घर के लोगों द्वारा किए गये बलात्कार में मदिरा की भूमिका नगण्य होती है - कृष्ण बिहारी

समय से बात 


"निकट" ने 22 जून 2013 को अपने सात वर्ष पूरे किए. पत्रिका को बहुत स्नेह मिला. बहुत आलोचना हुई. राजेन्द्र यादव ने 'हंस' जनवरी 2011 का सम्पादकीय ही 'निकट' पर केन्द्रित किया. उनके पास कई सवाल थे. खासतौर पर उनका सवाल था कि 'निकट' में खास क्या है ? इसका ज़वाब तो मैं उन्हें आज भी नहीं दे सकता मगर इतना जरूर कहना चाहूंगा कि धीरे-धीरे ही सही. मैं पत्रिका को रास्ते पर ला रहा हूं और एक दिन बता सकूंगा कि इसमें खास क्या है. अब इस अंक के बारे में. तो मित्रो. इसका खयाल सात आठ महीने पहले अचानक आया कि पत्रिकाएं 'युवा लेखन'. ' नव लेखन' और भी इसी तरह के अंक निकालती आई हैं. क्यों न ऐसा अंक निकाला जाए जिससे आज के रचनाकारों को अपने ही समय में होते हुए परिवतन का पता चले. यह एक संयोग ही है कि आज लगभग पांच पीढ़ियां एक साथ रचनाकर्म में लगी हुई हैं. 1945-47 के समय की भाषा कैसी थी. मुहावरे क्या थे. कथानक क्या था. शिल्प कैसा था. प्रयोग और ट्रीटमेण्ट क्या था ? और फिर एक लम्बे समय के बीच कैसे-कैसे बदलाव. घुमाव और मोड़ आए कि कथा साहित्य अपनी राहें बदलता रहा. साथ ही यह भी कि किसी ने रचनाकार होने की जहमत क्यों और किन परिस्थितियों में की ? यह उत्सुकता बढ़ती गई और एक योजना ने आकार ले लिया. मुझे यह भी लगा कि सीखने के लिए कोई उम्र नहीं होती और सीखना भी ज़िन्दगी भर चलता रहता है. जो सीखने से गुरेज़ या परहेज करते हैं वे समय से पहले ख़त्म हो जाते हैं. योजना को मित्रों. सहयोगियों और शुभचिन्तकों के बीच शेयर किया और बात आगे बढ़ी. इस अंक के लिए राकेश बिहारी ने मेरी ओर से सभी प्रयास किए हैं इसलिए यह दायित्व भी उनका ही बनता है कि इन कहानियों पर अपनी बात कहें. हां. अंक आने से पहले ही चर्चा में आ गया है और इस चर्चा-कुचर्चा का ज़वाब मैं अगले अंक 'पहली कहानी : भाग 2' में दूंगा. फिलहाल. मैं 'समय से बात' करना चाहता हूं...

     देश और दुनिया में हर दिन बहुत कुछ घट रहा है. घटनाएं इतनी तीव्र गति से घट रही हैं कि हर घटना मात्र सूचना बनकर ख़त्म हो रही है. विमर्श भी दम तोड़ रहे हैं. जीवन की जिस क्षण भंगुरता की बात संत महात्मा करते आए हैं वह आज हर घटना के साथ सच होती दिख रही है. मनुष्य का होना न होना. दोनों स्थितियां प्रश्नों के घेरे में खड़ी हैं. मनुष्य का न होना तो समझ में आता है. लेकिन होते हुए भी समाज में अनुपस्थित होना चिन्ता का विषय है. यह आत्मकेन्द्रित जीवन की जो उत्तर आधुनिकता है वही मुझ जैसे लोगों को परेशान कर रही है. बहुसंख्य लोग या तो इस स्थिति से असम्पृक्त हैं या फिर इसमें मजा ले रहे हैं. दो साल पहले दिल्ली में किसी आटो के पीछे लिखा देखा कि यदि आपका पड़ोसी दुख में है और आपको नीद आ जाती है तो अगला नम्बर आपका है. क्या हम सब केवल अपना नम्बर आने पर ही जगेंगे ? और यदि जगे भी तो कितने अकेले होंगे ? दूर से तमाशा देखना या तटस्थ होकर निकल जाना या फिर बिना देखे गुज़र जाना किन हालात की ओर इशारा करता है ? दो-तीन बार मैंने सड़क पर भयावह दुर्घटनाएं देखी हैं. मैं अपनी कार रोककर घायलों के पास तक गया हूं. उनकी मदद की है लेकिन एक बार जो भयावह दृश्य देखा जिसमें कार चालक की खोपड़ी सिर्फ. मकड़ी का जाला भर रह गई थी तो हिम्मत ज़वाब दे गई और उसके बाद न जाने कितनी बार सामने सड़क पर दुर्घटना होते देखा लेकिन दुर्घटनाग्रस्त वाहन या उसमें घायल के पास जाने का साहस नहीं हुआ. कहीं हम सबके साथ ऐसा ही तो नहीं हुआ कि किसी घटना ने हमें इस तरह डरा दिया कि हमने आंखें बन्द करके उसे न देखने का एक तरीका पा लिया. अत्याचार. अनाचार और भ्रष्टाचार के बेहयाई वृक्षों के फलने-फूलने की जड़ में हमारा न देखना खाद-पानी का काम कर रहा है. क्या हम इसे महसूस कर रहे हैं ? या केवल अपना नम्बर आने पर ही हमारी नीद टूट रही है? पिछले वर्ष अन्ना हजारे के साथ जो जनांदोलन खड़ा हुआ वह क्या क्षण भंगुर जनोन्माद था ? कहां गए वे लोग जो समग्र परिवतन की एक लहर को ला पाने की कोशिश में जयप्रकाशनारायण के साथ कभी एक साथ दिखे थे? मुझे लगता है कि सत्ता और अस्पृश्य धन की ताकत ने सबको भयाक्रांत करके तोड़ दिया और फिर वही ढाक के तीन पात वाली यथास्थिति समाज की स्थायी तकदीर होकर रह गई. निराशा के इस प्रसार की जड़ में हमारा भय ही हमें हर नए रास्ते पर चलने से बलपूर्वक रोक रहा है इसके उलट एक दूसरी स्थिति भी है. दस प्रतिशत लोगों ने देश को मनमाने ढंग से बंधक बना लिया है. अपनी अराजकता से इन लोगों ने राजनीति. अफसर शाही. व्यापार. आर्थिक क्षेत्र और अपराध पर संगठित रूप से कब्ज़ा कर रखा है. इन्हें किसी का डर नहीं है. कानून इनका दास है या फिर वह खिलौना जिसे ये जैसा चाहें उस ढंग से उससे खेल रहे हैं. इनकी सीनाजोरी. दादागिरी. हरामखोरी और गुण्डागर्दी के सामने आम आदमी हर तरह से बेबस है. नब्बे प्रतिशत चुप और नज़रें बन्द किए लोगों की वज़ह से देश आज दुर्गति की दशा को प्राप्त है …

     पिछले दिनों देश के सभी टी वी चैनेल बलात्कार की ख़बरों से अटे रहे. यूं लगने लगा कि इसके अलावा कहीं कुछ और नहीं हो रहा. टी वी पर न्यूज़ देखने से भी मन घबराने लगा. परिवार के साथ बैठकर तो टी वी देखना वैसे भी कम होता गया है. इतने घटिया ढंग से पिक्चराइज विज्ञापन आते हैं कि उन्हें अकेले में देखना भी असह्य है. बलात्कार तो एक अपराध है. इसके बावजूद यह दुनिया भर में घटता है. किसी नेता का यह कहना कि आपको दिल्ली का दिखाई देता है. मध्यप्रदेश का नहीं. यह बयान वैसा ही है कि आप करेंगे तो हम भी करेंगे. बलात्कार उन देशों में भी हो रहा है जहां बहुत कठोर कानून हैं. अन्तर इतना है कि जहां कठोर कानून हैं वहां इस घटना का प्रतिशत कम है. हमारे देश में कानून तो है लेकिन उसका डर अपराधियों को इसलिए नहीं है क्योंकि उन्हें पता है कि कुछ होना नहीं है. जब बड़े और प्रभावशाली लोग बच जा रहे हैं तो उनका भी कुछ नहीं होगा. यह धारणा बलवती होती जा रही है. इन घटनाओं को लेकर तरह-तरह के बयान भी आए हैं. किसी ने कहा कि ऐसी घटनाएं तो होती रहती हैं. किसी ने कहा कि लड़कियां अपने पहनावे पर ध्यान रखें तो किसी ने कहा कि मांस-मदिरा का सेवन रोका जाए. मेरा कहना है कि घृणित घटनाओं को होते रहने के तर्क पर होने दिया जाए यह अस्वीकार्य है. लड़कियां कैसे कपड़े पहनें. यह उनपर छोड़ा जाए. हर संस्था और संस्थान का एक ड्रेस कोड होता है. वह अनिवार्य है. अब इसके बाद अगर कोई बिना कपड़ों या कम कपड़ों में सार्वजनिक स्थान पर अपनी प्रदर्शनी लगाने पर तुला है तो उसे यह हक़ नहीं है कि वह घूरे जाने को अपने ख़िलाफ माने और एफ आई आर कराए. जो चाहता है कि लोग उसे जरूर देखें तो उसे देखे जाने की शिकायत नहीं करनी चाहिए. शालीन पहनावे की अपनी गरिमा होती है इससे इनकार नहीं किया जा सकता. हम खुद सोचें कि अपनी बेटी. बहन और बीवी को किन कपड़ों में अपने साथ लेकर सार्वजनिक स्थानों पर जा सकते हैं. अब बात मदिरा की. तो. मदिरा का सेवन बहुत से देशों में आम है और बहुत से देशों में मदिरा पर प्रतिबंध है लेकिन बलात्कार का प्रतिशत वहां हिन्दुस्तान से कम है. यह सच है कि मदिरा उद्दीपन का काम करती है लेकिन मदिरा सेवन के बाद लोग अपनी बेटी और बहन को न पहचानें. ऐसा तो होता नहीं. प्राय: घर के लोगों द्वारा किए गये बलात्कार में मदिरा की भूमिका नगण्य होती है. बलात्कार के अधिसंख्य मामलों में दोषी व्यक्ति रिश्तों से जुड़ा हुआ होता है. अधिकतर मामलों में रिश्ते का जिक्र ही शर्मसार कर देता है इसलिए ऐसे मामले या तो उजागर नहीं होते या केवल दबी ज़बान से चर्चा में रहते हैं. या फिर पीड़ित या पीड़िता चुप रहते हुए इस स्थिति को सहने के लिए अभिशप्त होते हैं. यह ऐसी पीड़ा है जिसे अभिव्यक्त करने के लिए कम से कम कुप्रभावित के पास तो शब्द नहीं हैं. कामातुराणां भयं न लज्जा. बिना सहमति के केवल अपनी तृप्ति के लिए किसी से दैहिक सम्बन्ध बनाना और वह भी पीड़ा पहुंचाते हुए. एक जघन्य अपराध है. इस मामले का दुखद पहलू यह है कि जब बलात्कारी और बलत्कृत करीबी रिश्तों में होते हैं या बलत्कृत मासूम है तो उसकी हत्या होने की आशंका बढ़ जाती है. बलात्कारी तो अपनी मानसिक अवस्था की उस रौ में होता है जहां वह भय और लज्जा से तबतक परे है जबतक वह अपनी वासनापूर्ति नहीं कर लेता. तब तक होश में नहीं होता. और. होश आने पर उसके सामने यह डर होता है कि उसका अपराध जर्ग ज़ाहिर हो जाएगा तो उसके सामने हत्या ही विकल्प होता है. आत्महत्या की बात तो वह सभी दरवाजे बन्द होने के बाद सोचता है. बलात्कार से केवल एक ज़िन्दगी ही बरबाद नहीं होती. बलत्कृत से जुड़े सभी व्यक्ति अपमान के शिकार होते हैं जबकि इस कृत्य में उनका योगदान नहीं होता. स्थिति इतनी बदतर हो गई है कि मनुष्य का मनुष्य पर विश्वास उठ गया है. किसके भरोसे कोई किसी को छोड़े ? विशेषरूप से बच्चों को तो किसी के भी भरोसे छोड़ना कतई सुरक्षित नहीं रहा. सबसे ज़्यादा पीड़ितों में बच्चे ही हैं. अबोध के साथ तो यह सम्बन्ध किसी भी दृष्टि से सहनीय नहीं है इसलिए मैं इसे क्रूरतम अपराध मानता हूं. कैसे इसे कम किया जाए ? मेरा सोचना है कि बलात्कार की घटनाएं यदि पूरी तरह से ख़त्म नहीं हो सकतीं तो कम ज़रूर हो सकती हैं. वेश्यावृत्ति को एक सम्मानजनक पेशा कुबूल किया जाए. हिन्दुस्तान में इसे जगह दिए जाने की ज़रूरत है. हर शहर में अवैध तरीके से चलने वाले इस व्यवसाय को वैध ढंग से लागू करने की आवश्यकता है. वेश्याएं अपना धंधा करने के लिए स्वतंत्र हों और ग्राहक अपनी औकात के हिसाब से उन जगहों पर बिना किसी परेशानी के जा सकें. यदि वेश्याएं स्वतंत्र होंगी तो न तो उनका शोषण होगा और न उनके पास जाने वालों को किसी अपमानजनक स्थिति से दो-चार होना पड़ेगा. हर तरह की आवश्यकता वाले लोग बेरोक-टोक जा सकेंगे और तब कम से कम वह तनाव तो दिमाग में नहीं रहेगा जिससे कोई अपराधी या असामाजिक कहलाता है ध्यान यह भी रखना होगा कि वेश्यागामी को भी सामाजिक निन्दा का शिकार न बनाया जाए. लेकिन क्या मेरा यह सुझाव दोगले और दोमुंहे समाज में स्वीकार्य होगा ? दुनिया के कई विकसित देशों में वेश्यावृत्ति को लाइसेंस मिला हुआ है उनकी शारीरिक जांच होती है. मेडिकल हिस्ट्री होती है और धन्धे से सम्बन्धित ख़तरों के प्रति उन्हें सचेत किया जाता है. वे प्रोफेशनल वेश्याएं होती हैं और ग्राहक की ज़रूरत जानती हैं. जिस तरह किसी भी पेशे को अपनाया व्यक्ति समाज में सम्मानित ज़िन्दगी जीता है और लोग उससे सम्बन्धित सेवाएं प्राप्त करते हैं उसी तरह वेश्या को भी कामकाजी होने का दर्जा मिलना चाहिए ड़र है कि यदि ऐसा करने की कोशिश की गई तो यही समाज नैतिकता की दुहाई देते हुए विरोध में उठ खड़ा होगा और अपनी यथास्थिति को ढोएगा. बलात्कारी को क्या सज़ा मिलनी चाहिए ? यह प्रश्न भी बहस का मुद्दा बना हुआ है. मानवाधिकार का ढोल बजाने वाले उसके लिए सज़ा में मानवीय दृष्टिकोण अपनाने की आवाज़ उठाते हैं जो कहीं से भी मानव नहीं है. जब किसी का कृत्य मानवीय नहीं है तो उसकी सज़ा पर क्यों मानवीय हुआ जाए? बलात्कार की सज़ा फांसी के अलावा और कोई नहीं हो सकती. जिस 16 दिसम्बर की घटना के बारे में इतना हल्ला था कि फैसला बस अब आया कि तब आया उसका फैसला क्या इक्कीसवीं सदी में आ पाएगा ? मैं विस्मृत हो गई 'दामिनी' की बात कर रहा था...

     उतराखण्ड में जो कुछ 16 जून की रात और 17 की सुबह हुआ उसे जल प्रलय के अलावा क्या कहूं ? एक दुनिया उजड़ गई है. मेरे मित्र अपूर्व जोशी का एक आलेख 26 जून को जनसत्ता में प्रकाशित हुआ है जो इस पूरी आपदा के आगत और विगत पर बहुत कुछ कहता है. मैं वह आलेख इस अंक में दे रहा हूं :

     राजेन्द्र दुबे.... .. क्या याद करूं. क्या भूलूं ? मैं किशोरावस्था में था और लिखने का भूत सिर पर सवार. डॉ. रमेश शर्मा ने मुझे दैनिक जागरण का पता बताया कि वहां जाकर अपनी कहानियां दूं. ज़रूर छपेंगी. जब वहां गया तो दैनिक जागरण का साप्ताहिक परिशिष्ट आदरणीय विष्णु त्रिपाठी देखते थे. उन्होंने मेरी कहानी प्रकाशित की. उनके जागरण संस्थान छोड़ने के बाद श्री विजय किशोर 'मानव' ने वह कुर्सी संभाली और मुझे बहुत सम्मान से प्रकाशित किया. 'मानव' जी जब हिन्दुस्तान टाइम्स में चले गए तब राजेन्द्र दुबे ने साहित्यिक परिशिष्ट देखना शुरू किया. उन्होंने मुझे स्नेह के साथ अपना बना लिया. उन्होंने मुझसे कहा कि मैं अध्यापक का जीवन जीते हुए जिन बच्चों के साथ जीता- मरता हूं उन्हें अपनी कहानियों का नायक बनाऊं. फिर तो मैंने एक के बाद एक कहानियां बच्चों को नायक बनाकर लिखीं और दुबे जी ने उन्हें दैनिक जागरण के साप्ताहिक परिशिष्ट के अलावा 'संगिनी' में प्रकाशित किया. बाईस कहानियां. उनमें से कई कहानियां पूरे पृष्ठ पर हैं. उनके समय में कहानी के लिए कोई शब्द सीमा तय नहीं थी. हर साल उनसे दैनिक जागरण कार्यालय में दो तीन बार मिलना हो जाता था. गत् वर्ष जब मैं अवकाश में भारत गया तो पता चला कि दुबे जी अस्वस्थ हैं और रीजेंसी में भर्ती हैं. राजेन्द्र राव साहब और अमरीक सिंह दीप के साथ मैं रीजेंसी गया. बातें हुईं. देखकर लगा कि अस्वस्थ हैं मगर विश्वास था कि जल्द स्वस्थ हो जाएंगे. यह कहां मालूम था कि वही अंतिम मुलाकात है. कुछ दिन पहले राजेन्द्र राव साहब ने सूचना दी कि दुबे जी नहीं रहे. कहते हैं कि कुछ ऋण कभी नहीं उतरते और मैं दुबे जी का कर्ज़दार रहना चाहता हूं. एक प्रणाम के साथ. मैंने पहले भी लिखा है और आज फिर दुहराना चाहता हूं कि मेरे निर्माण की प्रक्रिया में जो लोग सचमुच महत्त्वपूर्ण रहे हैं उनमें दुबे जी का स्थान प्रमुख है. जागरण संस्थान के साथ उनका सम्पर्क लगभग चालीस वर्षों का रहा... विनम्र... मृदुल... सहयोगी... सरल... आज के युग में ऐसा व्यक्तित्व क्या कहीं मिलेगा ? ' निकट ' परिवार की ओर से इस अद्भुत् व्यक्तित्व को मेरी कृतज्ञता के हर शब्द समर्पित...

आपका
कृष्ण बिहारी
8 जुलाई 2013

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2 टिप्पणियाँ

  1. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  2. आदरणीय भरत जी आपका बहुत आभार जो इस महत्वपूर्ण हिंदी पत्रिका से रूबरू कराया।
    सादर

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