मृणाल पाण्डे : राजा का हाथी



राजा का हाथी  — मृणाल पाण्डे

कांग्रेस जल्द ही दिल्ली पर काबिज़ होगी इसकी कोई डरावनी संभावना अभी दूर दूर तक नहीं, किंतु कांग्रेसी मिट्टी से सपा का एक सबलीकृत किला वे रच सके तो खुद अखिलेश अगले पाँच सालों में दिल्ली की तरफ अपना घोड़ा मोड सकते हैं


कहते हैं उज्जयिनी के राजा का एक प्रिय किंतु बूढ़ा हाथी एक बार कीचड़ में जा गिरा और दयनीय भाव से चिंघाड़ने लगा । उसे बाहर लाने की कोशिशें जब नाकामयाब रहीं तो राजा ने उसके महावत को बुलवाया । महावत ने सलाह दी, कि बूढ़ा हुआ तो क्या? यह हाथी तो बड़ा हिम्मती है और कई लड़ाइयों में आपको विजयश्री दिलवा चुका है । उसके पास युद्ध के नक्कारे-रणभेरियाँ आदि बजवाये जायें तो रणसंगीत से उत्तेजित हो कर बूढ़ा हाथी खुद उठ कर बाहर निकल आयेगा । यही किया गया और हाथी सचमुच बदन झटकारता हुआ कीचड़ से बाहर निकल आया । यह कहानी सुना कर गुरु ने शिष्यों से पूछा तुमको इससे क्या शिक्षा मिलती है ? एक ने कहा, यह दिखाता है कि युद्ध के संगीत में कितनी ताकत होती है । दूसरा बोला, इससे पता चलता है कि बूढ़ा होने पर भी एक असली योद्धा ज़रूरत के समय अपनी आक्रामक ताकत दिखा सकता है । तीसरे ने कहा नहीं , इसका मतलब है कि उम्र किसी को नहीं छोड़ती । बड़े से बड़ा योद्धा भी उम्रदराज़ होने पर कीचड़ में धँसने पर एकदम असहाय हो जाता है ।


उत्तर प्रदेश में सपा के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव की ताज़ा दशा देख कर तीसरे छात्र का उत्तर सही लगता है।
हवा का रुख समझ कर मुलायम बेटे को ‘विजयी भव’ कहते हुए पदत्याग कर देते तो उनके वनवास में भी एक भव्य गरिमा होती । 
लेकिन कई अन्य ज़िद्दी पूर्ववर्ती बुज़ुर्गों की तरह उन्होंने ऐसा नहीं किया ।

यह सही है कि कोई कमंडल लेकर राजनीति में नहीं आता । नेताओं को अपने कई रिश्तेदारों और स्वामीभक्त साथियों का भी खयाल रखना होता है । और एक बेहतर क्षितिज जब तक उनको उपलब्ध न मिले, (या कोई अन्य बेहतर क्षितिज पा कर वे साथ न छोड़ जायें) तब तक वे पदत्याग किस तरह करें ? लेकिन एक अंतर्विरोध फिर भी बच रहता है ।

मुलायम सिंह जैसा कद्दावर नेता यदि ठीकठाक समय पर बेटे को उत्तरप्रदेश की बागडोर थमा कर वानप्रस्थी हो जाए तो किंचित विवादित अतीत के कामों और उनके कतिपय दागी छविवाली मित्रमंडली को भुला कर नेताजी को भारत की जनता सादर याद रखती । 
लेकिन लगता है कि मुलायम के दिल में ‘गो हाथ में ज़ुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है’ वाली एक ययातिकालीन ज़िद कुंडली मार कर बैठी है । जभी वे सफल नेता के पिता का सम्मानित ओहदा ठुकरा कर खुद सफल नेता का रोल करने को आतुर हैं । राजनीति में आगे जाकर अखिलेश का जो हो, इस ताज़ा घरेलू टकराव में बेटे के आगे पिता की हार तय है । और उनकी अवनति के बाद कान भरकर उनसे बेटे की बेदखली के कागज़ पर हस्ताक्षर करवानेवाले उनके करीबी कहाँ जायेंगे इसके जवाब कोई बहुत सुखद नहीं ।

पिछडी जातियों को सत्ता में वाजिब ज़िम्मेदारी दिलवाने और मंदिर विवाद से भयभीत मुसलमानों को आश्वस्त करने के जिस मिशन को लेकर मुलायम राजनीति में आये थे, वह पूरा हो चुका है । और अब उत्तरप्रदेश के चुनावों में न तो कांग्रेस और न ही भाजपा पुराने सवर्णवादी या सांप्रदायिक कार्ड खुल्लमखुल्ला खेल सकेंगे । यह मुलायम का बड़ा हासिल है । पर इस के बाद क्या खुद उनको पता है कि ढ़लती उम्र में वे क्या नई क्रांतिकारी शुरुआत करेंगे ? नयेपन की जहाँ बात है, वहाँ सपा उनके ही घर के नये खून को समर्थन दे रही है । और जब अखिलेश के बरक्स वे अपनी पार्टी के निर्विवाद नेता नहीं रहे तो अब चुनावी रणभेरी सुन कर येन केन दलदल से उबर भी आए, तो क्षणिक तालियों बटोरने के अलावा क्या हासिल करेंगे ?

मृणाल पाण्डे

राजनीति लंबा ब्लफ पसंद नहीं करती

अफवाहें सच्ची हैं, तो मुलायम को भिड़ने की सलाह देनेवाले अमरसिंह को ज़ेड श्रेणी का सुरक्षाकवच दे रही भाजपा के भावी मुख्यमंत्री उम्मीदवार का नाम अभी एक तिजोरी में कैद है । उसे शायद प्रतीक्षा है कि जब यादव कुल की रार से सबलतम विरोधी पत्ते डाल देंगे, तब वह अपना पत्ता खोलेगी । पर राजनीति लंबा ब्लफ पसंद नहीं करती । मान्य अदालत ने एक ताज़ा फैसले से यह निश्चित करा दिया है कि किसी दल के पत्ते अनुकूल हों और किसी के पास बेहतर पत्ते होने का डर न हो, तब भी कोई प्रेक्षक मुस्कुरा कर रंग में भंग डाल सकता है कि अमुक जुआखाने के मालिक ने पत्ते फेंटने में बेमंटी की थी या अमुक पत्तावितरक मोज़े में असली पत्ता छुपाता रहा है । अन्य लीला देश के आगे जारी है ही, जिसकी तहत टीवी के हमाम में मीडिया के रायबहादुर कई स्टिंग आपरेशनों से किसी भी दल को कभी भी नंगा सिद्ध करते रहते हैं । दिल्ली से भिजवाया उम्मीदवार प्रदेश के मंच पर एंट्री लेगा, तो उसे भी नाटक की उसी पटकथा के अनुरूप अभिनय करना पड़ेगा । जाति धर्म वंश की कोई न कोई मिथकीय पोशाक बिना पहने क्या वह सपा बसपा के उम्मीदवारों से सुशोभित नाटक के बीच बुनियादी क्षेत्रीयता हासिल कर पायेगा ?

उत्तरप्रदेश के ज़मीनी मुख्यमंत्री

हो सकता है कुछ पाठकों को यह नाटक और मिथक नापसंद हों, लेकिन इसका मतलब यह हुआ कि आपको वह मिट्टी ही नहीं पसंद जिससे उत्तरप्रदेश के ज़मीनी मुख्यमंत्री गढे जाते रहे हैं । दिल्ली से मिट्टी आयातित कर यहाँ खालिस मार्क्सवादी, खालिस लोहिया समर्थक और खालिस संघी कोई भी अपने किलों को टिकाऊ आकार नहीं दे सके । थोड़े से इस्पात की तरह उसमें जाति धर्म और वंश का काँसा मिलाना ही मिलाना होता है । और यहाँ पर कांग्रेसी काँसे में विभिन्न धर्म और जातिगत हित स्वार्थों , पुरानी परंपरा और नई अर्थनीति के निहितार्थों को एक साथ समेटने की जो दुर्लभ क्षमता दिखती है, किसी अन्य दल में नहीं । अखिलेश यह बात अपने पिता से बेहतर भाँप रहे हैं । कांग्रेस जल्द ही दिल्ली पर काबिज़ होगी इसकी कोई डरावनी संभावना अभी दूर दूर तक नहीं, किंतु कांग्रेसी मिट्टी से सपा का एक सबलीकृत किला वे रच सके तो खुद अखिलेश अगले पाँच सालों में दिल्ली की तरफ अपना घोड़ा मोड सकते हैं, जहां उनकी उम्र और किले में समाहित कांग्रेसी गुणसूत्र बुढ़ाते दिल्ली नेतृत्व को चुनौती देने में उनके बहुत काम आयेंगे । हाथी मरा भी तो सवा लाख का । उत्तरप्रदेश का मन बाँच रहे पाठकों को इस लेखिका की ही तरह हाथी की कहानी से इस तरह अनेक नये संदेश भी निकलते दिखाई देने लगे होंगे ।          


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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