बेहतरीन कहानियां — कृष्णा अग्निहोत्री — मैं जिन्दा हूँ


A must read story by senior author Krishna Agnihotri

Main Zinda Hoon

— Hindi Kahani by Krishna Agnihotri

पुनः तेज छुरी से व्यवहार से राग वृद्धा आहत होने लगी। उसके कटने, रक्तरंजित होने की खबर किसी को नहीं थी। जब कभी मेहमानों के सामने जोर-शोर से बहू कहती। क्या करें, हम बाहर नहीं जा पाते। घर में निठल्ले, निकम्मों का बसाव जो है।

मैं जिन्दा हूँ 
 
 कृष्णा अग्निहोत्री


छड़ी थाम संध्या के धुंधलके में कुर्सी से राग शनैः शनैः उठी, पैर दर्द से ऐंठें पर उसने उठना प्रारंभ रखा और वह खिड़की खोलने में समर्थ हुई। पलड़ों को छेड़ती हवा सर्राकर उसके चेहरे को छूने लगी। गाऊन को ठीक कर उसने बाहर झांका। चौदह पन्द्रह वर्ष के बच्चे गेंद खेल रहे थे। सड़क पर छोटे बच्चे साईकल चलाने की प्रेक्टिस कर रहे थे। दाई ओर के खाली प्लाट पर चलती ड्रिल मशीन की सूं…… सूं आज उसे अच्छी लगी। दिमाग व शरीर पर छाये सन्नाटे को जैसे किसी ने तेजी से थपेड़े मार तोड़ दिया। वे ताजी/ खुशनुमा हवा से कब झपकी ले अपने पैतृक घर शांति नगर में पहुँच गई। उन्हें समझ ही न आया। मां की ममता भरी झिड़की चालू थी। अरे राग तू कब तक ओस में नंगे पैर टहलेगी? देख भीतर आ ठंड लग गई तो? पिता अपनी इकलौती संतान को दुलराते   समझाते। बिटिया स्वास्थ्य व अपने अस्तित्व को समयानुसार बनाना चाहिए। एक बार वे ढुलके तो रोकने में भारी मशक्कत करनी पड़ती है न। तुम्हें तो बहादुर बेटी बनना है। हमारा नाम प्रतिष्ठित करना है। यूं ही खा पी सोकर निठल्ली बनेगी तो कदापि नहीं जीना। भीतर आते ही मां सर पोंछ चीखतीं। अरी जरा गरम बादाम वाला दूध तो लेती आ।

सेठ बिंदा नामी-गामी व्यक्ति होने के बावजूद शाम की आरती में सपरिवार रहते और स्वयं मीठी आवाज में भजन गाते। घर के सदस्यों को कुछ न कुछ भजन गाने ही पड़ते। रागनी को सोने के पूर्व मां-बाप कुछ न कुछ संस्कार परोसने लगते उस अधकचरी मानसिक अव्यवस्थित स्थिति में सुने व समझे वाक्यों का निनाद अभी भी उसके दिमाग में बजता है। जैसे मनुष्य के लिये जो व्यक्तिगत है वहीं समाज के लिये संस्कृति सार है। इसको समझने हेतु श्रेष्ठतम चरित्र पढ़ने चाहिये। क्योंकि ये ही आदर्शों, मूल्यों की स्थापना जीवन को विशिष्टता व एकता स्वरूप प्रदान करते है। एवं परिष्कृत भी करते है। सामाजिक चेतना एक आत्मीय गुण है। जो मानव में फूल की सुगंध सा समाया हुआ है। कला व साहित्य इस खुशबू का विकास करते हैं। मां कहती, बेटी शादी पश्चात पति को संभालना, परिवार में रिश्तों को स्वीकारना हम स्त्रियों का ही धर्म है और धर्म को आस्था से अपनाया जाता है वहां तर्क काम नहीं करता। मां व पिताजी के कारण ही तो रागिनी पढ़ंता बन गई। एक अच्छी पुस्तक यदि हाथ लगती, तो वो पार्टी, खाना-पीना छोड़ उसे ही समाप्त करने में जुट जाती।

बहुत कुछ आधुनिक विचारों का स्वागत करने के पश्चात भी घरेलू विषयों में मां व बाबूजी परंपरावादी ही अधिक थे। उन दो की विभिन्न विचारधाराएँ होते भी दोनों समझौता वादी अधिक थे लेकिन जब वे रूढ़िग्रस्त होते तो रागिनी को उनसे सुलह कठिन पड़ती। इसी तरह पति को सब कुछ मानने की संस्कृति का भार ढोती राग पति की मान्यताओं से खुश न रहकर भी उनका विरोध नहीं कर पाती।

अंग्रेजी साहित्य में फर्स्टक्लास सांवली तीखे नक्ष वाली राग पति को यह नही समझा पाई कि चार बच्चों से अधिक का बोझ वह नहीं उठा पायेगी। डिप्टी कलक्टर मनीष ने साफ कह दिया, बच्चे भगवान का स्वरूप होते है जितने वो दे, उन्हें संभालना हमारा कर्तव्य है। बीमार सी कमजोरी सहन करती राग जब छठे बच्चे की मां बनी तो जचकी ही में सन्निपात हो गया। मां आई थी। सास को घर व बच्चे संभालना कतई पसंद न था। मां कब तक इस बच्चों की भीड़ को संभालती। तब भी बेटी के स्वास्थ्य हेतु वे छै माह में एक माह रूक जाती। अन्यथा बच्चे लावारिसों जैसे ही पलते। दोनों बड़ों को वे साथ ले गई। वे पढ़ने में भी अच्छे ही रहे। अपनी इकलौती संतान को स्वस्थ देखने हेतु मां स्वयं निराश व पीड़ित ही रही।

राग के लिये जीवन एक चुनौती बना था। पति दौरे से लौटते ही बीमार पत्नी के जिस्म को नोंचना अपना अधिकार मानते तो पत्नी शरीर को घायल करवाकर पत्नी धर्म अपना लेती। लेकिन अब वे मानसिक असंतुलन में जीने लगी। प्रयत्न बावजूद संवरी हुई राग फटेहाल हो गई। प्रयत्न बावजूद वे मनीष के काम भूल जाती। फोन पर बताये काम विस्मृत हो जाते। यदि इसी समय उन्हें कोई मनोविज्ञानिक को दिखा देता तो शायद वे संभल जाती परन्तु थके हारे मनीष पत्नी पर हिकारत फेंकते दो, तीन, चार पैग उड़ेल खुर्राटे लेते सब भूल जाते।

रागिनी रूखी-सूखी सूरज ढलते ही आज की ही भांति कुंठित हो अतीत में ही खो अपने सुखों को खंगालती। अतीत के सुख खड़खड़ाते वर्तमान को कांटे से भरा हरियाली से दूर एक बियाबान जंगल बना देते। वो समझने में असमर्थ थी कि हरियाली क्यों छुपी। और कांटे क्यों उग तनाव व द्वंद पैदा करने लगे। एकाग्रता इकट्ठी करे तो भी कभी सब्जी में नमक ज्यादा तो कभी दाल जल जाती। राग क्षोभ व पीड़ा से कराह उठती जब वो बच्चों को पेशाब से उठा नहीं पाती या उन्हें नहला तक नहीं सकती। मनीष झुंझलाकर उसे जोर से धक्का दे देते। ससुरी मां है या कसाई? लेकिन उन्होंने यह ध्यान नहीं दिया कि आखिर इस सबका कारण क्या है।

पल-पल पति की घृणा व ससुराल की उपेक्षा ने उसे अधिक लापरवाह एवं सुस्त बनाया। वो ठीक से स्नान न करती। झुककर चलने से कूबड़ जैसी निकल आई जब ननद व नन्दोठ्र उसका मजाक बनाते तो वो मन ही मन उन्हें कोसती। ईश्वर तुम सबकी पीठ पर एक बड़ा कूबड निकाल दो ताकि वे सब उसकी सी लाचारी का स्वाद तो चख सकें। आश्चर्य था कि मनीष को वो गलती से भी नहीं कोसती। उसे मां के उपदेश घेर लेते। बेटी पति की छत्रछाया छप्पर की भी हो तो वो मूल्यवान होती है। पत्नी वहां सदा सुरक्षित रहती है। लंगड़कर घसिटती अपनी काया को वो भुतवा मन सहित घर के किसी भी काम में जुटाकर आह ओह करती इसी कुर्सी पर जीम रहती। बच्चे जब तक छोटे थे घर को पेशाब, लैटरीन की दुर्गंध से भरते और बड़े हुये तो मनमाना खाना, नाश्ता सब खा मां को ऐ....ऐ कर चिढ़ाते पढ़ने चले जाते। पल-पल उन चीखने वाले एक सी आदतों के तीतरो को जाली के दड़बे में बंद न कर पा वो स्वयं अपने कपाट बंद कर देती।

मां ठीक कहती थी, जन्म मां-बाप देते है। प्रारब्ध वे कर्मो से बनाते है। बड़े दोनों बेटे वकील व इंजीनियर बनकर दूर-दूर पोस्ट हो गये। बेटियाँ न्यूयार्क में बसी है। नन्दे वर्ष दो वर्ष में पलटे तो मां से उनका इतना ही संवाद होता। चलते है मां, अपना ख्याल रखना।

एक बार छोटी बेटी का आंचल थाम राग ने बड़ी बेबसी से घिघियाय कहां। बिटिया कुछ और रूक जाए मन घबराता है तो बेटी ने अश्रुविहल हो समझाया। मां तुम्हारे दामाद को तो लंदन भाया है तो वहीं रहना पड़ेगा ना। पर तसल्ली रखो मंझले भैया व भाभी यही शिफ्ट होंगे। भोली सरल अंग्रेजी में एम.ए. रागनी खुश हो गई। बच्चे छोटे से बड़े किन वातावरणों में कैसे बने उन्हें इसका जरा भी आभास नहीं। मशीनी जीवन में जीती स्पंदनपूर्ण राग अज्ञात स्थितियों से अवगत नहीं थी कि उनके सीधे बच्चे स्वार्थ व लालच की पनाह में कितने स्वार्थी व अजनबी हो गए।

मनीष खुश थे कि बहू के आने से पूरा घर खिलखिलाहट से भर जायेगा। कुछ देर बेटे से संवाद होगा तो उन्हें ऊबाऊ पत्नी से छुटकारा ही मिलेगा। काश वे पत्नी के अस्तित्व का महत्व समझ सकते।

बहू ने कुछ दिन तो नीचे गुजारे पर अचानक मनीष ने देखा कि ऊपर से चार कमरे सुधर रहे है। राग तो आज भी सुरीले स्वर से रामचंद्रमानस के दोहे अनमनी बैठक में गुनगुनाती है। रामचंद्र कृपालु भज मन। जो हो जैसी है पत्नी तो है अब वे मुस्करा कर हट जाते है। क्योंकि दोहा यहीं अटका रहेगा और घिसे-पिटे रिकार्ड की सुई यहीं अटक जायेगी।

अचानक खाना बनाने वाली बाई छुट्टी पर चली गई और बहू बीमार पड़ी। मनीष अब क्या करें। रसोई घर में लेकिन सन्नाटा नहीं था। राग लंगड़ाती पराठे बना रही थी। उसने जैसे-तैसे भिंडी की सब्जी बना दी थी। मनीष को देख वो मुस्कराई और उसने थाली उसे पकड़ा दी मनीष ने शाम ही को मीना बहू व बेटे आशीष की परेड ली। ये क्या? तुम लोग चुपचाप बाहर खा आते और ये बीमार माँ, व मैं थका हारा भूखे रहे। हमारे लिये ले आते।

- मीना बीमार थी। खिचड़ी क्या लाते आशीष नजर चुरा चला गया। चार दिन तक राग बड़बड़ाती कभी दाल चांवल तो कभी पराठे तो कभी कुछ बना ही देती।

पंचवे दिन मंझली बेटी ने आ घर संभाला। उसने मां के गंदे कपड़े उतार उन्हें गाऊन पहनाया तो राग की आंखो में प्रश्न था कि यह क्यों? उसे तो यही स्मरण था कि वो तो ब्रैंडेड सलवार सूट ही पहनती है।

-मां तुमसे कपड़े संभलते नहीं यह आरामदायक रहेगा।

मनीष ने खुश हो इसका समर्थन किया और क्या अब इस उम्र में छोकरियों जैसा सलवार कुरता पहनना।

बेटी चली गई। कामवालियाँ काम करती। बहू नीचे नहीं उतरती। जैसे-तैसे चूं चां करती ज़िंदगी चल पड़ी।

बज्रपात तो तब हुआ जब मनीष का हार्ट अटैक से टूर ही पर देहांत हो गया। मनीष के शव को ताक राग बोली। उठो न...... खाना तैयार है। बेटी ने चुपचाप उनके उनसे पैर छुलवाये व कमरे में वापसी करा दी। तेरह दिन बाद ही राग को उनके टूटे-फूटे सामान सहित सबसे छोटे इस कमरे में शिफ्ट कर दिया गया। बहू आहिस्ते से बड़बड़ाई। निकम्मी, निठल्ली यही रहों और हमें जीने दो। तेज छुरी से कटने की व्यथा सहकर भी मासूमियत से बहू के सर पर हाथ रख राग बोली। यहां? क्यो?

- पड़ी रहो चुपचाप। बूढ़ी तो हो ही उस पर आधी पागल।

अब ज़िंदगी तो घटनाओं के ऊहा-पोह से भरी है। मरण-जीवन ही तो व्यक्ति के अधिकार में नहीं। राग का अव्यवस्थित मन अपनी मां की स्मृति में कराहा तो बहू ने रूखे स्वर में सूचना दी। तुम्हारी जैसी अभागी के साथ जो होना था वो हो गया। तुम्हारे माता-पिता तीर्थ यात्रा के दौरान केदारनाथ में दफन हो गये।

जैसे ही उन्हें पता लगा कि रागिनी के नाम उनकी जायदाद का बड़ा हिस्सा है और शेष ट्रस्ट में चला गया वैसे ही उन्होंने राग के लिए एक अलग से नौकरानी लगा अपने कर्तव्य का पालन किया। उन्हें यह भी पता था कि मनीष की पे पर राग ही का अधिकार है। वर्ष बीता कि आशीष व मीना कार में राग को बैठा बैंक ले गये और उसने वहां ‘मैं जिंदा हूँ’ का आवेदन पत्र जमा किया।

आज राग को अरसे बाद खुली हवा में सांस लेने का सुख मिला। बेटे ने पूछ-पूछकर उसे खाना, मिठाई खिलाई पर जो चैक से पैसा मिला उसे झपटकर अपने पास रख लिया।

पुनः तेज छुरी से व्यवहार से राग वृद्धा आहत होने लगी। उसके कटने, रक्तरंजित होने की खबर किसी को नहीं थी। जब कभी मेहमानों के सामने जोर-शोर से बहू कहती। क्या करें, हम बाहर नहीं जा पाते। घर में निठल्ले, निकम्मों का बसाव जो है।

तब अवश्य राग आत्मघात की स्थिति तक पहुंच जाती। अचानक एक सुबह कबूतरों का एक जोड़ा गुटर गूं करता राग के सामने की खिड़की से झांकने लगा। घिसटकर राग ने खिड़की पर लगे प्लाय को चौड़ा किया तो वे अंदर फड़फड़ाते आये व कोने में रखी डलिया में दुबककर राग को निहारने लगें।

मायके में खिले गुलाब सी महकती डोलती राग अब जिंदा प्राणी को देखने व संवाद को तरसती। पोता जब पल भर को झांक कहता “ओल्डी हाऊॅं आर यूं” और भाग जाता तो राग उसे आलिंगन करने को तरस प्यार स्पर्श से भी वंचित ही रहती । आस-पास टंगी रहे नंगी तलवारें तो प्रेम कैसे बरसे। सारी हरहराहट, मुस्कान व उमंग राग कबूतरों पर उडेल देती। कभी दाना-पानी, रूई बैठने को देती तो वे भी निर्भीक हो उसके कंधों पर गोद में उसे बैइ दुलारते अब राग अपने रिसते घावों के बावजूद सहज हो गोरैया सी उड़ सकती थी। बचपन में पाली बिल्ली की याद मीठे दानों सी हो गई और कबूतरों का प्यार फड़फड़ाने लगा।

मनीष की रखी बाई यू तो कुछ न कुछ चुरा लेती पर बेहद ईमानदारी से राग की देखभाल करती। कभी-कभी अपने टिफन से कुछ भी अच्छा ला उसे खिला भी देती। वैसे तो नौकरानी गुड्डी टी.वी. लगाती तो राग आंखे चौड़ी कर सब बेहद घूर-घूर कर ही देखती लेकिन शायद आंखे कमजोर होने से आंखे बंद कर लेट जाती। हां कुछ समय के लिये तो कबूतरों को गोदी में बैठा बेहद उत्सुकता से टी.वी. ताकती। लेकिन जब बहू ने टी.वी. उठवाकर ऊपर किचन में रखा तो राग ने कई बार गुड्डी को झकझोरते हुये इशारे से जानना चाहा कि टी.वी. कहां गया। टी.वी. को शिफ्ट करना तो गुड्डी को भी अच्छा नहीं लगा परन्तु वो चुप ही रही।

-वो बहू जी को चाहिये था।

-अच्छा-अच्छा और राग ने आज्ञाकारी भोले बच्चे सा सर हिला दिया। मां कहकर वो हंसी। तख्त बरांडे में पड़ा रहता जहां चाय की चुस्कियां लेते पिताजी वा वो बहुधा अन्तराक्षरी खेलते ठिलठिलाते ही रहते थे। अब क्यों सारी कमियां उसके भाग के पल्लू में आ गिरी वो समझ नहीं पाईं। गुड्डी को अस्वस्थता में लगभग 1 बजे एक टिफन ऊपर से उनके कमरे तक लटक जाता जिसे वे भूखे भेड़िया सी झपट लेती। छड़ी से उसे पुनः रस्सी से बांध देती और रात्रि को पुनः खींच लेती।

छोटी बेटी मन की अमीर थी। जब भी आती तो फल, मिठाई व नमकीन कोने में पड़ी जाली में सजा जाती। बेटा तो अपने हक की सम्पदा में शानदार ज़िंदगी जीता कर्तव्य व रिश्ते, अपनत्व जैसे शब्दों को बाजार के गंदे बेसमेंट के कूड़ेदान में दफन कर चुका था।

बस 1 तारीख को रूखे अंदाज से चैकबुक पर साईन करवा कुछ विशेष खाने को दे जाता। राग 1 तारिख को बेइंतहा प्रसन्न हो साइन करके अच्छे भोजन पाने की प्रतीक्षा में व्याकुल रहती।

उस दिन राग ने मचलकर गुड्डी से बाहर घूमने की जिद की। छड़ी ले वे बाहर निकली कि आस-पास के पड़ौसियों ने खुश हो उनसे पूछा। कहां रहीं मिसिज सिंह? बहुत दिनों से तो आपको देखा तक नहीं।

छत से बहू ने सुना तो कई बहाने बना टहल को प्रतिबंधित कर दिया व सब्जियाँ संभालने का उत्तरदायित्व सौंप दिया। राग मेथी, पालक मटर संभालती मुंडी घुमा सोचती, “सच तो है बड़े बूढ़ों को काम करते रहना चाहिये।”

एक दिन पोते ने यह कहकर उसे हतप्रभ किया कि दादू की जगह आपको मरना था। दादू तो मुझे नई नई चाकलेट देते थे।

एक शाम छोटी बेटी आई तो उसने मां को बेतरतीब देखा तो पूछा तुम जीना नहीं चाहती? अरे तुम भी प्राणी हो तुम्हें भी अपना शेष जीवन हंसते हुये खुशनुमा हाल में जीना चाहिये। तुम्हें पता नहीं कि पिताजी की पेंशन तीस हजार जमा होती है। तुम्हारी मां, नानी-नाना ने तुम्हारे नाम पचास लाख जमा कर दिये है। तब तुम भिक्षुक नहीं। स्वयं सब देखों व दूसरों को अपने हाथ से जायज खर्च दो। पढ़ी-लिखी हो तब भी तुम्हारे स्वाभिमान में काई क्यों लग गई? देखो इन कबूतरों को ये भी जीने के लिये तुम्हारे पास बैठे है। तुम क्यों खाली मन से रहती हो?

तुम्हें ही तुम्हारे घर में कबाड़ा बना दिया गया और तुम टुकड़ों पर खुश होती हो। क्या मां, तुम्हें अपने अस्तित्व की पहचान नहीं रही? यदि भैया से कुछ लेना नहीं चाहती तो हाथों से गरीबों को तो कुछ दे ही सकती हो न। राग ऊ....ऊ कर जैसे ही बेटी को आलिंगन करने आगे बढ़ी तो उसने हट कर धिक्कारा। मां अन्याय आदर्श नहीं, पिता की मनमानी सहकर तुमने परिवार व समाज को कोई नीतियां नहीं दी और न ही अब बेटे बहू की उपेक्षाएं सहकर कोई नारियों के लिये इतिहास गढ़ रही हो। वृद्ध होना कोई पाप नहीं। किसी भी उम्र में व्यक्ति अपनी सहज ज़िंदगी जी सकता है। बस थोड़ा संघर्ष व प्रयत्न चाहिये। और वह गुस्से से बाहर चली गई। राग स्तब्ध बैठी नन्ही-नन्हीं तितलियों व गोरैयों को ऊॅचें-ऊॅंचे उड़ती देखती रही। हां सच तो कहा है बिटिया ने जब इन चिड़े, चिड़ियों में जीने का हौसला, उमंग है तो वो क्यों नहीं आशा से जी सकती। भौतिक रूप से जब उसे उसके अपनों ने उसकी पहचान छीनना प्रारंभ किया है तो वो भी कहीं न कहीं किसी से जुड़ ज़िंदगी में मायने भर देगी। तभी उसने देखा कि एक प्यासी गिलहरी पानी पीने के लिये कबूतरों के डब्बे के पास खसक रही है लेकिन सामने दाना चुगते उन्हें देख भयभीत हो भागती-दौड़ती छुप जाती।

पुनः इधर-उधर ताक वो शीघ्रता से पानी के पास आई भरपूर पानी पी भाग गई। जीवन में डर का कांटा बेमतलब नहीं उगना चाहिये।

... ........ ................. .................. .........

राग नित्य छड़ी ले टहलती सोचती रहती सच तो है कि अभाव से ही भाव का जन्म होता है क्योंकि अमंगल के गर्भ में मंगल छुपा है। वो भी कटु उत्तरों से राह खोजने के लिये तैयार थी। उसे अपने पिता के शब्दों ने राह प्रशस्त करने की शक्ति प्रदान की। बेटी कर्तव्य पूरा करो पर अन्याय का दबाव न सहो।

जैसे ही आशीष तीस को चैकबुक व कुछ जलेबी ले आया तो आश्चर्यचकित हो अपनी तनी तीखे तेवरों वाली मां को बोलते व सख्त हो खड़े होते देखा। वो मिठाई को हटा बोली। मुझे मेरी पूरी पेंशन लाकर दो। मैं युवाओं जैसी फिजूल की महत्वाकांक्षाएँ तो नहीं पाले हूँ पर वृद्ध होना तो जीवन प्रक्रिया है। मैं उपेक्षा व घृणा क्यों सहूं? मुझे मेरा अधिकार दो वरना मैं चैक साइन नहीं करूंगी। मुझे मेरा कमरा वापस चाहिये। वहां मेरी पुस्तकें अलमारी है। ए.सी. फिट है। साथ लगा बाथरूम भी है। जहां तुम्हारा 12 साल का बेटा दोस्तों के साथ मस्ती भर करता है।

एक बात और आशीष। इस उम्र में मुझे तुमसे अधिक सुविधाएँ चाहिये। नवम्बर भी पास है मैं वहां बैंक में “मैं जिंदा हूँ” का फार्म भरने भी नहीं जाऊॅंगी, क्योंकि तुमने मुझे जीवित रखने का धर्म नहीं निभाया। ठीक है परंपराएँ व संस्कृति तुम्हारी मां से पूरे कर्तव्य करवाकर यदि उसे देवता नहीं मानती तो मत मानो पर उसे प्राणी, घर का सहयात्री तो मानों। तुम कुछ दे नहीं सकते, तो छीनों भी तो नही। मैं जानती हूँ कि मुझे तुम्हें क्या और क्यों देना चाहिये। आशीष के पैरों से जमीन घिसक गई। उसे पता था कि यह मकान भी मां के ही नाम है। यदि मां को अपने अधिकार समझ आ रहे है तो उसे नम्रता से कुछ मिल सकता है। उदंडता से कदापि नहीं। चुपचाप वो मां को बैंक ले गया। राग ने साइन किये। फार्म भरा “मैं जिंदा हूँ” और पेंशन के रुपये लेकर पूरे पन्द्रह हजार स्वयं रखे व बीस हजार बेटे के सर पर हाथ रख सौंप दिये। लौटते में कुछ जलेबियाँ समोसे खरीद वे वृद्धाश्रम पहूँची। वहां बांटकर लौटी तो उन्हें ऐसा लगा कि वे तो एक सक्षम जीवित प्राणी है। और पूरे स्वाभिमान लगन से जीती दूसरों को भी जीने की प्रेरणा दे सकती हैं।

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