कहानी: मिस लैला झूठ में क्यों जीती है? ~ प्रेमा झा | Hindi Kahani 'Miss Laila...' by Prema Jha


मिस लैला झूठ में क्यों जीती है?

~ प्रेमा झा 

इस दरवाज़े के बाहर और भीतर एक से दूसरे ग्रह जितना फासला है । मिस लैला और उनके करीबी मित्रों के बीच ये दरवाज़ा ही है, जो लैला का कभी-कभी पति बनकर चीख भी पड़ता है । जब वो थक कर घर देर से पंहुचती है या कभी-कभी रात को बिना खाए ही सो जाती है । दरवाज़ा लकड़ी का बना हुआ है जो गैरेज में बंद रहता है । किसी को भी तब तक पता नहीं चल सकता है जब तक मिस लैला खुद से उसे न बता दे कि ऊपर एक दरवाज़ा और भी है ।  
आज वो सुबह-सुबह चहल-पहल में अपनी ही बाजुओं से फारिग होती है । 

 आह-- हाँ–हाँ -- ! !

जल्दी-जल्दी गुसलखाना जाकर टॉवेल में लिपटती है और शॉवर जोर से खोलती है । 
कहानी: मिस लैला झूठ में क्यों जीती है?  ~ प्रेमा झा | Hindi Kahani 'Miss Laila...' by Prema Jha

साबुन के तमाम झागों में उसके सपने तैरने लगते हैं ; नीले बुलबुले में प्रेमी का सपना, पीले में घर का सपना, सफ़ेद में निश्चिन्तता की ख्वाहिश और हरे रंग में प्यार का सपना । ये सपने का विभिन्न रंगों में विस्थापन इस बुलबुले ने नहीं, उसने खुद ही कर लिया है । 

शॉवर से बहार आकर वह अपने अन्तः वस्त्रों को बड़ी चुनिन्दा तरीके से वार्डरॉब से बहार निकलती है और पहन लेती है । अपने लम्बे बालों में फूल लगाना वो कभी भी नहीं भूलती । 

ओह हो . . .  मेरा सेल फ़ोन - क्या पता वो अभी ही याद कर ले । ये वो उसके जीवन में उसके राहत के मुताबिक़ बदलता रहता है । कभी ‘वो’ नाम का शख्स उसके शहर से बहुत दूर होता है तो कभी बहुत पास । ये ‘वो’ कभी उसके पास उसकी तन्हाइयों में या काली रात में होता है ‘वो’ भीड़ में होता है, बस में होता है, मेट्रो में और सड़क पर गुजरती गलियों से हर वक़्त बाहर और भीतर गुजरता रहता है । 

“अरे; वो तो आज ‘शो’ में होंगे, उनके नाटक का मंचन है । कलाकारों का बड़ा हुजूम लगा होगा मंडी हाउस में ! कितना अच्छा गाता है सुखविंदर उनका सबसे अच्छा शिष्य भी तो है । ” 

काश ! मैं इस शो में शरीक हो पाती । 

क्या पता वो लंच टाइम में खुद ही फ़ोन कर ले । भागती-दौड़ती लैला ऑफिस पहुंचती है ।

मि० अविनाश के नाटक का मंचन हो और पंहुच न पाऊँ ये तो होना नहीं चाहिए । यही कोई दो बरस पहले की बात है । मि० अविनाश रायपुर बस स्टैंड पर मिल गए थे । हाथ में सिगरेट, होंठों पर बेचैनी का धुंआ और कान में लगा ईयर-फ़ोन ; कोई नहीं कह सकता था एक पेशेवर पत्रकार, संपादक और इतना गंभीर कथाकार; एक प्रतिष्ठीत साहित्यकार का ये हुलिया । 

मिस लैला घबराई हुई थी । दिल्ली की बस का इंतज़ार और मौसम का अचानक ख़राब हो जाना; सब मिस लैला की बेचैनी के सबब बन रहे थे । ये बेचैनी मि० अविनाश के होने की बेचैनी से एकसार होने लगी । बेचैनी का धुआं कभी–कभी कितना वासंतिक हो सकता है मिस लैला को पहली बार अंदाजा हुआ, जब मि० अविनाश अचानक आकर उसका हाथ पकड़कर पूछ पड़ते हैं, “कहाँ है आपका टिकट? यूं ही चुपचाप खड़ा देखकर कंडक्टर आपसे कुछ पूछ नहीं पाया और मुझे आपके बगल में खड़ा हुआ देखकर कुछ और ही समझ लिया । ” 

इस तरह कुछ और ही समझना, मिस लैला के जीवन का हिस्सा बनाने लगा । फिर मिस लैला भी कभी नहीं समझ पायी । 

कुछ और समझने और समझने में जो दो दुनियाओं का फर्क होता है, जमीन और आसमान बनकर हमारी दुनिया के बादल और मिट्टी बन जाते हैं । फिर हम सच की मिट्टी और सच के बादल को बहुत बाद में देखते हैं तबतक ! बादल भी चला जाता है और मिट्टी तो मिट्टी है, एक घर बन जाए तो रोज़ पानी के साथ मिलकर-भिगोकर संजोगना और संवारना पड़ता है । 

मिट्टी का घर में बदलाव कोई आसान बात नहीं है । मिस लैला सोचती रहती है कि अचानक उसके हाथ अपने हाथ से बंधे-बंधे खुल जाते हैं । मि० अविनाश के हाथ से फारिग भले हुई थी वो, मगर उसने उस गर्म आगोशी को कभी ठंडा नहीं होने दिया । आज वो बेहतर तैयार होगी और जरूर जाएगी । नीली साड़ी में लिपटी मिस लैला बालों में फूल और फूल में क्लिप जोर से दबाती है । एक किताब के अध्याय की तरह सलीके से पन्नों में संवरी कई दास्तान पंक्तिबद्ध हो जाती हैं और मिस लैला दो पंक्तियाँ लिख डालती है । उनकी यादों से भीगी पलकों में कभी इतनी रूमानियत नहीं मिली जितनी की आज ! वो गुलाबी भी हुई और सफ़ेद भी । 

सफ़ेद में सब बस सब साफ़ हो जाता है । 

एक शीशे के ग्लास में रखे पानी की तरह । चाहे तो पी लो या टेबल पर छोड़ दो । दोनों स्थितियाँ ही प्यास की तड़प से बचने के उपाय भर है । प्यास तो नदी की भी होती है और सागर की भी और रेत की भी । सुराहियों से लिपटी हुई प्यास क्या कभी बुझ पायी? सब सिर्फ प्यास से बचने के उपाय भर है । 

लैला, अपनी कुलीग से प्यारी-सी रिंगटोन शेयर करती है । हाँ, ये वाला खूब जंचेगा ! उनके होने का एहसास है इस धुन में । 

---और लैला “तेरी-मेरी मेरी-तेरी प्रेम कहानी . . .  ” वाली रिंगटोन लगा लेती है । लंच टाइम होता है । मि० डी का मैसेज है । इनबॉक्स में ताबड़तोड़ मची हुई है । “ये क्या. . .  उन्होंने मुझे ये सब क्यों सेंड किया है?” मि० डी फ़ोन पर चमकनें लगे, “मिस लैला कहाँ हैं आप आजकल. . .   बड़ी फुर्सत से सोचा चलो आज बात कर ली जाए । मिस लैला आप ठीक तो है न !” 

“हाँ-हाँ मैं ठीक हूँ, आप बताएं क्या चल रहा है?”

“बताना क्या है बस ! आपकी याद आई और फ़ोन कर लिया । मिस लैला उनसे बड़े ही फॉर्मुलेगत तरीके से फ़ारिग होती है । अरे हाँ, मैं तो भूल ही गई सक्सेना सर आज शहर में मौजूद हैं, उनसे मिलने भी जाना है । उन्हें मेरी कविताओं का जबरदस्त शौक है । आज उनकी नयी मैगज़ीन का कायाकल्प भी होगा । तभी फ़ोन पर उंगलियाँ घुमाती लैला की आवाज़ सीधे तौर पर पूछ पड़ती है, “मि० सक्सेना देयर. . .  हाउ आर यू सर? आयल जस्ट कम विदीन फिफ्टीन मिनट्स । ” 

“ओके लैला, आयम इन होटल डी लियू । ” 

“ओके बॉस . . .  जस्ट कम !”

लैला ऑफिस की फाइलों से विदा लेती है, अपनी साड़ी का पल्लू सम्हालती है । फूल में क्लिप जोर से दबाती है और चल देती है । कहीं इसी फूल की तरह वह भी तो नहीं बार-बार किसी क्लिप में दब जाती है । गाडी चल पड़ती है । अनवरत यात्रा पर । मिस लैला को कहाँ आखिर बहुत बेचैनी से जाना है?

हर वक़्त भागती सड़क का कोई पड़ाव शायद नहीं होता है. . .  फिर से मेट्रो, स्टेशन और बस स्टॉप !

मिस लैला, बालों का फूल और कंधे पर टंगा बैग सब बहुत चुप है । 

भागती-बिखरती मिस लैला होटल डी लियू पंहुचती है । मि० सक्सेना उसका इंतज़ार कर रहे हैं । सेंटर टेबल से सटे किनारे वाली कुर्सी पर बड़े बुके के साथ । मि० सक्सेना, लैला को देखते ही चहक पड़ते हैं, ”कहाँ रह गई थी आप? हम कबसे आपको सोच रहे हैं !” मिस लैला मुस्कुराती हुई अपने खुले बाजुओं से मि० सक्सेना के करीब आती है । एक पल सब थम जाता है । ये मिलना-मिलाना कहीं बहुत देर तक नहीं होता । मिस लैला अपने सब पुरुष-मित्रों से यूं ही बेबाकी से मिलती है । 

“क्या लेंगी आप. . .  ठंडा या गर्म?”

मिस लैला जरा शर्माती हुई चाय के लिए हाँ करती है । वैसा उनका ये शर्माना पहली बार नहीं है । वो बार-बार शर्मीले बनने का अभिनय करती है । बार-बार थोड़ी और नयी यौवना की तरह नज़रें झुकाने और फिर उठाने में मिस लैला को महारत हासिल है । या यूँ कहे कि ये सब वो जानबूझकर तो नहीं मगर अपने जीवन का एक महत्वपूर्ण कर्म समझकर करती रहती है । चाय की चुस्कियों में घडी की सुइयां बीतती रहती है । 

“मैं आपको छोड़ दूं मिस लैला रात हो गई है । दिल्ली में आठ बजे के बाद सेफ नहीं होता लड़कियों का बहार होना । ”

“यस सर अच्छा होगा अगर आप मुझे ड्राप कर दें !”

मि० सक्सेना गाड़ी का दरवाज़ा खोलते हैं । लैला का बैग गाड़ी के दरवाज़े में फंसता है जिसे मि० सक्सेना दोनों हाथों से सम्हालते हैं । वो इसी तरह कई बार लैला को सम्हालते रहे हैं । उस दिन कनाट प्लेस में कैंडल लाइट डिनर के बाद लैला ने पांच पेग ले लिए थे तब भी मि० सक्सेना ने ही उसे घर तक ड्राप किया । लेकिन बस घर के दरवाज़े तक ! उसके बाद लैला खुद ही जोर से दरवाज़ा खोल लेती है और बहुत भीतर तक चली जाती है । 

इस दरवाज़े के बाहर और भीतर एक से दूसरे ग्रह जितना फासला है । मिस लैला और उनके करीबी मित्रों के बीच ये दरवाज़ा ही है, जो लैला का कभी-कभी पति बनकर चीख भी पड़ता है । जब वो थक कर घर देर से पंहुचती है या कभी-कभी रात को बिना खाए ही सो जाती है । दरवाज़ा लकड़ी का बना हुआ है जो गैरेज में बंद रहता है । किसी को भी तब तक पता नहीं चल सकता है जब तक मिस लैला खुद से उसे न बता दे कि ऊपर एक दरवाज़ा और भी है । 

उस दिन लैला बहुत रोई थी जब बॉस ने “न” कहकर उसकी आर्टिकल सिर्फ इसलिए रिजेक्ट कर दिया क्योंकि उस आर्टिकल में लिखी बातें कहीं बहुत हद तक उसके निजी जीवन की सच्ची और संजीदा बातों को भी अपने मुंह से बयान करने लगी थी । 

क्या बुराई थी भला; अगर सच्ची बातें, उसकी पीड़ा किसी आर्टिकल के ज़रिये लोगों तक पहुंच जाए । मिस लैला पहली बार ऑफिस में रो पड़ी थी । जो सही नहीं है; लैला कभी उसके साथ खड़ी नहीं हुई । कोई अगर धोखा करे तो वो उसे बर्दाश्त नहीं करेगी । पहली बार उसने जाना जॉब-कल्चर हमारे-आपके जीवन से कितना अलग और कितनी अतिथि-सी चीज़ होती है, जिसके सामने सब सिर्फ सब हम दिखावे के लिए करते हैं । दुनियावी बातें, दिल के दर्द, और रोज़ के कष्ट और उस कष्ट के सच से बहुत आगे निकल गई है । दुनिया इसलिए तो भागती है उसे उसकी गोलाई में आगे वृतों का भान नहीं होता । ये वृत करोड़ों व्यास में पीड़ा सहे या किलकारियां मारते रहें , दुनिया उसे पुनः-पुनः छोड़ती आगे भागती रहती है । इसलिए शायद मैं जब भी चली मुझसे उम्र में दो बरस बड़ी रही जिंदगी । 

उस वक़्त मि० सुब्रतो ने उसे बड़ा सहारा दिया था । उनको देखा उसने पहली बार जब वो कनाट प्लेस के एक रेस्त्रां में बैठकर अपने ग़म को भुलानें की नाकाम कोशिश में कामयाब कश लेती जा रही थी । फिर से सब हरा मगर हरा तो नहीं ! हाँ, लेकिन एक धुन्धलकी लाल रेखा पसर गई थी चारों ओर । यूँ ही रोज़ मिलने लगी मि० सुब्रतो से और दोनों दोस्त हो गए थे । फिर से कहीं किसी कोने से वही कहानी चल पड़ी धुआं और बेचैनी । 

फिर मिलने लगे थे दोनों, दोनों आकाश को ताकते और कहीं खो जाते कोई बादल न बन सका न मिट्टी ही सँवरने का नाम लेती । यथावत गमले की मिट्टी-सा एक कृत्रिम प्रकृति की तरह सब हैण्डमेड तो था मगर कोई पेड़ पर न उग सका पेड़ पर उग आने के लिए बहुत-सी मिट्टी, फिर मिट्टी का पानी में सना होना बहुत जरूरी होता है 

खैर; मिस लैला तात्कालिक खुश हो लेती है इन गमले को देखकर ! कहीं-न-कहीं पूरी प्रकृति और फुलवारी की कामना आँखों में लिए मिस लैला शायद गमले को देखती ही नहीं थी वो पूरा बाग़ आँखों में लिए रहती है हरदम, हर वक़्त । 

मि० मिश्रा कुछ नहीं बोलते हैं और लैला खामोश है । घर आ गया या दरवाज़ा ! कार का दरवाज़ा खुलता है लकड़ी वाला दरवाजा अपनी मजबूती की तस्दीक करता है और एक बार फिर से चीख पड़ता है लैला घर पंहुचते ही वॉशरूम में जाती है और शॉवर लेती है फिर एक बदले अन्तः-वस्त्रों के साथ टी०वी० ऑन करती है । तीन-चार पेग लगाती है और सो जाती है 

सुबह-सुबह आज मि० जौहरी का शूट अपने शहर में होना है । उनसे मिलने अगर जाना है तो दोपहर ही मुफ़ीद होगा । लैला भागती हुई ऑफिस पहुंचती है । बॉस से ‘हॉफ डे’ लेती है और ऑटो में बैठ जाती है, “भैया सीधा चांदनी चौक चलो । ” 

ट्रिंग-ट्रिंग . . .  ”यस ! मि० जौहरी मैं अभी बस 15 मिनट्स में . . .   !” 

“हाय मिस लैला, सब कैसा चल रहा है?”

“ओह-नो ! आय फॉरगॉट. . .  ”

“कोई नहीं मैं लगा देता हूँ । ” मि० जौहरी की आवाज़ में दूर से आती रेलगाड़ी का अपने स्टेशन पंहुच जाने जैसा सुख सुनाई पड़ता है और लैला की भूल में किसी अनजान सड़क पर गाड़ी के पेट्रोल ख़त्म हो जाने जैसी निराशा महसूस होती है । 

“आज मैं कैसे भूल गई, पता नहीं ! कैसी अधूरी लग रही हूँ । ” 

मि० जौहरी गुलाब का एक फूल लैला के बालों में टिका देते हैं और क्लिप की जगह पेन को फंसा देते हैं । हाँ, अब पूरा हुआ । लैला पेन से टिके फूल को हल्के से छूती है और बोल पड़ती है, “कल ही दो कविता लिखी हूँ । एक जीवन पर और दूसरा दुःख पर । ” 

मि० जौहरी उसे गहरी निगाहों से देखते हैं, “आप रोमांटिक कब लिखती हैं? अगर लिखती हैं तो आज शाम ही दो कविताएं मेल कर दीजिए, हमें अपने फिल्म के लिए ‘वेलकम कोटेशन’ चाहिए । लैला जौहरी की निगाहों में नप-सी गई है, मि० जौहरी लैला के बहुत अच्छे दोस्त है और करीब से जानने वाले भी ।

यूँ करीब से जानने वाले भी दरवाज़े के बाहार तक ही है । दरवाज़े के भीतर सिर्फ लकड़ी वाला दरवाज़ा, जो वक़्त-बेवक्त उसका पति बन जाता है । कभी भी किसी और को न मौका देता है न मिस लैला चाहती है कि कोई इस मज़बूत दरवाज़े पर अपनी डुप्लीकेट चाभी डालने की हिमाक़त करे । 

आज जौहरी की बातों में बहुत दूर तक मिस लैला के सपने का विस्तार हो गया । 

मिस लैला सपनों की मल्लिका है । उसे प्यार और खुशबुओं का सपना बहुत भाता है । वो दूर तक उनकी बातों के समंदर को खोलना चाहती है । वो डूबती है, उतरती है और बाहर आ जाती है । समंदर में सीपी जो कभी-कभी तरंगों पर आता और कभी किसी ज्वारभाटे में डूबकर/टूटकर दूर हो जाता है । कभी किनारे पर तो कभी किनारे से बहुत दूर तक । 

रात के एक बजे हैं । लैला अभी-अभी प्रेम कवितायेँ लिखना चाह रही है । अविनाश, जौहरी, सक्सेना, मि०डी०, मि०मिश्रा और दरवाज़ा कौन सबसे मज़बूत प्रेमी है, जो उससे प्रेम करने का सौ फीसदी दावा करता है । जाहिर है दावा करना प्रेम की कसौटी नहीं हो सकती मगर प्रेम को संभाल लेना प्रेम की सीधी -सरल अर्थों में सबसे प्यारी कामना होती है । लैला दरवाज़े के बहार के प्रेमियों को सोचती है फिर दरवाज़े के भीतर आकर पेग लगाती है और अपने अन्तः-वस्त्रों से लिपटकर दरवाज़े के पीछे टेककर कुण्डियों के सहारे खड़े हो संभलती रहती है । एक प्रेम कविता लिखेगी मिस लैला ! रात के डेढ़ बजे अकेले दरवाज़े की कुण्डियों को थामे हुए जैसे कोई पति के हाथ को थाम लेता है बीच रात में बहुत कसकर । लैला लिख चुकी है । दरवाज़ा उसका हमसफ़र जो रोज़ रात को उसके साथ हमरात होता है । लैला दूसरी कविता लिख रही है, बाकी उन प्रेमियों के लिए जो उसे रोज़ दरवाज़े तक लाकर छोड़ देते हैं । 

आज लैला, बोतल और दरवाज़ा तीनों ने सवाल किया तो लैला टैरेस में जाकर खड़ी हो जाती है । 

कहीं पास में आग लग गई है । ढ़ाई बज रहे हैं । पुलिस और अग्निशमन दल भी पहुंच चुके हैं । कॉलोनी की बिजली सुरक्षा के मद्देनज़र काट दी गई है । 

लैला, धुंआ और अँधेरी रात का सितारा सब परेशां होने लगे । कुण्डी को जोर से बजाती है लैला और एक दस्तक प्रतिधुन-सी दौड़ पड़ती है घर में बहुत दूर तक जाती बहुत देर तक गुर्राती । 

लैला मोमबत्ती जलाती है । खुद को देखती है और हंस पड़ती है । कॉलोनी के सब लोग डर रहे हैं । कहीं ये आग की लपटें उनके घर को न जला दे । 

लपटें बहुत तेज़ है । सब बहार निकल जाते हैं । लैला टैरेस में खड़ी निश्चिंत तारों को निहारती है । दरवाज़ा चुप हो मानो कह रहा हो- “तुम भला क्यों डरोगी? डरकर क्या करोगी?”

“भला किसे बुलाओगी, मैं हूँ न तुम्हारा रक्षक, तुम्हारा बॉडीगार्ड । ” सच में अब लैला बहुत आश्वस्त हो गई है और स्थिर, निश्चिंत भी । इन्हीं तारों की तरह । 

थोड़ी देर में आग पर काबू पा लिया जाता है । अग्निशमन दस्ते और दिल्ली पुलिस ने अपने साहस और कर्मठता का परिचय दिया है । चार बज चुके हैं । लैला को नींद आने लगी और उसने एक सपना देखा । सपना जरा शरारत भरा हो गया । दरवाज़ा एक पुरुष में बदल गया । एक मज़बूत पुरुष में जिसका सीना चौड़ा है और हाथ ताकतवर; सभी किवाड़ की प्रकृती का, जहां कुण्डी हाथ में तब्दील हो गई और दरवाज़ा एक चौड़े सीने वाले पुरुष में ! लैला बहुत खुश हो गयी । 

दरवाज़ा बना पुरुष लैला को सौ बार चूमता है और कहता है- “कल घर जल्दी आ जाना, ज्यादा देर बाहार मत रहा करो । मैं तेरी राह तकता रहता हूँ । यूं ही खड़ा हुआ हरदम तेरे साथ सो जाने का मन करता है । ” 

लैला उससे वादा करतीं है और सुबह जल्दी उठ जाती है । मुस्कुराती हुई बालों में फूल, फूल में क्लिप और दरवाज़े पर नवतल के ताले डालकर एक बार दरवाज़े को चूम लेती है । इस वादे के साथ कि आज वो जल्दी आ जाएगी । 

अब मिस लैला मान चुकी है कि आज रात अगर वो वक़्त पर न पहुंची तो दरवाज़ा नाराज़ हो जाएगा और ज्यादा नाराज़ हो गया तो . . . !

नहीं-नहीं उसे तो दरवाज़े से प्यार हो गया है । 

वो रात को पुरुष बनकर उससे प्यार करता है । हाँ, पूरी रात वही तो उसके साथ होता है । 

डेढ़ बजे जब वो प्रेम कविताएँ लिख रही होती है तो . . . !

“हाँ-हाँ मैं वक़्त पर पहुंचूंगी । ”

बाकी सब फ़ोन कॉल्स पर लैला कह रही है-

“यस सर, आज मैं अपने बॉयफ्रेंड के साथ डेट पर जा रही हूँ । 

बालों के फूल को बार-बार सम्हालती है । 
संपर्क
ईमेल: prema23284@gmail.com
घर की चाभी को पति के हाथ की तरह पकड़ती है और भागती हुई पहुंचती है दरवाज़े तक । वो खामोश उसकी राह में फिर एक बार जोर से चीखता है । 

लैला उसे पूरे होंठों से कसकर चूम लेती है । 

मिस लैला अपने दरवाज़े के बहुत भीतर तक पहुंच गई है । 


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2 टिप्पणियाँ

  1. संकेतों में जिंदगी के कई छुए - अनछुए तहों को खोलती कहानी...अच्छी प्रस्तुती, सराहनीय...धन्यवाद..

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