पंकज सिंह, हारती हुई मनुष्यता के पक्षधर - प्रो. मुरली सिंह | Pankaj Singh


पंकज सिंह, हारती हुई मनुष्यता के पक्षधर - प्रो. मुरली सिंह #शब्दांकन

हारती हुई मनुष्यता के पक्षधर पंकज 

- प्रो. मुरली मनोहर प्रसाद सिंह

पंकज सिंह के प्रकाशित तीन संग्रहों में पहला संग्रह ‘‘आहटें आसपास’’ 1981 में छपकर पाठकों तक पहुंचा था। इसी संग्रह की पहली कविता ‘‘शरद के बादल’’ में उन्होंने लिखा था-‘‘फिर सताने आ गए हैं/ शरद के बादल।’’ शरद ऋतु की भयंकर ठंड ने उन्हें इस तरह जकड़ा कि उच्च रक्तचाप के कारण कुछ इस तरह दिल का दौरा पड़ा कि 67 की उम्र में आकस्मिक रूप से शनिवार को उनकी मृत्यु हो गई। इस संग्रह के 20 साल के बाद उनका दूसरा संग्रह ‘‘जैसे पवन पानी’’ 2001 में प्रकाशित हुआ। इस संग्रह की एक कविता ‘‘हमारे ही बीच’’ में उन्होंने अपने समकालीनों में कुछ लोगों को पहचाना था,




‘‘हमारे ही बीच हैं वे लोग/ 
जो भाषा में कराह/
और संगीत में रुदन भर रहे हैं/ 
जो ज्वार सरीखी उम्मीदों को ले जाते हैं/
मायूसियों के तहखाने में’

लेकिन उन समकालीनों से अलग ‘‘ओ मेरी भाषा’’ कविता में उनका आह्वान सर्वथा विशिष्ट रंगत लेकर गूंजा-

‘‘उठ जाग ओ मेरी भाषा/
गुजरती सदी के रंग-बिरंगे कोहराम में/
आग का मौन दर्प लिये।’’

वे चाहते थे कि जमाने की सच्चाई को आत्मसात कर हमारी काव्यभाषा ‘‘खून के आइने वक्त का चेहरा दिखाये’’ अपनी आत्मा के बेहोश रुदन को दमामे सा बजाने के लिए वे पुकार लगाते थे। चूंकि उन्हें उम्मीद थी और यह उम्मीद अंत तक बनी रही, खास तौर पर जब वह कहते थे, ‘‘जरूरी नहीं देर तक दृश्य यों ही रहे/इस बेहद तेज रौ दुनिया में/’’ तीसरा संग्रह 2009 में ‘‘नहीं’’ के नाम से आया। इसके आते-आते पूरी दुनिया बदल चुकी थी। खास तौर पर अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी की गिरफ्त में भारत छटपटाने और घुटने के लिए मजबूर हो गया। पंकज अपने देश तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्पूर्ण मानव जाति की इस यात्रा को गहराई को महसूस करते हैं, तभी प्रखर स्पष्टता के साथ यथास्थिति के प्रति धारधार अस्वीकार का रुख अख्तियार करते हैं। दलित-वंचित-पीड़ित मानवता के दुख और राग-रंग, संघर्ष और हाहाकार की दारुण स्थिति के आख्यानों से यह संग्रह भरा पड़ा है। अपने समकालीनों में उन लोगों के प्रति परिपूर्ण असहमति का रवैया अख्तियार करते हैं, जो पूंजीवादी-सांस्कृतिक बाजार में अपनी पैठ बनाये रखना चाहते हैं। और इसके साथ ही, जनवादी-प्रगतिशील और क्रांतिकारी समूह के बीच भी अपनी प्रतिष्ठा बरकरार रखना चाहते हैं। उनकी कविता है, इस संग्रह में ‘‘मैं कुछ नहीं छिपाऊंगा’’ शीर्ष कविता एक तरह से उनकी सृजनात्मक यात्रा के नये विचार बिंदुओं का घोषणापत्र है :

‘‘फरमाइश पर नाचते-गाते विदूषकों की/
आत्मतुष्ट भीड़ में, प्रचंड कोलाहल में/
विदा लेती शताब्दी की विचित्र प्रतियोगिताओं में/
बिना घबराये हुए/
सजल स्मृतियों से अभिषिक्त मस्तक को ऊंचा उठाये/
सहज गति से चलता हुआ मैं जाऊंगा/
पाप और अपराध के स्मारकों को पीछे छोड़ता/
एक थरथराते हुए/
आकार लेते स्वप्न में शामिल होने/
जिसे प्रकट होना है हारती हुई मनुष्यता के पक्ष में।’’

पंकज सिंह अपनी कविताओं की वर्णानात्मकता और संवेदनशीलता के दायरे में स्त्री पराधीनता, दलितों की यातना, दरिद्रजनों की व्यथा-कथा और संघर्ष की दुनिया की जय-पराजय की गाथा से सर्वथा नये काव्य-लोक का निर्माण करते हैं। उनकी काव्यशैली और भाषाई वक्रता विशिष्ट किस्म की है। इसलिए राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, उदय प्रकाश, कुमार अंबुज, मनमोहन, असद जैदी, चंद्रकांत देवताले, अष्टभुजा शुक्ल, वीरेन डंगवाल और अरुण कमल से उनकी भिन्नता और निजी तेजस्विता अलग से पहचानी जा सकती है। कुछ विषय और समस्याएं वे सिर्फ गद्य के माध्यम से लिखना और बतलाना चाहते थे। संभवत: वे इसी कारण एक उपन्यास लेखन में पूरी तरह निमग्न थे। चौथे कविता संग्रह की भी तैयारी पूरी हो चुकी थी। ऐसे वक्त उनका गुजर जाना, उनके परिवार, परिजन और हिन्दी की गहरी क्षति तो है ही, प्रगतिशील, जनवादी और क्रांतिकारी काव्य परिदृश्य की भी अभूतपूर्व क्षति है।

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