कवितायेँ : विजया कान्डपाल | Poetry : Vijaya Kandpal

कवितायेँ : विजया कान्डपाल

  देहरादून में जन्मीं स्वतंत्र पत्रकार विजया कान्डपाल अंग्रेज़ी व हिन्दी में लिखती हैं, इनकी रचनायें हिन्दी व अंग्रेज़ी में प्रकाशित हो चुकी हैं।मुंबई में रहने वाली विजया सॉफ्ट स्किल्स पढ़ातीं हैं। विजया ने सॅंटियागो विल्लाफनिया, फिलिपीन्स के नामी कवि की अंग्रेज़ी कविता की पुस्तक ' मूर्तामी' का हिन्दी में ' प्रेमांजलि' नाम से अनुवाद किया है। इसके अलावा 'राइटर्स इंटरनॅशनल नेटवर्क' कनाडा के अध्यक्ष, अशोक भार्गव की करीब २५ रचनाओं का अनुवाद किया है । ऑरेंज काउंटी की भूतपूर्व संपादक, कवियत्री, अनुवादक और साहित्यिक आलोचक, ऊटी मार्गरेट सेन, की  करीब १२ रचनाओं का अनुवाद किया है। साथ ही प्रसिद्ध हंगरी के कवि, बालाज़ अटिला की करीब बारह रचनाओं का अनुवाद, इटली के कवि, मूर्तिकार, लेखक, मारीओ रिज़्ली की दस कविताओं का अनुवाद, डॅनी कास्तिल्लोनेस सिल्लादा, फिलिपिनी कवि, आलोचक, संगीतकार की कविताओं का अनुवाद 'अभिनव कदम' में प्रकाशित हुआ है।
विजया की लघु कथायें 'चंदामामा' में प्रकाशित हुई हैं।
आइये विजया का शब्दांकन पर स्वागत करें और उनकी कविताओं का रसस्वादन करें। 

जुड़ाव


इस शाख से गिरा जो भी पत्ता,
हरा हो या सूखा  मेरा था,
वो बूढा बरगद मेरा था।
कल शाम से ही कुछ उम्स हुई, दिल उठ बैठा कर याद उसे,
उसका साया घनेरा था
वो बूढा बरगद मेरा था।

मैंने सपनो में बचपन में,
खेल में अकेले में,
उसे ही आकर घेरा था,
वो बूढा बरगद मेरा था।
जब मीत मिला परिहास किया, प्रेम किया उपहास किया,
उसकी झूलती लताओं में रस में डूबे और खेल लिया,
जीवन की हर उस आंधी को मैंने उसके ही संग झेला था,
वो बूढा बरगद मेरा था।

मेरा आँगन खुशियों से खिला,
कलियाँ खिलीं नन्ही नन्ही,
गुलाबी कोमल पंखुड़ियों वाली,
नन्ही पायल की छन छन का स्वर,
और बरगद की छांव का फेरा था,
वो बूढा बरगद मेरा था।

मेरी हाथों की लकीरों को पढ़,
माथे की पंक्तियों को अनुकरण कर,
जब सबने मुह फेरा था,
तब बूढ़े बरगद के नीचे जाकर ही मैंने अपना आंचल निचोड़ा था,
वो बूढा बरगद मेरा था।

अब जब भी कुम्ल्हायी सी में,
अपने आँगन की कुर्सी पर,
बैठती हूँ थोड़ी देर भर,
तब देखकर ऊँची ऊँची अट्टालिकाएं,
हृदय रुदन से भर उठता है,
क्यूंकि टूटा मेरा सपना सुनेहरा था,
वो बूढा बरगद मेरा था।


तुम्हारे लिए  

(गुलज़ार साब के जन्मदिन पर)

तुम्हारी बसंती कवितायेँ
और पतझड़  सी नज्में
चूमती हैं मेरी अकेली सुबह
और अकेली शामें

एक कप चाय पीते हैं रोज़ अकेलेपन में
डूबे डूबे से हम
और फिर शोर भरी सड़कों पर
धीमी कर लेते हैं आवाज़

सफ़ेद कलम होगी तुम्हारी शायद
और स्याही का रंग ढूंढ नहीं पायी मैं
अब तक
उस चश्मे के पार दो आँखें कितने मेगापिक्सेल
कैमरे से देखती हैं ?
दफन सांस लेते लोग और ठंडी सफ़ेद चादरों पर
पनपता प्रेम
बेनाम फूलों सी तुम्हारी कवितायेँ महकती  हैं
मिट्टी  सी
तुम गा लेते हो उन सब दिलों को जो
दिल की मेज़ पर सजाये रहते हैं यादों के फ्रेम
पढ़ लेते हो उन्हें मीलों दूर बैठे
और उकेर देते हो उनकी कहानी
आसमान पर, पानी में, गीली हंसी में
गुलज़ार।

इस खोते -खॊते पल में मैं
तुम्हारे शब्दों को छू लेती हूँ
और छू  लेती हूँ ज़िन्दगी
तोहफे में सोचती हूँ
दे दूँ आज
चमकीले पत्तों की नमी
गीली आँखों के फुरसत से भरे पल
प्रेम की बेदमी
और कई सारे हाथ, आँखें
एहसास और दर्दों का पुलिंदा।
मुझे यकीन है के तुम्हारी
दिल की डायरी मुस्करा जाएगी
और परदे के पीछे से कहेगी
'शाम से आँख में नमी सी है'


धानों की बालियाँ

चमकती धान की बालियाँ
जब बनेंगी हमारी दीवारें
और फूस बिछ जाएगी
हमारी संवेदनाओं को सँभालने के लिए
तब चाँद का पर्दा हटाकर
सूरज झांकेगा
पढने के लिए श्रृंगार।

तुम्हारी संवेदनाएं उतर पड़ेंगी नसों में मेरी
और हम बन उठेंगे
जब तुम तरशोगे अपनी सी कोई
देह पर मेरी उँगलियों से अपनी
तब में गढ़ुंगी तुम में खुद को

निष्पाप से, निश्छल  मन लिए
अपनी पवित्र आत्माओं  में समाहित होते
एक दूसरे  में खुद को पिरोते
क्षण क्षण, सांस -सांस

मैं बुनुंगी तुम्हारे लिए होंठों से एक प्रेम का बिछोना
और तुम फूँक दोगे स्वरचित प्रेम राग
आत्मा में मेरी।


काश के तुम आ जाओ


दिल कहता है कि काश तुम आ जाओ
इस कोरी रात में
मेरी तनहाइयों की उबासियाँ बांटने
बांटने कोरे गीत, कोरी थकान

दिल कहता है के तुम आ जाओ
जैसे प्रेम की पहली मुस्कान
आ जाओ बच्चे की पहली किलकारी से
बेमतलब, बेसबब
आ जाओ यूँ ही देखने के
कैसी लगती हूँ में अब ?
कैसे लेती हूँ तुम्हारा नाम ?
पता नहीं कितनी झुर्रियां
हमने बाँट ली हैं साथ?

काश के तुम आ जाओ
देखने के कितने फूल उग आये हैं
उस कच्चे रस्ते पर
जहाँ तुम आना पक्का कर गए थे।
आ जाओ देखने मेरा घर
जहाँ तुम्हारे नाम की कोई चीज़ नहीं
मेरे अलावा।
आओ देखने चमकती रोशनियाँ आँगन में मेरे
और अँधेरे बांटने आ जाओ भीतर नाचते

तुम्हारी पलक जो अब मेरे पसंदीदा रंग की हो गयी होगी
उनमें पढना चाहती हूँ अपनी यादों की नमियां

और वो कई साल जब तुमने मुझे पुकारा होगा

क्या चश्मा पहने हो तुम अब ?
शायद देख पो अब मुझे ठीक से
अब मुझे खाना पकाना अच्छा नहीं लगता
तुम सीख पाए कुछ पकाना ?
जब कभी टेलीफोन खराब हो जाता था
सोचती थी के तुम आ जाओगे।।

तुम्हारे ख्याल जैसे गुनगुने पानी में
थक चुके पैर
और यादें है मासिक धर्म सी
अब आ भी जाओ
गुलाब चुन रखे हैं मैंने
पीले
तुम ले जाओ
अपनी हरी वर्दी की जेब पर लगाना
और ले जाओ वो चिट्ठियाँ भी
जो मैंने कई बार भेजीं
पर लौट आयीं।


विजया कान्डपाल
मुंबई
संपर्क vijaya_kandpal@yahoo.com

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

ये पढ़ी हैं आपने?

Hindi Story: 'शतरंज के खिलाड़ी' — मुंशी प्रेमचंद की हिन्दी कहानी
आज का नीरो: राजेंद्र राजन की चार कविताएं
भारतीय उपक्रमी महिला — आरिफा जान | श्वेता यादव की रिपोर्ट | Indian Women Entrepreneur - Arifa Jan
Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
मैत्रेयी पुष्पा की कहानियाँ — 'पगला गई है भागवती!...'
Harvard, Columbia, Yale, Stanford, Tufts and other US university student & alumni STATEMENT ON POLICE BRUTALITY ON UNIVERSITY CAMPUSES
तू तौ वहां रह्यौ ऐ, कहानी सुनाय सकै जामिआ की — अशोक चक्रधर | #जामिया
गिरिराज किशोर : स्मृतियां और अवदान — रवीन्द्र त्रिपाठी
कोरोना से पहले भी संक्रामक बीमारी से जूझी है ब्रिटिश दिल्ली —  नलिन चौहान
ईदगाह: मुंशी प्रेमचंद की अमर कहानी | Idgah by Munshi Premchand for Eid 2025