महिलाएं और वर्तमान भारतीय राजनीति — ऋचा पांडे मिश्रा

हम भारतीय परिवार चिमटे से पैसे को पकड़ते है और राजनीति में पैसा नहीं बल्कि समय निवेश करना पड़ता है और ऐसे में जब निवेशक एक महिला हो तो पारिवारिक दबाव के चलते कोई भी सामाजिक मंज़िल तय करना काफी मुश्किल हो जाता है और धीरे-धीरे राजनीति में महिलाओं की सक्रिय उपस्थिति असक्रिय होने लगती है.. उनकी भागीदारी केवल धरना, प्रदर्शनों तक ही सिमटने लगती है .... 

महिलाएं और वर्तमान भारतीय राजनीति — ऋचा पांडे मिश्रा

या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता…

— ऋचा पांडे मिश्रा



21वीं सदी की महिलायें प्रेम, दया, करुणा की देवी होने के साथ महत्वाकांक्षी, स्वाभिमानी, दूरदर्शी तथा सफल योद्धा स्वरूप है, अपनी इन्हीं असीम क्षमताओं से लबरेज़ महिलाएँ हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही है । स्कूल-कालेजों में अपनी शैक्षिक योग्यताओं के बल पर हमेशा की तरह अभिभावकों के नाम को रोशन कर रही है । इस बार की संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में प्रथम स्थान पर एक युवा लड़की ने ही अपना नाम दर्ज कराया है । शिक्षा के साथ-साथ खेलों में भी हम महिलाओं की भागीदारी को ज्यादा से ज्यादा देख रहे है जो की महिलाओं के स्वर्णिम भविष्य को दर्शाता है, परन्तु एक क्षेत्र ऐसा भी है जिसमें महिलाओं को रिक्त स्थान को अपनी योग्यता से पूर्ण करने की जरूरत है और वह क्षेत्र है मुख्य धारा की राजनीति । प्रत्येक राजनीतिक पार्टी में कार्यकर्ता स्तर पर महिलाएँ प्रकोष्ठों में व महिला मोर्चों में अपनी पकड़ बना रही है परन्तु भारत का इतिहास एक सच यह भी दिखाता है कि महिलाएँ राजनीतिक पार्टियों के संगठन या सत्ता के शीर्ष नेतृत्व में ना के बराबर ही अहम भूमिका निभा रही है अपवाद स्वरूप कुछ गिनी-चुनी महिलाओं के नाम हम सभी की जुबान पर चढ़े हुए हैं, जिनके ताल्लुक किसी बड़े राजनीतिक घराने या किसी बड़े नेता के आशीर्वाद से जुड़े हुए है । जब हम ऐसे महिला नेतृत्व को ढूँढते हैं जिसने अपने बल पर सफलता की सीढ़िया चढ़ी हो तो आप सभी के नाम अपनी उँगलियों पर बड़े आराम से गिन सकते हैं, सहयोगवश आरक्षण द्वारा इस स्थान को भरने की कोशिश की जा रही है और कुछ हद तक यह जरूरी भी है परन्तु क्या आरक्षण महिलाओं को पूर्ण मार्ग प्रशस्त कर पायेगा । मैं आरक्षण के खिलाफ नहीं हूँ बल्कि आज के संदर्भ में महिलाओं को राजनीति में सम्मानित स्थान दिलाने के लिए तथा उनकी भागीदारी को बढ़ाने के लिए आरक्षण एक बेहतर ज़रिया है लेकिन प्रश्न यह कि वो कौन से कारण है जिनकी वजह से महिलायें उतनी अधिकता से राजनीति में अपनी भागीदारी नहीं बढ़ा पा रही हैं ? हम देखते हैं कि जितने भी राजनीतिक व सामाजिक संकट आते है - जैसे की घरेलू, सुरक्षा, मंहगाई आदि.. इन सभी कारणों से महिलाएँ ही अधिक प्रभावित होती है, अमूमन जो ग्रहणी है उन्हें छोटी से छोटी दुश्वारियों का सामना करना पड़ता है जैसे कि रोजमर्रा की समस्याओं में शुमार - पानी की किल्लत से लेकर उन्हें खाना बनाने, कपड़े धोने, बर्तन धोने, तथा घर की सफाई करने में मुश्किलें आती हैं । घर में बच्चों से लेकर बुज़ुर्गो तक अगर कोई भी अस्वस्थ हो तो वह महिलाएँ ही हैं जिन्हें अमूमन सब सम्हालना होता है, शायद पुरुषों को ये समस्याएँ साधारण लगे पर दैनिक जीवन की यही रुकावटें महिलाओं की नेतृत्व क्षमता को धीरे-धीरे कुंद करती जाती है। मँहगाई, जातिगत व लिंग भेदभाव, दहेज उत्पीड़न, घरेलू हिंसा तथा असुरक्षा की मार महिलाओं को हमारे समाज में पुरुषों के मुकाबले ज्यादा सहनी पड़ती है ।




यहाँ मैं समस्याओं की लिस्ट आपसे साझा नहीं कर रही कि महिलाओं को इतना सब झेलना पड़ता है, बल्कि मैं यह बताना चाहती हूँ की महिलाओं को जब इतनी समस्याओं का सामना करना पड़ता है तो उनके अंदर असमानता तथा असुरक्षा का भाव कितना ज्यादा होगा... शायद वे भी नहीं जानती कि समाज में उनका स्थान मानसिक तौर पर अनिश्चितताओं से भरा पड़ा है । ऐसे कर्तव्य और सामाजिक दबावों के बीच यदि महिलाएँ एक ऐसे पेशे को दिन के 5 घंटें भी दे पाती हैं तो इसे पुरुषों के दिये हुए 12 घंटों के बराबर समझना चाहिये ।

राजनीति वैसे भी धनोपार्जन का ज़रीया नही होती है... यहाँ मैं स्वच्छ राजनीति की बात कर रही हूँ और जब तक आप जनता द्वारा चुनें नहीं जाते तब तक आप प्रतिदिन के ज़रूरी खर्च मसलन कहीं आने-जाने का किराया, चाय-पानी आदि आदि अपनी जेब से लगा देते है ऐसे में चाहे वो जॉब करने वाली महिला हो या फिर ग्रहणी, वह स्वयं अपने ऊपर खर्च करने में हिचकिचाती है ।

हम भारतीय परिवार चिमटे से पैसे को पकड़ते है और राजनीति में पैसा नहीं बल्कि समय निवेश करना पड़ता है और ऐसे में जब निवेशक एक महिला हो तो पारिवारिक दबाव के चलते कोई भी सामाजिक मंज़िल तय करना काफी मुश्किल हो जाता है और धीरे-धीरे राजनीति में महिलाओं की सक्रिय उपस्थिति असक्रिय होने लगती है.. उनकी भागीदारी केवल धरना, प्रदर्शनों तक ही सिमटने लगती है । महिलाओं के साथ दूसरा प्रमुख समस्या समय के साथ तालमेल ना हो पाना । पुरुषों के मुकाबले महिलाएँ अपने पारिवारिक व्यस्तताओं से निवृत्त होकर दिन के समय ही अपना सामाजिक योगदान दे पाती है, तथा शाम ढलते ही उनकी घड़ी उन्हें तमाम घरेलू जिम्मेदारियों की और इशारा करने लगती है... ज्यादातर राजनीतिक बैठकें, कार्यक्रम शाम को शुरु होते है, मजबूरन महिलाओं की भागेदारी घट जाती है । वे अपने वार्ड व ब्लाँक में तो फिर भी आना-जाना कर पाती है, परंतु विधानसभा, जिला व लोकसभा स्तर के बड़े क्षेत्रों में पुरुषों के मुकाबले अधिक दौड़-भाग नहीं कर पाती है ।

राजनीति एक सामाजिक क्षेत्र है यहाँ समाज से जुड़ने के लिए सबसे पहले जनता से मेल-जोल बढ़ाना पड़ता है, समय देना पड़ता है तथा उनके सुख-दुख में साथ निभाना पड़ता है और यह सब संसाधन युक्त व्यक्तियों, परिवारों के लिए ही सुलभ है, समय देना उनके लिए आसान है जिन पर परिवार की कम जिम्मेदारी है ।

एक राजनीतिक व्यक्ति का समय उसका अपना नहीं होता... वह समाज का हो जाता है, वह स्वयं को प्रमुखता से समाज को समर्पित करता है।  वहीं एक महिला के लिए यह सम्पूर्ण समर्पण अत्यधिक जटिल है। आज अगर सम्पूर्ण भारतवर्ष में देखें तो जम्मू कश्मीर, राजस्थान, तमिलनाडु, व पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ही महिलायें है परंतु ये सभी महिलायें सामान्य ग्रहणी नहीं है । महिला वोटरों का अनुपात जिस तेजी से बढ़ रहा है उससे पता चलता है कि उन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता है ये निर्णायक वर्ग बनती जा रही है । 2014 के दिल्ली विधानसभा के चुनाव के पूर्व रेडियो और टेलीविजन पर प्रसारित विज्ञापनों में अरविंद केजरीवाल ने महिलाओं को सम्बंधित किया था और उसका परिणाम आम आदमी पार्टी को अप्रत्याशित जीत के रुप में मिला । वैसे ही बिहार में शराब बंदी का वायदा नीतीश कुमार ने महिलाओं से किया था और उन्हें सुखद परिणाम मिला ।

आने वाले समय में राजनीतिक रणनीतिकारों को महिला वोटरों की शक्ति को ध्यान में रखते हुए नीतियाँ बनानी होंगी और यह सुनिश्चित करना पड़ेगा की महिलाओं से किये गये वायदे पूरे हों । शिक्षित महिलाएँ राजनीति में कम संख्या में ही सही पुरुषों के साथ कदम-ताल कर रही है परंतु जब तक वे राजनीतिक संगठनों में जिला या राज्य स्तर की जिम्मेदारी उठाती नहीं दिखेंगी तब तक वे या तो पैराशूट नेतृत्व के द्वारा अथवा आरक्षण के द्वारा ही राजनीतिक तंत्र मे डाली जाती रहेंगी। ऐसे में पुरुष वर्ग को आगे आकर महिलाओं का सहयोग करना चाहिये ताकि महिलाएँ आभूषणों से सज्जित देवी मात्र ना रह जाये बल्कि स्वाभिमानी दुर्गा स्वरूप बन सके ।

 ऋचा पांडे मिश्रा
राष्ट्रीय प्रवक्ता 'आम आदमी पार्टी'
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