     जमीन को फाड़कर ऊपर उठता है
     और
     आदमी
     मनुवादी जड़ता को
     गेहूँ की तरह ही फाड़ता है
     सामाजिक-सांस्कृतिक गैर-बराबरी
     के खिलाफ़ जन्म से संघर्ष करता है
     आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए जूझता है
     राजनैतिक भागीदारी के लिए लड़ता है
     आदमी और गेहूँ का
     जमीन और मिट्टी से
     कितना परस्पर सम्बन्ध है
     गेहूँ का अस्तित्व मिट्टी से है
     और आदमी का
     जाहिर है समाज से
     गेहूँ जमीन में पैदा होता है
     और पेट में हजम
     आदमी पेट से पैदा होता है
     लेकिन ताज़िन्दगी जमीन पर रहता है
     गेहूँ भूखों को
     जीवनदान देता है
     और आदमी
     कभी-कभी
     जमीन के लिए
     आदमी की जान भी ले लेता है
     फिर
     एक सवाल
     आदमी बड़ा या गेहूँ ...?

बेलचा


उनके निपटे हुए
शब्दों को
पद्म भूषण/विभूषण
साहित्य अकादमियों
के ‘बेलचे’ से राष्ट्रीय सम्मान सहित
उठाया जा रहा है
लेकिन
जिनके
दर्द
पीड़ा
और
जीवन संघर्ष
को वे शब्दों में
निपटे थे
वे लोग आज भी वैसे ही हैं
जैसे
सैकड़ों सालों से हैं...

     मैं ‘गण’ हूँ ‘तंत्र’ से दबा


     मैं
     गण हूँ
     तंत्र से दबा
     कुचला
     घायल
     कराहता हुआ
     बूट से दबाया गया
     कभी बंदूकें हमारे सीने पर राज़ कीं
     बैलट से ठगा गया
     बूथ पर घायल पाया गया
     वादों से छला गया
     उम्मीदों पर परखा गया
     धर्म की भट्ठी पर चढ़ाया गया
     कभी जातियों में दर-ब-दर
     किया गया
     अगड़ों में बंटा
     पिछड़ों में छंटा
     दलित के नाम पर दुरदुराया गया
     जो था आदिवासी
     ना बना अब तक निवासी
     कभी अल्पसंख्यक बन
     अल्पाहार
     का निवाला बनाया गया
     कभी पूर्वोत्तर का दर्द तो
     कश्मीर की पीड़ा
     मैं
     'गण' 'तंत्र' हूँ
     गगनचुंबी है
     अपना गान
     मगर
     गगन ही अपना ठांव

मैं उत्तर नहीं,निरुत्तर हूँ


मैं उत्तर हूँ
सवाल नहीं
इसीलिए तो
गवाह हूँ
उत्तर प्रदेश का
यही मेरा उत्तर समझो
हमको सबने लूटा
अलग–अलग वक़्त में
रंग-बिरंगे झंडे लगाकर
सबसे अधिक कांग्रेसियों ने लूटा
भाजपाई भी पीछे न रहे
सपाईयों ने अवसर न खोया
बसपाईयों ने इतिहास दोहराया
जिसको मौका मिला
उसने लूटा
अगड़ों ने सबको लूटा
गुलामी के वक़्त राजा बन लूटा
आज़ादी के बाद सत्ता में घूस के लूटा
पार्टी-झंडा बदल-बदलकर
आदिवासियों,
दलितों,
पिछड़ों
अल्पसंख्यकों के
रहनुमा भी पीछे न रहे
ये तो अपनों को लूटे
जिनका सपना चकनाचूर हुआ
मैं उत्तर हूँ
सवाल नहीं
इसीलिए तो
निरुत्तर हूँ

नज़र शिकारवादी, ज़िगर पूंजीवादी


          व्यवहार में उदारवादी हैं
          विचार से सामंतवादी हैं
          लगता है समाजवादी हैं
          मगर पक्का जातिवादी हैं

          समय चाहे जैसा हो
          घोषणा करते साम्यवादी हैं
          नज़र से शिकारवादी हैं
          ज़िगर पूंजीवादी है
          मन साम्राज्यवादी है
          कहते जनवादी हैं

          जीवन सुखवादी है
          कहते संघर्षवादी हैं
          सोच भोगवादी है
          कहते लोकवादी हैं

          लिखते क्रांतिकारी हैं
          बोलते जुगाड़वादी हैं
          सक्रिय अवसरवादी हैं
          कहते सर्वहारावादी हैं

          चाल सरकारवादी है
          ढाल मनुवादी है
          अपन भी कहाँ फंसे
          समाज परिवर्तनवादी है

विरोध और भोग


बुद्धिमान
बुद्धिजीवी हैं
हमेशा भाप की तरह भभकते हैं
जुगाड़ू 
सभी माध्यमों के मंच पर
सक्रिय दिखते हैं
जब भी मुँह खोलते हैं
विरोध करते हैं साम्राज्यवाद का
लोगों को लगता है
बाबा
राष्ट्रवादी हैं
रैडिकल क्रांतिकारी हैं
मगर असली जीवन में
बाबा अंतरराष्ट्रीय
भोगवादी हैं
करते हैं सरकारी नीतियों का विरोध
लगाते हैं सुविधाओं का भोग

     राष्ट्र भक्ति का भभूत

     फरिश्ता बनकर 
     यूँ ना फिराकर
     तेरी फरेबी का राज़ जग पे जाहिर है
     तिरंगे में छुपाकर
     अपने चेहरे को

     यूँ ही न मुल्क को ठगाकर
     हमें दुपट्टे आंचल
     और तिरंगे का
     रंग-ए-फर्क मालूम है
     हमसे रंगों से यूँ ही न
     खेलाकर
     देखें हैं
     हमने बहुत तुझसे राष्ट्र भक्त
     लगा ‘भभूत’ माथे पर
     ‘राष्ट्र भक्ति’ की
     यूँ ही न हमें
     भरमाया कर
     फरिश्ता बनकर 
     यूँ ना फिराकर

डॉ. रमेश यादव (पीएचडी)
सहायक प्राध्यापक
पत्रकारिता एवं नव मीडिया अध्ययन विद्यापीठ
(School of Journalism and New Media Studies)
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (IGNOU)
 http://www.shabdankan.com/2012/12/drramesh000.html

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