कुछ झलक उस दिल्ली की जिसमें रामकुमार पेरिस के बाद...



कुछ भी ‘अतिरिक्त’ उन्हें पसंद नहीं था। न ही किसी भावना का भावुक प्रदर्शन करते थे। न रंगों-शब्दों की फिजूलखर्ची रामकुमार के यहां है। सौ टका टंच खरी चीजें थीं।

— प्रयाग श्‍ाुक्‍ल



रामकुमार जी ने भरा-पूरा जीवन जिया, बड़ी संख्या में चित्रों और रेखांकनों की रचना की। बहुतेरी कहानियां लिखीं, जो उनके चित्रों की तरह ही विलक्षण और सारवान हैं, जिनमें उनकी विशिष्ट छाप है। उनके चित्र और रेखांकन दूर से ही पहचाने जाते हैं और कहानी की पंक्तियां भी बता देती हैं कि वे रामकुमार की पंक्तियां हैं—कुछ मंथर, सोच में डूबी भाषा वाली, संवेदनशील, अंतरमन में प्रवेश करने वालीं।

इस एक महीने के अंतराल को छोड़ दें तो शायद ही 94 वर्षों के कलाकार-लेखक का कोई ऐसा दिन बीता हो, जब वे कोई चित्र-रेखांकन न बना रहे हों

वे मुझसे 16 बरस बड़े थे। जब हम बड़े हो रहे थे, लिखना-पढ़ना शुरू कर रहे थे, तो हमने उन्हें सबसे पहले कहानीकार के रूप में ही जाना था। तब हमने उनकी पुस्तक यूरोप के स्केच पढ़ ली थी और जान गए थे कि वे प्रमुख चित्रकार भी हैं। यह भी जान गए थे कि वे निर्मल वर्मा के बड़े भाई हैं। अपने घनिष्ठ मित्र अशोक सेकसरिया से उनके बारे में कुछ और जानकारियां मिलती रहती थीं। वे उनके घोर प्रशंसक थे। पर तब तक हमने उनका कोई चित्र आमने-सामने होकर देखा नहीं था। उनकी कहानियां कहानी पत्रिका में छपती थीं, जिसे प्रेमचंद के बड़े बेटे श्रीपत राय निकालते थे। हम उत्सुकतापूर्वक रामकुमार की चीजें ढूंढ़ते।

एक सप्ताह उनके साथ
कहानी में मेरी और मेरे बड़े भाई रामनारायण शुक्ल की भी कहानियां छपने लगी थीं। वे रामकुमार जी ने देखी होंगी, तभी 1962 में उनका एक पोस्टकार्ड मिला, “कलकत्ता आ रहा हूं, संभव हो तो मिलना चाहूंगा।” मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। एक सप्ताह उनके साथ घूमा-फिरा। फिर 1962 में मैं कल्पना पत्रिका में हैदराबाद चला गया। वहां एक बरस बिताकर दिल्ली में रहने-बसने के इरादे से दिल्ली आ गया। उस दिल्ली में जहां जैनेन्द्र थे, अज्ञेय थे, रामकुमार, हुसैन, इब्राहीम अलकाजी, यामिनी कृष्णमूर्ति और कृष्णा सोबती थीं। सभी कलाओं में नई गतिविधियां थीं। आ तो गया पर रहने का ठीक ठाक ठिकाना नहीं था।

राम कुमार, एमएफ हुसैन, तैयब और साकिना मेहता,  फोटो राम रहमान

वाराणसी के दिनों में उन्होंने हुसैन के कहने पर मुनीमों वाले बहीखातों में रेखांकन करना शुरू किया था। हुसैन ने उनसे कहा था, इन बहीखातों का कागज टिकाऊ होता है, और वे सस्ते भी होते हैं।


एक चाभी मेरे पास
एक दिन रामकुमार जी ने कहा कि जब तक कमरा नहीं मिल जाता, तुम मेरे स्टूडियो में आकर रह सकते हो। वे सुबह कोई नौ बजे आते और एक बजे तक करोलबाग वाले घर चले जाते। एक चाभी मेरे पास रहती थी। स्टूडियो गोल मार्केट में था। कनॉट प्लेस से दूर नहीं था। मैं वहां तीन महीने रहा। रामकुमार जी से मिलने के लिए मकबूल फिदा हुसैन, कृष्ण खन्ना, तैयब मेहता आते थे। सभी उनके मित्र थे। हुसैन साहब से मैं कल्पना में पहले ही मिल चुका था। बड़ौदा से कभी-कभी नसरीन मोहम्मदी भी आती थीं। उन्हीं दिनों मेरी भेंट स्वामीनाथन, अंबादास, जेराम पटेल, हिम्मत शाह आदि से भी होने लगीं, कॉफी हाउस में, कनाट प्लेस के एक रेस्तरां में, कला आयोजनों में। कभी श्रीकांत वर्मा, कमलेश, महेंद्र भल्ला के साथ। एक दिन रामकुमार जी के पास धर्मवीर भारती का पत्र आया, दिल्ली से किसी युवा लेखक-पत्रकार का नाम सुझाएं, जो धर्मयुग के लिए दिल्ली के कला आयोजनों पर छोटी-छोटी टिप्पणियां लिख दिया करे। रामकुमार जी ने कहा, कि “तुम तो कलाकारों से मिलते हो, प्रदर्शनियां देखते हो चाहो तो लिख सकते हो।” मुझ फ्रीलांसर के लिए यह एक और सुयोग था। टिप्पणियां लिखीं। छपीं। फिर बारी आई ‘दिनमान’ की। वहां बरसों तक कला पर लिखा।

बांये से: वर्षिता, प्रयाग शुक्ल, रामकुमार, विमलाजी, कृष्ण खन्ना (फ़ोटो: रघु राय, पीपल)

मित्र मंडली
मैं अपना जो प्रसंग यहां ले आया, वह अकारण नहीं। इच्छा यही है कि कुछ झलक उस दिल्ली की मिले, जिसमें रामकुमार पेरिस प्रवास के बाद आकर रहने लगे थे। उनकी एक मित्र मंडली थी। स्टूडियो था। कथाकार-कलाकार दोनों रूपों में सक्रिय थे। कहानी, धर्मयुग, सारिका, कल्पना में उनकी कहानियां छपती थीं। छपते थे उनके चित्र। उनकी कला के संग्राहक बढ़ने-बनने लगे थे। वे श्रीपत राय के निमंत्रण पर हुसैन के साथ वाराणसी हो आए थे। उनकी कला एक नई करवट ले चुकी थी। उदास, अवसादपूर्ण आकृतियों का अवसान हो गया था। उसकी जगह ले ली थी अमूर्त सैरों (लैंडस्केप्स) ने, वाराणसी की धारा ने, सांकेतिक नावों ने, पीछे दिखते घरों-घाटों ने, गलियों ने। आकृतियां अब कहीं नहीं थीं। पर थी और भी गहरी हो आई मानवीय करुणा, संवेदना जो मद्धिम से रंगों में, एक पवित्र-सी उजास में, फैली थी कैनवासों में। धीरे-धीरे यह और गहरी होती गई। एक नई चित्र-भाषा बन और संवर रही थी, जिसने स्वयं रामकुमार को छा-सा लिया था।

वाराणसीः एक यात्रा
कुछ ही बरसों बाद कहानियां उनकी कलम से कम ही निकलती थीं, ब्रश और पैलेट नाइफ उन्हें अधिक प्रिय हो उठे थे। गद्य उन्होंने कुछ लिखा जरूर बाद में भी। मेरे आग्रह पर पेरू की यात्रा पर उन्होंने एक वृत्तांत लिखा था दिनमान के लिए। और जब कल्पना काशी अंक (2005) का संपादन किया मैंने, तो आवरण के लिए अपना एक काशी-चित्र तो दिया ही, एक टिप्पणी भी विशेष रूप से लिखीः ‘वाराणसीः एक यात्रा’। यह कुछ दुर्लभ-सी ही चीज है।

सौ टका टंच खरी चीजें
रामकुमार विनम्र थे। संकोची थे। कुछ भी ‘अतिरिक्त’ उन्हें पसंद नहीं था। न ही किसी भावना का भावुक प्रदर्शन करते थे। न रंगों-शब्दों की फिजूलखर्ची उनके यहां है। सौ टका टंच खरी चीजें थीं। हैं। इसी ने उनकी कला को, व्यक्तित्व को एक चुंबकीय शक्ति भी दी। ‘एकांतवासी’ से रामकुमार से बहुतेरे लोग मिलना चाहते थे। गैलरियां उनके चित्रों को प्रदर्शित करना चाहती थीं, आगे बढ़कर। पत्र-पत्रिकाओं के कला-लेखक, साक्षात्कारकर्ता उनसे मिलने को बैचैन रहते थे। पर, स्वयं रामकुमार को अपने लिए आगे होकर, कुछ करते हुए नहीं देखा। काम और बस काम, रचना और बस रचना, यही उनकी दिनचर्या बनी रही अंत तक। 94 वर्ष की आयु में वे 14 अप्रैल की सुबह हमारे बीच से गए, अपने ही घर पर लेटे हुए। (उससे एक दिन पहले ही कोई महीना भर हॉस्पिटल में बिताकर घर आए थे) इस एक महीने के अंतराल को छोड़ दें तो शायद ही 94 वर्षों के कलाकार-लेखक का कोई ऐसा दिन बीता हो, जब वे कोई चित्र-रेखांकन न बना रहे हों।

जन्म शिमला में हुआ था। स्कूली शिक्षा भी हुई। पहाड़, वृक्ष, नदियां, जलधाराएं, बर्फ, हवा-सब हम उनके अमूर्त लैंडस्केप्स में देख सकते हैं। वहां विभिन्न ऋतुएं भी बसी हुई हैं। उनके चित्र हों या कथाएं, वहां ऋतुएं मानों रंगों में भी कभी-कभी प्रकट होती हैं।

‘एकांतवासी’ से रामकुमार
हां, उन्हें ‘एकांत’ में रहना प्रिय था। जब पत्नी विमला जी (जो संगीत की अनन्य प्रेमी थीं और रूसी कहानियों का सुंदर अनुवाद किया था) का कुछ बरस पहले निधन हो गया और बेटा-बहू (उत्पल, रेणु) और दोनों पौत्र (अविमुक्त, अविरल) ऑस्ट्रेलिया में थे, तो वह एकांतवास एक दिनचर्या भी बन गया। बीच में उनकी छोटी बहन निर्मला, पास में रहने आईं जरूर, और बेटा उत्पल तो प्रायः ऑस्ट्रेलिया से आ ही जाता था, पर, कुल मिलाकर उनका एंकातवास, एक दिनचर्या-सा बन गया। रोज स्टूडियो में काम करना, पढ़ना—कुछ न कुछ और ‘भारती आर्टिस्ट कालोनी’ (दिल्‍ली) के अपने 18 नंबर वाले निवास के पास के, सुंदर, हरियाले पार्क में टहलना, शाम को टीवी पर कुछ देखना यही तो था नित्य का जीवन। कभी-कभी कुछ आत्मीय मिलने आते। दिल्ली से, दिल्‍ली के बाहर के भी। उन्हें छोड़ने गेट तक आते। सर्दियों में धूप में बाहर के हिस्से में किसी किताब के साथ दिखते या यों ही चुपचाप बैठे हुए।

अंधेरा उतर आता
पिछले साल की ही तो बात है, अपने कला-प्रेमी, मित्र अमन नाथ के आग्रह पर रामगढ़ गया था, जहां ‘नीमराना नॉन होटल्स’ में रामकुमार के नाम पर एक कमरा है। अमन नाथ की इच्छा थी कि मैं उस कमरे में दो-एक दिन रहूं, जहां कई बरस पहले रामकुमार-विमला जी बीस-पच्चीस दिन रहे थे। उस कमरे को और आसपास के वातावरण को ‘फील’ करूं और रामकुमार जी पर उस प्रसंग से एक टिप्पणी लिखूं, जो उस कमरे में लगाई जाए। मैं गया। टिप्पणी लिखी। अंग्रेजी में। रामकुमार जी को सुनाई। संतोष हुआ कि उन्हें पसंद आई। वहां के अधिकारियों-कर्मचारियों से मालूम हुआ कि रामकुमार जी बालकनी में बैठ जाते, घाटी की ओर, पहाड़ों की ओर देखते रहते। अंधेरा उतर आता। हां, उन्हें पहाड़ों से लगाव था। जन्म शिमला में हुआ था। स्कूली शिक्षा भी हुई। पहाड़, वृक्ष, नदियां, जलधाराएं, बर्फ, हवा-सब हम उनके अमूर्त लैंडस्केप्स में देख सकते हैं। वहां विभिन्न ऋतुएं भी बसी हुई हैं। उनके चित्र हों या कथाएं, वहां ऋतुएं मानों रंगों में भी कभी-कभी प्रकट होती हैं। 1980 के बाद के चित्रों में नीला, हरा, पीला आदि उनके रंगाकारों में कई रूपों में बस गए। कभी तीव्र ब्रश स्ट्रोक्स में, कभी मंथर गति से, कभी किसी पट्टी में, कभी रंग लेप में। टेक्सचर में। चित्र वाराणसी के हों या फिर हों लैंडस्केप्स, वहां मानो उनके अंतरमन की ही प्रतीतियां हैं।

हुसैन ने उनसे कहा
उस अंतरमन की, जिसकी अपनी एक विशिष्ट सौंदर्य दृष्टि थी। यही सौंदर्य दृष्टि उनके सादे पहनावे में, उनके उठने-बैठने-बतियाने में प्रकट होती रही। और कहानियों में भी तो ऋतुएं, रंग और पात्रों के अंतरमन ही क्रमशः उजागर होते हैं। उन्होंने उपन्यास भी लिखे, एक है घर बने घर टूटे, कहानी संग्रह कोई दर्जन भर हैं, हुस्नाबीबी और अन्य कहानियां तथा समुद्र जैसे। चित्र-रेखांकन तो हजारों की संख्या में हैं, जिनकी देश-दुनिया में बहुतेरी प्रदर्शनियां हुईं और जो दुनिया भर में, उनके कला-संग्राहकों के यहां एक ‘निधि’ की तरह सुरक्षित हैं। उन्होंने कई देशों की यात्राएं कीं। इन यात्राओं ने उनकी कला के रंगों पर छाप छोड़ी। ग्रीस और न्यूजीलैंड की यात्राओं ने विशेष रूप से। वाराणसी के दिनों में उन्होंने हुसैन के कहने पर मुनीमों वाले बहीखातों में रेखांकन करना शुरू किया था। हुसैन ने उनसे कहा था, इन बहीखातों का कागज टिकाऊ होता है, और वे सस्ते भी होते हैं।

बहीखातों में रेखांकन
ऐसे कुछ बहीखाते उनकी दराजों में बंद पड़े थे। मेरे और विमला जी के आग्रह पर, ये अंततः उन्होंने प्रदर्शनियों के लिए दिए। प्रदर्शनी मैंने क्यूरेट की। पहली प्रदर्शनी वढेरा गैलरी ने दिल्‍ली में 2012 में की थी फिर आकृति गैलरी ने कोलकाता में, मुंबई और दिल्‍ली में भी उनकी प्रदर्शनियां लगाईं। रेखाएं उनमें उन्मुक्त होकर विचरती मालूम पड़ती हैं, कुछ पुरानी स्मृतियों को और रेखांकन के वक्त की प्रतीतियों को बटोरती हुई। इनके तीन कैटलॉग बने-अलग-अलग।


प्रयाग शुक्ल
रामकुमार जी की यात्रा लंबी थी। उनके एक कथा संग्रह का नाम भी है, एक लंबा रास्ता। इस लंबे रास्ते पर वे धीर गति से चले, सब कुछ सूक्ष्म निगाहों से देखते हुए, बहुत कुछ संचित करते, रचते हुए, सौंदर्यशील ढंग से। यह चर्चा होती जरूर है कि अब कला नीलामियों में उनके चित्र करोड़ों में बिकते हैं। पर, इस पक्ष ने न उनके रहन-सहन को बदला, न पहनावे को, न खान-पान को, और कह सकता हूं कि 1962 में कोलकाता में हुई उनसे पहली भेंट और 2018 में हुई उनसे आखिरी भेंट यही बताती थी कि ‘वे नहीं बदले’ थे, कला अवश्य उनकी हमेशा कुछ ‘नया’ करती-रचती रही।



००००००००००००००००

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

ये पढ़ी हैं आपने?

Hindi Story: 'शतरंज के खिलाड़ी' — मुंशी प्रेमचंद की हिन्दी कहानी
आज का नीरो: राजेंद्र राजन की चार कविताएं
भारतीय उपक्रमी महिला — आरिफा जान | श्वेता यादव की रिपोर्ट | Indian Women Entrepreneur - Arifa Jan
Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
मैत्रेयी पुष्पा की कहानियाँ — 'पगला गई है भागवती!...'
Harvard, Columbia, Yale, Stanford, Tufts and other US university student & alumni STATEMENT ON POLICE BRUTALITY ON UNIVERSITY CAMPUSES
एक पेड़ की मौत: अलका सरावगी की हिंदी कहानी | 2025 पर्यावरण चेतना
तू तौ वहां रह्यौ ऐ, कहानी सुनाय सकै जामिआ की — अशोक चक्रधर | #जामिया
गिरिराज किशोर : स्मृतियां और अवदान — रवीन्द्र त्रिपाठी
ईदगाह: मुंशी प्रेमचंद की अमर कहानी | Idgah by Munshi Premchand for Eid 2025