उन्हें (युवाओं को) इस बात का इल्म तक नहीं है कि राष्ट्रहित क्या होता है? - आशीष कंधवे | 21st centuray - Ashish Kandhway

21वीं सदी: सकारात्मक पक्ष की सदी 

आशीष कंधवे

ऐसे काल में जब बाजारवाद का साम्राज्य मनुष्य एवं मनुष्यता को भी लाभ-हानि के पलड़े पर तौलकर देखता हो तो निश्चित रूप से दिनकर की ये पंक्तियाँ अप्रतिम लगने लगती हैं।

 यह प्रगति निस्सीम! नर का यह अपूर्व विकास
 चरण-तल भूगोल! मुट्ठी में निखिल आकाश।
 किन्तु है, बढ़ता गया मस्तिष्क हो निःशेष
 छूटकर पीछे गया है रह हृदय का देश,
 नर मनाता नित्य नूतन बुध्दि का त्योहार,
 प्राण में करते दुखी हो देवता चितकार।

 जब बाजार रक्षक न रहकर भक्षक हो गया हो, जब बाजार सर्वहारी से सर्वग्रासी बन गया हो, जब बाजार ‘मूल्यों’ से नहीं सिर्फ मूल्यों (कीमत) से तय किया जाने लगा हो ऐसे में दिनकर की ये पंक्तियाँ मनुष्यता से भरे हृदय में एक नई चेतना का संचार करने में तो सक्षम हैं ही, साथ ही मनुष्य के मूल उद्देश्य, प्रेम, सेवा, त्याग, संस्कार आदि उदान्त भावनाओं द्वारा सांस्कृतिक एवं नैतिक श्रेष्ठता पर चिंता भी प्रकट करती हैं।

 परन्तु विडम्बना! भारत का निष्कलंक स्वरूप और उसकी अनुकरणीय संस्कृति, जिसके सामने एक समय सारा विश्व नमन करने के लिए बाध्य हो गया था आज वही भारत एक गाथा, एक स्वर्णिम इतिहास बनकर रह गया है। आज वह नींव हिल रही है, जिसके ऊपर इसकी महान संस्कृति का महल खड़ा था।

 सोचने वाली बात यह है कि आखिर वह ठोस आधार था क्या? उस युग में भी भारत का सर्वांगीण विकास कैसे संभव हो पाया? यह कुछ बेहद मौलिक प्रश्न हैं परन्तु इनके उत्तर ढूँढ़ना और समझना इतना सरल नहीं है जितना हम और आप समझते हैं।

 भारत माने ‘भा’ यानि प्रकाश और ‘रत’ यानि लीन अर्थात् जो प्रकाश में लीन हो, वही भारत है। भारत एक ऐसा देश है जहाँ के निवासी सदा प्रकाश के महत्व को समझते रहे तथा संसार को अपने क्रियाकलापों से चमत्कृत करते रहे। भारत का आकाश सदैव आध्यात्मिक गुरुओं, सामाजिक मनीषियों, सांस्कृतिक  धरोहरों, वैज्ञानिकों से परिपूर्ण रहा है। चाहे क्षेत्र कोई भी हो हमने उसकी पराकाष्ठा का अनुभव किया है।

 आज हम जिस काल में हैं और जिन बिन्दुओं पर विचार कर रहे हैं वह धार्मिक, वैदिक, सांस्कृतिक , राजनीतिक और सामाजिक सभी दृष्टिकोण से अनिश्चितता के बादल के नीचे मंडराने के लिए मजबूर हैं। यह कोई साधारण काल नहीं है। इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में हम जिन विचारधाराओं को प्रचारित कर रहे हैं या यूँ कहें कि जिन विचारधाराओं पर हम चल रहे हैं उसका लक्ष्य क्या है? हम कहाँ पहुँचने वाले हैं? भविष्य का भारत कैसा होगा? आइये हम इन बिन्दुओं पर थोड़ा विचार कर लें:

 इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि जब समाज में विज्ञान का वर्चस्व बढ़ता है तो धर्म का ह्रास होता है। तर्क और आस्था में एक अघोषित युद्ध हमेशा चलता रहता है और हम सभी इस उधेड़बुन में एक लम्बा समय निकाल देते हैं कि हमें किधर जाना है अर्थात् हमारा बौद्धिक परिदृश्य हमारे मन में कभी भी पूर्णरूप से स्पष्ट नहीं होता है। यही कारण है कि हम निरंतर सांस्कृतिक  और सामाजिक स्तर पर अपनी नैतिकता को खोते जा रहे हैं और प्रकाश में लीन रहने वाले भारत का इतिहास एक ऐसे भविष्य की ओर अपना कदम तेजी से बढ़ा रहा है जहाँ मनुष्य तो होगा परन्तु मनुष्यता नहीं, मन तो होगा परन्तु मान नहीं, ज्ञान तो होगा मगर सम्मान नहीं, समृध्दि तो होगी परन्तु संस्कार नहीं। एक ऐसा समाज जहाँ मनुष्यता न हो, मान न हो, सम्मान न हो, संस्कार न हो, साहित्य न हो, भाषा न हो तो निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि सिर्फ विज्ञान का हाथ पकड़कर हम श्रेष्ठ नहीं हो सकते। भारत के प्रकाश को नहीं बचा सकते। जब हमारा सामाजिक ताना-बाना बिखरने लगेगा तो सांस्कृतिक  ह्रास होना भी सुनिश्चित है।

 यहाँ पर मैं भारतीय नवजागरण के ऐतिहासिक पन्नों को जरूर पलटना चाहूँगा। हम वेदों, उपनिषदों के साथ-साथ इतिहास, पुरातत्व, आयुर्वेद आदि के अध्ययन-अनुसंधान, व्याख्या-पुनर्व्याख्या में भी विश्वास दिखाते आये हैं। जब पश्चिम (यूरोप) में विज्ञान के अभ्युदय के साथ धर्म का विरोध भी शुरू हो गया वहीं हमारे यहाँ विज्ञान का विरोध न धर्म ने किया और न ही धर्म का विज्ञान ने। बल्कि हमने इसका स्वागत किया और विज्ञान ने भी धर्म की प्रमाणिक अनुभूतियों और उपलब्धियों का सम्मान किया।

 एक तरफ पश्चिम में धर्म विज्ञान की चुनौतियों से घबराकर अपना चेहरा शुतुरमुर्ग की तरह रेत में छुपाने की कोशिश कर रहा था, वहीं भारत में धर्म ने विज्ञान की चुनौतियों को स्वीकारा जिसे विवेकानंद की निम्नलिखित उक्ति द्वारा समझा जा सकता है -

 “क्या धर्म को भी स्वयं को उस बुध्दि के आविष्कारों द्वारा सत्य प्रमाणित करना है जिसकी सहायता से अन्य सभी विज्ञान अपने को सत्य सिद्ध करते हैं? वाह्य ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में जिन अन्वेषणों-पद्धतियों का प्रयोग होता है, क्या उन्हें धर्म-विज्ञान के क्षेत्र मे भी प्रत्युक्त किया जा सकता है? मेरा तो विचार है कि ऐसा अवश्य होना चाहिये और मेरा अपना विश्वास भी यह है कि यह कार्य जितना शीघ्र हो उतना ही अच्छा। यदि कोई अंधविश्वास है तो वह जितनी जल्दी दूर हो जाये उतना अच्छा। मेरी अपनी दृढ़ धारणा है कि ऐसे धर्म का लोप होना एक सर्वश्रेष्ठ घटना होगी। सारा मैल धुल जरूर जायेगा पर इस अनुसंधान के फलस्वरूप धर्म के शाश्वत तत्व विजयी होकर निकल आयेंगे। वह केवल विज्ञान सम्मत नहीं होगा। कम से कम उतना ही वैज्ञानिक जितनी कि भौतिकी या रसायन शास्त्र की उपलब्धियाँ हैं। प्रत्युत और भी सशक्त हो उठेगा क्योंकि भौतिक और रसायन शास्त्र के पास अपने सत्यों को सिद्ध करने का अंतः साक्ष्य नहीं है जो धर्म को उपलब्ध है।” (पृष्ठ 278, भाग-दो, विवेकानंद साहित्य)। इन पंक्तियों में विज्ञान के प्रति आदर और धर्म के अमरत्व के प्रति निष्ठा दोनों मौजूद हैं।

 चूँकि “साहित्य सामाजिक समुत्थान का सांस्कृतिक  साधन है”, इसलिए मुझे दृढ़ विश्वास है कि यह धारणा किसी भी राष्ट्र के लिए एक आदर्श सामाजिक और सांस्कृतिक  पृष्ठभूमि तैयार करने में सक्षम है। इसलिये इस रहस्य को समझना और वैश्वीकरण एवं बाजारवाद के इस युग में इसको प्रतिपादित, प्रचारित, प्रसारित करने से ही हम भविष्य के लिये कुछ प्रकाश छोड़ पाने में सफल रहेंगे यानी भारत को बचा पायेंगे।

 प्रश्न विकट है, और कार्य दुष्कर इसमें कोई शक नहीं? पिछली पीढ़ियाँ चाहे वह सामाजिक क्षेत्र से हों, राजनीति से हों, धर्माचार्य हों, शिक्षक हों, सरकार हो, साहित्यकार हों, राष्ट्र और संस्कृति के प्रति अपने दायित्व को ठीक से निभा पाने में सक्षम नहीं रही, इसलिए वर्तमान पीढ़ी दिशाभ्रमित है और उसका लगाव अथवा झुकाव राष्ट्र, साहित्य, संस्कृति से विमुख होकर भोग-विलास की तरफ हो गया। नई पीढ़ी ‘मैं’ तथा ‘मेरा’ के जाल में इस तरह से उलझ गयी है कि इसे छुड़ाना और सुलझाना दोनों सरल नहीं रहा।

 स्थिति संकटपूर्ण है, पर फिर भी निराश होने की जरूरत नहीं है। मैं इक्कीसवीं सदी को सकारात्मक पक्ष की सदी कहना चाहता हूँ क्योंकि यह युवाओं की सदी है और युवा हमेशा सकारात्मक ही होता है इसलिए जरूरत इतनी भर है कि आप कुछ सकारात्मक कदम उठायें। कारवाँ बनते देर नहीं लगेगी।

 हमें भारत को नवीन बनाना है। एक नया भारत। इसके लिए जहाँ एक तरफ हमें सुदृढ़ राजनैतिक व्यवस्था की जरूरत होगी वहीं हमें हमारी सामाजिक, सांस्कृतिक  एवं भाषाई धरोहर को पुनः समाज में स्थापित करना होगा। इस बात में तनिक भी संदेह नहीं है कि परिवर्तन चिर युवा होता है और यह दायित्य भी युवाओं का ही है कि वह इस परिवर्तन को न सिर्फ समझें बल्कि समय को झकझोर देने वाला प्रयास भी करें।

 भारत के युवाओं के लिए अब स्थिर मन से यह सोचने का समय आ गया है कि अतीत की महिमा यदि नष्ट हो गयी तो भारत का कोई भी गुण शेष नहीं रहेगा। जल्द-से-जल्द पश्चिम का अनुकरण बंद करना होगा और अपने सांस्कृतिक , राजनीतिक, सामाजिक और भाषाई मूल्यों को फिर से स्थापित करना होगा।

 कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर के शब्दों में - “पश्चिम सभ्यता की आत्मा मशीन से बनी है। यह मशीन बराबर चलती रहती है और बराबर अपनी गति को कायम रखने के लिये वह मनुष्यों का उपयोग ईंधन के रूप में करती है। इसलिए हमें हमारी युवा शक्ति को, युवा ऊर्जा को सिर्फ भोग विलास के लिए ईंधन बनने से बचाना है यही वर्तमान का कर्तव्य है, यही भविष्य के भारत का बीज होगा”।

 वर्ष 2013, महान संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी की 150वीं जयंती का भी वर्ष था। द्विवेदी जी जिस युग में जी रहे थे, लिख रहे थे, उस युग का व्यक्तित्व भी उनकी रचनाओं में दिखाई देता है। उस समय का भारत भी नये और पुराने के संघर्ष के द्वन्द्व में फंसा हुआ था। नई उमंग, नये जोश और नई उत्सुकता एक तरफ नई-नई गवेषणाओं को सुनने के लिए प्रेरित कर रहा था, वहीं दूसरी तरफ वह इस बात को भी जाँच-परख लेना चाहता था कि पूर्व का इतिहास क्या कहता है, यानि वह ज्ञान और विज्ञान दोनों को तोल-मोल कर आगे बढ़ना चाहता था। जहाँ नवयुग का द्वार खुला देखकर उसमें प्रवेश की इच्छा बलवती हो रही थी वहीं अपने स्वर्णयुग को वह विस्मृत कर गहन अंधकार में नहीं डूबना चाहता था।

 ‘नवीनता के प्रति उत्कट अभीप्सा और प्राचीन के प्रति पूर्ण निष्ठा, यही भारत की परिभाषा है’ कहने में मुझे कोई अतिश्योक्ति नहीं है। द्विवेदीजी इन दोनों विचारों के शिल्पी थे। नये और पुराने के बीच सामंजस्य, नवीन विषयों का ज्ञान और इतिहास के गौरव को याद दिलाना उनकी आदत में शुमार था। इस बात का आभास पहली बार द्विवेदी जी की रचनाओं से मिला कि ‘भारतीय गौरव केवल देशभक्ति की उमंग में दी गयी संभव-असंभव उच्छ्वासमयी वक्ताओं से नहीं, बल्कि वैज्ञानिक यथार्थवादिता के रूप में प्रकट करने से ही देशवासियों को अपनी वास्तविक स्थिति का ज्ञान कराने में समर्थ हो सकता है। ऐसे विचारों के धनी सरस्वती पत्रिका के संपादक प्रवर महावीर प्रसाद द्विवेदी को ‘आधुनिक साहित्य’ का संपूर्ण परिवार नमन करता है।

 यहाँ पर एक बात का विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूँगा कि आधुनिक युग का स्वकेंद्रित समाज जीवन के सार्थक उद्देश्यों की पूर्ति कभी नहीं कर सकता। ऊपर से समाज में तेजी से फैलती उपभोक्तावादी प्रवृत्तियाँ युवाओं को परीक्षा केन्द्रित या फिर रोजगारोन्मुखी शिक्षा में उलझा कर रख देती हैं। उन्हें इस बात का इल्म तक नहीं है कि राष्ट्रहित क्या होता है?

 यह बात सौ प्रतिशत सही है कि किसी भी तरुण मन में पाँच मानसिक शक्तियाँ होती हैं -  याददाश्त, ज्ञान, बुद्धि, रचनात्मकता और कल्पना शक्ति। अमूमन हमारी शिक्षा प्रणाली पहली तीन शक्तियों की ओर तो ध्यान देती है जबकि अंतिम दो यानी रचनात्मकता और कल्पना शक्ति जो महान आविष्कार और साहित्यिक शख्सियत पैदा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, की ओर नहीं है। अतः यह लाजमी हो चुका है कि हम अपनी शिक्षा पद्धति में आमूल-चूल परिवर्तन करें, अन्यथा भारत का एक बहुत बड़ा युवा वर्ग दिग्भ्रमित होकर अंधेरी गलियों में भटकने के लिए विवश हो जायेगा।

आशीष कुमार कंधवे
संपादक 
आधुनिक साहित्य
aadhuniksahitya@gmail.com
+91 98 111 84 393

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