🏲 जब तक यह व्यक्ति जीवित है - रूपसिंह चन्देल | Roop Singh Chandel on Rajendra Yadav


जब तक यह व्यक्ति जीवित है...

रूपसिंह चन्देल

संस्मरण

राजेन्द्र यादव  और  रूप सिंह चंदेल की यादें

जब तक यह व्यक्ति जीवित है - रूपसिंह चन्देल | Roop Singh Chandel on Rajendra Yadav

अप्रैल ०४,१९८७... शनिवार का दिन। अपरान्ह तीन बजे का समय। मैंने दरियागंज की उस गली में प्रवेश किया जिसमें बायीं ओर गली के मोहाने पर एक चाय की दुकान थी। वह दुकान आज भी है। वहां मैंने अक्षर प्रकाशन के विषय में पूछा। दुकानदार ने बताया-’आखिरी बिल्डिंग’। बायीं ओर आखिरी बिल्डिंग पर अक्षर प्रकाशन का फीका-सा बोर्ड लटक रहा था। पहले कमरे में धंसते ही सामने जिस युवती से सामना हुआ वह बीना उनियाल थीं। बीना से मैं बोला, “राजेन्द्र जी से मिलना है”। उन्होंने उससे सटे कमरे की ओर इशारा करते हुए कहा, “उधर चले जाइए।”

दूसरे कमरे में सामने ही राजेन्द्र जी बैठे कुछ पढ़ते हुए दिखाई दिए। चेहरे पर चमकता तेज, काले बाल, जो स्पष्ट था कि डाई किए गए थे, आंखों पर मोटा चश्मा। प्रणाम कह मैंने परिचय दिया। मुस्कराते हुए बोले, “आओ—आओ…” और वह फिर पढ़ने में व्यस्त हो गए थे। शायद कोई रचना थी। उसे पढ़ने के बाद वह पाइप भरने लगे। पाइप भर उसे सुलगा एक कश लेने के बाद वह बोले, “यह मेरी कमजोरी है। आपको बुरा तो नहीं लगेगा।” उनकी इस सौजन्यता के समक्ष मैं नतमस्तक हुए बिना नहीं रह सका। उन्होंने यह अहसास बिल्कुल नहीं होने दिया कि मैं उनसे पहली बार मिल रहा था। लगा कि वह मुझे वर्षों से जानते थे और मैं पहले भी कितनी ही बार उनसे मिला था। राजेन्द्र यादव और कमलेश्वर की यह बड़ी खूबी थी कि वह सामने वाले को अपरिचय का अहसास नहीं होने देते थे। यही नहीं राजेन्द्र यादव की एक खूबी यह भी थी कि वह अपने यहां बैठे या आने वाले हर व्यक्ति का परिचय दूसरों को देते थे।

उनसे यह मेरी पहली मुलाकात थी। मैं खास आभिप्राय से उनसे मिलने गया था। जनवरी के प्रारंभ में कहानी –‘आदमखोर’ उन्हें भेजी थी। कहानी के विषय में जानना चाहता था। मेरे कुछ कहने से पहले पीछे आंगन की ओर से एक नाटे कद के सज्जन आकर वहां बैठ गए। वह हरिनारायण थे। उनके आते ही राजेन्द्र जी उनसे बोले, “यह रूपसिंह चन्देल हैं…” कुछ रुके फिर पूछा, “इन्हें परिचय–फोटो के लिए पत्र भेजा?”

“नहीं...” हरिनारायण जी अपने स्वाभाविक मंद स्वर में बोले।

“अब भेजना क्या...कह दो।”

मैं समझ तो रहा था कि बात ’आदमखोर’ से संबन्धित थी, लेकिन फिर भी पूछ लिया, “किसलिए?”

“आपकी कहानी अगले अंक में जा रही है...आप एक हफ्ते में परिचय और चित्र उपलब्ध करवा दें।”

अंदर से प्रसन्नता अनुभव करता हुआ मैंने राजेन्द्र जी से मूर्खतापूर्ण प्रश्न किया, “आपको कहानी पसंद आयी?”

“पसंद न आती तो छप कैसे रही होती।”

उस दिन ही मुझे ज्ञात हुआ कि राजेन्द्र जी १९८१ तक शक्तिनगर में रहते रहे थे। जिस मकान में वह रहे थे वह उस मकान से मात्र तीन मिनट की दूरी पर था जिसमें मैं रहता था। उनके उस किराए के मकान के बाहर तिकोना पार्क था (आज भी है) जहां हम प्रायः रात में जाकर बैठा करते थे। शक्तिनगर का उनका वह मकान साहित्यकारों का केन्द्र था। लेकिन मैं इस जानकारी से अनभिज्ञ था। मुझे शक्तिनगर-कमलानगर के उन साहित्यकार मित्रों ने भी कभी इस विषय में नहीं बताया था जिनसे सप्ताह में मेरी दो-तीन मुलाकातें हो जाया करती थीं।

उस दिन राजेन्द्र जी से मेरी वह संक्षिप्त मुलाकात रही थी।

-0-0-0-0-

सुकून क्या होता है मैंने आज तक नहीं जाना। मेरे लिए वे दिन कुछ अधिक ही मारक थे। नौकरी के तनाव के साथ घर के तनाव... लेकिन आश्चर्यजनक सच यह है कि उन तनावों के बीच न केवल अधिक लिखा जा रहा था बल्कि महत्वपूर्ण पढ़ भी रहा था। अब तक मेरे अनुभव यह बताते हैं कि कठिन स्थितियों में मैं अधिक ही रचनात्मक रहा। शनिवार-रविवार अवकाश के दिन होते और मै सुबह आठ बजे से ही किराए के मकान के उस हिस्से में दुबक लेता जिसे मैं स्टडी कहता था। वह कमरों से अलग सीढ़ियों के साथ था—बिल्कुल एकांत में। उसकी छत छः फुट से अधिक ऊंची और क्षेत्रफल चालीस वर्गफुट से अधिक न था। उसमें मैंने तख्त के साथ मेज सटा रखी थी। केन की एक कुर्सी भी थी...दोनों दिन नियमतः मैं दो बजे तक वहां बैठता...फिर शाम चार बजे से रात देर तक। हंस में ‘आदमखोर’ के प्रकाशन और पाठकों द्वारा उसके स्वागत ने लिखने का उत्साह कई गुना बढ़ा दिया था। लिखने बैठता तो सोचता कि किस विषय को पहले पकड़ूं। १९८७ के अंत में लंबी कहानी ‘पापी’ लिखी। मैं उन लेखकों की जैसी प्रतिभा का धनी नहीं जो एक बार में ही कहानी को अंतिम रूप दे लेते हैं। गोगोल का कहना था कि रचनाकार को लिखने के बाद रचना को दो-तीन माह के लिए रख देना चाहिए और उसपर निरन्तर चिन्तन करते रहना चाहिए। इस प्रकार उस रचना पर उसे कम से कम आठ बार काम करना चाहिए। मैंने हर रचना को – चाहे कहानी रही हो, उपन्यास,संस्मरण रहे हों या आलेख— कम से काम चार-पांच बार काम करता रहा हूं और आज भी करता हूं।

‘पापी’ को अंतिम रूप देने के बाद मैंने उसे हंस में भेज दिया। तीन महीने की प्रतीक्षा के बाद भी जब कोई उत्तर नहीं आया तब हंस कार्यालय गया। राजेन्द्र जी से मेरी वह दूसरी मुलाकात थी। महीनों बाद मैं उनसे मिला था। कमरे में धंसते ही उनके “आओ” कहने पर स्वभावानुसार जब मैंने “मैं रूपसिंह चन्देल” कहकर परिचय दिया, उन्होंने मुस्कराते हुए कहा, “इस सबकी आवश्यकता नहीं।” राजेन्द्र जी की एक विशेषता यह भी थी कि एक बार मिले व्यक्ति को वह कभी नहीं भूलते थे...उसका नाम भी उन्हें याद रहता था भले ही वह उनसे दोबारा वर्षों बाद क्यों न मिल रहा हो। उनकी स्मरण शक्ति अप्रतिम थी। हंस में अनगिनत बार गया और एक बार भी ऎसा नहीं हुआ कि चाय प्रस्तुत न की गई हो। वहां पहुंचते ही उनका सहायक दुर्गाप्रसाद और दुर्गा नहीं हुआ तो किसन पानी लेकर हाजिर हो जाते थे और उसके कुछ देर बाद ही चाय...यह स्वागत हर आने वाले के लिए था।

उस दिन भी चाय आयी। चाय पीते हुए मैंने ‘पापी’ का जिक्र किया।

 “मेरी नजरों से नहीं गुजरी।” चाय पीते हुए राजेन्द्र जी बोले, “कितने दिन हुए भेजे हुए?”

“तीन महीने...”

राजेन्द्र जी ने बीना जी को बुलाया। एक आवाज में बीना उनकी मेज से आ टिकीं।

“देखो चन्देल की कोई कहानी आयी थी?” फिर मेरी ओर मुड़कर पूछा, “क्या शीर्षक बताया?”

मैंने शीर्षक बताया। बीना चली गयीं। कुछ देर बाद लौटीं, “इस शीर्षक की कोई कहानी रजिस्टर में चढ़ी हुई नहीं है।” मेरी ओर देखते हुए बीना जी ने मुझसे प्रश्न किया, “सर, आपने कैसे भेजा था?”

“साधारण डाक से।”

“फिर तो डाक में कहीं गुम हो गई होगी…आप दोबारा भेज दें।” बीना उनियाल ने मायूस-सा होते हुए कहा।

मैं उदास हो उठा। राजेन्द्र जी ने मेरी उदासी भांपी, “क्यों, क्या बात है...दूसरी प्रति नहीं है?”

“प्रति है।”

“फोटोस्टेट करवाकर दे जाओ।”

“हाथ से ही लिखना होगा…।लेकिन कोई बात नहीं।” मैं उदासी से उबर चुका था, “मैं अगले शनिवार को दे जाउंगा।”

अब राजेन्द्र ने मुझे उधेड़ना शुरू किया। “कहानी के विषय में बताओ!”

“मतलब?” मैं उनका आभिप्राय नहीं समझ पाया था।

“कहानी का विषय क्या है?” राजेन्द्र जी बोले। सार-संक्षेप में मैंने उन्हें कहानी बताई। आधी सुनने के बाद ही वह बोले, “हाल ही में राजी सेठ का कहानी संग्रह आया है (उन्होंने शीर्षक बताया जो मैं भूल गया हूं) उसकी शीर्षक कहानी भी एक बच्चे पर केन्द्रित है।”

“मेरा पात्र बच्चा नहीं है और कहानी ग्राम्य जीवन पर है...”

राजेन्द्र जी कुछ देर चुप रहे फिर बोले, “तुम कहानी भेज दो ...देखता हूं।”

अगले शनिवार मैं स्वयं बीना को कहानी दे आया। साथ में डाक टिकट लगा लिफाफा भी नत्थी कर दिया। यह बात बीना जी को बता भी दी। एक माह बाद ‘पापी’ मेरे द्वारा दिए गए लिफाफे में वापस लौट आयी। कोई टिप्पणी नहीं थी उसमें। जब कोई कहानी राजेन्द्र जी की नज़रों से गुज़रकर वापस लौटती थी तब उनके हाथ की लिखी चिट अवश्य कहानी के साथ होती थी, जिसमें लौटाने का कारण वह लिखते थे। ‘पापी’ के बाद एक और कहानी हंस को भेजी थी जिसे लौटाते हुए राजेन्द्र जी ने कहानी पर टिप्पणी करते हुए छोटी-सी चिट रख दी थी जो आज भी मेरे पास है। ‘पापी’ के साथ उनकी टिप्पणी न होने से मुझे लगा कि राजेन्द्र जी ने किसी अन्य से कहानी पढ़वाकर उसे लौटा दिया था। लेकिन मेरा विचार सही नहीं था। अगले ही दिन मैंने ‘पापी’ को रविवार को भेज दिया और पन्द्रह दिन में ही जब वहां से स्वीकृति पत्र मिला तो मेरी प्रसन्नता का अनुमान लगाया जा सकता है। उसी शनिवार मैं ‘रविवार’ का स्वीकृति पत्र लेकर सीना ताने राजेन्द्र जी के सामने हाजिर था। संयोग कि वह अकेले थे। मैंने ‘पापी’ के लौटाए जाने का कारण पूछा। राजेन्द्र जी ने कहा, “सभी कारण बताए नहीं जाते।”

मैंने उन्हें ‘रविवार’ में उसकी स्वीकृति के विषय में बताया। वह बोले, “वह कहीं भी छप सकती है।” इससे मेरा यह विचार धराशायी हो गया कि राजेन्द्र जी ने कहानी बिना पढ़े ही लौटा दिया था। उन्होंने कहानी पढ़ा था।

“फिर वह हंस में क्यों नहीं छप सकती थी?” अपने छोटों के साथ भी बराबर का व्यवहार करने की राजेन्द्र जी के स्वभाव की विशेषता ने मुझे बहुत ही कम समय और कम मुलाकातों में उनसे बातचीत में पूरी तरह बेतकल्लुफ कर दिया था।

“वह सब तुम नहीं समझोगे।”

“फिर भी, कुछ तो बताइए।”

“चन्देल, बहुत से कारण होते हैं, ” मुझे लगा कि यह कहते हुए उन्होंने दीर्घ निश्वास लिया था। मेरा यह भ्रम भी हो सकता है। फिर बोले, “हर बात बताई नहीं जाती।” बात वहीं समाप्त हो गयी थी।

‘पापी’ रविवार में भी प्रकाशित नहीं हुई। जिस दीपावली विशेषांक में वह प्रकाशित हो रही थी उसी अंक से मालिकों ने रविवार को बंद कर दिया था। बाद में मई,१९९० में ‘सारिका’ में वह उपन्यासिका के रूप में प्रकाशित हुई थी। मेरे लिए यह रहस्य ही रहा कि पसंद होते हुए भी राजेन्द्र जी किसके कहने पर या किन कारणों से ‘पापी’ को हंस में नहीं प्रकाशित कर पाए थे। बाद में यह अनुमान अवश्य लगाया था कि कुछ लोग थे जिन्हें मेरा हंस में प्रकाशित होना स्वीकार नहीं था।

क्रमशः ...

००००००००००००००००

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

ये पढ़ी हैं आपने?

Hindi Story: 'शतरंज के खिलाड़ी' — मुंशी प्रेमचंद की हिन्दी कहानी
आज का नीरो: राजेंद्र राजन की चार कविताएं
भारतीय उपक्रमी महिला — आरिफा जान | श्वेता यादव की रिपोर्ट | Indian Women Entrepreneur - Arifa Jan
Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
मैत्रेयी पुष्पा की कहानियाँ — 'पगला गई है भागवती!...'
Harvard, Columbia, Yale, Stanford, Tufts and other US university student & alumni STATEMENT ON POLICE BRUTALITY ON UNIVERSITY CAMPUSES
एक पेड़ की मौत: अलका सरावगी की हिंदी कहानी | 2025 पर्यावरण चेतना
तू तौ वहां रह्यौ ऐ, कहानी सुनाय सकै जामिआ की — अशोक चक्रधर | #जामिया
गिरिराज किशोर : स्मृतियां और अवदान — रवीन्द्र त्रिपाठी
ईदगाह: मुंशी प्रेमचंद की अमर कहानी | Idgah by Munshi Premchand for Eid 2025