इंटरव्यू : पाखी संपादक प्रेम भारद्वाज की पटना में अमित किशोर से बकैती


हर जगह की तरह पटना पुस्तक मेले में भी पाखी संपादक प्रेम भारद्वाज अपनी छाप छोड़ना नहीं भूले. बिहार के प्रेम भरद्वाज के कल और आज में एक बड़ा परिवर्तन यह भी है - बिहार भी और दिल्ली भी दोनों उन्हें अपना बता रहे हैं...  जबकि हैं वो सिर्फ साहित्य के, ये मैं जानता हूँ.

ये साक्षात्कार शब्दांकन में ऐसे लगा कि अभी फेसबुक पर उन्होंने अपनी वाल पर 'हिंदुस्तान' अखबार की वो कतरन लगायी हुई थी जिसमे उनका ये इंटरव्यू था. उनके चाहने वाले (वालियां) वहाँ जमा थे. मैं प्रेम भाई के लेखन का पुराना आशिक़ ... खैर मैंने सोचा आप सब के लिए उसे शब्दांकन पर प्रकाशित कर दूं... तारीख़ पूछने पर प्रेम जी ने 8 दिसम्बर बतायी, और  खबर 9 के अखबार में मिली....

बहरहाल पढ़िए उनका इंटरव्यू और जैसा की उन्होंने इसमें कहा है 'लाइक्स से किसी रचना का साहित्यिक मूल्यांकन नहीं होता...' वो इस पर लागू नहीं हो रहा आप जी भर के लाइक कीजिये...

भरत तिवारी

इंटरव्यू : पाखी संपादक प्रेम भारद्वाज की पटना में अमित किशोर से बकैती

लेखक जरूर दूसरों को भी पढ़ें ।

- प्रेम भारद्वाज


अमित किशोर: आप साहित्यिक पत्रिका के संपादक हैं , बिहार के साहित्यकारों की रचनाओं पर आपकी प्रतिक्रिया?


प्रेम भारद्वाज: बिहार चेतना और संघर्ष के तौर पर उर्वर भूमि है । यहां की रचनाओं में गतिशील यथार्थ है । रचनात्मकता को यहां जमीन मिलती है । बिहार के लेखक जो बाहर रह कर भी लिख रहे हैं उन्हें बिहार का विषय और यहां की पीड़ा ही लोगों से जोड़ती है। यहां की सामाजिक विषमता, स्त्री संघर्ष जैसे मौजू विषय रचनाओं में जान डाल देते हैं । अनामिका, वंदना राग जैसी लेखिकाओं की कहानियों में बिहार की कई छवियां दिखती हैं । पाठक ऐसी रचनाओं को काफी पसंद करते हैं ।


अमित किशोर: रचनाकारों की नई पीढ़ी पर क्या कहेंगे?

प्रेम भारद्वाज:  इसमें केवल देखने का फर्क है । कुछ लोग जो यू ही एक सिरे से नए रचनाकारों की आलोचना कर देते हैं वह गलत है । नई पीढ़ी ने दस्तक दी है । गीताश्री, पंखुरी, उमा शंकर चौधरी, मनोज कुमार झा, निखिल आनंद, शिवेन्द्र समेत कई नए रचनाकार रहे हैं जिनकी रचनाओं में आक्रोश के साथ छटपटाहट भी है । नए लोग समाज को बिल्कुल नए नजरिए से देख रहे और अपनी रचनाओं में व्यक्त कर रहे ।


अमित किशोर: साहित्यिक पत्रिका के संपादक के तौर पर क्या चुनौतियां होती हैं ?

प्रेम भारद्वाज:  छपने के लिए जो सामग्री आती है उन्हें देख यही लगता है कि अब सृजन कम और निर्माण ज्यादा हो रहा है । अच्छे साहित्य पर बुरा साहित्य हावी है । हंस पत्रिका ने दलित व स्त्री विमर्श का दौर चलाया तो रवीन्द्र कालिया ने युवा लेखकों को अवसर दिया। साहित्य सिर्फ कथा-कहानी नहीं है । इस समस्या को दूर करने के लिए हमने पुराने और नए रचनाकारों को साथ ला गंभीर चर्चा भी की, ताकि साहित्य में रचनात्मकता के स्तर पर एक -दूसरे को समझने की परंपरा बढ़े ।


अमित किशोर: सोशल साइट से आज का साहित्य कैसे प्रभावित हुआ है ?

प्रेम भारद्वाज:  साहित्य के लिए सोशल साइट अभिशाप और वरदान दोनों है । ऐसे लोग जिनमें प्रतिभा तो है लेकिन किसी कारणवश मंच नहीं मिल पाया उनके लिये यह वरदान है । अपनी रचनाओं को पोस्ट कर देते हैं । उ न्हें लाइक भी मिल जाते हैं । यहीं से परेशानी भी शुरू हो जाती है । लाइक्स से किसी रचना का साहित्यिक मूल्यांकन नहीं होता। हां, जो सचमुच गंभीर लेखक हैं , वे सामने आ रहे हैं और आएंगे। यह एक स्पेस है , इसका लाभ उन्हें मिल रहा है । तमाम लोग कवि और लेखक बने हैं । सोशल साइट पर कविता या कहानी पोस्ट कर रहे लेखकों में सबसे बड़ी कमी होती है कि इनमें से ज्यादातर ने कभी प्रसिद्ध साहित्यकारों को नहीं पढ़ा। लेखक जरूर दूसरों को भी पढ़ें ।


अमित किशोर: आज के दौर की कहानियों का मूल स्वर क्या है ?

प्रेम भारद्वाज:  पिछले 20 साल में रची गई कहानियों पर बाजार वाद और भूमंडलीकरण हावी है । इसके अलावा सांप्रदायिकता विषयक कहानियों ने काफी पैठ बना ली है । सबके पास सांप्रदायिकता की एक अलग कहानी है । भूख और गरीबी जैसे मुद्दे आज की कहानियों में अब बिरले ही मिलते हैं । अब कहानियों में कठोर यथार्थ की कमी भी आई है ।


अमित किशोर: लोकप्रिय और गंभीर साहित्य पर क्या कहेंगे?

प्रेम भारद्वाज:  बाजार , सत्ता या साहित्य सभी को लोक प्रिय होना ही होगा। चेतन भगत की रचनाओं की आलोचना गलत है । तुलसीदास, दिनकर भी अपने समय में काफी लोक प्रिय थे। हां साहित्य को बाजार के उत्पाद के तौर पर पेश क र ना गलत है । साहित्य तो लोक से ही जुड़ा होता है । उसे लोक में ही प्रियता हासिल करनी होगी। यह तभी होगा जब साहित्य लोकोन्मुख होगा।


अमित किशोर:  नये साहित्यकारों पर चर्चा की परंपरा खत्म सी हो गई है ?

प्रेम भारद्वाज:  साहित्यकार अल्पसंख्यकों की तरह हैं । दो दशकों में स्थिति ऐसी बन गई है कि उन्हें बुरी तरह नजरंदाज कि या जा रहा है । अखबारों में भी पहले जैसी जगह मिलती थी वैसी स्थिति अब नहीं है । साहित्यकारों के विचारों के टकराव का सबसे सार्वजनिक और सटीक मंच तो अखबार ही है । जहां ऐसी गतिविधियां नगण्य हो गई हैं ।


अमित किशोर: बिहार के साहित्यकारों की रचनाशीलता को कैसे देखते हैं ?

प्रेम भारद्वाज:  बिहार में जिस तरह से साहित्य का समग्र विकास हो रहा है , उससे काफी उम्मीद जगती है । साहित्य के विकास में लगे लोगों में आधे से ज्यादा रचनाकार बिहार से जुड़े हैं । उनकी रचनाओं में यथार्थ साफ झलकता है । यहां एक साथ कई पीढ़ियां काम कर रही हैं । ऐसी रचनाएं जहां सीधे तौर पर बिहार नहीं आ रहा वहां भी यहां के लोगों का दर्द झलक जाता है । बिहार मेरे लिए सिर्फ भूगोल-इतिहास नहीं, मेटाफर की तरह है । जख्म, जंग और जुनून है । यही इसकी ताकत है और बिहार का लेखन इसी से अलग पहचान पाता है ।

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