अनामिका की कविता — दिल्ली: गली मुहल्ले की वे औरतें: 1275 | hindi poems by anamika


 hindi poems by anamika

कविता इतनी बेहतरीन ही होनी चाहिए, कि आप बार-बार ... बार-बार पढ़ें और जी न भरे. कि आपकी आँखों में नमी और भीतर की मुकुराहट चेहरे पर आ जाए. कि आप को इतिहास के पन्नों में ले जाया जाये और आप वर्तमान और भूत में ऐसा गड्मड हों कि सामने भविष्य आ के ख़ुद खड़ा हो जाये. 
अनामिका दीदी की कविता 'दिल्ली: गली मुहल्ले की वे औरतें: 1275' ... ...  जैसी कविता की बात मैंने कही उससे बहुत ऊपर है. पढ़ते जाइये डूबते जाइये, पढ़ते जाइये ... आइये. अनामिका दीदी बहुत आभार आपका ... और आज — आज तो आपका जन्मदिन है ... ह० निजामुद्दीन साहब आपको सारी ख़ुशियाँ दें और लफ़्ज़ों में ह० अमीर ख़ुसरो हमेशा ऐसे ही रहें जैसे की अभी ...

आपका
भरत तिवारी 
17/8/16




दिल्ली: गली मुहल्ले की वे औरतें: 1275

— अनामिका



नाज़िर मियाँ की गरम पावरोटी से पूछना —
कैसे उठता है ख़मीर उजबुजाता हुआ
खुसरो के मन में
          जब वे कहते हैं अनमेलिए !
एक पुरुख और लाखों नार,
जले पुरुख देखे संसार,
खूब जले और हो जाए राख,
इन तिरियों की होवे साख !
हँसती थीं पनिहारिनें:
”ये तो बूझ गयीं — ईंटों की भट्ठी,
और कुछ सुना दो !
पानी तो तभी मिलोगा जब हम हारेंगी।
सूख रहा है गला ? कोई बात नहीं !
थोड़ा-सा और खेल लो !
खीर की बात कहो,
नहीं-नहीं चरखे की,
ढोलकी की, नहीं कुत्ते की !
वो तो पहेली थी, थोड़े अनमेलिए कहो।
औरत का मान नहीं रखोगे ?
पद्मिनी का मान रखा,
देवलरानी पर मसनवी लिखी,
पनिहारनों की भी बात रखो !“
"अच्छा सुनो —
खीर पकाई जतन से, चरखा दिया जलाय,
आया कुत्ता खा गया, तू बैठी ढोल बजाय !
ला, पानी पिला !"
”अच्छा लो, पानी ...
पिए बिना ही चल दिए —
पद्मिनी का नाम क्योंकर लिया !“
अब बुदबुदाते चले शून्य में खुसरो,
”वो पद्मिनी और उसका भरोसा !
मान नहीं रख पाया उसका
वो पद्मिनी और उसका भरोसा।
उसका भरोसा जो उससे भी सुन्दर था ...
आप आए हैं तो जाऊँगी।
खिलजी दर्पण में चेहरा देखकर लौट जाएगा।
मोड़ लेगा घोड़े वो हिनहिनाते हुए मन के !
युद्ध में हारे-थके जिद्दे लुटेरे
औरत की गोद में शरण चाहते हैं
जैसे पहाड़ की तराई या लहरों में,
पर उनको याद नहीं आता —
कि स्त्री चेतन है
उसके भीतर तैर पाने की योग्यता,
उसकी तराइयों-ऊँचाइयों में
रमण करने की योग्यता
हासिल करनी होती है धीरज से, श्रम से संयम से !’
उसने यह कहा और चली गई
निश्चिंतता के सनातन महादुर्ग में
सिंहद्वार जिसका भरोसा ...
पर खिलजी का वादा
ताश का किला निकला।
टूट गया सब्र, वायदा टूट गया,
टूट गया हर भरोसा ...
धूँ-धूँ जली रानी,
मैं हुआ पानी-पानी !
तब से अब तक
राख ही तो बटोरता फिरता हूँ
          इधर-उधर
जैसे खुद अपनी खुदी को !
खुद को खुद ही बटोरता हूँ,
झोली में भरता हूँ खुद को,
कंधे पर रखता हूँ, चल देता हूँ,
जिंदगी बढ़ ही रही है खरामा-खरामा !
हर देहली है चटाई,
हसरत है हवा की मिठाई,
गिरकर सँभल लेता हूँ,
जिंदगी बढ़ ही रही है खरामा-खरामा !
पद्मिनी की राख उड़-उड़कर
पूछती है मुझसे — ‘कैसे हो ?’
कैसा हूँ ? क्या जाने कैसा हूँ !
वादाखिलाफी और मैं ? हाँ, मैं ही।
जिम्मा तो मैंने लिया था।
कैफीयत मुझको ही देनी थी —
रूप और कब्जा ?
क्या कब्जे की चीज है चाँदनी !
गठरी में बँधती है धूप क्या कभी और खुशबू ?
ये कैसी सनक थी तुम्हारी,
ये कैसे बादशाहत ?
खुद को जो जीत सका, बादशाह तो वो ही,
जिसको न कुछ चाहिए, बादशाह वही !
औलिया से पूछो —
क्या होती है बादशाहत !
औलिया कुतुबनुमा हैं —
जो जहाजी रास्ते भूले —
भर आँख कुतुबनुमा देखे —
कुतुबनुमा — बूझो-बुझो —
बूझो पनिहारनों, बूझो —
‘एक परिंदा बेपाँव फिरे
सीने बीच बरछी धरे
जो कोई उससे पूछने जाए,
सबको सबकी राह दिखाए —’
पर औलिया के हुजूर में
प्रश्न ही हेरा जाते हैं —
जैसे हेराए थे
पद्मिनी की नाक के मोती !
उफ, पद्मिनी !
प्रेम ? हाँ, प्रेम ही था वह’
पर उसमें कब्जे की आहट नहीं थी —
उसको भरोसा था निस्सीमता पर
जैसे कि रानी को मुझ पर,
वो मेरी शायरी से वाकिफ थी
और इस वाकफियत के आसरे
उसने मुझसे पर्दा करने की जरूरत नहीं समझी।
मैं बुतपरस्त हो गया, पर उसी दिन —
इश्क का काफिर !
प्रेम का रस पीकर
इस देह की नस-नस
हो गई धागा
काफिरों के ही जनेऊ का !
शायरी ने बहुत दिया —
सात बादशाहों की सोहबत,
और शाहों के शाह, औलिया का निज़ाम,
लूट-पाट, मार-काट की कचरापट्टी में
ऊँचा अमन का मचान
          बेफिक्र हँसता हुआ -—
हवा से हवा को,
पानी से पानी को कैसे अलगाए कोई,
जाना ही होगा, निजाम पिया !
आई अभी आई !
‘बहोत रही, बाबुल घर दुल्हन !
चले ही बनेगी, हीत कहा है,
          नैनन नीर बहाई !’



००००००००००००००००

एक टिप्पणी भेजें

2 टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (19-08-2016) को "शब्द उद्दण्ड हो गए" (चर्चा अंक-2439) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं

ये पढ़ी हैं आपने?

Hindi Story: 'शतरंज के खिलाड़ी' — मुंशी प्रेमचंद की हिन्दी कहानी
आज का नीरो: राजेंद्र राजन की चार कविताएं
भारतीय उपक्रमी महिला — आरिफा जान | श्वेता यादव की रिपोर्ट | Indian Women Entrepreneur - Arifa Jan
Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
मैत्रेयी पुष्पा की कहानियाँ — 'पगला गई है भागवती!...'
Harvard, Columbia, Yale, Stanford, Tufts and other US university student & alumni STATEMENT ON POLICE BRUTALITY ON UNIVERSITY CAMPUSES
एक पेड़ की मौत: अलका सरावगी की हिंदी कहानी | 2025 पर्यावरण चेतना
तू तौ वहां रह्यौ ऐ, कहानी सुनाय सकै जामिआ की — अशोक चक्रधर | #जामिया
गिरिराज किशोर : स्मृतियां और अवदान — रवीन्द्र त्रिपाठी
ईदगाह: मुंशी प्रेमचंद की अमर कहानी | Idgah by Munshi Premchand for Eid 2025