पंखुरी सिन्हा की कवितायेँ | Pankhuri Sinha Ki Kavitayen


छोटी-छोटी लाइनों में  ख़ूब बड़ी-बड़ी बात बताते हुए, दंभ को परे सरकाए, दूर भगाए, शहर में ज़िंदगी को ढूंढते हुए, छोटे-छोटे शब्दों को करीने से सजाते हुए, पंखुरी ख़ूब लिखती हैं कविता. कुछेक बानगी देखते, पढ़ते उतर जाइए उनकी कविताओं से अपने संसार में... भरत तिवारी / शब्दांकन संपादक



बानगी-१ वे होंगें परिचित 
     कि होंगें नहीं 
     कोई तो जानेगा इसका नाम
     मित्रों के साथ साथ 
     अजनबी भी हैं जानकार यहाँ
     पर यह तो आखिर चिड़िया है 

बानगी-२ मत बताना 
     नदी अपनी आखिरी लड़ाई लड़ती हुई 
     दम तोड़ रही है 
     किसी मुहाने पर 
     ज़िन्दगी का समूचा जज़्बा 
     ग़ायब हो गया है 
     किसी ग़ायब पक्षी की प्रजाति सा 

बानगी-३ सच मानिये 
     बड़ी बात है 
     दिन का शुरू होना 
     लेकिन वह दरअसल 
     तब तक शुरू नहीं होता 
     जबतक पहले के दिन की हिंसा का मलबा
     उड़ नहीं जाता भाप बनकर





मन मउला हुआ कचनार है

— पंखुरी सिन्हा

मन मउला हुआ कचनार है
जबकि कल फिर एक भिनसार है
और जेठ की दुपहरिआ में
कुम्हलाये हुए फूल पर
नाचे चली जा रही है
वही, बित्ते से कम की
ऊँगली से भी छोटी
चिड़िया
साथिन हमिंगबर्ड की
निश्चित उसी परिवार की है
वह भी है चमकीली काली
मोर सी नीली गर्दन वाली
वह कुछ ज़्यादा ही शर्मीली है
और यह उन्मादी चंचल
अति आतुर और लजीली है
गर्वीली, हठीली है
ठहरती नहीं है क्षण भर को
किसी एक फूल पर
मुरझाया फूल विहँसता है
सुगन्धित है, वह ज़िंदा है
लबरेज है पराग से
चिड़िया भूख प्यास मिटाती है
तृप्ति तो वह पाती है
पर चोंच खुली रह जाती है
चिड़िया मेरे साथ साथ
ग्रीष्म राग तो गाती है
पर हाय री अफलातून चिड़िया
एक डाल से फुदक फुदक कर
झूल झूल कर पंखुरियों से
कसरत तू करवाती है
उफ़ ये तेरा उल्टा घूमकर
तिरछा घूमे
पलट पलट कर
फूलों से मधुपान की मुद्रा
शब्द गहि न जाती है
कहा न जाए
सीधा सादा
भोजन करने का लय तेरा
जग जाने है
ऋषि माने है
पर तू तो चिड़िया
पल पल ही
अचरज नवीन
से भर जाती है
उठ्ठक बैठक कितनी सारी
करके मैं हारी
आयी तेरी छवि न एक
ऊपर वह परमात्मा नेक
मैं तो आखिर बैठ गयी
पत्तों से क्यों झाँक रही है
ओ मतवाली चिड़िया
तू फिर से नाच रही है
मन झरता हर सिंगार है
कल फिर भिनसार है





आवाज़ का झरना

किये हुयी है पागल जो
संगीत की जादूगरनी
वह चिड़िया
अब भी यहीं हैं
पहचान लिया है
लगभग उसको आवाज़ समेत
पगलाए है पीछे अपने गा गा कर
सच पागल किये हैं
चुन चुन करती
भोर ही की धूप से
सीटी की आवाज़ की जटिल सी एक तान है
उठती है, खिंचती है, गिरती है
बांधकर ले जाती है
साथ अपने
उ, उ, ऊऊ ऊ
कुछ सुनता है
मन है, कि तन है
चेतन है
अवचेतन है
कोई ध्वनि नहीं है
पकड़ने को वाणी उसकी
मुमकिन है
कोई अक्षर भी न हो
यंत्र हैं
कैद करने वाले उसकी आवाज़
और एक अदना सा छवि यंत्र लिए
मैं पागल हूँ
कि वह आ जाए
चीन्हने लायक
चित्र पटल पर
दृश्य पटल पर
लोगों के संवाद में
वे होंगें परिचित
कि होंगें नहीं
कोई तो जानेगा इसका नाम
मित्रों के साथ साथ
अजनबी भी हैं जानकार यहाँ
पर यह तो आखिर चिड़िया है
आयी तो है
करोड़ों पुचकार
लाख पुकार पर
वहीं जहाँ बिखेरे थे चावल
जहाँ कुत्ते को दी जा रही थी रोटी
उत्सुक सी मुझे देखती
किसकी हो सकती है
सुरहीन, शब्द मय
आवाज़ यह
शब्दों की बनी हुई
शब्दजाल बिखेरने वाले कौम की
जो बिछाते हैं असल के भी जाल
न केवल चिड़ियों
बल्कि अपनों के लिए भी
जिनके पास भाषा ज़्यादा है
भाव कम, संगीत कम
वह फैलाती है अपने डैने
जैसे पुरातन अभ्यास को
जैसे चेष्टा सायास को
जैसे प्रदर्शनी पंखों की
जाने चिड़िया की आँख
क्या देखती है ?
वह फुर्र की आवाज़
और उस गति से उड़ती है
जिसमें डैनों का खुलना तक नहीं दिखता
वह उड़ती है
वह गाती है
आगे पीछे के अलग अलग पेड़ों पर
मैं यंत्र थामे यंत्र वत
तलाशती हूँ तरीके
कैद नहीं
सुरक्षित करने को आवाज़ उसकी
उसकी शक्ल
क्षण बीता जाता है
सब अवाक सा है
मामूली सी एक चिड़िया है
भूरे रंग की
सुंदर ही कही जाएगी
चॉकलेट भूरे रंग की
जो खो भी जाती है
पेड़ों के तने में
निकलती है धूप सी
और जिसकी करियाई चोंच के भीतर
अलौकिक आवाज़ का झरना छिपा है
मैं उसे भरने को अंजुरी में
व्याकुल, परेशान
चिड़िया है
दिन की धूप सरकती हुई
नज़ारा है
कि अमरता को दिखाता हुआ ठेंगा
गुज़रता जाता है
ख्याल है किसी आने वाले समय का
कि क्षण अपने में सम्पूर्ण है
किसी कक्षा में कही
शिक्षक की बातें
सजीव हो गयी हैं
अचानक
हम कितना कम हो पाते हैं
एकाकार
जीवन के साक्षात
साक्षात्कारों से





सुबह की प्राण दायिनी हवा

सुबह की पहली सोच
अलसायी नहीं
ताज़गी भरी
नींद पूरी किये
मुक्त ख़ुमार से
जिसमें साथ रहने वालों के साथ
अथवा दूर रहने वालों के साथ
कोई वार्तालाप न हो
जिसमें दिन को भी
एक तरह शुरू करने का
इस तरह
हड़कंप न हो
कि वाहनों के शोर से
फट जाएँ कान के परदे
जिन्हें टहलना हों
टहल लें
बाजा न बजाएं सुबह की टहल का
जो झुके हैं काग़ज़ के पन्नो पर
अथवा काग़ज़ सरीखे सफ़ेद पर्दों पर
उनकी मर्ज़ी
बात सुबह की पहली सोच की
जो एक दिन के मिलने से भी ज़्यादा ख़ास होती है
सच मानिये
बड़ी बात है
दिन का शुरू होना
लेकिन वह दरअसल
तब तक शुरू नहीं होता
जबतक पहले के दिन की हिंसा का मलबा
उड़ नहीं जाता भाप बनकर
क्यों करना होता है
उस शांत सुबह का इस तरह इंतज़ार
कि हर दिन
हर शाम
वह छीनी जा रही है हमसे
नाहक लड़ाई में
फालतू राजनैतिक संग्रामों में
जो बहुरुपिआ बनकर नाहक दस्तक दे रहे हैं
बाधित करते सुबह की वह सोच
बेशकीमती
जैसे हर कोई बाधित कर रहा है
सुबह की प्राण दायिनी हवा भी





धूप तलाशते लोग और संगीत की परतें

धूप तलाशते लोगों का हो जाना
भोजन पकाती हरियाली
अथवा थकी हारी कोई चेतना
अथवा जिस्मों का करार दिया जाना
भक्षण या भोग युक्त फल
जीवन में संगीत की परतें
गुनने, धुनने, पहनने
ओढ़ने बिछाने वालों का खुरच कर अंतर्मन
उनकी उछाल को बना देना काठ
भावनाओं को मिट्टी
हौसलों को जड़
प्रेम को पत्थर
किस सभ्यतागत ऊंचाई का परिचय है?
अब ये मत कहना
केवल पेशेवर गाने वाले
जीते हैं धुनों और रागों में
संगीत बहता है केवल
उनकी धमनियों में
जो मांजते हैं
करते हैं रियाज़
केवल आलापी हुई ध्वनि है संगीत
ऐसा मत कहना
कि थम गया
रोक दिया गया है
जीवन का अनायास
कल कल बहता गीत
खरगोश की उछल कूद
हिरण की कुलाँचों
का अनहद नाद थम गया है

प्रेम के मसल दिए जाने की तरह
बाँध दिया गया है
पत्थरों की इमारतों में
मत बताना
नदी अपनी आखिरी लड़ाई लड़ती हुई
दम तोड़ रही है
किसी मुहाने पर
ज़िन्दगी का समूचा जज़्बा
ग़ायब हो गया है
किसी ग़ायब पक्षी की प्रजाति सा
मशीन बना दिए गए हैं लोग
समूची लय ताल के साथ
वो चलाते हैं, अपने वाहन, फोन, कम्प्यूटर
और इन्हीं के पाट पुर्जों की तरह
होती है उनकी टूटन और मरम्मत
जो कई बार नहीं भी हो पाती
ऐसा महा संग्राम है
मशीनीकरण का
कि उछलते कूदते
गाते गुनगुनाते लोग
सृष्टि के सहज, सुगम
लय ताल से
अगर हो नहीं जाते विलग
तो पूर्णतः अलग
और क्षीण होते होते
समाप्त हो जाता है
वह अदृश्य, अश्रव्य
लेकिन उपस्थित और प्रकट
संगीत जीवन का




गबनों के रहस्योद्घाटन

जेल के दरवाज़ों पर अँटकी हुई हैं 
बहुत सी राजनैतिक लड़ाइयां 
और वो नहीं लड़ी जा रही 
फाइलों में गबनों के रहस्योद्घाटन से
पत्रकार भी कहाँ देख रहे हैं फाइल? 
फाइलों को लेकर 
लाइब्रेरी इंचार्ज चल रहे हैं 
लड़किओं के पीछे 
उनका किसी लड़के से मिलना 
सबसे बड़ी खबर है
यह विदेश में भारतीय समय का 
कृत्रिम आयात नहीं 
इमीग्रेशन की देशी राजनीति है 
औरत को न आज़ाद आवाज़ 
न आर्थिक स्वतंत्रता देने की साजिश
आख़िर नहीं ही लेने दिया उसे 
सबने मिलकर 
काग़ज़ का वह टुकड़ा 
जिससे ख़रीद सकती घर वह 
होकर पति से अलग विदेशी ज़मीन पर 
और लौटने पर देश 
शाम सुबह 
खींची जा रही है 
राज्य और राजधानी की सीमा 
उसी के दरवाज़े पर





सुबह की ठंढक और महानगर का सूरज

सुबह की ठंढक थोड़ी सी 
अशोक के पत्तों में 
दिल्ली की दो मंज़िली 
बालकनी के आगे 
एक पेड़ 
दुबला पतला 
ऊँचा लम्बा होता हुआ
कट जाने के बाद 
मालती और तमाम लताएं 
टूट जाने के बाद 
मौलिश्री और बाकी फूलते पेड़ 
लेकिन सुबह की ठंडक 
ज़रा देर और
महा नगर के सूरज के 
पूरी तरह तप जाने से पहले

पंखुरी सिन्हा nilirag18@gmail.com


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