हरिशंकर परसाई — 'जिंदगी और मौत का दस्तावेज़' [वसीयतनामा फरमाइशी] | Harishankar Parsai Vyangya in Hindi


हरिशंकर परसाई की 'जिंदगी और मौत का दस्तावेज़' को पढ़ते हुए मुझे ऐसा क्या लगा होगा जो इसे टाइप किया और यहाँ आपसब के लिए लगाया...यह मैं अभी सोच रहा हूँ. शायद रचना के शुरू में उनका यह कहना –
संपादकों ने कभी कहा था–इमरजेंसी है तो डरो। मैं डरा। फिर कहा–इमरजेंसी की तारीफ में लिखो। मैंने लिखा। ईमान से लिखा। इमरजेंसी उठी तो कहा–इमरजेंसी के खिलाफ लिखो। [...] बुद्धिजीवी वह होता है जो किसी सत्ता या दाता के हरम की रक्षा करे। राजाओं-नवाबों के हरम की रक्षा करनेवाले पौरुषहीन खोजा होते थे। ...

शायद उनका आगे यह बताना–
मेरा स्मारक जरूर बनवाया जाए, पर इसका डिजाइन साधारण नहीं होना चाहिए। गालिब की याद में जो गालिब अकादमी बनी है, उसका बाथरूम भी अगर उसे रहने को मिल जाता तो वह निहाल हो जाता। ऐसा विरोधाभास नहीं होना चाहिए।

मेरे यह दोनों शायद  शायद ही हैं इसलिए... आप अपने शायदों को ख़ुद तलाशिये.

आपका भरत

नोट: इस बीच शब्दांकन 'साठ लाख हिट्स पार वाली शब्दांकन' से सत्तर लाख पार वाली शब्दांकन हो गयी है, आप सबको, हिंदी को मुबारकबाद.


harishankar parsai vyangya in hindi
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हरिशंकर परसाई 

जिंदगी और मौत का दस्तावेज़

[वसीयतनामा फरमाइशी]
हरिशंकर परसाई



मेरे दुश्मनो, खुश होने में जल्दी मत करना। अभी वह शुभ क्षण नहीं आया कि मैं मरूँ । मैं जानता हूँ कि तुम एक अरसे से मेरी मृत्यु का शुभ समाचार सुनने को लालायित हो, पर फ़िलहाल मैं तुम्हें निराश कर रहा हूँ। इंतजार करो। किसी दिन सचमुच मरकर तुम पर मेहरबानी करूँगा। दयालु आदमी हूँ। कोशिश करूँगा कि जितनी जल्दी हो सके, तुम्हारी मनोकामना पूरी करूँ। तुम धीरज से प्रार्थना किए जाओ। और मेरे दोस्तो, रोने की जल्दी मत करो। अभी मेहनत से रोने की तैयारी करो। जब मैं सचमुच प्राण-त्याग करूँगा, तब इस बात की आशंका है कि झूठे रोनेवाले सच्चे रोनेवालों से बाजी मार ले जाएँगे। तुम अभी से प्रभावकारी ढंग से रोने का अभ्यास करो। एक योजना बनाकर रोने का रिहर्सल करो। जब तुम कह दोगे कि तुम्हारी तैयारी पूरी है, तब मैं फौरन मर जाऊँगा। अभी तो यारो, दुनिया छोड़ने का अपना कतई इरादा नहीं है। और फिर कबीर ने कहा है-जग मरिहै, हम न मरब। तो फिर मैं यों ही ख्वामख्वाह क्यों मर रहा हूँ।असल में मैं जीने के लिए मर रहा हूँ। संपादक चाहते हैं कि मैं मरूँ, तो मर रहा हूँ। मेरे इस बयान के पत्रिका मुझे पैसे देगी। उन पैसों से कुछ समय जिंदा रहूँगा।संपादकों की बात मैंने कभी नहीं टाली। वे कहें कि रोदो, तो मैं रो पड़ेंगा। वे कहें कि नंगे हो जाओ, तो नंगा हो जाऊँगा। साहित्य में नंगेपन का पेमेंट अच्छा होता है। संपादकों ने कभी कहा था–इमरजेंसी है तो डरो। मैं डरा। फिर कहा–इमरजेंसी की तारीफ में लिखो। मैंने लिखा। ईमान से लिखा। इमरजेंसी उठी तो कहा–इमरजेंसी के खिलाफ लिखो। मैंने इमरजेंसी के खिलाफ भी लिखा। ईमान से लिखा। साथ ही घोषणा भी की कि मैं एकमात्र बहादुर बुद्धिजीवी हूँ। बाकी सब कायर हैं। शेर कोई दूसरा मारे, उसकी दुम मैं काट लेता हूँ, यानी मैं प्रतिनिधि बुद्धिजीवी हूँ। बुद्धिजीवी वह होता है जो किसी सत्ता या दाता के हरम की रक्षा करे। राजाओं-नवाबों के हरम की रक्षा करनेवाले पौरुषहीन खोजा होते थे। तभी वे ठीक रक्षा करते थे। पर जब उनकी ड्यूटी खत्म होती थी, तब वे तलवार घुमाकर बताते थे कि मैं वीर हूँ। मैंने भी सत्ता और दाता के दो हरमों की तब रक्षा की थी। और अब दूसरी सत्ता और दाता के हरमों की रक्षा कर रहा हूँ। फुरसत में तलवार घुमाकर बहादुर बन जाता हूँ। मैं प्रतिनिधि बुद्धिजीवी हूँ।

तो मर रहा हूँ। शगल के लिए ही सही। कुछ रूमानी होने को जी चाहता है।

मगर हटाओ, नहीं होते रूमानी । गाड़ियाँ लेट चल रही हैं–खाक हो जाएँगे हम उनको खबर होने तक । तो क्या करूं। राम का नाम लूँ ? ईश्वर को याद करूँ ? मैं निरीश्वरवादी रहा। आखिरी वक्त क्या खाक मुसलमाँ होंगे। पर मुझे डर लगता है कि कहीं सचमुच कोई ईश्वर हुआ तो मेरी बड़ी दुर्गति करेगा। पर मुझमें साहस नहीं है। वाल्तेयर में था। उसने जीवन-भर ईसाइयत के पाखंड पर हमला किया। मर रहा था तो पादरी आए। वाल्तेयर ने पूछा–क्यों आए?
पादरी बोले–तुम्हारी आत्मा की शांति के लिए। वाल्तेयर ने कहा–पर तुम्हें किसने भेजा ? पादरी बोले-ईश्वर ने ! वाल्तेयर ने उस हालत में भी कहा–अच्छा, तो ईश्वर का पत्र दिखाओ।

नहीं, ऐसा अपने से नहीं बनेगा। न कबीर सरीखा बनेगा कि रहे काशी में और मरने गए मगहर, जहाँ मरने से नरक मिलता है। मैं तो कहता हूँ–ईश्वर, अगर तू नहीं है तो कोई बात नहीं । पर अगर तू है तो हे मालिक, माई-बाप, मझे माफ करना । मैं तुझे नहीं पहचानता था। मेरी कमजोरी है। मैं अपने एरिया के थानेदार को भी नहीं पहचानता था। पर ईश्वर होता भी तो क्या होता? कष्ट भोगते-भोगते तो जिंदगी कटी।

जिंदगी अपनी जब इस तौर से गुजरी गालिब,
हम भी क्या याद करेंगे कि ख़ुदा रखते थे।

घड़ी रखता था, पेन रखता था, चश्मा रखता था। बस ख़ुदा ही नहीं रखता था, क्योंकि उसे रखने की जगह मेरे पास नहीं थी। मसजिद का ख़ुदा तो 'पब्लिक सेक्टर' का होता है। प्राइवेट ख़ुदा दिल की तिजोरी में रखा जाता है। मग़र और चीजों के कारण दिल में जगह नहीं बची थी। इस कबाड़खाने में ख़ुदा को तकलीफ होती। और फिर ख़ुदा के रखने से फायदा भी क्या होता ! मैं कुकर्मी तो रहा नहीं।


बहरहाल, मेरी मौत के बारे में पक्का कर लिया जाए। मेरी जिंदगी में कई चीजें होते-होते रह गई। मेरी शादी दो बार होते-होते रह गई। एक बार पुलिस थानेदार होते-होते रह गया। एक बार शहीद होते-होते रह गया। एक अखबार ने मेरा फोटो शहीदों में छाप दिया था। (बात न खुलती तो अभी ताम्रपत्र व पेंशन लेता।) दो बार मैं डूबते-डूबते रह गया। एक बार रेलगाड़ी के नीचे आते-आते बचा। एक बार कालेज का प्रिंसिपल होते-होते रह गया।


हो सकता है, इस बार मरते-मरते रह जाऊँ। कहा जाता है कि चीते की जब तक खाल न उतार लो, तब तक यह न मानो कि वह मर गया। ऐसा ही मेरा हाल है। डॉक्टरों से तीन-चार बार जाँच करवाई जाए। हो सकता है डॉक्टर सीने पर मेरे दिल की धड़कन देखें, मगर मेरा दिल तब तक टाँगों में पहुँच गया हो। कुछ ठिकाना नहीं है। खूब जाँच की जाए। एक परीक्षा यह भी की जाए : कोई कहे―परसाई जी, रायल्टी का चेक आया है। अगर मैं एकदम उठकर न बैठ जाऊँ तो समझा जाए कि पक्का मर गया। फिर भी पक्का करने के लिए मेरी नाक पर सौ का नोट रखा जाए। अगर तब भी न उठू तो पक्का मर गया।


इसके बाद शोक-प्रदर्शन शुरू हो सकता है।


इतना बाहर के लिफाफे में रहेगा। मौत पक्की होने पर भीतर का लिफाफा खोला जाए, जिसमें यह होगा―

मैं हरिशंकर परसाई पूरे होशोहवास में यह लिख रहा हूँ।

मैं लेखक माना जाता रहा हूँ, पर मैं लेखक अपनी इच्छा से नहीं, मजबूरी से बना । मैं सरकारी नौकरी में था। मेरा तबादला एक छोटी जगह हो गया। तब तक मैंने कुछ लिखकर छपा लिया था और मैं अपने को बड़ा लेखक मानने लगा था। मैंने सोचा-बड़ा लेखक छोटी जगह क्यों जाए? वह बड़ी जगह में रहेगा। मैंने इस्तीफा दे दिया। इस्तीफा नहीं देता तो मेरे कर्म ऐसे थे कि डिसमिस होता। अब क्या बचा? नौकरी गई। कुछ करने को नहीं रहा तो लेखक हो गया। ओ हेनरी गबन में जेल गया था। जेल ने उसे लेखक बना दिया, बेकारी ने मुझे। मैं और कुछ करने को न होने के कारण लिखने का काम करने लगा। दूसरा कारण था–रोजी-रोटी कमाना। कुछ वर्षों में साहित्य के और मेरे साथ एक दुर्घटना घटी-मैं लेखक मान लिया गया। यह लेखकपन, जो मेरे सिर पर लाद दिया गया, एक बोझ बन गया, मैं इसे ढोने को मजबूर था। मैं कुछ और तो बना नहीं था, केवल लेखक बना था, तो जो बना दिया गया उसे निभाना एक मजबूरी हो गई।


दूसरी दुर्घटना हुई-मुझे व्यंग-लेखक माना जाने लगा और यह कहा जाने लगा कि मैं हिंदी में व्यंग्य के अभाव को दूर कर रहा हूँ। मैंने मूर्खतावश इसे भी गंभीरता से ले लिया। तीसरी दुर्घटना हुई–कहा जाने लगा कि मैं सामाजिक चेतनासंपन्न लेखक हूँ। मैंने इसे भी मान लिया। देखिए, एक भोले-भाले आदमी की जिंदगी किस तरह बरबाद की जाती है। मुझमें पुलिस के संस्कार और प्रकृति थी ही। सामाजिक चेतनासंपन्न लेखक कहा जाने लगा तो मैं साहित्य में थानेदार हो गया। सोचने लगा, समाज को मैं ही सुधारूँगा, मैं कानून और व्यवस्था स्थापित करूँगा, गुंडा तत्त्वों को उखाड़ फेंकँगा। अब गुंडों से निबटने के लिए पुलिसवाले को खुद बड़ा गुंडा होना पड़ता है। तो आगे चलकर मैं साहित्य में निरा गुंडा रह गया।


मुझे ज्ञानियों ने लगातार सलाह दी कि कुछ शाश्वत लिखो। ऐसा लिखो, जो अमर रहे। ऐसी सलाह देनेवाले कभी के मर गए। मैं जिंदा हूँ, क्योंकि जो मैं आज लिखता हूँ, कल मर जाता है। लेखकों को मेरी सलाह है कि ऐसा सोचकर कभी मत लिखो कि मैं शाश्वत लिख रहा हूँ। शाश्वत लिखनेवाले तुरंत मृत्यु को प्राप्त होते हैं। अपना लिखा जो रोज मरता देखते हैं, वही अमर होते हैं।'

जो अपने युग के प्रति ईमानदार नहीं है वह अनंत काल के प्रति क्या ईमानदार होगा!

मैंने एक गलती और की। साहित्य को सीढ़ी मानना चाहिए। मैंने उसे छज्जा मान लिया और जिदगी-भर सीढ़ी पर बैठा-बैठा छज्जों को देखता रहा। लोग मेरे सामने ही साहित्य की सीढ़ी से चढ़कर छज्जों पर जा बैठे। कोई बड़ा अफसर हो गया कोई बड़ा संपादक, कोई विदेश विभाग में, कोई सांस्कृतिक सलाहकार । कई प्रकाशक हो गए। उन्होंने साहित्य की सीढ़ी से छलाँग लगाई और छज्जे पर जा बैठे। मैं सीढ़ी पर बैठा रहा। मेरे अगल-बगल से लोग सीढ़ी चढ़ते जाते रहे-ऊँचे और ऊँचे ।

मैंने व्यंग्य लिखा। पर वह ज़रा कठिन हो गया। मुझे हँसोड़, मसखरा, जोकर होना था। तब अधिक सफल होता। मेरे सामने ही लोग यश लूटते रहे। और पैसा भी। वे हास्यरस भी नहीं, हास्यास्पद रस के लोग थे। एक हास्यरस के कवि थे। उनकी कविता में 'कुत्ता' शब्द आ जाता तो वे भौंक पड़ते और लोग खूब हँसते। उन्हें बहुत पैसे मिलते । पर मैं तो इस ऐंठ में रहा कि समाज के तल में जाकर परीक्षण करूँगा और समाज-परिवर्तन के लेख लिखूँगा। मैं साहित्य में आर्यसमाजी हो गया। इससे अच्छा होता, मैं केवल 'कॉमिक' लिखता और करता।


अच्छा लिखने की मेरी प्रबल इच्छा थी, पर अब वह धरी रह गई। मैंने कई बार बड़ा और श्रेष्ठ उपन्यास लिखने की कोशिश की। इसके दो कारण थे। एक तो उपन्यास लिखे बिना कोई पक्का लेखक नहीं बन सकता। दूसरे, उपन्यास पकौड़े की तरह बिकता है। खूब पैसे मिलते हैं। लोकप्रिय उपन्यास के फार्मूले होते हैं। एक ही स्त्री को कभी नर्स, कभी शिक्षिका, कभी क्लर्क, कभी टेलीफोन-आपरेटर बना दो। दो-चार रोचक उपन्यास हो गए।

विवाहित पुरुष दूसरी स्त्री से प्रेम करता है, मगर पत्नी और समाज बाधक है। ऐसे में पत्नी से बलिदान करा दो। सारे पुरुष खुश। बढ़िया उपन्यास। स्त्री परपुरुष से प्रेम करती है। बाधक पति और समाज हैं। ऐसे में पति से बलिदान करा दो। सारी स्त्रियाँ खुश। फर्स्ट क्लास उपन्यास। ऐसे वाक्य हों–प्रिय, मैं निशा के प्रति तुम्हारी लगन को जानती हूँ। तुम्हारे पवित्र प्रेम में मैं बाधक नहीं बनूँगी। मैं आत्महत्या कर लेती हूँ। या फिर–प्रिये, नरेश के प्रति तुम्हारे अंतर के भाव मैं समझता हूँ। पवित्र प्रेम से प्रेरित दो व्यक्तियों के रास्ते मैं नहीं आना चाहता। मैं आत्महत्या कर लेता हूँ। बढ़िया कथा।


मैंने प्रेम-उपन्यास लिखने की कोशिश की, पर मेरे प्रेमी-प्रेमिका एक बार बिछुड़ते तो उनके मिलन का संयोग ही मैं नहीं बना पाता। मैंने पाँच उपन्यास आरंभ किए, पर आगे नहीं बढ़ा पाया। चाहता हूँ, इन अंशों का संग्रह छप जाए। शीर्षक हो : पाँच असफल उपन्यासों का आरंभ।

अब जब वह तय ही हो गया, तो मरणोपरांत क्या होना है इसकी हिदायतें देना चाहिए।

पहली बात तो यह है कि मेरी मृत्यु के कारणों की जाँच होनी चाहिए। यह जाँच होनी चाहिए कि क्या मेरा इलाज ठीक हुआ। ऐसा मैं इसलिए चाहता हूँ कि कुछ समय तक अखबारों में मेरा नाम चलता रहेगा। विवादास्पद मृत्यु यश फैलाती है । मैं मामूली मौत मरना भी नहीं चाहता था। डॉक्टर मुझे माफ करें। मैं यशलोलुप हूँ।

मेरे बारे में अखबारों में क्या छपे, यह मैं खुद तैयार करके रखे जा रहा हूँ। मुझे किसी पर भरोसा नहीं। ये लेख दूसरों के नाम से छापे जाएँ। अपने कई फोटोग्राफ मैंने रख छोड़े हैं। ये छापे जाएँ।

मेरी शोकसभा शानदार हो । बैंक में मेरा कुछ रुपया जमा है । इस पैसे से शोकसभा का प्रबंध करना चाहिए। हो सका तो मैं कुछ देर छुट्टी लेकर अपनी शोकसभा देखने आऊँगा। अगर कुछ कमी हुई तो आयोजकों के सिरों पर भूत बनकर चढ़ जाऊँगा।

मित्रों से मेरा यह आग्रह है कि जैसे जीवन में उन्होंने मेरा साथ दिया, वैसे ही मौत के बाद दें। मेरा यह मतलब नहीं है कि वे भी जल्दी ही मेरे पास आ जाएँ। वे जिएँ। मित्रों ने मुझे बहुत बरदाश्त किया, बहुत सहा, बहुत माफ किया। ऐसे मित्र दुर्लभ हैं, पर वे अब मेरे यश को स्थाई बनाने के लिए जो बन सके, करें। मेरे बारे में संस्मरण लिखें, जिनमें मेरी कमजोरियों का जिक्र न करें। मुझे एक साधु या महामानव बना दें।


मेरी हैसियत होती, तो मैं जीवनकाल में ही अपना अभिनंदन-ग्रंथ छपवाकर किसी बड़े आदमी के करकमलों से ले लेता । साहित्य में मेरे बुजुर्गों ने ऐसा किया है कि अपना अभिनंदन-ग्रंथ खुद तैयार करके ग्रहण कर लिया। मैं
पैसे से मारा गया। पर मेरे मित्र अब मेरा स्मृति-ग्रंथ जरूर निकालें। इसके लिए वे चंदा करें और 33 प्रतिशत खा जाएँ। यदि वे चंदा नहीं खाएंगे तो मेरी आत्मा को पीड़ा होगी। मैंने खुद कई बार चंदा किया था और कमीशन खाया था। इससे चंदे की पवित्रता बनी रही।


पंडित नेहरू ने अपनी वसीयत में गंगा की कवित्वमय महिमा गाई थी और लिखा था कि मेरी अस्थियाँ प्रयाग (गंगा) में विसर्जित की जाएँ। मैं गंगा में डर और ठंड के मारे कभी नहीं नहाया। नर्मदा तो मेरे पास ही है। उसमें भी नहीं नहाया। बचपन में मैं नर्मदा में डूबते-डूबते बच गया था। तभी से मुझे पवित्र नदियों से घृणा हो गई। यों भी मैं बहुत कम नहाया। ज्यादा नहाने से प्रतिभा कम हो जाती है। जिस घर में मैं रहा, उसके पास एक गंदा नाला है 'ओमती' । यह नाला सारे शहर की गंदगी और गंदा पानी लेकर बहता है। बरसात में यह नाला मेरी सीढ़ियों तक आ जाता है और मैला उस पर उतराता है। इसे पार करके सड़क तक जाने में नरक का अनुभव हो जाता है। यह नाला मच्छर भी मुझे सप्लाई करता रहा है। इस नाले से मेरा आत्मिक संबंध रहा है। मेरी अस्थियाँ इसी नाले में विसर्जित की जाएँ।


मेरा स्मारक जरूर बनवाया जाए, पर इसका डिजाइन साधारण नहीं होना चाहिए। गालिब की याद में जो गालिब अकादमी बनी है, उसका बाथरूम भी अगर उसे रहने को मिल जाता तो वह निहाल हो जाता। ऐसा विरोधाभास नहीं होना चाहिए। मैं जिंदगी-भर जिस मकान में रहा वह बरसात में इतना टपकता था कि सोने के लिए कोना ढूँढ़ना पड़ता था। मेरा स्मारक भी ऐसा ही बने। उसकी छत ऐसी हो कि बरसात में पानी भीतर आए। उसकी कभी पुताई और मरम्मत न की जाए। इस स्मारक के अहाते में बबूल के झाड़ लगाए जाएँ। रातरानी वगैरा के पौधे लगाए गए तो मेरी आत्मा को शांति नहीं मिलेगी। मैंने जिंदगी भर बबूल और भटकटैया पसंद की थी।


मेरी कोई संतान नहीं है, क्योंकि उनकी माँ ही नहीं थी। कहीं कोई बेटा-बेटी हो तो मैं उनका उल्लेख करके पतिव्रताओं को संकट में नहीं डालना चाहता। मेरे वारिस मेरे भानजे-भानजी होंगे। इनमें रायल्टी को लेकर झगड़ा न हो, इसलिए मेरे मरने के बाद मेरी पुस्तकें कभी न छापी जाएँ। मैं नहीं चाहता कि ऐसा कुत्सित, ध्वंसकारी, नकारात्मक साहित्य लोग पढ़ें और बिगड़ें। मेरा यश मेरे लिखे हुए से बना नहीं रहेगा। इसलिए जिससे मेरा यश बना रहे वह रहस्य खोल रहा हूँ। यह रहस्य मैंने अभी तक नहीं खोला। पर अब मरते वक्त झूठ नहीं बोलूँगा। लोग इस पर विश्वास करें। वह रहस्य है…


मोहन राकेश और फणीश्वरनाथ रेणु के नाम से मैं ही लिखता था। ये दोनों उपनाम थे।

और क्या कहूँ। कुछ लोग मेरे लिए रोने के 'मूड' में होंगे। वे आँसू बरबाद न करें। किसी और के लिए बचा रखें।

गालिबे-खस्ता के बगैर कौन-से काम बंद हैं,
रोइये जार-जार क्यों, कीजिए हाय-हाय क्यों।
विकलांग श्रद्धा का दौर | हरिशंकर परसाई | राजकमल प्रकाशन

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