जयप्रकाश फकीर (फकीर जय) की 'करेजा' व अन्य कवितायेँ | Poetry: Jayprakash Faqir (faqir Jay)


जयप्रकाश फकीर

बी टेक, एम टेक, एम ए
सम्प्रति : भारत सरकार में उच्चाधिकारी
संपर्क : non_conformist_jay@yahoo.com



चाँद की तस्वीर

वह शायर दक्कनी का कहे था -
हैं तिरे नैन ग़िज़ाला से कहूंगा.
किताबें हैं चेहरों की,
शोर है चार सूँ अल्फाज़ की
तस्वीरें,रंग, आवाजें नवीद की।
इब्ने मरयम होने की तमन्ना तर्क़ की,
अब अक्सर उदास रहता हूँ,
ज़ादू
तेरे शानों पे जुल्फों की तरह
बिखर गया है।
चाँद है या तेरी तस्वीर टाँग दी है
शब ने उफ़क पे।
बंद हैं तेरी पलकों की तरह
इशरत के दरवाजे।
ग़िजाला !
मैं हूँ भी
नहीं भी हूँ।
तुम सिर्फ़ नहीं हो!


छूना

खुदा का दिया सब कुछ है।
अगर कुछ नहीं भी है तो ,
आज जुम्मे की नमाज के बाद
दुआ में माँग आया हूँ।
जिसे पा ना सका ,
वह ऐ भोली पवित्र प्रेयसी,
खुदा नहीं दे सकता
तुम्हीं से मांगता हूँ..तुम्हीं से..
तुम्हीं दे सकती हो..वह..
तुम्हारे ही हैं हाथ
पाँव..ये जबीं..ये कान की लौ..
खुदा निराकार है..
मैं तुझे छूना चाहता हूँ...छूना..




अच्छा लगता है 


तुम कहो न कहो ,
फिर भी तुम्हें सुनता रहता हूँ ।
तो भी कहना ।
अनुनासिक स्वर में अपने रहना ।
अच्छा लगता है ।
तुम सुनो न सुनो
फिर भी बोलता रहता हूँ ,
व्याकरण पतित हिंदी मै ,भोजपुरिया ।
तो भी समझना  ,
अच्छा लगता है ।
तुम प्यार करो न करो
फिर भी तुम्हे प्यार करता हूँ ।
बेवकूफ भोले चरवाहे की तरह ।।
तो भी मुझे प्यार करना ,
अच्छा लगता है ।

गिज़ाला !!!
मै गोरख पाण्डेय नहीं हूँ ,
मगर मेरी मासूमियत से खेलती हैं
शहराती-शरारती लड़कियां -औरतें ,
गुरिल्ला लड़ाई लड़ती हैं अहम की;
और भाग जाती है ।
जिंदगी भर जिसे बाबूजी
मर्द नहीं मानते रहे रोने की आदत की वजह से ;
उसे पुरुषो का प्रतिनिधि समझ गालियाँ निकालतीं हैं ,
तब तुम्हारी बहुत याद आती है गिज़ाला!
इसलिए कहता हूँ तुम आओ न आओ
शिकायत नहीं करता ।
मगर आया करो
अच्छा लगता है ।
आना कभी फुर्सत मिले तो
कि तुम्हारे सिवा कौन है दुनिया में
इस टुअर का ,
सुन रही हो ना , गिज़ाला  !!!


कोई है 

अमरुद की टहनी
जिसपर पसारा करती थीं
तुम अपनी लाल समीज ,
उसकी खाल अब भी ओदी है ।
घनी उदासी लेकर लौटा हूँ गाँव ।
उस ओदेपन पर पसार दिया अपना पूरा दुःख ।
कच्चा रंग है ,
लाल रंग टप टप चूता है ।
बचा हुआ भाप बन उड़ रहा है ,
रात के तीन बजे झींगुर की आवाज़
ढोती पछुआ हवा के साथ ।।
100 डिग्री का क्वथनांक नहीं चाहिए दुख को ,
जून की नीम गरम रात में
भाप बन रहा है सब कुछ ।
ख़तम कुछ नहीं होता
बस भाप बन रहा है ।
बरफ की तरह जमी हुई है
फकत  तुम्हारी याद
और चिमड़ अमरुद की टहनी ,
ओस से नहाई ,जो नहीं रही अब अलगनी
बस अमरुद की टहनी है ।
मालती , जब से तुम गयी हो ,
(कई बार गाँव आया )
मगर समीज कभी नहीं टंगी टहनी पे
न जोड़े अमरुद फले इसके नीचे!

करेजा *


कैसी हो -पूछना चाहता हूँ ,और अपने नर्वस वीकनेस के कारण रो पड़ता हूँ।
36 की उम्र में रोना शोभा नहीं देता
तो तुम्हारी यादो की सरगोशी से घबराकर
कविताएँ लिखता हूँ ।
जब पीछा करता है माजी
तो शब्दों के ओट हो लेता हूँ ,
भागना चाहता हूँ और पकड़ लिया जाता हूँ
कि तुम्हारी याद को थामे
तुम्हारे नाम का पहला अक्षर मेरे की रिंग में ही नहीं ,
हर उस भाषा है जिसे मै जानता हूँ !
तुम्हारी मीठी आवाज़ कही नहीं है अब ,
जबकि सुनने की कोशिश करता हूँ कली के चटकने का स्वर भी ।
रक्त में शर्करा कम है ,जीवन में भी ।
पैथोलॉजी सेंटर का लैब बॉय
जब उंगली में सुई चुभोता है
भक से खून निकल आता है
ध्यान से देखता हूँ ,वह सुई ही है कांटा नहीं ,
फिर भी याद आ जाता है कांटा ,
जो चुभ गया था
तुम्हारा दुपट्टा छुडाते हुए ।
फूल लेने गयीं थीं
गेसू ए दराज़ के वास्ते
तुम देऊ दूबे की फुलवारी ,
वह कांटा अब उंगली में नहीं दिल में चुभता है ।
मेरे खून से भींगा तुम्हारा दुपट्टा अब भी लाल है या .....सोचता हूँ बारहाँ...
तुम से भागता हुआ तुम्ही तक आ पहुंचता हूँ ।
पृथ्वी ही नहीं दुःख भी गोल है ।
''नबी की याद है सरमाया गम के मारो का''
नआत सुनता हूँ दिन रात
फर्ज़ सुन्नत के जुज़ नफ्ल नमाज़** भी पढता हूँ दो रकात
मगर नहीं कटता ..नहीं ही कटता ..
गम ए फुरकत ए बदमिजाज !


*Tadpole फिल्म में नायिका नायक को दिल की जगह जिगर कह के पुकारने को कहती है .करेजा भोजपुरी और पुरबिया बोली में जिगर को कहते है और अत्यंत प्रिय को करेजा बुलाते हैं -loosely translated -dearest )
**नफ्ल नमाज़—नमाजे जिन्हें पढना इतना जरुरी नहीं है मगर अतिरिक्त सबाब के सबब पढ़ी जाती है .बहुत धार्मिक होने की निशानी






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