ब्याह हमें किस मोड़ पे लाया - मैत्रेयी पुष्पा | Maitreyi Pushpa on Love Marriage & Violence against Women

                      आज भी औरत विवाह के ऐसे चक्रव्यूह में फसी है
                                        जिसके भेदन की कला उसके पास नहीं


                       पढ़ी-लिखी "समझदार" युवा-स्त्रियां
                          विवाह के नाम पर डग-डग बूढ़े वरों को चुनकर
                         अपने आप को प्यार का इश्तहार बना रही हैं
                                                  और सात फेरों के जादुई असर से
                                                घंटे भर में संपत्ति की स्वामिनी बन बैठती हैं


आज भी औरत विवाह के ऐसे चक्रव्यूह में फसी है जिसके भेदन की कला उसके पास नहीं

ब्याह हमें किस मोड़ पे लाया

मैत्रेयी पुष्पा

लेकिन फिर क्या हो जाता है कि अनजाने ही कोई महीन दरार फटते-फटते भयानक खाई में तब्दील हो जाती है जिसकी प्रेमी युगल ने कल्पना तक नहीं की होती। क्या साथ-साथ रहने की अबूझ ललक अब ऊब में तब्दील होने लगी ? क्योंकि पत्नी रह गयी प्रेमिका गायब ! पति में से प्रेमी काफूर और मौहब्बत गृहस्थ की चक्की में .... कुंआरे नज़ारे फ़ना होगये ! "मैंने चाँदऔर सितारों की तमन्ना की थी" की अनमिट हूक सीने को चीरने लगी।
हम मान बैठे हैं कि हम इक्कीसवीं सदी की महिलाएं हैं। हम पितृसत्ता के नियमों कानूनों से अपना विरोध जताते हुए भरपूर प्रतिरोध की पहचान बनाने पर गर्व करते हैं। हम दबी सहमी स्त्री छवि को भारतीय परिवेश से नदारद करना चाहते हैं। दावा करते हैं कि यह हमारे लिए चैतन्य सवेरा है जिसमें हमारी पहचान के दृश्य उभरे हैं। हम मनुष्य का स्त्री रूप अपनी जीती जागती इच्छाओं आकाँक्षाओं और नज़रों में सपनों की नई दुनिया उजागर कर रही है। इस दुनिया पर किसी आका की पहरेदारी से हम इनकार करते हैं। बस सामंती व्यवस्था में खलबली है। "आज़ादी हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है "यह दावा औरत के गुनाह में शामिल माना जाता है सो बस मर्दाने तबके की खलबली हमारे कार्य कलापों में खलल डालने के लिए अपने धारदार हरबे हथियारों से लैस हो गयी है। बेशक स्त्री ने फिर भी अस्मिता के लिए जद्दोजहद करके वे बंद कपाट खोले हैं
वह प्यार करती है मगर सपने विवाह के संजोने लगती है। वह मौहब्बत में हृदय का विस्तार करती है लेकिन विवाह में संकुचित होना चाहती है।
जिनपर जंगी ताले जड़े थे। शिक्षा तकनीक से लेकर हर उस दायरे में पाँव रख दिया है जो अबतक उसके लिए स्वीकृत थे। अपने आप में भाषा से लेकर वेशभूषा तक तब्दीलियां की हैं। पर्दानशीं औरत अब परदे में नहीं अपनी योग्यता क्षमता और कार्य कुशलता के साथ दिखती है। पुराणों में गायी गई देवी स्तुतियाँ, दुर्गा सप्तसतियां और सती महिमाएं अब मंदिर और मढ़िया की देवी में स्थापित नहीं रह गयीं आज की स्त्री ने तो शक्ति और धन पर व्यवहारिक रूप से दाखलनामा प्रस्तुत किया है। तब यह मानना गैर वाजिब तो नहीं कि भले सरकारें बदलें, निजाम बदल जाएँ लेकिन अब स्त्री का दिमाग पहले जैसा समझौता परस्त नहीं। वह व्यक्तित्व को केवल पुरुष की थाती नहीं मानती, व्यक्तित्व का निर्माण उसके अपने लिए भी सार्थक पहलू है।

क्या यह सब हमारी ख़ामख़याली है ?

क्या हम बेआधार हवाओं में उड़ रहे हैं ?

हमें क्या अभी भी धड़ाम से नीचे गिरने का खतरा है ?
धैर्य विहीन लोगों को प्रेम नहीं करना चाहिए क्योंकि अधीरता में अक्सर अन्याय और हिंसा घटित होजाती है।
लोग कहते हैं कि जिस से प्यार किया है उसके साथ प्रेम निभाना है। विवाह के बाद आप प्रेम नहीं विवाह निभाते हैं
पुरुष सत्ता के किले की ईंट से ईंट बजा देने वाली नारियों का चेहरा जब सामने आता है जिसको हम ने आत्मसजग सूरत के रूप में देखा था, चेतना सम्पन्न सीरत का दर्शन हुआ था वही स्त्री सामाजिक नज़ारे में झुकी हुई कमर वाली समर्पिता के रूप में हम से मुखातिब है।

यह क्या हुआ ? यह ब्याह का मामला है।

(ब्याह हमें किस मोड़ पे लाया)

मैं बार-बार कहती हूँ कि स्त्री जब तक प्यार में रहती है, उस से ज्यादा ताकतवर और खुदमुख्तार कोई नहीं होता मगर विवाह उसे घेर लेता है। बेशक आज भी औरत विवाह के ऐसे चक्रव्यूह में फसी है जिसके भेदन की कला उसके पास नहीं। भेदन की कला या विद्या इस लिए भी उसके पास नहीं कि वह खुद भी विवाह संस्था को अपने लिए एक मात्र सुख, सुरक्षा और संतोष का गढ़ मान बैठी है। वह प्यार करती है मगर सपने विवाह के संजोने लगती है। वह मौहब्बत में हृदय का विस्तार करती है लेकिन विवाह में संकुचित होना चाहती है। यहाँ उसके मासूम दिल और समाज की मान्यताओं से मुठभेड़ होती है। बहुसंख्यक मामलों में स्त्री अपनी नैसर्गिकता को तिलांजलि देकर प्रेम को सामाजिक कठघरे के हवाले करके विवाह के वैध कानून की शरण में जाकर चैन की सांस लेती हैं जैसे अपने मौहब्बत रुपी जुर्म का समर्पण करके सामाजिक आकाओं से माफ़ी चाही हो। प्रेम के मासूम "हथियार "

सरेंडर !

क्या पुरुष भी ऐसा ही सोचते हैं ? मुमकिन है सोचते हों लेकिन ज्यादातर मामलों में वे स्त्रियों के पाले में ही विवाह का विजयघोष करते देखे जाते हैं। यों तो हमारे सामने रोजाना इस तरह की घटनाएँ खुलती है जिनमें प्रेम और विवाह के द्वंद्व का उलझा हुआ ताना-बाना दिखाई देता है मगर बात मैं हाल फ़िलहाल की करू तो स्त्री का "सशक्तिकरण " खुल कर सामने आजायेगा।

* * * * *


पिछले कुछ दिनों से बनारस विश्व विद्यालय में घटित स्त्री हिंसा का चर्चा जगह-जगह है जिस के मुख्य पात्र एक प्रोफेसर और उनकी पत्नी हैं। यह मौहब्बत और शादी के बीच अपना करिश्मा दिखाता कोई अजूबा नहीं है, ऐसा हो जाता है की तर्ज पर जन्मी स्थिति है। प्रोफेसर साहब की पत्नी जाहिल नहीं हैं, एक्टविस्ट रही हैं। जागरूक और समझदार मानी जा सकती हैं पढ़ी लिखी हैं और सत्रह-अठारह साल पहले तक प्रोफेसर साहब की जाने-अदा रही हैं। वह तो प्यार की दीवानगी ही थी कि विवाह के सिवा कुछ न सूझा। वैसे भी लोग शादी होजाने को ही पक्का प्रेम मानते हैं। प्रेम को सामाजिक दायरे में वैध बनाते है। साथ ही खाली प्रेम पर पुख्ता यकीन कौन करे, कल के दिन शादी किसी और से कर ली तो प्यार टूटे न टूटे भरोसा छूट जाता है। धैर्य विहीन लोगों को प्रेम नहीं करना चाहिए क्योंकि अधीरता में अक्सर अन्याय और हिंसा घटित होजाती है।खैर हम प्रोफेसर साहब की शादी पर थे। शादी हुई। बेटा हुआ। गृहस्थ बसा। मेरा मानना यह भी है कि प्रेम विवाह में प्रेम तो शादी के मंडप में ही स्वाहा होजाता है, अब विवाह की कब्जेदारी में आपकी जिंदगी आजाती है। लोग कहते हैं कि जिस से प्यार किया है उसके साथ प्रेम निभाना है। विवाह के बाद आप प्रेम नहीं विवाह निभाते हैं और नहीं निभता तो तलाक लेने चल देते हैं किसी कोर्ट-कचहरी में। प्यार के साथ तो ऐसा नहीं होता। यह तो मानें या न मानें विवाह के बाद प्रेमी पति हो जाता है और प्रेमिका पत्नी तथा माँ, दोनों की भूमिकाएं भी बदल जाती हैं।
स्त्री सशक्तिकरण सम्पन्नता में छलांग लगाने से नहीं होता, यहाँ तो सजग विचारों के खजाने चाहिए
प्रोफ़ेसर साहब और उनकी पत्नी के साथ भी यही हुआ की विवाह से पहले प्रेम खट्टा तक नहीं हुआ, शादी के बाद सड़ने-बुसने लगा। क्या हो जाता है कि प्रेम के समय जिस पुरुष सा पुरुष दुनिया में नहीं था और जिस लड़की सी हूर कहीं नहीं थी, यही भाव दिल में अपना अंगद पाँव गाढ़े था. ऐसे ही जज़्बातों के कारण प्रेमी युगल दुनिया से लड़ जाते हैं। यह भी अजूबा नहीं है पौराणिक काल से लेकर ऐतिहासिक घटनाओं को देखा जा सकता है मौहब्बत और शादी के रंग घुले मिले पाये जाते हैं। आज भी इस मामले में "बच्चों की इच्छा का सम्मान" कह कर माता पिता इस गठ बंधन को स्वीकार कर लेते हैं। वैसे भी ऐसे विवाह कहीं तक दहेज़ प्रथा को कम कर सकते हैं।

लेकिन फिर क्या हो जाता है कि अनजाने ही कोई महीन दरार फटते-फटते भयानक खाई में तब्दील हो जाती है जिसकी प्रेमी युगल ने कल्पना तक नहीं की होती। क्या साथ-साथ रहने की अबूझ ललक अब ऊब में तब्दील होने लगी ? क्योंकि पत्नी रह गयी प्रेमिका गायब ! पति में से प्रेमी काफूर और मौहब्बत गृहस्थ की चक्की में .... कुंआरे नज़ारे फ़ना होगये ! "मैंने चाँद और सितारों की तमन्ना की थी" की अनमिट हूक सीने को चीरने लगी।

कोई क्या करे जब प्रोफेसर साहब को अपनी पत्नी रुपी प्रेमिका बासी, चिड़चिड़ी और उबाऊ लगने लगी। दिल हाथ पकड़ने लगा -- कोई तरो ताज़ा लड़कीनुमा हंसमुख, मन लुभावन नारी मिले। वे दिल के हाथों पहले हारे थे दिल के ही हाथों फिर हारने लगे ! जिन खोजा तीन पाइयां, उन्होंने प्राप्त कर ली। बासी उबाऊ का बोझ उतार फेंका। यह अकेले उनके मन की मुराद नहीं है, हमारे आगे ऐसी बड़ी दुनिया पसरी पड़ी है जिसमें प्रोफेसर, समाज कर्मी, लेखक, कलाकार, राजनीतिज्ञ आते हैं जो "ये अपना दिल तो आवारा" के बैनर तले रहना पसंद करते हैं।

मैं यहाँ पुरुषों की बातों के बाद स्त्रियों के उस पक्ष पर आती हूँ जिस में उनका दिल भी किसी-किसी पर आ जाता है। मानती हूँ की यह मर्द्जात जज़्बा ही नहीं है स्त्री में भी ऐसी ग्रन्थियां हो सकती हैं। फिर भी उक्त घटना के चलते एक बात का जबाब चाहती हूँ कि कोई स्त्री उस पुरुष से क्या अपेक्षा करती है जो अपनी पत्नी को घर से बल पूर्वक निकाल रहा है। अपनी स्त्री को सड़क पर घसीट रहा है। अपने बेटे की माँ के बदन के उघड़ने से बेखबर है। अगर वह औरत अपनी इच्छा से किसी के सामने विवस्त्र हो जाती तो यह पति उसको क्या नाम नवाजता ? अपनाहि जाया बेटा उसे लाठी से पीट रहा है साथ ही ये बाप बेटे इस "परित्यक्त" औरत का गुजर भत्ता भी खाए पचाए जा रहे हैं। यह भी था प्रेम विवाह।

प्रोफेसर साहब की मनचाही नई स्त्री तुम इस घर के बाशिंदों पर कितना भरोसा कर रही हो ? यहाँ प्यार की आशा में आई हो तो हमें भी तुम्हारे लिए अफ़सोस है क्योंकि यह घर हमदर्द इंसानों का तो कतई नहीं। ये डिग्रीधारी होंगे शिक्षित और सभ्य होने के नाम पर ज़ीरो हैं। तुमने स्त्री सशक्तिकरण क्या इसी रूप में अपनाया है की किसी स्त्री के हक़ पर डाका दाल दें ? क्या ऐस भी प्यार होता है की दूसरी औरत को सड़कों पर घसीटा जाये और महसूस किजिये की घर में बैठी स्त्री पहली से सौ दर्जे बेहतरीन है। उस बेटे से भी आगे क्या उम्मीद बाँधी है जो सोलह साल की अल्पायु में माँ को तड़ातड़ पीट रहा है। यह अपनी माँ का ही न हुआ तो सौतेली माँ का क्या होगा ? वह तो अपने बाप की मर्दानगी की रिहर्सल कर रहा है जो बीबी को काबू में रखने के काम आयेगी। सोच लो कि एक स्त्री जहाँ उजड़ रही है तो नई औरत के लिए अपनी बसावट का सपना भ्रम के सिवा क्या है ?

हाँ बहुत सी औरतें भ्रम में जीती हैं। वे अपनी शिक्षा समझदारी और चेतना के ऊपर ऐसा दुशाला दाल लेती हैं जिसके ताने-बाने सोने-चांदी जैसी चमक देते हैं । शायद इस लिए ही कहा जाता हो कि औरत ही औरत की दुश्मन होती है। सोचना तो पड़ेगा की यहाँ भी दो औरतें आमने-सामने खड़ी हैं। मगर ये क्यों खड़ी हैं ? किस के लिए ? ये दोनों उस पुरुष के लिए आपस में तलवार खींचे हुए हैं जो पहली को अपने जीवन से ख़ारिज कर रहा है और दूसरी को पहली के हक़ पर बिठा रहा है। यहाँ राजा (कर्ता) पुरुष ही है। दोनों औरतें तो उसकी पनाह में सिपाही हैं जो सिर्फ उसके निजाम में रहने के लिए अपनी दुर्दशा से भी कोताही नहीं मान रहीं। यह बात औरतें ही नहीं बेटा भी समझ रहा है की उसे किसका लठैत बनना है। पितृसत्ता का यह करिश्मा सदियों से तारी है। इस लिए ही युग बीते - स्त्री के लिए प्रताड़नाएं नहीं बीतीं।

* * * * *


मैं यहाँ यह नहीं कह रही कि पुरुष के लिए कोई गम नहीं। उनके लिए बहुतेरे दुःख हैं जिनके पास अकूत धन नहीं सो भौतिक सुख और अय्यासी के साधन नहीं। आर्थिक रूप से स्थायी सुरक्षा नहीं। या मन में समाज के लिए कुछ कर गुजरने के जज़्बे के अलावा दौलत बटोरने का हुनर नहीं। ऐसे लोग अति की महत्वाकांक्षी स्त्री के लिए उपेक्षा अपमान के पात्र होते जाते हैं जैसे इज्जत का सूत्र धन से ही जुड़ा हो। इंसानियत का समाज से कोई सावका न हो। ज्यादातर महिलाओं को यह नहीं मालूम कि स्त्री सशक्तिकरण सम्पन्नता में छलांग लगाने से नहीं होता, यहाँ तो सजग विचारों के खजाने चाहिए क्योंकि देश में महिला विचारकों की बहुत कमी है। सादगी सशक्तिकरण की पहली शर्त है और अभावों से लड़ना चेतना सम्पन्न स्त्रियों का पहला कदम होता है। इसी कदम के आगे अत्याचारों, प्रताड़नाओं और घरेलू-बाहरी हिंसा से निजात के लिए पितृसत्ता से टकराने के लम्हे आमने सामने होते हैं।

क्या हमारा स्त्री विमर्श किसी न किसी बिंदु पर डगमगाने लगता है ?

प्यार मौहब्बत अपनत्व और हमदर्दी भरा लगाव, ऐसे कुदरती लक्षड़ों से लैस स्त्री अपनी मनुष्यता के लिए प्रतिबद्ध होती है लेकिन यह क्या कि अब उसे प्यार के नाम पर सम्पत्तियों की जागीरें नज़र आने लगी हैं। यह प्यार है या प्यार का बाजार ? पढ़ी-लिखी "समझदार" युवा-स्त्रियां विवाह के नाम पर डग-डग बूढ़े वरों को चुनकर अपने आप को प्यार का इश्तहार बना रही हैं और सात फेरों के जादुई असर से घंटे भर में संपत्ति की स्वामिनी बन बैठती हैं। कहाँ गयी प्रेमचंद के उपन्यास "निर्मला " की त्रासदी और किधर गया बेमेल विवाह का अन्यायी चलन ! मैं मानती हूँ कि प्रेम की अपनी ताकत होती है सो कहा भी गया है --- प्रेम न जाने जात कुजात / भूख न माने बासी भात। अब जब मौहब्बत का ऐसा जज्बा है तो कभी किसी समझदार आधुनिक युवती को किसी कंगाल बूढ़े से प्रेम क्यों नहीं होता ? यदि कहीं ऐसा हुआ हो तो मुझे बताईये। मैं उस मौहब्बत को सलाम भेजूंगी।

अभी तो ऐसे दृश्य देखकर सारा माज़रा प्रेम-विवाह के नाम पर स्वार्थ के सम्बन्ध ही सिद्ध हो रहा है। क्या सचमुच प्रेम के लिए विवाह जरूरी होता है ? या बिछोह ही प्यार की गहरी नींव है। अगर विवाह में ही मौहब्बत की सफलता होती तो लैला-मजनूँ को कौन पूछता, शीरीं-फरहाद के किस्से कौन कहता और मेरे गाँव की चंदना कथा भी क्योंकर अमर होती। लगता है कि प्रेम अपने लिए किसी को दुःख देने या उजड़ने के लिए नहीं होता, वह तो ऐसा उदात्त भाव है जो संवेदना का विस्तार करता है। दूसरे के दुःख और अभावों में शामिल हो जाता है। साहित्य ऐसे ही प्रेम के आधार पर खड़ा होता है। लेकिन हम देख रहे हैं कि तथाकथित साहित्यकार ही मौहब्बत के नीचे से ईमान की जड़ें खोद रहे हैं और उनके के साथी-संगी इस अन्यायपूर्ण कृत्य पर सुनहरी पर्दा डाल रहे हैं। यहाँ मुझे यह ज्ञान तो हुआ कि औरत एक मर्द के पीछे भले ही औरत की दुश्मन बन जाये, मरदाना दोस्त तबक़ा या तो दोस्ती की बोली बोलता है या मौन साध लेता है। इन दिनों बड़े से बड़े प्रखर और मुखर वाणी के धनी चुप्पी मरे बैठे हैं।

पितृसत्ता दीमक की तरह स्त्री के जीवन से चिपटी है जो जिंदगी को भीतर ही भीतर खोखला करती जाती है। हम यहाँ आगे बढ़ने के उत्साह में अगली योजनाएं बना रहे हैं और वे वहाँ अपने धन ऐश्वर्य और पद का लालच दिखाकर जागरूक स्त्रियों पर भी मर्दानगी की मूठ मार रहे हैं कि नई प्रेमिका के प्रेम में वे क्या-क्या नहीं कर गुजरेंगे। पहली औरत के लिए यातना प्रताड़ना उनका जन्म सिद्ध अधिकार हो जैसे।

आखिर में यही कहूँगी विश्वास किसी मर्द का नहीं, इंसान का किया जा सकता है और इंसान होने के लिए पुरुष होना जरूरी नहीं। स्त्री सशक्तिकरण के लिए आत्मविश्वास की जरूरत है जिसे पितृसत्ता हम से छीनने की फ़िराक में रहती है।

maitreyipushpa30@gmail.com
लेख इस अंक के 'तहलका 'में प्रकशित हुआ है 

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

ये पढ़ी हैं आपने?

Hindi Story: 'शतरंज के खिलाड़ी' — मुंशी प्रेमचंद की हिन्दी कहानी
आज का नीरो: राजेंद्र राजन की चार कविताएं
भारतीय उपक्रमी महिला — आरिफा जान | श्वेता यादव की रिपोर्ट | Indian Women Entrepreneur - Arifa Jan
मैत्रेयी पुष्पा की कहानियाँ — 'पगला गई है भागवती!...'
Harvard, Columbia, Yale, Stanford, Tufts and other US university student & alumni STATEMENT ON POLICE BRUTALITY ON UNIVERSITY CAMPUSES
तू तौ वहां रह्यौ ऐ, कहानी सुनाय सकै जामिआ की — अशोक चक्रधर | #जामिया
Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
गिरिराज किशोर : स्मृतियां और अवदान — रवीन्द्र त्रिपाठी
कोरोना से पहले भी संक्रामक बीमारी से जूझी है ब्रिटिश दिल्ली —  नलिन चौहान
ईदगाह: मुंशी प्रेमचंद की अमर कहानी | Idgah by Munshi Premchand for Eid 2025