कहानी: घर चले गंगाजी? - प्रियदर्शन | #Hindi #Kahani Ghar Chale Gangaji ? - Priyadarshan


घर चले गंगाजी?

प्रियदर्शन

गंगा जी बेहद मामूली आदमी हैं- इतने मामूली कि उनकी कहानी नहीं बन सकती।

    इसके बावजूद मैं उनकी कहानी लिखने बैठा हूं।

    क्या यह मेरा दुस्साहस है? एक लेखक के भीतर छुपा यह अभिमान कि वह बेहद सामान्य लोगों के भीतर छुपे विशिष्ट अनुभवों को पकड़ कर एक अच्छी कहानी लिख सकता है?

    या यह मेरा सयानापन है? कई बड़े लेखकों को पढ़कर हासिल हुआ यह सयानापन कि अगर आप शिल्प को ठीक से साध सकें और जीवन को उसमें बांध सकें तो एक सामान्य सी दिखने वाली चीज से भी एक बड़ी कहानी बना सकते हैं?

    हो सकता है, मेरे इस प्रयत्न में दोनों बातें शामिल हों। लेकिन ज्यादा सच्ची और ईमानदार बात यह है कि गंगा जी से मिलने के बाद कुछ ऐसा था जिसकी वजह से मैं देर तक सोचता रहा और इस नतीजे तक पहुंचा कि बिना कहानी लिखे यह समझना मुश्किल होगा कि गंगा जी ने क्यों मेरे भीतर कुछ ऐसा छू लिया जिसकी वजह से एक छूटी हुई विधा मुझे फिर याद आ गई।

बारिश धुआँ और दोस्त प्रियदर्शन की इन कहानियों में एक धड़कता हुआ समाज दिखता है—वह समाज जो हमारी तेज़ दिनचर्या में अनदेखा-सा, पीछे छूटता हुआ सा रह जाता है। इनमें घरों और दफ्तरों की चौकीदारी करते वे दरबान हैं जो अपने बच्चों के लिए बेहतर और सुंदर भविष्य की कल्पना करते हैं, ऐसे मामूली सिपाही हैं जो भीड़ पर डंडे चलाते-चलाते किसी बच्चे के ऊपर पंखा झलने लगते हैं, ऐसी लड़कियाँ हैं जो हर बार नई लगती हैं और अपनी रेशमी खिलखिलाहटों के बीच दुख का एक धागा बचाए रखती हैं और ऐसा संसार है जो कुचला जाकर भी कायम रहता है। जि़ंदगी से रोज़ दो-दो हाथ करते और अपने हिस्से के सुख-दुख बाँटते-छाँटते इन चरित्रों की कहानियाँ एक विरल पठनीयता के साथ लिखी गई हैं—ऐसी किस्सागोई के साथ जिसमें नाटकीयता नहीं, लेकिन गहरी संलग्नता है जो अपने पाठक का हाथ थामकर उसे दूर तक साथ चलने को मज़बूर करती है। निहायत तरल और पारदर्शी भाषा में लिखी गईं ये कहानियाँ दरअसल पाठक और किरदार का फासला लगातार कम करती चलती हैं और यहाँ से लौटता हुआ पाठक अपने-आप को खाली हाथ महसूस नहीं करता। शुष्क और निरे यथार्थ की इकहरी राजनीतिक कहानियों या फिर वायवीय और रूमानी शब्दजाल में खोई मूलत: भाववादी कहानियों से अलग प्रियदर्शन की ये कहानियाँ अपने समय को पूरी संवेदनशीलता के साथ समझने और पकड़ने की कोशिश की वजह से विशिष्ट हो उठती हैं। इनमें राजनीति भी दिखती है, अर्थनीति भी, प्रेम भी दिखता है दुविधा भी, सत्ता के समीकरण भी दिखते हैं, प्रतिरोध की विवशता भी, लेकिन इन सबसे ज़्यादा वह मनुष्यता दिखती है जिसकी चादर तमाम धूल-मिट्टी के बाद भी जस की तस है। निस्संदेह, 'उसके हिस्से का जादू’ के बाद प्रियदर्शन का यह दूसरा कथा-संग्रह उन्हें समकालीन कथा-लेखकों के बीच एक अलग पहचान देता है।
    यानी यह कहानी आपसे ज्यादा मैं अपने लिए लिख रहा हूं। गंगा जी हमारे पास रोज आते हैं, फिर भी अदृश्य रहते हैं। यह उनकी खूबी नहीं, हमारी कमज़ोरी है। हम बहुत सारी चीजें देखते हैं, दुनिया भर की खबर जुटाते हैं, लेकिन मेज और कंप्यूटर के पार आते-जाते, चाय पिलाते गंगा जी हमें नज़र नहीं आते। यह सिलसिला छह साल से जारी है।
    

     गंगा जी को मैं छह साल से जानता रहा हूं- या कहना चाहिए, जानता नहीं देखता रहा हूं। वे हमें चाय पिलाया करते हैं। वे हमारे दफ्तर के किचन के स्थायी स्टाफ हैं। छह साल पहले जब मैं इस दफ्तर में दाखिल हुआ तो लगातार काम करने के तनाव के बीच अचानक दोपहर तीन बजे के आसपास आई एक चाय मुझे कुछ राहत दे गई। खास लोगों के चेहरे भूल जाने वाला मैं चाय देने वाले इस चेहरे को तब याद नहीं रख सका। लेकिन धीरे-धीरे गंगाजी एक परिचित चेहरा और नाम हो गए। जब वे एक बड़ी सी ट्रे में २०-२५ कप चाय लिए हॉल में दाखिल होते तो हर तरफ उनकी आवाज़ लग जाती- ‘गंगा जी, इधर भी, अरे गंगा जी उधर भी।’

    गंगा जी अपनी विनम्र मैथिली भीगी हिंदी में सारे सर जी को हां हां करते हुए चाय बांटते रहते। लेकिन चायवाले से ज्यादा बड़ी पहचान गंगाजी की तब तक नहीं बन सकी- एक ऐसे शख्स की पहचान, जो आता है तो भाप उड़ाती चाय लाता है और फिर हमारी स्मृति से भी भाप की ही तरह गायब हो जाता है।

    लेकिन उस दिन चाय बांटते-बांटते गंगाजी ठहर गए। न्यूज रूम में लगे टीवी चैनलों में एक पर उनकी नज़र चिपक गई, ‘ये बाबरी मस्जिद है न सरजी’?

    यह ६ दिसंबर था। चैनलों पर बाबरी की बरसी चल रही थी- मंदिर और मस्जिद के बीच की वह राजनीति, जो बड़ी जल्दी इतिहास हो गई।

    मैं ६ दिसंबर, १९९२ के बाद भारतीय समाज में आए बदलावों पर एक पैकेज लिखने की सोच रहा था- कैसे बाबरी मस्जिद की टूटन सारे देश की टूटन में बदलती चली गई, कैसे बाबरी मस्जिद की वजह से मुंबई में दंगे हुए और फिर धमाके, कैसे आतंकवाद इस देश की दिनचर्या का हिस्सा हो गया। मैंने उड़ती हुई नज़र डाली, और मुस्कुराते हुए गंगाजी के सामान्य ज्ञान का हौसला बढ़ाने की कोशिश की- ‘अरे गंगाजी, आपको तो ठीकठाक जानकारी है।’

    ‘काहे नहीं होगी सरजी, बाबरी मस्जिद के चलते तो हमको बंगलौर छोड़ना पड़ा।’

    अचानक मैं ठहर गया। कंप्यूटर की स्क्रीन पर टिकी मेरी निगाह हैरानी से गंगाजी का चेहरा टटोलने लगी। बाबरी मस्जिद की वजह से हमें तो कुछ छो़ड़ना नहीं पड़ा? फिर ये गंगाजी तो मुसलमान भी नहीं हैं। फिर इनका नुकसान क्या हुआ।

    सवाल पूछने की जरूरत नहीं पड़ी। गंगाजी ख़ुद बताने लगे। ‘बंगलौर में हम पान की दुकान लगाते थे सर- एक बडे होटल में। होटल मुसलमान का था। बदमाश लोग आकर होटल जला गए, सब लूट ले गए। हमारा पान दुकान भी नहीं बचा।’

    ‘कोई मुआवजा नहीं मिला? दुबारा नहीं खोली दुकान?’

    ‘इतना आसान थोड़े होता है सरजी। मुआवजा भी बड़ा लोग को मिलता है। हम जिसको बताते कि मेरा भी नुकसान हुआ है, वही हंसता। मुसलमान के खिलाफ दंगे में हिंदू को मुआवजा कैसे मिलेगा।’

    अचानक मेरी समाजशास्त्रीय दिलचस्पी जाग उठी। मैंने एक दरार पकड़नी चाही। पूछा, ‘यानी आपको हिंदू होने के चलते मुआवजा नहीं मिला, मुसलमान होते तो मिल जाता।’

    लेकिन इस मोड़ पर गंगाजी मुझसे ज्यादा खरे निकले। बोले, ‘हिंदू-मुसलमान का मामला नहीं है सरजी। बहुत तरह की मुसीबत है। गरीब आदमी की सुनने वाला कोई नहीं होता है। फिर हम बिहारी- बंगलौर में सबको ऐसे ही गड़ते थे। पुलिसवाला पान खा के चला जाता था, पैसा मांगते थे तो बोलता था, कन्नड़ बोलो। किसी से कंप्लेन करो तो हंसता था, बोलता था, कावेरी का पानी पीना है तो कन्नड़ बोलना होगा।’

    मैं हैरान था। देख रहा था, गंगाराम को, जिन्हें अपनी हैसियत, अपनी हकीकत मालूम थी। वे बाबरी मस्जिद के नतीजों पर मेरे शोध और अध्ययन से कहीं ज़्यादा प्रामाणिक राय रखते थे।

    यह अलग बात है कि यह राय उनके पूरे वजूद की तरह उनके ही भीतर कहीं अदृश्य थी। गंगाजी अपनी खाली ट्रे घुमाते, मुस्कुराते हुए चले गए। शायद कुछ कृतज्ञ भी कि इस दफ्तर के एक आदमी ने छह साल बाद ही सही, उनसे इतनी देर बात तो की।    

    उस शाम बाबरी मस्जिद को निबटा कर, कुछ संतुष्ट सा मैं घर के लिए निकला तो फिर गंगाजी पर नजर पर पड़ गई। वे भी शायद निकलने वाले थे। अचानक मैंने कुछ बेतकल्लूफ़ी से पूछ लिया, ‘क्या गंगाजी, घर चले।’

    गंगाजी कुछ खुश से हो गए, ‘हां सरजी,’ फिर अचानक सकुचाते हुए उन्होंने पूछा, ‘आपके साथ चलें सर, मदर डेयरी के पास उतर जाएंगे?’

    मैंने फौरन उनकी बात मान ली। एक अपनी सहज आत्मीयता की वजह से, दूसरे, शायद इसलिए भी कि गंगाजी की कहानी में मेरी दिलचस्पी जाग गई थी। आखिर यह मैथिल मानुस बंगलौर कहां पहुंच गया था। और फिर दिल्ली के इस शानदार दफ्तर में कैसे चला आया।

    ‘आपकी उम्र क्या होगी गंगाजी?’ मैंने गाड़ी पार्किंग से बाहर निकालते हुए पूछा।

    ‘सब लोग बहुत कम समझते हैं सरजी, लेकिन ३५ पार तो होगा ही।’

    कुछ उत्साह के साथ गंगाजी ने कहा।

    ‘अच्छा!’ मुझे भी हैरानी हुई। मैं भी उन्हें २५-३० के आसपास का मानता था।

    ‘हां सरजी, जिस साल इंदिरा गांधी मरी थी, उस साल हम दसवीं का इम्तहान दिए थे।’

    ‘अच्छा, आपने दसवीं कर रखी है।’

    ‘अरे नहीं, सरजी, दसवीं में फेल हो गए तो घर से भाग गए।’ कार के अंधेरे में भी गंगाजी की आवाज में छुपा पछतावा जैसे चमक रहा था।

    ‘भाग क्यों गए? पढ़ने में मन नहीं लगता था?’ मुझे इससे बेहतर दूसरा सवाल सूझा ही नहीं।

    ‘नहीं सरजी, स्कूल में बहुत परेशानी था। मास्टर आता नहीं था। आता था तो किताब-कॉपी नहीं होने पर मारता था। किताब-कॉपी के लिए पैसा मांगो तो पिताजी मारते थे। किसी तरह दसवीं तक पहुंच गए। फेल होने के बाद डर से भाग गए।’

    ‘कहां भागे थे?’

    ‘दरभंगा से पहले बस पकड़ के पटना आए। पटना में दो दिन भटकते रहे। फिर रांची में एक चाचाजी थे। उनके पास चले आए।’

    ‘चाचाजी ने समझा कर भेजा नहीं।’

    ‘नहीं, चाचाजी के साथ ही काम करने लगे। वैशाली क़ॉपी बेचते थे। रांची वीमेंस कॉलेज के सामने। अच्छा भी लगता था।’

    ‘फिर?’

    ‘मेरी किस्मत भी खराब है सरजी। एक दिन पुलिस पकड़ कर ले गई।’

    ‘क्यों?’

    गंगाजी चुप हो गए। फीकी सी हंसी के साथ। फिर बातचीत का छूटा हुआ सिरा पकड़ा।

    ‘एक दिन खूब पानी बरस रहा था। लड़की लोग कॉलेज से निकली और भीगने से बचने के लिए मेरी गुमटी के नीचे खड़ी हो गई। वहीं कुछ लड़का लोग भी चला आया। कुछ बदमाशी हुई और मेरा नाम लग गया। पुलिस वाले सबके सामने झापड़ मारते ले गए। जबकि मेरी कोई गलती नहीं थी।’

    ‘अच्छा?’ अब मुझे सहानुभूति होने लगी थी।

    ‘अगले दिन चाचाजी पैसा देकर छुड़ा लिए। लेकिन सबकी नजर से उतर गए थे। वो भी काम से हटा दिए।’

    ‘उसके बाद क्या किया?’

    ‘बहुत काम किए सरजी। वीमेंस कॉलेज के पास ही एक दोस्त बन गया था। वो एक फैक्टरी में लगवा दिया। बोएलर तक चलाए। लेकिन एक दिन इंस्पेक्टर आया और बोला कि इसकी उम्र १८ साल से कम है। ये बोएलर नहीं चलाएगा। मालिक ने फिर निकाल दिया।’

    गंगाजी का गंतव्य आ चुका था। मुस्कुराते हुए वे उतर गए- ‘थैंक्यू सरजी।’

    मैं कार बढ़ाता गंगाजी की कहानी पर सोचता रहा। ४० पार की अपनी उम्र में मेरा किसी हादसे से वास्ता क्यों नहीं पड़ा। न पुलिस पक़ड कर ली गई, न गुंडों ने दुकान जलाई, न किसी इंस्पेक्टर ने नौकरी से निकलवाया। ये गंगाजी की किस्मत का मामला है या इसका वास्ता कुछ हालात से भी है? गंगाजी की उस हैसियत से, जो उन्हें कमज़ोर और कातर बनाती है, एक ऐसा आदमी जिसे पुलिस बिना कसूर झापड़ मारती हुई ले जा सकती है?

    अगले कई दिन गंगाजी से भेंट नहीं हुई। फिर एक दिन मिल गए। वे भी खुश हो गए, मैं भी। उन्हें घर पहुंचने की जल्दी थी, मुझे उनकी छूटी हुई कहानी पूरी करने की हड़बड़ी। कार में कोई अच्छा सा गाना चल रहा था। मैंने माहौल हल्का करते हुए पूछा, ‘गंगाजी, सिनेमा देखते हैं कि नहीं?’

    गंगाजी हंसने लगे, ‘अब तो सरजी, बहुत साल से नहीं देखे। लेकिन १०-१५ साल पहले अनिल कपूर और शाहरुख खान का कोई सिनेमा छोड़ते नहीं थे। तब बंबई में थे।’

    मैं फिर हैरान हो गया, दिल्ली और बंगलौर ही नहीं, मुंबई भी हो आए हैं गंगाजी।

    ‘अरे, आप मुंबई कैसे पहुंच गए?’

    ‘मुकद्दर जहां ले गया, चले गए सरजी।’

    ‘आप भी एकदम मिस्टर इंडिया हैं?’

    मैंने अनिल कपूर की ही फिल्म से बात जोड़ने की कोशिश की।

    ‘अरे नहीं, सरजी, कुछ नहीं हैं।’ उन्हें अपनी हैसियत का पूरा अंदाजा था।

    ‘रांची छोडने के बाद हम एक दोस्त के साथ बंबई चले गए। शुरू में बहुत मारामारी था। कई तरह का काम किए। लेकिन कोई दो दिन चला, चार दिन। फिर एक पेट्रोल पंप पर लग गए।’

    ‘मुंबई में तो आपको किसी ने तंग नहीं किया न?’ मैंने कुरेदना चाहा।

    ‘बंबई में तो जो बीमारी मिली, अब तक नई गई सर।’

    ‘मतलब?’ मेरी समझ में आया कि मैंने उनकी कहीं ज़्यादा दुखती रग पर हाथ रख दी है।

    लेकिन इसके बाद मेरी चुप्पी में भी छुपा हुआ सवाल गंगाजी ने पढ़ लिया था।

    ‘पेट्रोल पंप पर हम दिन भर रहते। शुरू में ठीक लगा। लगा कि पेट्रोल भरने का सीधा-सादा काम है। अच्छा भी लगने लगा। उसी समय इतवार को नाइट शो देखने की आदत पड़ गई थी। बंगलौर और दिल्ली तक सिनेमा देखते रहे।’

    ‘फिर मुंबई क्यों छोड़ दी।’

    ‘दिक्कत धीरे-धीरे समझ में आती है सरजी। १८ घंटे पेट्रोल भरते थे। पेट्रोल की गंध अच्छी नहीं लगने लगी। खूब खांसी आती थी। बहुत बीमार पड़ गए। एक बार तो लगा कि सांस नहीं ले पाऊंगा सरजी। डॉक्टर ने चेक किया तो बोला पेट्रोल से एलर्जी है, ये काम मत करो।’

    ‘तो छोड़ दिया आपने।’


    ‘इतना आसान थोड़े था। पेट्रोल पंप का मालिक समझाता रहा कि मुंह-नाक पर पट्टी बांध के करो। जब हम जबरदस्ती छोड़ दिए तो मेरा महीना भर का पैसा भी नहीं दिया। 



    तभी से बीमारी लग गई। एक बार खांसना शुरू करते हैं तो लगता है जान नहीं बचेगी।’


    ‘फिर वहां से कैसे निकले?’

    ‘वहीं मिला एक दोस्त, जो बंगलौर भेजा। उसका दूर का चाचा एक कंट्रैक्टर का मैनेजर था। होटल बनवाने में वही लगा हुआ था। वहीं पान की गुमटी खोलके बैठ गए। और जब होटल बना तो हमको पान दुकान खोलने का मौका मिल गया।’

    ‘ये बात कब की थी।’

    ‘१९९१ की, जब राजीव गांधी मरे थे। साल भर ठीक से कटा। फिर वही बाबरी का झगडा में दुकान चला गया। लगा कि सब देख लिए, दिल्ली चलते हैं। यहां दरभंगा से बहुत लोग मजदूरी करने आ गया था। हम बोले, हम भी कर लेते हैं।’

    ‘इस कंपनी में कैसे आ गए।’

    ‘बस, किस्मत अच्छी थी सर। एक फर्नीचर वाले के साथ काम करते थे। उसका कुर्सी टेबल चढ़ाने-उतारने, लगाने का काम था। एक बार यहां भी आए। बहुत भारी टेबुल था। उठा रहे थे कि सांस उख़ड़ गई। खांसते-खांसते हालत खराब। उस समय ये ऑफिस बहुत छोटा था। सब लोग जमा हो गया। मालकिन भी। बाद में जब पता चला कि हमको सांस की बीमारी है तो बोलीं, इसका यहां किचेन में रख लो। तब से हम यही हैं। १४ साल हो गया सर।’

    ‘अब तो लाइफ़ सेट हो गई?’

    ‘हां सरजी, अब तो बहुत आराम है। अब तो आठ हजार मिलता है।’

    ‘एकदम सरकारी नौकरी। नहीं?’

    ‘हां सरजी, हमको तो कोई नौकरी मिलनी नहीं थी। हम छोटी जाति के हैं न। हर जगह ब्राह्मन-राजपूत लोग बैठा है। बोलता था, अब तो मंडल कमीशन लागू है, ले लो सरकार से नौकरी। और सरकार के पास नौकरी है तो पता नहीं किसके लिए है।’

    मैंने उनकी जाति जाननी चाही। लेकिन संकोच में पड़ गया। वैसे मन ही मन इस उदारीकरण का शुक्रिया अदा किया, जिसने गंगाजी जैसे आदमी के लिए भी गुंजाइश निकाली। मंडल और कमंडल दोनों की मार झेल चुके इस शख्स को भूमंडलीकरण ने ही जगह दी।

    लेकिन गंगाजी इतने आश्वस्त नहीं थे।

    ‘वैसे एक बात है सरजी, जब कंपनी छोटी थी तब बहुत अच्छी थी। एक-एक आदमी का खयाल रखती। लेकिन जैसे-जैसे बडी होती गई है, सबका सुर बदल गया है। पुराना लोग तो फिर भी कुछ इज्जत करता है, नया लोग बहुत बदतमीजी से बात करता है।’

    ‘अच्छा?’ मुझे याद आया, अक्सर दफ्तर में शिकायत होती कि किचेन वालों से चाय लाने को कहो तो वक्त पर कभी नहीं लाते।

    मेरे कुछ कहे बिना गंगाजी समझ गए। उन्हें पता था कि मैं किस तरफ हूं। उन्होंने बिना पूछे कैफियत दे डाली, ‘देखिए सरजी, पहले डेढ़ सौ लोग थे, हम तीन लोग मिलके सबकी जरूरत पूरी कर देते। अब हजार लोग हैं, और हम लोग बस छह लोग हैं। दौड़ते-दौड़ते हालत खराब हो जाती है। फिर कंट्रैक्टर पूछता है कि इतना चाय किसको पिला देते हो। जब चाय और कॉफी की मशीन लगी है तो तुम क्यों सबको चाय पिलाते रहते हो।’

    उनकी बात मेरी समझ में आ रही थी। लेकिन गंगाजी का असली सवाल बचा हुआ था, ‘सरजी, अब तो सुन रहे हैं, छंटनी भी होगी। नौकरी बचेगी कि नहीं’?

    ‘अरे नहीं, गंगाजी, आप इतने पुराने हैं, आपको कौन छुएगा,’ मैंने तुरंत कहा, हालांकि अपनी बात के प्रति मैं खुद आश्वस्त नहीं था। ये मालूम था कि कंपनी ऊपर-नीचे, नए-पुराने हर किसी का जायजा ले रही है। घाटा काफी ज्यादा है और सैलरी को’रैशनलाइज़’ करना है। ऐसी हालत में कुछ लोगों को जाना होगा। देखा जा रहा है कि कहां-कहां कितने लोगों के बिना काम चल सकता है। कौन-कौन लोग फालतू हैं, या कंपनी पर बोझ हैं।

    मुश्किल यह है कि हर महकमे में ऐसे लोगों की सूची बनाने वाले वे लोग थे जिनकी वजह से कंपनी का यह हाल हुआ। इसलिए किस पर किस वजह से तलवार गिरेगी, किसी को नहीं पता था। फिर भी मुझे लगा, गंगा जी जैसे पुराने आदमी को निकाल कर कंपनी कितना पैसा बचा लेगी। इसलिए मैं मान रहा था कि उनका कुछ नहीं होगा।

    फिर दो महीने बीत गए। अनिश्चिचतता के तार तनते गए और एक दिन टूट गए। हमारे सेक्शन से आठ लोगों को बाहर किया गया था। पूरे दफ्तर से बाहर होने वालों की सूची ५० के आसपास थी।

    दफ्तर में सन्नाटा था। मेरे भीतर और ज्यादा। खाने-पीने की इच्छा जैसे मर गई थी। जैसे घर में लाशें पड़ी हों।

    शाम तक सिर बुरी तरह दुखने लगा था। मन अब तक ठीक नहीं हुआ था। आम तौर पर मैं किचेन वालों को चाय के लिए नहीं बोलता। लेकिन मैंने फोन मिलाया। उठाने वाले की आवाज़ नहीं पहचान सका। मैंने पूछा, गंगाजी?

    ‘गंगाजी तो चले गए। उनकी छुट्टी हो गई है?’

    ‘अच्छा?’ मुझे जैसे झटका लगा था, इस गिरी हुई लाश की खबर क्यों नहीं मिली? इन दिनों उनका खयाल मुझे आया तक क्यों नहीं? मैंने धीरे से फोन रख दिया। तय किया, अब चाय नहीं पिऊंगा।

    गंगाजी को आठ हजार मिलते थे। उदारीकरण ने दिए थे। लेकिन उदारीकरण को उनकी हैसियत मालूम थी। जब तक चाय पिलाने का काम चलता रहा, गंगाजी चलते रहे। जब मशीनें लग गईं, गंगाजी को बाहर कर दिया।

    मेरी कहानी अधूरी छूट गई।

    रात १० बजे मैं दफ्तर से निकला। पार्किंग में आने से पहले कोने की तरफ देखा, जहां गंगाजी खड़े रहते थे, मेरी राह देखते और संकोच से पूछते, ‘आपके साथ चलें सर?’

संपर्क:

प्रियदर्शन

ई-4, जनसत्ता, सेक्टर नौ, वसुंधरा, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश
मोबाईल: 09811901398
ईमेल: priyadarshan.parag@gmail.com
    वह जगह खाली थी। मैं अकेले निकला। सड़क के आखिरी सिरे पर पेट्रोल पंप था।

    मैंने हमेशा की तरह कार पंप के आगे लगा दी।

    अचानक मैं चिंहुंक गया। मुंह पर पट्टी बांधे एक आदमी पेट्रोल भर रहा था।

    वही आदमी, जो दरभंगा में दसवीं में फेल करके भागा, रांची में पुलिस के हाथों पिटा, मुंबई में पेट्रोल से खांसता परेशान रहा, उसने बेंगलुरु में अपनी पान दुकान जलती देखी और फिर दिल्ली में १४-१५ साल की नौकरी के बाद एक रात निकाल दिया।

    वह आदमी मुझे सलाम कर रहा था, ‘सरजी, देखिएगा कुछ हो सके तो। अभी तो यहां लग गए हैं।..’

    गंगाजी से आंख मिलाते मुझे मुश्किल हो रही थी। सांस लेना भारी हो गया था। लगा, उनकी बीमारी मेरे भीतर उतर आई है।

    गंगाजी की कहानी अब मैं यहीं छोड़ रहा हूं।

    इस उम्मीद में कि कभी इस कहानी में कुछ अच्छे मोड़ आएंगे।
००००००००००००००००

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

ये पढ़ी हैं आपने?

Hindi Story: 'शतरंज के खिलाड़ी' — मुंशी प्रेमचंद की हिन्दी कहानी
आज का नीरो: राजेंद्र राजन की चार कविताएं
भारतीय उपक्रमी महिला — आरिफा जान | श्वेता यादव की रिपोर्ट | Indian Women Entrepreneur - Arifa Jan
Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
मैत्रेयी पुष्पा की कहानियाँ — 'पगला गई है भागवती!...'
Harvard, Columbia, Yale, Stanford, Tufts and other US university student & alumni STATEMENT ON POLICE BRUTALITY ON UNIVERSITY CAMPUSES
एक पेड़ की मौत: अलका सरावगी की हिंदी कहानी | 2025 पर्यावरण चेतना
तू तौ वहां रह्यौ ऐ, कहानी सुनाय सकै जामिआ की — अशोक चक्रधर | #जामिया
गिरिराज किशोर : स्मृतियां और अवदान — रवीन्द्र त्रिपाठी
ईदगाह: मुंशी प्रेमचंद की अमर कहानी | Idgah by Munshi Premchand for Eid 2025