जितेन्द्र श्रीवास्तव की कविताएं


जितेन्द्र श्रीवास्तव की कविताएं 

प्रिय कवि, भाई जितेन्द्र श्रीवास्तव को जन्मदिन की हार्दिक बधाइयाँ. अतिप्रिय हैं आपकी कवितायेँ मुझे भी और मेरे हृदय व मस्तिष्क को भी और ऐसा होना मेरे लिए बहुत सुखद है...  हमारे समय के सच को अपनी कविता में उतारने का शुक्रिया आपको... भरत तिवारी


पत्नी पूछती है कुछ वैसा ही प्रश्न

जो कभी पूछा था मां ने पिता से



ए जी, ये लोकतंत्र क्या होता है?

पूछा था मां ने पिता जी से
कई वर्ष पहले जब मैं किशोर था

मां के सवाल पर
थोड़ा अकबकाये फिर मुस्कुराये थे पिताजी

मां समझ गयी थी
वे टाल रहे हैं उसका सवाल
उसने फिर पूछा था
बताइये न, ये लोकतंत्र क्या होता है?

अब पिता सतर्क थे
‘सतर्क’ के हर अर्थ में
उन्होंने कहा था
तुम जानती हो लोकतंत्र की परिभाषा उसके निहितार्थ
पढ़ाती हो बच्चों को
फिर मुझसे क्यों पूछती हो, क्या दुविधा है?

मां ने कहा था
दुविधा ही दुविधा है
उत्तर की सुविधा भी एक दुविधा है
जो शब्दों में है
अभिव्यक्ति में पहुंच नहीं पाता
जो अभिव्यक्ति में पहुंचता है
जीवन में उतर नहीं पाता

ऐसा क्यों है
प्रेम की तरह लोकतंत्र दिखता खुला खुला सा है
पर रहस्य है!

जब जो चाहे
कभी भाषा से
कभी शक्ति से
कभी भक्ति से
कभी छल कभी प्रेम से
अपनी सुविधा की व्याख्या रच लेता है
और काठ के घोड़े सा लोकतंत्र टुकुर टुकुर ताकता रह जाता है

यह सब कहते हुए
स्वर शांत था मां का

कोई उद्विग्नता, क्षणिक आवेश, आवेग, आक्रोश न था उसमें
जैसे कही गयी बातें महज प्रतिक्रिया न हों
निष्पत्तियां हों सघन अनुभव की
लोकतंत्र की आकांक्षा से भरे एक जीवन की

और यह सब सुनते हुए
जादुई वाणी वाले सिद्ध वक्ता मेरे पिता
चुप थे बिलकुल चुप
जैसे मैं हूं इस समय
उस संवाद के ढाई दशक बाद
अपनी पत्नी के इस सवाल पर
ए जी, ये बराबरी क्या होती है?



एक पूरा स्वप्न

हर सुबह एक नयी उम्मीद की तरह हो
हर शाम खुश हो
किसी उम्मीद के पूरा होने पर
कहीं से कोई खबर न आये
ईमान डूबने की
एक मनुष्य के लिए
यह सबसे बड़ा स्वप्न है
उसके इंसान होने के
सबसे ठोस सबूत की तरह

इस विज्ञान समय में
जब सब कुछ सम्भव है तब भी
मनुष्य होना मात्रा एक सा ढांचा होना नहीं है
सृष्टि में चाहे जितने विकास सम्भव हो जायें
रोबोट इनसान नहीं हो सकेगा
हालांकि मनुष्य के रोबोट में बदलने के खतरे
हर रोज बढ़ रहे हैं
हर रोज बढ़ रही है खाईं
मनुष्य मनुष्य के बीच
अमीरी गरीबी के बीच
राष्ट्र राष्ट्र के दरम्यान

आजकल ऐसे लोग बढ़ते जा रहे हैं
जिनके होने से शर्मिन्दा हैं पशु

प्रतिदिन कम हो रहा है आदर
मनुष्य का मनुष्य के लिए
घट रही है संवदेनशीलता
हर क्षण बढ़ रही है आकांक्षा
बढ़ रहा है शक्ति विमर्श
हर क्षण के हजारवें अंश तक तीव्रतर है लालसा
शक्ति की महफिलों में कोरस का अंग बनने के लिए

निरंतर छीज रहा है आत्मा का रसायन
सूख रहा है मनुष्यता का जीवद्रव्य
एक कम मनुष्यता वाले समय में
चुनौती का शिखर है बचाना
एक साबूत मनुष्य का एक पूरा स्वप्न।


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