बैजू बावरा 'Baiju Bawra' ध्रुपद उत्सव



बैजू बावरा




ग्यारहवीं सदी के भारत के एक महत्वपूर्ण व्यापारिक शहर चंदेरी को आजकल लोग उसके मशहूर सिल्क के कपड़ों की वजह से जानते हैं, हालांकि उसकी एक और महत्वपूर्ण पहचान हैं जिस पर आमतौर पर लोगों का ध्यान कम ही जाता है।  चंदेरी वो जगह भी है जहां विश्वविख्यात संगीत सम्राट बैजू बावरा ने अंतिम सांस ली थी और यहां उनकी समाधि भी है। एक तरह से चंदेरी बैजू बावरा की कर्मस्थली भी रही है, क्योंकि ये भी कहा जाता है कि रियासत ग्वालियर के राज-दरबार से उनको  कुछ दिनों तक राज्याश्रय भी हासिल हुआ, जहां उस समय मान सिंह तोमर गद्दी-नशीं थे। बैजू बावरा का जिक्र वृदांवनलाल वर्मा ने अपने उपन्यास मृगनयनी में भी किया है। एक अन्य कथा के मुताबिक ग्वालियर की गूजरी रानी मृगनयनी ने भी बैजू बावरा से संगीत की शिक्षा ली थी। कहते हैं बैजू बावरा को 'बावरा' नाम उनके संगीत में डूब जाने और कभी-कभार विक्षिप्तों सा व्यवहार करने के लिए दिया गया।
बैजू बावरा स्मृति सम्मान - ध्रुपद गायक पंडित उमाकांत गुंदेचा एवं रमाकांत गुंदेचा को

“बैजू बावरा स्मृति सम्मान” - 2016 

ध्रुपद गायक पंडित उमाकांत गुंदेचा एवं रमाकांत गुंदेचा को 

बैजू बावरा एक प्रख्यात ध्रुपद कलाकार थे और मध्य-काल के ही एक अन्य प्रसिद्ध संगीतकार तानसेन के समकालीन माने जाते हैं। बल्कि कई लोग तो उन्हें तानसेन से भी महान मानते हैं। क्योंकि बैजू बावरा की ख्याति तानसेन के समान नहीं फैली क्योंकि उन्होंने देर से दरबारों में जाना शुरू किया। इसकी एक वजह ये भी माना जाता है कि बैजू बावरा ध्रुपद की तरह ही गहरे और गंभीरता में डूबे हुए थे, वे अपने गुरु को छोड़कर बहुत काल तक दरबारों में नहीं जा पाए।

बैजू बावरा का जन्म गुजरात के चम्पानेर में एक गरीब ब्राह्मण के घर हुआ था और उनके बचपन का नाम बैजनाथ मिश्र था और गायन में प्रसिद्धि की वजह से उन्हें बैजू कहा जाने लगा। उनके सही जन्म-वर्ष पर विवाद है, हालांकि ये तय है कि वे 15वीं से 16वीं शताब्दी के बीच पैदा हुए थे।  उन्होंने वृंदावन में संगीत के प्रसिद्ध आचार्य हरिदास से शिक्षा ग्रहण की और ये भी कहा जाता है कि तानसेन उनके गुरुभाई थे। शुरु में कुछ दिन बैजू बावरा चेंदेरी के राजदरबार में रहे, फिर राजा मान सिंह तोमर ने उन्हें ग्वालियर बुला लिया।

कहा जाता है कि बैजू बावरा ऐसे राग गाते थे कि आसमान में बादल छा जाते थे और पानी बरसने लगता था। उनके गाए राग दीपक के समाप्त होने तक दिए जल जाते थे और राग मृगरंजिनी सुनकर जंगल से हिरण सम्मोहित होकर दौड़े चले आते थे! लेकिन वर्तमान में आमजन में बैजू बावरा को लेकर बहुत जानकारी नहीं है। सदियां बीत जाने के बाद हम आज कथित रूप से बहुत आधुनिक तो हुए हैं लेकिन इस आधुनिकता में जब हम अपनी विरासत की बात करते हैं तो ज्यादातर हम उन इमारतों और शासकों का ही जिक्र करते हैं जो किसी न किसी हिंसा से प्रभावित हैं या हिंसा के कारण थे। हम भूल जाते हैं कि हमारे पास विरासत के तौर पर संगीत, नाट्यशास्त्र, चित्रकला, साहित्य, मूर्तिकला, नृत्य आदि बहुत सी कलाओं का भण्डार है। लेकिन हम जब भी जिक्र करते हैं तो इन कलाओं को हमेशा पीछे ही रखते हैं। हम भूल जाते हैं कि कला के जरिए जो आन्दोलन समाज में होता है वो कभी हिंसात्मक नहीं होता। शायद इसलिए जायसी, रसखान, मीरा, कबीर, हरिदास, बैजू बावरा, ग़ालिब, टैगोर जैसे कई कलाकारों ने अपनी कलाओं के जरिये सामाजिक आन्दोलन करने का कार्य किया।

बैजू बावरा स्मृति सम्मान

अपनी इसी संस्कृति और विरासत को सहेजने के प्रयास में 13 फरवरी 2016 (बसन्त पंचमी के दिन, इसी दिन बैजू बावरा कि मृत्यु हुई थी) को चंदेरी स्थित बैजू बावरा के समाधि पर “बैजू बावरा ध्रुपद उत्सव” का आयोजन किया जा रहा है, जिसमें देश के महान ध्रुपद गायक गुंदेचा बंधु ध्रुपद गायन प्रस्तुत करेंगे। इस उत्सव में जाने-माने कलाविद एवं कवि अशोक वाजपेयी, संगीत समीक्षक मंजरी सिन्हा और ध्रुपद गायक पंडित उमाकांत गुंदेचा “विरासत का अर्थ” विषय पर व्याख्यान भी देंगे और बच्चों और युवाओं को इस विधा से परिचय कराने  के लिए कार्यशाला का भी आयोजन किया जाएगा।

इस साल का “बैजू बावरा स्मृति सम्मान” ध्रुपद गायक पंडित उमाकांत गुंदेचा एवं रमाकांत गुंदेचा को दिया जा रहा है। गुंदेचा बंधुओं ने ध्रुपद में काफी प्रयोग कर इसे देश-विदश तक लोगो से जोड़ा है। 

इस कार्यक्रम का आयोजक श्री अचलेश्वर महादेव मन्दिर फाउंडेशन, डाला, उत्तर प्रदेश है। यह संस्था कई वर्षों से ग्रामीण और कस्बाई क्षेत्रों में कला और संस्कृति के लिए काम कर रही है जिसका उद्देश्य कलाओं को अभिजात्य वर्ग से निकालकर आम जन से जोड़ना है, समाज को कलात्मक दिशा देकर सांस्कृतिक साक्षरता का विकास करना है। संस्था के सचिव चन्द्र प्रकाश तिवारी कई वर्षों से सोनभद्र के ग्रामीण क्षेत्रो में संगीत, कला, रंगमंच और साहित्य को लेकर सक्रिय रूप से काम कर रहे हैं। चंदेरी में इस कार्यक्रम को करने का मुख्य उद्देश्य ध्रुपद संगीत है जिसे वैदिक संगीत भी कहते हैं। यह भारतीय शास्त्रीय संगीत की सबसे प्राचीन विधा है, जिससे बहुतेरे लोग अपरिचित भी हैं। इसलिए इससे लोगों को जोड़ने और उनकी विरासत से परिचय करने के लिए इस फाउंडेशन ने “ध्रुपद यात्रा” आरम्भ की है जिसकी शुरुवात चंदेरी और बैजू बावरा जैसे महान ध्रुपद कलाकार की स्मृति में उत्सव के माध्यम से किया जा रहा है।

००००००००००००००००



ये पढ़ी हैं आपने?

Hindi Story: 'शतरंज के खिलाड़ी' — मुंशी प्रेमचंद की हिन्दी कहानी
आज का नीरो: राजेंद्र राजन की चार कविताएं
भारतीय उपक्रमी महिला — आरिफा जान | श्वेता यादव की रिपोर्ट | Indian Women Entrepreneur - Arifa Jan
Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
मैत्रेयी पुष्पा की कहानियाँ — 'पगला गई है भागवती!...'
Harvard, Columbia, Yale, Stanford, Tufts and other US university student & alumni STATEMENT ON POLICE BRUTALITY ON UNIVERSITY CAMPUSES
एक पेड़ की मौत: अलका सरावगी की हिंदी कहानी | 2025 पर्यावरण चेतना
तू तौ वहां रह्यौ ऐ, कहानी सुनाय सकै जामिआ की — अशोक चक्रधर | #जामिया
गिरिराज किशोर : स्मृतियां और अवदान — रवीन्द्र त्रिपाठी
ईदगाह: मुंशी प्रेमचंद की अमर कहानी | Idgah by Munshi Premchand for Eid 2025