मार्स पर चूहे — वंदना राग | हिंदी कहानी


हद्द बेशरम हो तुम, जब बच्चे छोटे थे तो कभी गोदी में बिठाया तुमने? आज बड़े आये हो पिता का फ़र्ज़ निभाने। अरे कॉलेज जा पहुंचे हैं बच्चे तुम्हारे।

उसे याद आया सचमुच कॉलेज में पढ़ने लगे हैं उसके बच्चे। वो उन्हें बड़ा होता देख ही नहीं पाया। वह कौन सा समय था जब वह अपनी बेटी को दिल्ली की कड़कड़ाती सर्दी में स्कूल जाने के लिए बस स्टॉप तक पहुँचाने गया था। उसकी स्मृति में शालीमार बाग वाले किराये के मकान…

— वंदना राग की कहानी 'मार्स पर चूहे' से

स०: यदि आप एक कथा-रसिक हैं और आप किसी कहानी को पढ़ें, वह ख़ूब पसंद आए लेकिन कहीं कुछ ऐसा रह जाए जो समझ नहीं आया हो, ऐसे में आप क्या करेंगे?

ज०: उसी समय कहानी को दोबारा पढेंगे।


जब मेरे कानों में प्रो० मैनेजर पांडेजी का कल का ही वक्तव्य घूम रहा हो  – इस समय का साहित्य अपने में ऐसी चीज़ों को नहीं समेट रहा जो बड़ी विकट हैं, अभूतपूर्व त्रासदी हैं , वह विदर्भ के किसानों की आत्महत्याओं का ज़िक्र करते हैं – और आज प्रिय कथाकार वंदना राग की कहानी ‘मार्स पर चूहे’ पढ़ता हूँ। जिस महामारी का शिकार समाज हो चुका है लेकिन जिसका जिक्र इसलिए नहीं हो रहा क्योंकि वह अर्थव्यवस्था का केंद्र है। मानवजाति इस बीमार बना चुकी अर्थव्यवस्था का ही शिकार होनी है। लेकिन साहित्यकार ने अपना धर्म निभाया है. ग़जब की शैली में बुनी इस कहानी की रवानी पहली पंक्ति से ही ताज्जुब में घेरे लेते है और फिर घेरे ही रहती है...

कहानी पढ़िए... बधाई दोस्त! 

भरत तिवारी


मार्स पर चूहे

— वंदना राग


कपूर ने अपनी टेबल पर बिखरे कागजात हाथ के एक झटके से नीचे गिरा दिए। उसे फाइल पर लिखा डाटा अब दिखलाई देना बंद हो गया था। कंप्यूटर पर लिखे हुए आंकड़े तो अब चिम चिम कर रहे थे। लग रहा था चाँद सितारे नाच रहे हों। बिजली का एक जोर का भभका और चारों ओर अँधेरा। उसने कंप्यूटर भी स्विच ऑफ कर दिया था। उसे याद आया, आई –सर्जन से नयी अपॉइंटमेंट इसी हफ्ते है। न जाने आँखों में कौन सा मोतिया बिन्द निकल जाए। पिछली बार वह कह रहा था, पहले लोगों को मोतियाबिंद कपूर की उम्र में नहीं होता था। अब काला सफ़ेद दोनों होने लगा है। आप तो अब शुगर टेस्ट करवाइए, इतना लाइटली मत लीजिये। आजकल छोटे -छोटे बच्चों को शुगर होने लगी है। ।

डाक्टर के इस तरह डराने से उसकी साँस बंद होने लगी थी। उसका चेहरा पीला पड़ गया था। डाक्टर ने लपक कर उसे एग्जामिनेशन टेबल पर लिटा दिया था और कहा था, लगता है ब्लड प्रेशर बढ़ गया है। यह खतरनाक है, स्ट्रोक या हार्ट अटैक हो सकता है। ख्याल रखिये अपना।

वो तब से डाक्टरों और बाबाओं के चक्कर में उलझ गया था। डाक्टर नहीं तो बाबा लोग ही उसके मर्ज़ का हाल बता दें। इस वक़्त वह इन परेशानियों से निजात पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार था। कभी कभी लगता था उसकी आँखें यूँ लगातार न मिचमिचातीं तो उसे डाक्टर के पास जाने की नौबत न आती और भागदौड़ का यह अंतहीन सिलसिला शुरू ही नहीं हुआ होता। लेकिन सच तो यह था की कंप्यूटर से उसका पीछा छूटना नहीं था और साली, ये कंप्यूटर स्क्रीन खोलते ही जाने क्यूँ...सब गड़बड़ हो जाता था।

परेशानी के उन पहले पहल दिनों में उसने दफ्तर के साथियों से इसका ज़िक्र नहीं किया था। उसे डर था की ब्रांच मेनेजर तक बात पहुँच जाएगी तो निश्चित ही उसे लम्बी छुट्टी या फिर सीधे बर्खास्तगी का नोटिस मिल जायेगा। सोच-सोच उसे सिहरन होती थी। लगता था टनों ठंडा पानी किसीने शरीर पर उझल दिया हो। इसीलिए कुछ महीने उसने चुप्पी साधी। लेकिन फिर जब एक दिन उसे मेनेजर से सरेआम टाइम फ्रेम के अन्दर काम पूरा न कर पाने की वजह से डांट पड़ गयी तो उसने दफ्तर के साथियों को किश्तों में सच बताना शुरू कर दिया। लोगों ने बड़ी सहानूभूति दिखाई। वह राहत से भर गया। खामखा वह इनके बारे में उल्टा-सीधा सोच रहा था। पाण्डेय ने तो उसे एक स्पेशलिस्ट के पास ले जाने तक का ऑफर दे डाला।

उस दिन वह मुस्काता हुआ घर पहुंचा। जैसे एक नयी खुशनुमा कहानी की शुरुवात होने वाली है। उसने आदतन मुह हाथ धोकर, फ्रेश होकर, अपनी शुगर चेक की, फिर ब्लड प्रेशर भी। आश्चर्य था आज कुछ भी बढ़ा हुआ नहीं आया था। फिर उसने उत्साह से भर अपने बच्चों को आवाज़ दी। बच्चे उसे विस्फारित नज़रों से ताकते रहे। अरे क्या हुआ? आओ मेरे पास। उसने दुलार से बाहें फैला दीं। उसके बच्चे बड़ा झिझकते हुए पास आये और खड़े हो गए। जैसे जानते ही न हों, पिता की खुली बाहों का मतलब। अरे ..., वो उन्हें पकड़ कर अपनी गोदी में बिठाने लगा। उसके बच्चे चिहुंक कर भाग खड़े हुए।

पत्नी चाय लेकर आई और उसे बच्चों के इतना नजदीक देख बोली, तुम क्या कर रहे थे? वो हड़बड़ा गया जैसे चोरी करते हुए पकड़ा गया हो। साला बच्चों को प्यार करना चोरी है क्या? पत्नी की पेशानी पर बल पड़ गए। वह चाय को तिपाई पर रख लगभग चीखते हुए बोली, अब प्यार कर रहे हो? क्या डाक्टर ने कह ही दिया है कि तुम मरने वाले हो?

वह पत्नी के इस अंदाज़ को देख दुखी होने के बजाय आश्चर्य से भर गया, क्या पत्नी गुस्सा भी करती है? अरे इसकी आँखें तो एक ज़माने में कजरारी सी हुआ करतीं थीं और कपूर को उसमें से मद टपकता दिखलाई पड़ता था हमेशा। आज तो एकदम कोटरों में धंसी बिजूका की आँखें लग रहीं हैं। एक बार रॉक गार्डन चंडीगढ़ गया था तो टूटे फूटे कप प्लेट से बनी गुडियों की आँखों जैसी आँखें थीं ये, बेजान और बेहरकत।

हद्द बेशरम हो तुम, जब बच्चे छोटे थे तो कभी गोदी में बिठाया तुमने? आज बड़े आये हो पिता का फ़र्ज़ निभाने। अरे कॉलेज जा पहुंचे हैं बच्चे तुम्हारे।

उसे याद आया सचमुच कॉलेज में पढ़ने लगे हैं उसके बच्चे। वो उन्हें बड़ा होता देख ही नहीं पाया। वह कौन सा समय था जब वह अपनी बेटी को दिल्ली की कड़कड़ाती सर्दी में स्कूल जाने के लिए बस स्टॉप तक पहुँचाने गया था। उसकी स्मृति में शालीमार बाग वाले किराये के मकान की इमेज दौड़ गयी। उसकी सात साल की बेटी कनटोप और दास्ताने पहने भी ठिठुर रही थी। पापा गोदी, उसके थरथराते होठों से टूटी-फूटी सी अवाज़ निकली थीं और उसने बेटी को जल्दी से गोदी में चिपका लिया था। उसकी बेटी के गाल मक्खन से मुलायम हुआ करते थे और उसकी पत्नी उनपर उबटन की परत लपेटे रखती थी, कहती थी, बचपन की देखभाल बाद में काम आती है। यह सुन उसे अपनी बेबे याद आती थी, वे उसके बचपन के दिनों में उसे यूँही नहलाया करती थीं और कहा करती थीं, मुंडया है तो भी, उबटन लगाना चाहिए, चमड़ी तो सबकी सोणी दिखनी ही चाहिए।

माएं अपने बच्चों को कितना प्यार करती हैं!

लेकिन कई साल पहले उसकी पत्नी ने कहा था हमारी कुड़ी तो माँ को नहीं बाप को ज्यादा प्यार करती है। इसपर वह फूल कर कुप्पा हो गया था और उस रात पत्नी बेटी और वह बाइक पर बैठ इंडिया गेट गए थे आइसक्रीम खाने। उसने उस दिन अपनी प्यारी बेटी को एक बड़ा रंगीन गुब्बारा भी खरीद कर दिलाया था जो घर आने पर कपड़ों के तार में उलझ कर फूट गया था। उसकी बेटी उस रात रोते-रोते सोयी थी। उसके गालों पर आँसू जम गए थे और चमड़ी पपडिया गयी थी। उसका चेहरा लाल हो गया था। उसे याद है उसने गीले कपडे से बेटी के आँसू पोछे थे फिर गालों पर बोरोप्लस क्रीम लगायी थी। अगले दिन उसकी बेटी रात की बात भूल हँसते हुए उठी थी और गुडमोर्निंग पापा कहा था। लेकिन उसकी स्मृति में सिर्फ रोती हुई बेटी अटक कर रह गयी थी। बेटी की हंसने वाली बातें उसे सहजता से याद ही नहीं पड़ती थीं।

हैरत की बात है कि, इसी तरह उसे बेटे की बातें भी याद नहीं पड़ती। बेटे की ख़ुशी वाली बातें। उसे याद है बाउजी ने जब अपनी पंजाब वाली ज़मीन बेचीं थी तो दो भाइयों में बराबर पैसे बाटें थे। उसीकी बदौलत उसने यह दो बेडरूम का फ्लैट ख़रीदा था नॉएडा में। अब तो उन पैसों में खोली भी न आये। उस वक़्त बेटा पांचवीं क्लास में पढ़ता था, जब उसने घर आकर कहा था, की चलो सामान पैक करो अब नए ठिकाने पर चलना है, पापा मैं नहीं जाऊंगा, कह बेटा रो पड़ा था और ज़िद मचाई थी, मुझे इसी स्कूल में पढ़ना है...मुझे कहीं नहीं जाना है, इसी स्कूल में पढ़ना है, यहीं मेरे दोस्त हैं...

ओये खोत्ते चुप्प ..., उठता है या इक लगाऊँ? उसने अपने दुखते कंधे को ऊपर हवा में आक्रामक मुद्रा में फहराया था। बेटा डर कर चिल्लाया था नयी नयी...पापा चलता हूँ ...चलता हूँ..., और भागकर अपने खिलौने समेटने लगा था। बेटे का डर से पीला चेहरा भी इसी तरह उसके ज़ेहन में अटका पड़ा है।

और तो और, जिस पत्नी को वह अम्बाले से ब्याह कर लुधियाने लाया था और फिर वहाँ से दिल्ली, अपने किराये के आशियाने, शालीमार बाग में, उसकी ख़ुशी की बात याद करना चाहे तो उसे क्या याद आएगा? वह खूब दिमाग लगाने की कोशिश करता है। उसने गूगल, पर डाक्टरों के पास दौड़ भाग करने के दौरान पढ़ा था, की, जिन लोगों की स्मृति में खुश ख़बरें और खुशगवार पल इक्कट्ठे नहीं होते वह डिप्रेशन के शिकार होते हैं। डिप्रेशन एक तेज़ी से फैलती बीमारी है। महानगरों का रोग, जल्दी पकड़ में नहीं आता है और ज़्यादातर लोगों के अंतर में छिपा रह जाता है, फिर जब उसकी पहचान होती है तो देर हो चुकी होती है। उसे नहीं है, डिप्रेशन लेकीन अब सोच रहा है तो लगता है कहीं पत्नी तो इसका शिकार नहीं।

कितने दिनों बाद चीखी है पत्नी। इतने दिन से उससे बात किस टोन में करती रही है ? अरे उसकी आवाज़ सुने उसे कितने दिन हो गए? इतने दिन वे दोनों बात कर भी रहे थे या नहीं? उसे ठीक से वह भी याद नहीं पड़ रहा था।

चीखती पत्नी को उसने हाथ पकड़ बैठाने की कोशिश की। उसके सर पर हाथ फेरने की भी। उसे याद पड़ा शादी के बाद उसकी पत्नी, उसकी छाती से यूँही चिपक जाया करती थी और बच्चों की मासूमियत से कहती थी, मुझे प्यार करो, मेरे सर पर हाथ फेरो, पापाजी के जाने के बाद किसी ने मेरे सर पर प्यार से हाथ नहीं फेरा।

ये सब सुन वो बेहद ज़िम्मेदारी का अनुभव करता था और पत्नी के सर पर मुलायामियत से हाथ फेरता जाता था जब तक वह सुकून से सो नहीं जाती थी। उसे याद क्यूँ नहीं पड़ रहा था कि यह हाथ फेरने वाली घटना अंतिम बार कब घटी थी? मतलब क्या बरसों पहले उसने यह काम किया था? उसे यह भी याद नहीं पड़ रहा था कि, उसकी पत्नी उसकी बगल में कबसे सोयी नहीं थी? रात को जबतक वह कमरे में आती थी वह खर्राटे लेने लगता था और पत्नी को इससे भारी दिक्कत होती थी, उसने कहीं सुना था की बहुत ज्यादा खर्राटे लेना भी एक बीमारी होती है, और उसे ठीक करने के लिए कई तरह के देसी इलाज होते हैं।

पत्नी को उसकी हालत पर बहुत दुःख उमड़ता था और वह दुःख कम करने के लिए कपूर को ढेर सारी जड़ी बूटियाँ खिलाती थी, लेकिन जब बरसों तक कोई फायदा नहीं हुआ तो पत्नी ने कोशिश करनी छोड़ दी थी और शायद कहीं भी पड़ कर सोने लगी थी। ऐसा वह सोचा करता था। लेकिन यह भी तो हो सकता है कि वह इतने दिनों से, उसीकी बगल में सोयी रहती हो और कपूर को कभी पता नहीं चल पाया हो। वह जब सोकर उठता था तो उसकी पत्नी जगी हुई मिलती थी। उसकी स्मृति में पत्नी का कोशिश करना ही फंस सा गया है। कोशिश करना कि, सब ठीक हो जाये और हमेशा जगे रहना।

पत्नी उसका स्पर्श पा ऐसे छिटकी मानो उसे बिजली के करंट से दाग दिया गया हो। फिर उससे एक निश्चित दूरी बना कर बोली, क्या सचमुच अब तुम ज्यादा दिन नहीं जियोगे?

वह काठ हो गया।

यह मेरा परिवार है?

ये अजनबी हैं कौन?

तभी रेडियो पर एक पुराना गाना बज उठा, अजनबी कौन हो तुम...

उसके बाउजी का पसंदीदा गाना था यह और इसी वजह से यह गाना उसे भी पसंद था। लेकिन आज उसे इससे चिढ़ हुई

। कौन सुन रहा है यह गाना बंद करो इसे, उसने फरमान जारी किया।

उसने देखा उसके इतना कहने पर घर का पूरा दृश्य ही बदल गया। बेटी की आँखों से आंसूं गायब हो गये। बेटा डरा हुआ नहीं लगा। पत्नी उठ कर अपने काम में लग गयी।

उसने फिर कहा, बेटा इधर आ, ये मेरे जूते की पोलिश कर दे, बेटी एक कप और चाय बना ला, और रात के खाने में पत्नी को उसने गाजर मटर की सब्ज़ी बनाने का आदेश किया।

घर की दीवार पर 2004 में खरीदी घड़ी जोर की आवाज़ के साथ टिक–टिक कर रही थी। उसने उसे घूर कर देखा और फिर उसे याद आया उसने इस घर में शिफ्ट होने पर पहली चीज़ यही खरीदी थी। उसने गौर से देखा, लेकिन इसकी डेट क्यूँ नहीं बदली है?

पापा बदली तो है। ये देखिये ये 2017 का अक्टूबर है। बेटे ने घड़ी को हलके हाथों से ठोकते हुए कहा। अरे बेटे का हाथ इतनी ऊँची दीवार तक कैसे पहुँच गया? बेटा क्या इतना लम्बा हो गया है?

क्या हाइट हो गयी तेरी? इस सवाल पर उसने देखा बेटे का चेहरा फिर पीला पड़ गया जैसे बचपन में पड़ जाया करता था। कितने दिनों से बेटे को देखा नहीं उसने।



सुनो पढाई का क्या हाल है?

पढाई ? बेटा चौंक कर बोला। पापा बताया तो था कैंपस प्लेसमेंट हो गयी मेरी। ग्लोबल स्पेस रिसर्च आर्गेनाइजेशन में, अमेरिकी मल्टी नेशनल है। अब आपको मेरे ऊपर पैसे नहीं खर्चने होंगे।

वह जड़ होकर सुन रहा था। बेटे को इनजीनियर ही बनाना है, ये उसके मानस में कहीं ठूंसा हुआ था। जब कपूर बड़ा हो रहा था, तब उसके लिए भी सब यही चाहते थे। लेकिन कपूर ने न चाहते हुए भी सभी को निराश किया और कॉमर्स ले लिया, जिसकी बदौलत वह फाइनेंस अफसर बना।

लेकिन जाने क्या बात थी की जब भी वह किसी इन्जीनीयर को देखता वह कुछ अजीब सा महसूस करता। चालीस पहले एक निराशा उसके अन्दर घर कर गयी थी, वह कुछ हल्का सा है। हलकी पर्सनालिटी वाला, थोड़े दबाब में घुटने टेक देने वाला, मन की बात न कह पाने वाला।, इस किस्म का भाव अन्दर धीरे धीरे शूल की तरह चुभता रहता था।

उसकी छोटी तोंद अब गुब्बारे सी थी। सर के बाल बीच से गायब। और बेबे के लगाये उबटन का करिश्मा चमड़ी से नदारद। जब उसने बेटे को इंजिनीयरिंग में दाखिला दिलाते समय अपनी बाइक बेचीं थी और मेट्रो से आने जाने का निर्णय लिया था, तब उसने नहीं समझा था की एक बाइक का जाना उसकी बनायीं दुनिया से बहुत सारी स्मृतियों का चला जाना भी है। अब कभी पत्नी उससे उस तरह सट कर नहीं बैठ पायेगी जितनी बरसों से बैठती आई थी। अब कभी परिवार के, वे चार या तीन लोग एक साथ कहीं नहीं जा पाएंगे। अब कभी उसका यह बेटा जो बचपन में उसके कंधे पर, मैं प्लेन में बैठा हूँ पापा, और तेज़ उड़ाओ प्लेन...कहा करता था और कपूर जब भी बाइक देखता उसे यह याद आता, ऐसा याद आना भी अब नहीं हो पायेगा। बाइक का जाना ज़िन्दगी से रोमांच का जाना भी होगा। बाइक का जाना बेटे से सिर्फ कॉलेज की फीस के रिश्ते में तब्दील हो जाना भी होगा।

उसने बेटे को देख कर उसने न जाने क्यूँ कहा, किन्नी फीस लगेगी इस बार ? बेटे के चेहरे पर टीवी में दिखाए जाने वाले विज्ञापन वाला भाव मचल गया, क्या बक रहे हो ? हैव यू लॉस्ट इट? बेटे ने अमरीकी एक्टर्स की तरह कंधे भी उचकाए थे। उसका बेटा कितना स्मार्ट हो गया है। और उसकी नौकरी भी लग गयी है बहुत पैसों वाली, काश यही इमेज मन में बस जाती उसके बनिस्बत बेटे की डरी हुई इमेज के...।

पत्नी की आवाज़ से ज्यादा जोर की आवाज़ में बेटी चीखी थी उसकी सोच को तोड़ती हुई।

पापा आओ खाना लग गया है।

उसे लगा, अरे बेटी की आवाज़ तो बचपन में सिंगर गीता दत्त की तरह खूबसूरत हुआ करती थी। बाउजी के साथ बचपन में सुना करता था वह। और सोचा करता था अगर उसे मौका मिला तो वो एक गीता दत्त की तरह गाने वाली से इश्क करेगा और फिर उसी से शादी। शादी के बाद फिर वह रोज़ उसे गाना गाकर सुलाने को कहेगा। लेकिन बाउजी ने उसे इश्क करने का मौका ही नहीं दिया। जैसे ही चौबीस साल पूरा करते-करते नौकरी लगी उसकी शादी कर दी गयी, अम्बाले में ग्रेजुएशन में पढ़ने वाली इक्कीस साल की लड़की से, जो खूबसूरत थी लेकिन उसे गाना बिलकुल नहीं आता था। बड़ी नाज़ुक थी वह। बिन बाप की लड़की। बचपन में ही किसी हादसे का शिकार हो गए थे उसके बाउजी। तबसे उसके कोमल मन पर ऐसी मार पड़ी कि वह हमेशा तरसी रही। कभी दुलार के लिए, कभी कपड़ों के लिए तो कभी स्टेटस के लिए। खाने की भी बड़ी शौक़ीन थी और उसे बाहर के खाने का खूब शौक था।

अंतिम बार कब गए थे सब साथ रेस्टोरेंट? उसे बिलकुल याद नहीं पड़ रहा था। शायद जब उसके भाई की शादी की पचीस वीं सालगिरह थी जो उसने नॉएडा के लक्ज़री होटल जिंजर में आयोजित की थी। पांच सितारा होटल से कुछ कम शानो शौकत नहीं थी वहाँ।

पत्नी पहले पहल कहा करती थी भैया की तरह बाउजी के पैसे से आप भी बिजनेस कर लो। उसने पत्नी को घुड़का था, मेरे बस की नहीं रिस्क लेना। लगी लगायी नौकरी है, बंधी हुई तनख्वाह है।

पत्नी इसरार करती, लेकिन उसमे पैसा आपके इस पैसे से दुगुना हो जायेगा।

और जो डूब गया तो ???

लेकिन उस दिन पत्नी ने जिंजर होटल में उसे तरसी हुई नज़रों से देखा था और खाने को हाथ नहीं लगाया था। ये उसकी पत्नी का, उसे सजा देने का, सबसे कारगर तरीका था। इस उल्हाने में सारी बातें चुप होकर कह दी गयीं थी। आज बाउजी के पैसे से भैया की तरह बिजनेस किया होता तो हम भी जिंजर होटल में अपनी शादी की सालगिरह मना रहे होते।

उस दिन रात को उसके पेट में इतना दर्द उठा था कि बेटी को शक हुआ था कि पापा का लिवर ख़राब हो गया है। हाल में बेटी के एक दोस्त को ऐसा दर्द तब उठा था, जब वह पी कर उल्टियाँ करने लगा था और लड़के उसे ढो कर अस्पताल ले गए थे। इतना सुन वह अपना पेट दर्द भूल, उठ बैठा था।

तुझे कैसे मालूम, क्या तू भी उसके साथ पी रही थी? सवाल सुन बेटी जोर जोर से रोने लगी थी।

हर वक़्त मेरी बातों को घर में टारगेट किया जाता है। एक तो मुझे मेरे मन का सब्जेक्ट पढ़ने नहीं दिया, ब्यूटी पार्लर का कोर्स कहा तो करने नहीं दिया, फिर ऐसे ताने। हाँ पार्टी में मैं भी थी, लेकिन ...

लेकिन क्या? वह उसपर पिल पड़ा था, तेज़ गुस्से और हताशा में। पत्नी बीच में आई तो मामला सलटा। उस दिन उसकी बेटी फिर दिल तोड़ने वाली रुलाई के साथ सोयी थी। उसके सुबकने की आवाज़ ने उसे रात भर सोने नहीं दिया था और उसी रात उसकी पत्नी चैन से सोयी थी।

सुनो, उसने रोटी तोड़ते हुए कहा, कल तुम भी चलना मेरे साथ, डाक्टर के पास।

उसके इतना कहते ही टेबल पर सन्नाटा पसर गया। उसकी पत्नी ने एक रुलाई दबाई। क्या तुम मुझसे कुछ छिपा रहे हो?

नहीं भाई, मैं चाहता हूँ तुम भी अपना एक चेकअप करा लो।

क्या??

यह सुन सब एक साथ हंसने लगे। उसने घूर कर सबको एक साथ देखा और फिर बेटी से बोला, और तुझे आगे क्या पढ़ना है सोचा? बताना मुझे, तेरे सपनों को नहीं मरने देना है।

क्या? कौनसे सपने पापा? बेटी ने ठंडी आवाज़ में बोला। अब तो शादी करुँगी मैं।

शादी?

हाँ, अब क्या पढूं? जॉब लगवा सकते हो तो लगवा दो। वरना शादी कर दो।

अपनी बेटी के इस जवाब पर दिल पकड़ कर बैठ गया वह। ऑफिस में उसके साथ का ही तो था श्रीवास्तव, जिसकी बेटी बचपन में कितनी अनाकर्षक और बुद्धू लगती थी। लेकिन आज मेडिकल कॉलेज में पढ़ रही है। उसकी बेटी में तो श्रीवास्तव की लड़की से कहीं अधिक प्रतिभा थी। फिर ये ज़िन्दगी के बीच रास्ते में हुआ क्या? और वह कहाँ रहा इस बीच?

मैं डाक्टर फाक्टर के पास नहीं जाउंगी। पत्नी बोली, तुम अपना इलाज कराओ। तुम ठीक तो घर ठीक।

उसे अपने कानों पर विश्वाश नहीं हुआ, पत्नी का टोन उस पुरानी वाली टोन की तरह था जो दिल्ली आने के शुरुआती दिनों में अपने खूबसूरत पति के साथ होने के मान से भरा था। सब खूबसूरत लगता था तब। दिल्ली भी।

फिर नॉएडा शिफ्ट हुए और उसकी तबीअत ख़राब होने लगी थी। कभी कुछ, तो कभी कुछ।

सच पूछो तो इंडिया का नक्शा बदल गया था, पूरी दुनिया ही बदल गयी थी। अब सारे काम मशीनों से होने लगे थे, सारे दफ्तरों में भी, फाइलों के साथ कंप्यूटर पर ज्यादा काम होने लगे थे। बॉस की नकेल अब हर जगह थी। उसके बाथरूम के वक़्त में भी। काम की अधिकता के अनुपात में पैसे बढ़कर नहीं मिलते थे और किसी पार्टी की सरकार आ जाये स्थितियां बदलने का नाम नहीं लेतीं थीं। किसी की मजाल न थी की महंगाई के गले में घंटी बांधता ?” गले में घंटी बांधना”, उसे ये मुहावरा बचपन से बहुत पसंद था। यही बिल्ली के गले में घंटी बांधने वाला। ज़रूर बहुत सारे चूहों ने मिलकर यह मुहावरा गढ़ा होगा। यह सोच जाने क्यूँ वह हंसने लगा।

उसे हँसते देख उसके बच्चों और उसकी पत्नी की आँखें भीगने लगीं। उसे उनका व्यहवार अजीब लगा। लगता है पत्नी के घटिया गंडा ताबीज देने वाले बाबाओं ने किसी बुरे समय के आने की कोई पूर्वसूचना दे दी है उन्हें। तभी मन ही मन ये सब बहुत सारी बातों की चिंता कर रहे हैं। उसने सोचा उसे अपने ही घर में अपने ही लोगों से कैसा व्यहवार करना चहिये यह वह भूल गया है शायद इसीलिए उसका परिवार उसे समझ नहीं पा रहा है। यह ठीक नहीं है। उसे फिर से शरुआत करनी चाहिए और कटे फटे जोड़ों को पैबस्त करना चाहिए।

उसने टेबल समेटती अपनी पत्नी को कहा, आज मैं सोफे पर सो जाता हूँ। तुम बिस्तर पर आराम से सोना। इस पर पत्नी के हाथ से बर्तन गिर गए।

अब और कितनी दूर जाओगे?

अरे। वह तो पास आने की जुगत भिड़ा रहा है और ये यहाँ उसे।।

बेटी ने आकर धीरे से उसे कहा, पापा आप हमे छोड़ के कहीं मत जाना। आज डाक्टर अंकल का फ़ोन आया था। हम सब समझते हैं। हम आपके साथ हैं।

हैं? कौन से डाक्टर? उसके दिल की धड़कन बढ़ने लगी।

सुनील चाचा।

ओह हो।। उसने राहत से सांस ली। यह तो उसके दोस्त गुप्ता वाला होम्योपैथिक डाक्टर है। एलोपेथी के साथ वह यह भी ट्राई कर रहा है गुप्ता के कहने पर, हालाँकि उसका इसमें बहुत विश्वाश नहीं। दो चार मीठी गोली खाने से फायदा हो न हो नुक्सान तो कुछ हो ही नहीं सकता था। गुप्ता के तर्कों के आगे वह झुक गया था।

क्या बोल रहा था सुनील?

कुछ खास नहीं पापा, बस यही की हमें आपका ख्याल रखना चाहिए।

वह कुछ कहता उसके पहले ही, उसका मोबाइल बज उठा। उसने देखा उसके ब्रांच मनेजेर का फ़ोन था। उफ़ !!!!! उसने अपनी सांस घोंटी और गालियों के लिए तैयार हो गया। जैसे सर झुकाए आका के सामने गुलाम।

कपूर कुछ दिनों की छुट्टी ले लो। तुम्हे आराम की ज़रूरत है।

उसे लगा उसे चक्कर आ जायेगा, बॉस उससे इतने मीठे टोन में कैसे बात कर रहा था?

उसने घरघराती आवाज़ में कहा, नहीं सर मैं ठीक हूँ, डाक्टर कहता है कुछ नहीं हुआ है मुझे। मैं जल्द कानपूर वाले प्रोजेक्ट का काम निपटाता हूँ।

मैं समझता हूँ कपूर, सब समझता हूँ, बोल फ़ोन काट दिया बॉस ने। वह कुर्सी का हथ्हा पकड़ बड़ी मुश्किल से बैठा। उसे बास की सेक्रेटरी याद आई, सुप्रिया। सुन्दर नाज़ुक कमसिन। एक बार बिना दरवाज़ा खटखटाए वह बॉस के कमरे में घुस गया था, तो एक जोर की चीख के साथ सुप्रिया बॉस की चमकदार टेबल के नीचे से एकदम से नमूंदार हुई थी। सुप्रिया की हालत अस्त व्यस्त थी। उसने चिल्लाते हुए टेबल के नीचे इशारा किया था। चूहा है, टेबल के नीचे चूहा है। बॉस ने उसे नशीली आँखों से सिर्फ ताका था, और वह कुछ नहीं बोल पाया था। चुपचाप कमरे से बाहर निकल आया था। इस घटना के चश्मदीद, वे तीन ..., नाज़ुक सुप्रिया, उसका तेज़ तर्रार बॉस और वह खुद, सारी बातों को घोल कर पी गए थे और दफ्तर में दिन ठीक ठाक से ही गुजर रहे थे।

इतना सब कुछ सोचते सोचते जाने कितना वक्त गुज़र गया। वह एकदम झटके से होश में आया। लगता है उसे झपकी आ गयी थी वहीँ सोफे पर बैठे बैठे। घर की बत्तियां बंद थीं। बस कंप्यूटर टेबल से से कुछ रौशनी आ रही थी। उसने आँख सिकोड़ कर देखा उसका बेटा कंप्यूटर पर कुछ आकृतिओं को माउस की मदद से नचा रहा था। कंप्यूटर की रौशनी से उसे चिढ़ थी, लेकिन बेटे को देख उसने हिम्मत की, झिझकते हुए उठा और बेटे के नजदीक गया।

ये क्या है ?

बेटा थोड़ा चौंका पर डरा नहीं। बेटे को भी डाक्टर ने समझाया था कि पापा को खुश रखो। आज ही। बहन और माँ भी यह समझ रहे थे। उसने बहुत प्यार से पापा का हाथ पकड़ा और बगल की कुर्सी पर बिठा लिया। फिर उनके हाथ में माउस दे कर बोला, पापा, जिस कंपनी में मेरा सिलेक्शन हुआ है उसने ये गेम डिजाईन किया है। आइये सिखाता हूँ। देखिये ये जो लोग हैं ये सब एक दूसरे ग्रह पर जाना चाहते हैं। और ये सारे हर्डअल्स हैं इन्हें पार करके ही मंजिल मिलेगी। इन् लोगों को हम कण्ट्रोल करेंगे और सबको नहीं पहुँचने देंगे इस ग्रह पर।

अच्छा?????

उसके अन्दर कंप्यूटर सम्बंधित सारी चीज़ों से चिढ़ के बावजूद एक क्षणिक रोमांच भर गया। लेकीन उसे गृह का लाल रंग का होना अखर गया उसने पूछना भी चाह इस बारे में, इस ग्रह का रंग लाल क्यूँ है, लेकिन उसने पूछा नहीं और देर तक चुप बना रहा और माउस घुमाता रहा।

पापा बचिए, कण्ट्रोल दबाइए दूसरों को हराना है, ग्रह पर पहुंचना है। बेटा उतेजना में बोला।

हाँ ! हाँ हाँ ...उसे पसीना छूटने लगा, वह एक सड़े से गेम में भी पिछड़ने लगा था।

उसे अब जाने क्यूँ लगने लगा उस ग्रह पर उसका पहुंचना नामुमकिन है। वह हलके-हलके कांपने लगा। उसके हाथ का माउस उसके अन्दर घुस कर उसे ही कुतरने लग और उसे भी एक थके हारे चूहे की शक्ल में ढलने लगा। फिर उसे लगा स्क्रीन पर तरह-तरह की शक्लों वाले चूहे भर गए हैं और वे सारे चूहे मंजिल पार करते जा रहे हैं और वह बहुत पीछे छूटता जा रहा है। ऐसी हार नाकाबिले बर्दाशत थी। उसकी सांस बंद होने लगी। उसके हाथ से माउस अचानक छूटा और उसका सर टेबल पर धड़ाम से गिरा।।

घर में इस गिरने की आवाज़ भयानक रूप से गूंजी। पत्नी और बेटी दौड़े चले आये।

तीनों ने मिलकर कपूर को सोफे पर लिटाया। बेटे ने पापा के दिल पर अपने कान रखे। बेटी ने तलवों की मालिश की। पत्नी ने इंतज़ार किया, एक गहरा और तयशुदा इंतज़ार।

और जब कपूर के खर्राटों की आवाज़ नॉएडा के उस दो बेडरूम फ्लैट की दीवारें चीरने लगीं तो कपूर परिवार ने घर में अनावश्यक जल रहे बिजली के स्विच ऑफ किये, गैस के नॉब दुबारा चेक किये, एक-एक गिलास पानी पिया और जाकर अपने-अपने बिस्तर पर सो गए।

सुबह सबको अपने-अपने काम पर जाना था।


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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