बिना सांस्कृतिक सफाई के भौतिक सफाई संभव नहीं है - विभूति नारायण राय

कबिरा हम सबकी कहैं 

बिना सांस्कृतिक सफाई के भौतिक सफाई संभव नहीं है 

विभूति नारायण राय

vibhuti narain rai's editorial of Vartman Sahitya January 2015 issue
दुनिया भर की बेहतरीन शाक सब्जियां, फल और अन्न उत्पादन करने वाला और विविध जलवायु वाला यह भूखंड क्यों नहीं ऐसे हट्टे-कट्टे योद्धा पैदा कर सका जो उसके लिए एक युद्ध ही जीत कर दिखा देते। जब तक वर्ण व्यवस्था के अनुरूप सिर्फ क्षत्रियों को युद्ध में भाग लेने का अधिकार हासिल था, अपने से बहुत छोटी विदेशी सेनाओं से भी हम हमेशा हारते रहे। यह तो सिर्फ 1971 में संभव हो पाया कि हमने एक बड़े युद्ध में विजय हासिल की; पर यह तब हुआ जब हमारी सेना का अधिकांश हिस्सा पिछड़ों, दलितों, अल्पसंख्यकों तथा आदिवासियों से बना था। सांस्कृतिक श्रेष्ठता का दंभ भरने वाले हार के इस कारण को कभी स्वीकार नहीं करेंगे और हमेशा हर हार के पीछे कुछ काल्पनिक कारण तलाशने की कोशिश करते रहेंगे।
प्रधानमंत्री मोदी ने देश का ध्यान एक ऐसी समस्या की तरफ आकर्षित किया है जिस पर चर्चा करने के जुर्म में मदर इंडिया की लेखिका मिस कैथेरीन मेयो को महात्मा गांधी ने ड्रेन इंस्पेक्टर की उपाधि दे दी थी। 1937 में मिस कैथेरीन मेयो ने भारत भ्रमण के दौरान लोगों को रेलवे लाइनों, नहरों और सड़कों के किनारे खुले में शौच करते हुए देखा तो सफाई और हाइजीन की उसकी पश्चिमी समझ इन दृश्यों से इतनी आहत हुई कि उसकी पूरी किताब भारत को बजबजाते हुए कूड़े के ढेर के रूप में चित्रित करती है। महात्मा गांधी जो स्वयं सफाई के जुनूनी समर्थक थे, ने इस किताब को गंभीरता से न लेते हुए इसे ड्रेन इंस्पेक्टर की रिपोर्ट घोषित कर दिया। मैं कई बार सोचता हूँ कि अगर गांधी जी ने मदर इंडिया को गंभीरता से लिया होता और देश को यह स्वीकार करने के लिए मजबूर किया होता कि हम एक अस्वच्छ समाज हैं तो शायद देशवासियों ने इस पर ज्यादा ध्यान दिया होता। दरअसल भारतीय समाज द्वारा गंदगी को सहज रूप से स्वीकार करने के पीछे भौतिक से अधिक सांस्कृतिक कारण जिम्मेदार है। यदि कैथेरीन मेयो ने सिर्फ देश भर में बाहर फैली गंदगी का जिक्र किया होता तो गांधी और उनके जैसे अन्य इतना आहत नहीं होते। मिस मेयो ने तो इस संदर्भ में उनके सांस्कृतिक श्रेष्ठता बोध पर ही हमला कर दिया था। पुस्तक के पहले अध्याय में कलकत्ता के काली मंदिर में सैकड़ों पशुओं के बलि चढ़ाए जाने का हृदय विदारक वर्णन किया है। क्रूरता से अधिक यह वर्णन उस गंदगी के प्रति हमारे मन में जुगुप्सा पैदा करता है जो मंदिर के पूरे फर्श पर खून और मांस के लोथड़ों के रूप में पसरी दिखाई देती है। यदि आपका अंतर्मन गहरी धार्मिक श्रद्धा से ओतप्रोत न हो तो आप इस दृश्य को देखकर उल्टी कर देंगे, पर कैथेरीन मेयो को अपने वर्णन के कारण मजम्मत सहनी पड़ी। पुस्तक के अगले अध्यायों में लेखिका ने भारतीय समाज द्वारा औरतों के साथ किए जाने वाले व्यवहार पर तीखी टिप्पणियां की हैं—खासतौर से बाल विवाह और स्त्री अस्पतालों की दुर्दशा को लेकर। इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि उसके इस प्रयास को श्रेष्ठ भारतीय संस्कृति के पड़ताल की एक अनधिकृत चेष्टा माना गया और उसे ड्रेन इंस्पेक्टर की उपाधि मिली।

हमारी सांस्कृतिक अस्वच्छता का सबसे बड़ा प्रमाण हमारी नदियां हैं। भारतीय परंपरा में नदियों का जो महत्व है वह पूरे विश्व में दुर्लभ है, किंतु यह भी सत्य है कि हमारी नदियां जितनी गंदी हैं उतनी शायद दुनिया के किसी हिस्से में न हों। आज जब भारत की अधिकांश नदियां दुर्गंध से बजबजाती नालों में परिवर्तित हो गर्इं हैं, दूसरी ओर यूरोप-अमेरिका में स्वच्छ पानी से कल-कल करती बहती नदियां एक सामान्य दृश्य हैं। हमारी नदियां सिर्फ भौतिक कारणों से गंदी नहीं हैं, यह कहना अधिक उचित होगा कि नदियों को प्रदूषित करना हमारी संस्कृति का अंग है। यह भारत में ही संभव है कि हम अपनी सारी गंदगी लिए दिए किसी नदी में उतर जाएं और अपने तन और उस पर पहने कपड़ों की सारी गंदगी उसके जल में तिरोहित कर स्वर्ग जाने का टिकट कटा लें। बनारस के अपने छात्र जीवन का वह दृश्य मैं कभी नहीं भूल सकता, जिसमें गंगा के किनारे मीलों मील लोटा लिए खुले में शौच करते लोग दिखाई देते थे, वहां पर बहरी अलंग नाम की एक प्रथा अब भी प्रचलित है जिसमें लोग लोटा लेकर प्रात: गंगा किनारे जाते हैं, शौच आदि से निवृत्त होकर नदी में स्नान करते हैं, अपने कपड़े फींचते हैं तथा छोटे-मोटे धार्मिक कर्मकांड निपटाते हुए घर वापस लौटते हैं। घरों में होने वाले सभी धार्मिक अनुष्ठानों का अवशेष बिना किसी अपराध बोध के पालीथिन के थैलों में भर कर नदी में प्रवाहित करने का दृश्य आप देश के किसी भी कोने में देख सकते हैं। फिर श्मशान घाट तो होते ही नदी के किनारे हैं जहां बड़े आराम से जले अधजले शव, लकड़ियां और राख निःसंकोच नदियों में बहाई जाती हैं। नरेंद्र मोदी के गंगा सफाई अभियान का तब तक कोई अर्थ नहीं है जब तक वह कारखाने / सीवर के अवशिष्ट को नदियों में गिराने से रोकने के साथ-साथ सांस्कृतिक अस्वच्छता के विरुद्ध भी चेतना जागृत नहीं करेंगे।

एक बड़ी गलतफहमी यह भी है कि गरीबी और गंदगी का सीधा रिश्ता है। मेरा यह व्यक्तिगत अनुभव है कि भौतिक गंदगी सीधे-सीधे सांस्कृतिक गंदगी से जुड़ी हुई है। 2012 के विश्व हिंदी सम्मेलन में भाग लेने के लिए मुझे जोहांसबर्ग जाने का अवसर मिला था। यह कोई छिपा तथ्य नहीं है कि दक्षिण अफ्रीकी अर्थव्यवस्था, भारतीय अर्थव्यवस्था के मुकाबले काफी कमजोर है और गरीबी के दृश्य वहां भी भारत जैसे ही दिखाई देते हैं। अपने प्रवास के दौरान मुझे शहर से थोड़ा ही बाहर एक मलिन बस्ती में जाने का मौका मिला। अपने होटल में टूर आपरेटर से बात करते समय मुझे पता चला कि वहां स्लम-टूरिज्म जैसा भी कुछ होता है। स्लम-टूरिज्म सुनकर ही मैं चौंका और मुझे लगा कि चालाक व्यावसायिक दक्षिण अफ्रीका अपना पापी पेट उघाड़ कर पैसा कमाना चाहता है। मैंने और मेरे मित्रों ने वहां जाने का फैसला किया और मुझे लगता है कि यह निर्णय सही ही था क्योंकि वहां जाकर मुझे गरीबी और गंदगी के रिश्तों को पुन: परिभाषित करने का मौका मिला। वहां गरीबी बड़ी स्पष्ट दिखाई पड़ती थी किंतु किसी भारतीय स्लम से वह एक मामले में सर्वथा भिन्न था। भारतीय स्लमों में घुसते ही आपको गंदगी से बजबजाती खुली नालियां, उनके किनारे बैठा कर बच्चों को शौच कराती महिलाएं, पूरी बस्ती में जमीन पर फैला हुआ गंदा पानी और बस्ती के आस- पास किसी रेलवे लाइन, नाले या टीले के पीछे बैठे शौच करते स्त्री-पुरुषों का एक सामान्य दृश्य होगा। इसके बरक्स जोहांसबर्ग के स्लम में गरीबी के बावजूद हर घर के साथ बाहर एक माचिस की डिबिया की तरह खड़ा शौचालय था। कोई भी नाली खुली नहीं थी और हमें कहीं भी रास्तों पर पानी बहता हुआ दिखाई नहीं दिया।

मेरे एक मित्र लैटिन अमेरिका के गरीब देश ग्वाटेमाला गए थे। लौटकर उन्होंने बताया कि वहां गरीबी तो हर घर में पसरी हुई दिखी किंतु कहीं भी खुले में शौच करता हुआ कोई भी नहीं दिखाई दिया। गंदगी के सबसे बड़े स्रोत खुले में शौच के पीछे सांस्कृतिक कारण है। 1857 में जब महारानी विक्टोरिया ने भारत का शासन अपने हाथ में लिया, लंदन में सीवर लाइन बिछ चुकी थी। फिर क्यों उन्होंने भारत में जो कैंटूनमेंट और सिविल लाइंस बसाए और अपने लिए बड़ी-बड़ी कोठियां बनवार्इं उनमें उठाऊ पाखाने रखे? कारण ढूंढ़ने के लिए हमें बहुत माथापच्ची नहीं करनी होगी।

भारतीय संस्कृति का एक मजबूत स्तंभ वर्ण व्यवस्था उन्हें लाखों करोड़ों ऐसे लोग निशुल्क या बहुत कम मेहनताने पर उपलब्ध करा देता था जो खुशी-खुशी दूसरे का पाखाना अपने हाथों से साफ करने और अपने सर पर लाद कर ले जाने के लिए तैयार थे। फिर भला क्यों वे सीवर लाइन बनवाने में पैसा खर्च करते? संस्कृति हमारे व्यक्तित्व में सबसे गहरी रची- बसी स्थिति होती है और हमारे सोचने-समझने की प्रक्रिया से लेकर हमारी दिनचर्या तक को संचालित करती है। शायद यही कारण है कि पारंपरिक भारतीय स्थापत्य में स्नानागार या शौचालय को सबसे कम महत्व दिया गया है। शहरों में तो भले ही स्थितियां कुछ बदली हैं किंतु अभी भी गांव में भवन निर्माण में सबसे अधिक उपेक्षित यही क्षेत्र है। आप अकसर पाएंगे कि किसी सीढ़ी के नीचे या कोने-अतरे में किसी उपेक्षित जगह को घेर कर एक छोटा-सा कमरा शौचालय के नाम पर निकाल दिया गया है जिसमें न तो आप सीधे खड़े हो सकते हैं और न ही आराम से बैठ सकते हैं। घर वाले इस जगह का इस्तेमाल भी कम-से-कम करना चाहते हैं और खुले में खेत-खलिहानों में निपटना उन्हें ज्यादा सुविधाजनक लगता है। आज भी ग्रामीण भारत में ऐसे घरों की विशाल संख्या है जिनमें ट्रैक्टर, मोटर साइकिल और रंगीन टेलिविजन हैं किंतु शौचालय नहीं हैं। सड़कों पर सैकड़ों मील सफर करने के बाद भी आपको एक भी साफ-सुथरा पेशाबघर नहीं मिलेगा। खुले में पेड़ों या झाड़ियों के पीछे निवृत्त होने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है आपके पास। इन रास्तों पर यात्रा करने वाली महिलाओं की त्रासद स्थिति का अंदाजा भर लगाया जा सकता है। हमने इस छोटी-सी सुविधा के बारे में नहीं सोचा तो इसके पीछे सिर्फ आर्थिक कारण नहीं थे, उनसे ज्यादा सांस्कृतिक कारण थे। साफ-सुथरे शौचालय कभी भी हमारी संस्कृति का अंग नहीं रहे हैं।

वर्तमान साहित्य

जनवरी, 2015

Editorial, Vartman Sahitya, Vibhuti Narayan Rai, वर्तमान साहित्य, विभूति नारायण राय, सम्पादकीय, indian fascism, Politics, RSS,
संपादकीय: विभूति नारायण राय
इधर-उधर पत्र-पत्रिकाओं में
चार यार पचहत्तर पार
साठोत्तरी कथा पीढ़ी और हिंदी कहानी/ शेखर जोशी
साठोत्तरी पीढ़ी के पचास वर्ष/दूधनाथ सिंह
संस्मरण
आप जानते हैं कहां हैं ब्रजेश्वर मदान?/शशिभूषण द्विवेदी
कहानी
प्लम्बर रिजवान का सपना/रमाकांत श्रीवास्तव
यही ठइयाँ नथिया हेरानी.../आशुतोष
सहवर्ती साहित्य
समकालीन गुजराती साहित्य/ मीनाक्षी जोशी
गुजराती कहानी
चिता / रघुवीर चौधरी
खरोंच/ किरीट दूधात
संस्मरण
नि:संग/ रतिलाल ‘अनिल’
गुजराती कविताएं
वैश्विक सिनेमा
रोनेवाले ऊंट/ राहुल सिंह
मीडिया
धन्य हैं ये न्यूज चैनल/ प्रांजल धर
कहानी
ब्लडी/ सविता पाठक
प्रेक्षागृह/हरिसुमन बिष्ट
प्रबला/अनिता सभरवाल
पुनर्पाठ
‘कफ़न’: मृत्यु नहीं, जीवन की कहानी है - कमल किशोर गोयनका
विवाद
फेसबुक पर ‘रागदरबारी’/भारत भारद्वाज

स्वच्छ भारत का नारा देने वाले नरेंद्र मोदी क्या सांस्कृतिक अस्वच्छता की तरफ भी ध्यान देंगे? मुझे ऐसा नहीं लगता। वे जिस संघ परिवार से आएं हैं वह तो भारतीय संस्कृति की महानता का बखान करते नहीं थकता और यह महान संस्कृति पुनर्जन्म, कर्मवाद और वर्ण व्यवस्था के मजबूत पायों पर टिकी हुई है। उसके लिए सांस्कृतिक अस्वच्छता की बात ही करना किसी बड़े गुनाह से कम नहीं है। संघ परिवार का ध्यान कभी इस पर नहीं गया कि दुनिया भर की बेहतरीन शाक सब्जियां, फल और अन्न उत्पादन करने वाला और विविध जलवायु वाला यह भूखंड क्यों नहीं ऐसे हट्टे-कट्टे योद्धा पैदा कर सका जो उसके लिए एक युद्ध ही जीत कर दिखा देते। जब तक वर्ण व्यवस्था के अनुरूप सिर्फ क्षत्रियों को युद्ध में भाग लेने का अधिकार हासिल था, अपने से बहुत छोटी विदेशी सेनाओं से भी हम हमेशा हारते रहे। यह तो सिर्फ 1971 में संभव हो पाया कि हमने एक बड़े युद्ध में विजय हासिल की; पर यह तब हुआ जब हमारी सेना का अधिकांश हिस्सा पिछड़ों, दलितों, अल्पसंख्यकों तथा आदिवासियों से बना था। सांस्कृतिक श्रेष्ठता का दंभ भरने वाले हार के इस कारण को कभी स्वीकार नहीं करेंगे और हमेशा हर हार के पीछे कुछ काल्पनिक कारण तलाशने की कोशिश करते रहेंगे।

इसी प्रकार पढ़ने का अधिकार सिर्फ ब्राह्मणों को देने का नतीजा यह हुआ कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा शिक्षा विरोधी समाज बन गया। जहां कुरान ने कहा कि यदि शिक्षा हासिल करने के लिए चीन भी जाना हो तो जाएं, हम भारत में अपने बहुसंख्यक समाज को—जिनमें दलित, पिछड़े और स्त्रियां सम्मिलित थीं—शिक्षा से वंचित करने की सैद्धांतिकी निर्मित करने में लगे थे। अपनी पीठ खुद थपथपाने के अतिरिक्त हमने लाख स्वयं को जगतगुरु घोषित किया हो पर इस तथाकथित श्रेष्ठ संस्कृति ने हमें एक ऐसी जीवन पद्धति दी जिससे हम दुनिया के सबसे गंदे राष्ट्रों की कतार में खड़े हो गए हैं और इसी गंदगी को दूर करने की बात प्रधानमंत्री मोदी कर रहे हैं। पर, क्या यह गंदगी सिर्फ वाह्य और भौतिक अशुद्धियों की सफाई से दूर हो सकती है? क्या सिर्फ औद्योगिक कचरों और सीवर के नालों को नदियों में गिरने से रोककर नदियों को स्वच्छ किया जा सकता है? मेरा मानना है कि बिना सांस्कृतिक सफाई के भौतिक सफाई संभव नहीं है। यह एक असंभव-सा लक्ष्य है जिसे मोदी और संघ परिवार तभी हासिल कर सकेंगे जब वे यह स्वीकार करेंगे कि गंदगी की जड़ें उसी भारतीय संस्कृति में छिपी हुर्इं हैं जिसे वे महान मानते हैं। अपने एक भाषण में मोदी ने कहा था कि हमें देवालयों से अधिक शौचालयों की आवश्यकता है। काश वे अब भी यही सोचते हों!

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