कुछ न समझे ख़ुदा करे कोई…

साहित्यकार और क्या करे, मृदुला गर्गजी ने कहानी के माध्यम से चेताया...नहीं चेते, अब सुमन केशरी दीदी कहानी के अपने पाठ से उपजी विवेचना से चेता रही हैं...जागिये! दिक्कत यह है कि जब सत्ता के खिलाड़ी हमें यह महसूस करा देते हैं, कि खिलाड़ी वो नहीं हम हैं, और हम सब दाँव पर लगा देते हैं, तब जब तक नाश न हो जाए हम मानते ही नहीं...

गजब कन्ट्रास्ट रचती है यह कहानी और ऐसे लोगों को सामने लाती है जो दोनों संस्कृतियों के मजे बिना किसी मॉरल क्राइसिस के लेने के हिमायती हैं। एक ओर वे अमरीकी ऐश्वर्य का उपभोग निर्बाध  भाव से करने के हिमायती हैं, किंतु पत्नी की देखरेख के लिए फूटी कौड़ी नहीं लगाना चाहते।  

मृदुला गर्ग की कहानी “सितम के फ़नकार”  को पढ़ते हुए 

...सुमन केशरी

कुछ न समझे ख़ुदा करे कोई…

ग़ालिब के इस मार्मिक और अर्थगर्भित शेर की शुरुआती पंक्तियों को कतई भूलकर केवल यही पंक्ति पढ़ने की दरख़्वास्त के साथ…

किसी भी कहानी की सफलता का मूलमंत्र है: ततः किम् यानी कि आगे क्या (हुआ)…यानी वह जो पढ़ा ले जाए खुद को अंतिम शब्द तक और फिर आप उसे लिए लिए देर तक उमड़ते-घुमड़ते रहें..

आज यह बात अब हमारी यहाँ की सोच का भी हिस्सा होती जा रही है। अगर आप रिलैक्स्ड ढंग से काम करते-करवाते हों तो आप सीरियस नहीं हैं, और काम नहीं करते।  

मृदुला गर्ग की कहानी “सितम के फ़नकार” को पढ़ते हुए लगातार यह उत्सुकता बनी रही कि आखिर वह चित्र “क्या” है, जिसके इर्दगिर्द कहानी बुनी गई है। ध्यान रहे कि चित्र कोई नयनाभिरामी कृति नहीं है, किंतु कहानी का विस्तार और उसके किरदारों की तमाम पर्तें वही चित्र खोलता है, जो सोनिया, जिसे कहानी की नायिका कहें या नैरेटर, को अपनी मौजूदगी भर से लगातार परेशान किए हुए है —

खाने की मेज़ की जिस कुर्सी पर मैं बैठी थी या कहना चाहिए कि जिस कुर्सी पर इसरार करके, बतौर हिंदुस्तान से आए मेहमान, जीवन वर्मा ने मुझे बिठलाया था, उसके ठीक सामने, दीवार पर एक लंबा चौड़ा चित्र टंगा हुआ था। 40X30 इंच का; इतना बड़ा कि भरसक कोशिश करके भी, उससे नज़र हटाई नहीं जा सकती थी।…उस वक्त ये फ़िजूल ख़ुराफ़ात सोचने का मकसद था, चित्र से ध्यान हटाना। बार बार एक ही विचार मन में कौंध रहा था। इसे खाने की मेज़ के सामने लगाने की क्या तुक थी? …मेरे हाथ में होता तो कहीं न लगाती। उस चित्र की फितरत ही ऐसी थी। उसे नज़र की ओट न कर पाने की ख़लिश, मुझे निवाला नहीं निगलने दे रही थी।…

मुरलीधर के अनुसार केरल के आश्रम में “स्प्रिचुअल अप्रोच” है, “सेवा भाव और परमात्मा में आस्था” है, और ‘वहाँ रोगी के पास पॉजिटिव वाइब्स भेजने की यूनीक पद्धति है, जिसे अमरीका में मिलीयन डालर खर्च करके भी नहीं खरीदा जा सकता।’



बहुत संक्षेप में कहानी: न्यूयोर्क के आलीशान सबर्ब में स्थित जीवन वर्मा के घर पर भोजन पर आमंत्रित सोनिया, जीवन के मित्र मुरलीधर गुप्ता और उनकी बेटी सपना तथा जीवन की पत्नी सुरुचि के बीच हो रही बातचीत है। शेफ़ जीवन वर्मा ने मेहमानों के लिए अर्जेनटाइना की एक खास डिश ‘चिकन चिमीचुर्री’ बनाई है, जिसका स्वाद मुरलीधर और सपना को तो मालूम है, किंतु जिसे किसी तरह खाने का उपक्रम सोनिया और सुरुचि करती हैं। सोनिया और सुरुचि भारतीय खाने की शौकीन हैं, जो जीवन वर्मा के अनुसार तेल सना, मसाले वाला और ज्यादा पके होने के कारण “बेहूदा” होता है। जीवन वर्मा और उनके दोस्त के लिए अमरीका जमीन पर स्वर्ग का ही पर्याय है, जहाँ जान की कीमत है, पाखंड नहीं है। जीवन वर्मा खाना पकाने में आम भारतीय मर्द की तरह अपनी हेठी नहीं समझते और अमरीकी वर्क कल्चर में निहित कर्मठता के प्रशंसक हैं। बकौल नैरेटर, जीवन वर्मा का “ घर विशुद्ध भारतीय का घर था। विशुद्ध माने जन्म से…पर क्या अमेरिकन नागरिक बन चुके NRI..को हम विशुद्ध कह सकते हैं, भले ही जन्म से। ...खालिस अमरीकी कहलवाने की कशिश या कोशिश, क्या कुछ नहीं करवा जाती।

और अमरीकी कहलाने की यही कोशिश मुरलीधर से कैन्सर की मरीज़ पत्नी को केरल के एक आश्रम में छुड़वा देती है, ताकि अमरीकी वर्क कल्चर का पालन हो सके…वह वर्क कल्चर जहाँ वर्क ही धर्म है, वहाँ भारत जैसी सुविधा हासिल नहीं कि कोई काम भी कर ले और घर परिवार की जरूरतों को भी देख ले।  मुरलीधर के अनुसार केरल के आश्रम में “स्प्रिचुअल अप्रोच” है, “सेवा भाव और परमात्मा में आस्था” है, और ‘वहाँ रोगी के पास पॉजिटिव वाइब्स भेजने की यूनीक पद्धति है, जिसे अमरीका में मिलीयन डालर खर्च करके भी नहीं खरीदा जा सकता।

गजब कन्ट्रास्ट रचती है यह कहानी और ऐसे लोगों को सामने लाती है जो दोनों संस्कृतियों के मजे बिना किसी मॉरल क्राइसिस के लेने के हिमायती हैं। एक ओर वे अमरीकी ऐश्वर्य का उपभोग निर्बाध  भाव से करने के हिमायती हैं, किंतु पत्नी की देखरेख के लिए फूटी कौड़ी नहीं लगाना चाहते। मुरलीधर की बेटी सपना पिता के रवैये से आहत है, किंतु अमरीकी वर्क-कल्चर से निकलने का साहस नहीं है उसमें। उसे इस बात का भी अहसास है कि सारी छुट्टियाँ उसने भारत में माँ के पास गुजार दीं और “ एक दिन के लिए भी रिलैक्स करने कहीं नहीं गई, इससे ज्यादा क्या कर सकती थी..

यहाँ गौर करने की बात यह है कि परंपरागत भारतीय जीवन शैली में काम और रिलेक्सेशन साथ गुंथे होते थे। काम किया और त्यौहार मनाया। काम करते करते गीत गाए। शाम को किस्से कहानी सुने, लगाई-बुझाई की, रामायण भागवत का पाठ किया। एक जीवन संस्कृति, ठीक भारतीय खाने की तरह जिसमें स्नेह भी है, तो मसालों का चटपटापन भी और संबंधों के देर तक सींझने-पकने का धैर्य भी। ईसाई धर्म को लें तो सप्ताह में छह दिन काम करने के बाद सातवें दिन आराम का। उस दिन काम करना कुफ़्र माना जाता है। मैरी मेग्दलीन का अपराध भी तो यही था कि वह सातवें दिन ‘व्यापार’ कर रही थी। सो रिलैक्स करने के दिन काम करने के दिनों से अलग हैं। आज यह बात अब हमारी यहाँ की सोच का भी हिस्सा होती जा रही है। अगर आप रिलैक्स्ड ढंग से काम करते-करवाते हों तो आप सीरियस नहीं हैं, और काम नहीं करते। कार्मिकों की प्रोडक्टिविटी इस आधार पर मापी जाने लगी है कि आप समय पर आए और समय पर गए। सारा दिन सीट पर बैठे रहे, चाय पीने बाहर नहीं गए। दिए गए काम को निबटाया, भले ही उसमें रचनात्मकता और नई सोच का बिल्कुल अभाव हो। दरअसल काम के इस तरीके को अपनाना वापस फ़्रेडरिक विन्सलॉ टेलर के जमाने में जाना है, जहाँ पीस के हिसाब से काम को मापा जाता था, भले ही मनुष्य स्वयं मशीन में तब्दील हो जाए। सच तो यही है कि आज सत्ता की कोशिश ही है कि मनुष्य मशीन बन जाए, फ़ुली प्रोग्राम्ड बाई द स्टेट!
Modern Times - Charlie Chaplin

विकास

मृदुला गर्ग की कहानी की खासियत ही यह है कि ये सारी बातें सीधे सीधे नहीं कही गईं। एक अदद चित्र है और नैरेटर की सोच है, एक अदद अर्जेटाइना की फ़ैंसी डिश है, जिसका वास्तविक स्वाद जाने कैसा होता है!  चलिए इस नायाब डिश को “विकास” के रूपक की तरह पढ़ते हैं। औद्योगिक क्रांति के बाद विकसित हुए अर्थ शास्त्र व राजनीति विज्ञान में विकास एक ऐसे पैराडाइम की तरह उभरा कि सबकुछ उसी की दृष्टि से देखा गया और यह विकास भौतिक उपलब्धि को ही महत्त्व देता है। आज भी जीडीपी आदि की बात होती है। कितना शहरीकरण हो गया, कितना कार्बन उत्सर्जन हुआ आदि। किंतु इस विकास का दूरगामी प्रभाव क्या है, उसके बारे में बोलना विकास-विरोधी होना है। यानि कि विकास गोया ब्रह्म है जिसे उसके पूर्ण रूप में किसी ने देखा ही नहीं, और न देखने की शक्ति है किसी में। वह तो गोया विष्णु का विराट रूप है, जिसे देखने के लिए बर्बरीक की तरह सिर कटवाना पड़ेगा। यह बात बड़े नामालूम ढंग से सजग पाठक के मन में धँसती चली जाती है।



याद करें कि जो पात्र यानी कि मुरलीधर इस डिश की प्रशंसा करता है वह भी कहता है कि, “कितनी लाजवाब बनी है, नहीं, अर्जन्टीना के ‘परिल्ला’ में भी नहीं मिलेगी।” यानी कि आई एस ओ 9001 आदि की बात करने वाले भी इस “विकास” नामक ब्रह्म को पूरी तरह ‘स्टैण्डर्डाइज़’ नहीं कर पाए। तभी तो पेन्टिंग का मैटेरियल मिला आर्टिस्ट को! यदि विकास की कोई एक मुकम्मल अवधारणा होती तो ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में उसका एक स्टैण्डरडाइज़्ड रूप न होता? क्योंकर एक मॉडल दूसरी जगह इस तरह से फेल हो जाता। दरअसल दुःख इसी बात का है कि आज हर वस्तु, हर अवधारणा ग्लोबलाइज़्ड हो गई है। अगर अमरीका में ऊँची इमारते हैं, तो यहाँ भी हूबहू वैसी ही बननी चाहिएँ। जैसे मॉल वहाँ हैं, वैसे ही हर जगह होने चाहिएँ उन्हीं माल-असबाबों के साथ, उन्हीं खुशबुओं के साथ ताकि हर जगह का एलीट हर जगह “ऐटहोम”  फ़ील कर सके। तो यह पेन्टिंग नुमा चित्र उसी सोच को मानो बता रहा हो। यह विडंबना ही है कि ऐन खाने की मेज के सामने इस चित्र को लगाने वाला जीवन एक ओर भारत में जान की कीमत न होने का रोना रोता है, तो दूसरी ओर अमरीका या तथाकथित पहली  दुनिया के लोगों की खुशहाली के पीछे गरीब देशों की बदहाली को नहीं देख पाता। वह यह नहीं देख पाता कि एक अमरीकी जान अगर कीमती है, तो उसके लिए कितना शोषण किसी गरीब देश के गरीब आदमी का किया गया होगा।

कहानी इन बातों को सीधे सीधे नहीं रखती, यही तो उसकी खूबी है, पर एक सजग-सचेत पाठक को एक विस्तृत व गहरे पाठ का आधार जरूर प्रदान करती है। किंतु यह वह समय है जब हम जान लें कि आखिर चित्र में ऐसा है क्या?

खाने की मेज के सामने टंगा, पेन्टिंग सरीखा यह चित्र, मशहूर चित्रकार श्रीनिवासन द्वारा खींचा गया 2012 में सूरत में आई बाढ़ का है। डैम बचाने की ख़ातिर पानी शहर की निचली गरीब बस्तियों और गाँवो की ओर छोड़ दिया गया था। जिसके कारण दो हजार एक सौ पिचासी लोग डूब कर मर गए थे।  उसी की फोटो जीवन ने लगा रखी थी। बच्चे, बूढ़े, मर्द औरत गर्भवती औरतें (“वो देखो पूरे नौ महीने की लगती है। देखा।” ) सब मरते दिख रहे हैं उस चित्र में। नैरेटर का यह कहना मानीखेज है कि,
जिसे नहीं देखने का नाटक करती रही थी, उसे अब रेशा-रेशा साफ़ देख रही थी। 40X30 इंच का हर मिलीमीटर लाश बनते इन्सान की शक्ल ले चुका था। बेहरकत था पर उसमें बसी छटपटाहट साफ़ दिख रही थी, इतनी कि हर मौत को मैं अलग महसूस कर रही थी। सामूहिक नरसंहार,रेशा-रेशा मेरे सामने घटित हो रहा था।…

https://www.altnews.in/rss-workers-aid-gujarat-flood-shared-as-kerala/


लेखिका के शब्दों पर ध्यान दें तो हम पढ़ेंगे कि दुनिया की तरह ही, जिसमें अमीर देश अपने ऑब्सलीट टेक्नोलॉज़ी को गरीब देशों को बेच देते हैं, अपना कूड़ा कचरा दान में दे देते हैं और शस्त्रों के रूप में झगड़े और मौतें भी, उसी तरह एक देश में भी कई देश निवास करतें हैं। पानी-बिजली का बड़ा हिस्सा शहर के अमीर लोग, बचा खुचा शहर के गरीब इलाकों में रहने वाले और जलप्लावन और रेडियो एक्टिव तरंगे, महामारियाँ गाँवों, आदिवासियों के हिस्से में। चित्र यही तो बता रहा है। गरीबों के गर्भ में रहने वाली उम्मीदें भी असुरक्षित हैं, इस ग्लोबलाइज़्ड विकास की अवधारणा में जहाँ मरती स्त्री की सेवा करने से पति को व्यापार में करोड़ों के नुकसान का डर है और बेटी को नौकरी खोने का, क्यों कि वर्क कल्चर सबकी मानवीय संवेदनाओं को कुचल-मसल कर खत्म कर दे रहा है। आध्यात्मिकता की तलाश उन्हीं जगहों में की जा रही है, जिन्हें बर्बाद भी विकसित राष्ट्र ही कर रहे हैं। आध्यात्मिकता की ऐसी खोज कितनी बेमानी होती है, इसकी ओर भी जीवन संकेत करता है, “ आयुर्वेदिक डिस्पेंसरी खोल कर, उन्हीं के मुफ़्त इलाज करने का दिखावा करते हैं, जिन्हें बेघर करके करोड़ों कमाए थे।” आखिर अमीर देश भी तो यही करते हैं। अपने माल बेचने के लिए कर्ज या दान देने का उपक्रम और इसी क्रम में बड़े से बड़े डील हथिया लेने का काम!



ये सभी दरअसल सितम के फ़नकार हैं, कुछ चित्रकार श्रीनिवासन की तरह सितम का चित्र खींच कर संवेदनाएँ जगाने का काम करते हैं, तो कुछ उन सितमों को रचने वाले फ़नकार हैं, जो विकास के नाम पर कहाँ कहाँ विनाश के बीज बो देते हैं, कोई नहीं बूझ पाता, वह भी नहीं, जिसने चित्र ऐसी जगह लगा दिया है, जहाँ से वह आँख की ओट नहीं होता। जीवन अर्जन्टीना की डिश बनाकर भले ही सोचे कि उसने विकास का एक वैकल्पिक मॉडल तलाश लिया है, पर सूफ़्ले की नज़ाकत पर उसकी इतराहट दरअसल उसे अमरीकी मॉडल पर ही टिकाए हुए है। उसके लिए हिंदुस्तान एक पिछड़ा हुआ देश है, जहाँ न जान की कीमत है, न वहाँ के लोगों में कोई तहजीब है। वह एक सिरे से पाखंडी देश और समाज है।

मृदुला गर्ग की यह कहानी एनआरआई लोगों की सोच को, भारत के प्रति उनके दुहरे दृष्टिकोण कि जब चाहें उसे अपनी कह कर इस्तेमाल कर लें और जब चाहें उसे गाली दे दें,  बखूबी प्रस्तुत करती है। यह बात हमें मुरलीधर के चरित्र में साफ़ दिखाई पड़ती है। जीवन का चरित्र मुरलीधर की अपेक्षा अधिक संश्लिष्ट है। उसके मन में वास्तव में भारत के प्रति अनेक शिकायतें हैं। वह सच कहें तो अंदर ही अंदर खफ़ा है और उसे छिपाता भी नहीं। यही नहीं अब तो उसे यहाँ के खानपान सबसे चिढ़ है। पर यह चिढ़ किसी विदेशी की नहीं, बल्कि उस आम भारतीय की चिढ़ है, जो विदेश की भूमि पर अपने देश को कमतर पाता है। जो इस समाज के पाखंड को रेशा रेशा देखता है। उसकी पत्नी सुरुचि अभी तक अपने भारतीयपन को जी रही है। और सपना उस नई पीढ़ी की प्रतीक है, जो तथाकथित आधुनिकता और परंपरावादी सोच के बीच अपने लिए रास्ता टो रहे हैं। नैरेटर का चरित्र सबको गोया उनकी पूर्णता में देखता हुआ भी अपनी खासियत को उभारने में और खुद एक चरित्र की तरह उभरने में  सफल है। दरअसल यह नैरेटर ही है, जिसके दिखाए हम अपने समाज की तुलना एक अन्य समाज से  कर पाने में सक्षम होते हैं। मृदुला जी ने इस कहानी में पात्रों और स्थिति के अनुसार  अंग्रेजी और उर्दू अल्फ़ाजों का जमकर प्रयोग किया है। आठ पेज़ से भी कम की यह कहानी अपने फलक में बहुत विस्तृत है। इसे सपाटे से नहीं पढ़ा जा सकता। इसकी पर्तों को खोलते हुए पढ़ पाने के बाद ही पता चलता है कि आप भी किसी बाढ़ में डूबते-उतराते बह रहे हैं…हाँ चिमीचुर्री का अनजाना स्वाद मुँह में घुलता है, आपके अनजाने ही…


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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