गोरक्षा गुटों पर लगाम लगाने के बहुत कम प्रयास हुए हैं — राजदीप सरदेसाई @sardesairajdeep


Professed reverence for a Babasaheb Ambedkar’s teachings and a deep attachment to the Manu-Smriti cannot co-exist .... Rajdeep Sardesai
Una-type incidents can undo BJP’s hard work to win the confidence of Dalits - Rajdeep Sardesai

क्या उना घटना पर मौन धारण करने वाले प्रधानमंत्री बताएंगे कि हाथों से की गई ऐसी सफाई को ‘अध्यात्मिक’ अनुभव बताने से उनका क्या आशय था?

— राजदीप सरदेसाई 



वर्ष 2002 के गुजरात दंगों का यह तथ्य ज्यादा लोगों को मालूम नहीं है कि अहमदाबाद में मुस्लिमों के खिलाफ ज्यादातर हिंसक घटनाओं में दलित सबसे आगे थे। मैंने जब नरोडा पाटिया में एक आरोपी दलित युवा से पूछा कि वह दंगों में क्यों शामिल हो गया तो उसके जवाब ने मुझे विचलित कर दिया : ‘ स्थानीय बजरंग दल ने हमसे वादा किया था कि मुस्लिमों के पलायन से खाली हुई जमीन पर उन्हें रहने दिया जाएगा।’ चाहे वह दंगों के समय इस्तेमाल किया गया ‘जुमला’ हो वास्तविकता यही है कि दलित ही दंगाई भीड़ के पैदल-सैनिक थे और सवर्ण हिंदुओं के इस वादे में आए थे कि उन्हें उनका हक दिया जाएगा। इस तरह तब स्थानीय मुस्लिमों को साझा ‘शत्रु’ के रूप में देखा गया।


दलित यह हिंसक भेदभाव चुपचाप सहन नहीं करेंगे
2016 में इस कथित एकजुट ‘हिंदू’ पहचान में दरारें दिखने लगी हैं। उना में गो रक्षक गुटों द्वारा दलितों को कोड़े मारने के फोटो वायरल हुए और गुजरात में दिखती जातिगत व सांप्रदायिक शांति के पीछे मौजूद सामाजिक अशांति उजागर हो गई। अहमदाबाद और अन्य स्थानों पर फैलता गुस्सा संकेत है कि दलित यह हिंसक भेदभाव चुपचाप सहन नहीं करेंगे। दलित चाहे गुजरात की आबादी में सिर्फ सात फीसदी ही हो, लेकिन उनमें मौजूद बेचैनी की सवर्ण हिंदुओं द्वारा अनदेखी से उस राजनीतिक योजना को खतरा पैदा हो गया है, जिसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने पहली बार राज्य में लगभग तीन दशक पहले शुरू किया था।




गुजरात ही भाजपा के राजनीतिक विस्तार की प्रयोगशाला रहा है
ध्यान रहे कि 1980 के उत्तरार्द्ध से गुजरात ही भाजपा के राजनीतिक विस्तार की प्रयोगशाला रहा है। यहीं तो राम जन्मभूमि आंदोलन को शुरुआती ताकत मिली और सोमनाथ से शुरू हुई आडवाणी की रथयात्रा को सभी जातियों से जबर्दस्त समर्थन मिला। यह भगवा उफान दशक भर के सघन जातिगत व सांप्रदायिक संघर्ष की पृष्ठभूमि में आया था। अस्सी के दशक के मध्य में आरक्षण विरोधी आंदोलन ने सांप्रदायिक दंगों का रूप लिया, जिससे कांग्रेस का जातिगत समीकरण खाम KHAM (क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी, मुस्लिम / Kshatriya, Harijan, Adivasi, Muslim) टूट गया। यही एक तरह से गुजरात में कांग्रेस के प्रभुत्व के खत्म होने की शुरुआत थी। इससे धीरे-धीरे भाजपा को अपने इस दावे की पृष्ठभूमि में जगह बनाने का मौका मिला कि वह एकीकृत ‘हिंदू’ पहचान का प्रतिनिधित्व करती है।


गुजरात में दलितों पर अत्याचार बढ़े हैं
यह एकीकृत हिंदू पहचान अब संदेह के घेरे में आ गई है। पहले पटेलों का आरक्षण आंदोलन हुआ, जिससे सवाल उठे कि जिस तीव्र आर्थिक वृद्धि से ‘नव मध्यवर्ग’ बना, क्या उसी से उन लोगों में कुंठा बढ़ रही है, जो खुद को समृद्धि निर्माण की प्रक्रिया से बाहर पा रहे हैं। अब दलितों को भी लग रहा है कि जातिवादी हिंदुओं ने उनके भरोसे को धोखा दिया गया है। यह सब उना में जो हुआ सिर्फ उसी से संबंधित नहीं है। आंकड़े बताते हैं कि गुजरात में दलितों पर अत्याचार बढ़े हैं, जबकि सजा देने के मामले में राज्य सबसे कम दर वाले राज्यों में शुमार है। यह तो ऐसा ही है जैसे दलितों को आखिर इस कठोर यथार्थ का अहसास हो गया है कि रथयात्रा में या दंगों में भाग लेने से सौराष्ट्र जैसे क्षेत्रों में सामंती व्यवस्था नहीं बदलेगी, जहां कठोर जाति परंपरा को खत्म नहीं किया गया है। लेकिन यह सिर्फ गुजरात की जातिगत राजनीति का मामला नहीं है। भाजपा की एक चुनौती यह सुनिश्चित करने की रही है कि इसे अधिक समावेशी और सामाजिक रूप से कम रूढ़िवादी पार्टी के रूप में देखा जाए। इसीलिए उत्तरप्रदेश में कल्याण सिंह जैसे ओबीसी नेता या गुजरात में खुद नरेंद्र मोदी का उदय भाजपा को ब्राह्मण-बनिया छवि से आगे जाने के लिए महत्वपूर्ण था।

प्रधानमंत्री की ‘स्टैंड अप इंडिया’ योजना, जो कांग्रेस के मूल दलित चेहरे रहे बाबू जगजीवन राम की जयंती पर शुरू की गई, दलितों में आंत्रप्रेन्योरशिप को बढ़ावा देने के लिए बनाई गई थी
आरएसएस ने भी सोच-समझकर इस प्रक्रिया को प्रोत्साहित किया, जिसने 1990 के दशक में उत्तर व पश्चिम में भाजपा के उल्लेखनीय विकास के साथ तेजी पकड़ी। 2014 के आम चुनाव के पहले भाजपा ने दलित नेताओं को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया। फिर चाहे यह बिहार में रामविलास पासवान जैसे भागीदार हों या दिल्ली में उदित राज ही क्यों न हो। उत्तरप्रदेश में भी गैर-जाटव दलितों को हिंदू परिवार की ‘सदस्यता’ का वादा करके मायावती से दूर करने की साफ रणनीति दिखाई देती है। यहां तक कि प्रधानमंत्री की ‘स्टैंड अप इंडिया’ योजना, जो कांग्रेस के मूल दलित चेहरे रहे बाबू जगजीवन राम की जयंती पर शुरू की गई, दलितों में आंत्रप्रेन्योरशिप को बढ़ावा देने के लिए बनाई गई थी।

भाजपा शासित राज्यों में गोरक्षक गुटों को लगा कि उन्हें हुड़दंग करने की सरकारी मंजूरी मिल गई है
अब उना की एक घटना के कारण दलितों का विश्वास जीतने के लिए भाजपा द्वारा की गई कड़ी मेहनत पर पानी फिर सकता है। यह पहला वाकया नहीं है, जिसमें ऊंची जाति के हिंदू दलितों की भयावह तरीके से पिटाई करते हुए पकड़े गए हैं। कांग्रेस-एनसीपी शासित महाराष्ट्र (खैरलांजी), कांग्रेस के हरियाणा (हिसारसोनीपत) तथा राजद शासित बिहार (लक्ष्मणपुर बाथे) में नरसंहार हुए हैं। और फिर भी उना की घटना राजनीतिक ज्वालामुखी साबित हो सकती है, क्योंकि वह प्रधानमंत्री के गृह राज्य में हुई और मुख्यमंत्री ने इस खौफनाक घटना पर हफ्ते भर बाद सक्रियता दिखाई। ज्यादा नुकसान पहुंचाने वाला तथ्य तो यह है कि गोरक्षा गुटों पर प्रभावी लगाम लगाने के बहुत कम प्रयास हुए हैं। गाय के अलावा गोवंश, उनके व्यापार व गोमांस उपभोग तक को पाबंदी के दायरे में लेने से हरियाणा व महाराष्ट्र जैसे भाजपा शासित राज्यों में गोरक्षक गुटों को लगा कि उन्हें हुड़दंग करने की सरकारी मंजूरी मिल गई है।

बाबासाहेब अम्बेडकर की शिक्षाओं के प्रति आदर व्यक्त करने के साथ मनु-स्मृति से लगाव, दोनों साथ नहीं चल सकते
यही वजह है कि भाजपा और संघ परिवार को जानवरों के शव ठिकाने लगाने या मृत गाय की खाल निकालने और चमड़े के ‘पुश्तैनी’ व्यवसाय में लगे दलितों पर अपना रुख पुरजोर तरीके और स्पष्ट रूप से रखने की जरूरत है। क्या दलितों को वे काम करने के लिए हिंदू विरोधी माना जाएगा, जो उन्हें ब्राह्मणवादी हिंदुत्व ने परंपरागत ‘वर्ण’ व्यवस्था के तहत सौंपे थे? निश्चित ही आप गो-राजनीति के नाम पर अत्याचार करके दलितों में पैठ नहीं बनाए रख सकते। बाबासाहेब अम्बेडकर की शिक्षाओं के प्रति आदर व्यक्त करने के साथ मनु-स्मृति से लगाव, दोनों साथ नहीं चल सकते। यदि गोमाता के नाम पर हो रहे अपराधों पर अंकुश नहीं लगाया गया तो पूरा हिंदुत्व प्रोजेक्ट बिखर जाएगा।

पुनश्च :2007 में प्रकाशित अपनी किताब कर्मयोग में प्रधानमंत्री मोदी लिखते हैं, ‘टॉयलेट स्वच्छ करने का काम वाल्मीकि समुदाय के लिए अध्यात्मिक अनुभव रहा है।’ क्या उना घटना पर मौन धारण करने वाले प्रधानमंत्री बताएंगे कि हाथों से की गई ऐसी सफाई को ‘अध्यात्मिक’ अनुभव बताने से उनका क्या आशय था?
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
राजदीप सरदेसाई
वरिष्ठ पत्रकार
दैनिक भास्कर से साभार
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1 टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (08-08-2016) को "तिरंगा बना देंगे हम चाँद-तारा" (चर्चा अंक-2428) पर भी होगी।
    --
    मित्रतादिवस और नाग पञ्चमी की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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