रूपा सिंह — दुखां दी कटोरी: सुखां दा छल्ला — विभाजन की कहानियाँ | हंस मार्च 2020


हंस मार्च 2020 में प्रकाशित कहानी

विभाजन की कहानियाँ

दुखां दी कटोरी: सुखां दा छल्ला

रूपा सिंह  

बेबे की गरम और नरम छातियों के बीच दुबककर सो जाना, कूबड़ पर हाथ रखते ही छुहारों और बताशों की मिठास से मुंह गीला होना अमृतसर की गलियों का सोंधापन, बेबे की कुंडल के लशकारे याद थे मुझे। चीर-फाड़ की अभ्यस्त उंगलिया कभी दिल चीरती तो आत्मा ढूंढने लगती। खून देखती तो बेबे का डर याद आता कैसे एक खरोंच देख वह पागलों की भांति चीखने लगती थी - खून... खून दौड़ो... बचाओं...... लोकों भागो... खून...। कई बार तो जब बीमार स्त्रियों की आंखे चेक करती तो कोने में कोठड़े वाला वही दुख चुप खड़ा नजर आता... कभी चांद देखती तो आकाशगंगा से अमृत के बहते परनाले दिखते जो बगल की छत पर जाकर ठहर जाते...। लेकिन अब वहां कोई न होता। केवल यादें ही यादें थीं। मामे के बोलों के बाद तोषी...  [रूपा सिंह की 'दुखां दी कटोरी: सुखां दा छल्ला' ]



रूपा सिंह — दुखां दी कटोरी: सुखां दा छल्ला — विभाजन की कहानियाँ | हंस मार्च 2020





दुख बयान कर पाना बहुत मुश्किल होता है. मैं ‘दुखां दी कटोरी: सुखां दा छल्ला’ पढ़पढ़ कर इस सोच में डूबता जाता हूँ कि आखिर कैसे बंटवारे में बंटी बेबे का दुख रूपा सिंह ने बयान कर दिया? जैसे दुखों की दुखों से लड़ी लगी होती है, छुपी होती है वैसे ही ये कहानी है...हज़ारों दुखों को अपने में पिरोये, और हम हैं कि आज फिर घावों को कोंचने में लगे हैं. क्या मिलेगा? जब कहानी के अंत को मन भिगा होने के बाद भी दोबारा पढ़ना पड़े तब ‘कहानी कैसे है’ की बात रह ही नहीं जाती...कहानी कितनी गहरी है की बात हो जाती है... कितना ज़रूरी होता है उन किरदारों को कह देना जो हमारे  होते हैं... और आज एक दोस्त ने आश्वस्त कर दिया... शुक्रिया रूपा, मैंने अपने लिए तुम्हारी इस बेजोड़, नायाब कहानी का नाम ‘वे छल्ला क्यूं होया वैरी’ रख लिया है.  - भरत तिवारी, शब्दांकन संपादक


दुखां दी कटोरी: सुखां दा छल्ला


गजब थी बेबे। कई मायनों में गजब थी। उसके कानों के कुंडल भी गजब थे। जब हिलते उनकी सुनहरी आब से बेबे का गोरा रंग दप्-दप् दमकता। उसके माथे के ठीक बीचों बीच एक हरी लकीर-सा दाग भी गजब था जो दिखने में डिजायनर बिंदी की तरह लगता। इन सबके अलावे सबसे गजब था पीठ पर उगा वह छोटा कटोरीनुमा कूबड़, जिसकी वजह से बेबे तनिक झुक कर चलती। कंधे पर पड़ी गोटेदार चुन्नी मौका पाते ही इधर उधर खिसकती जिसे मीठी गालियों की झिड़की दे, तुरंत वह दुरूस्त कर लेती। मुझसे कहती; मैं मर जाउं तो यह कुंडल तू रख लीजो। इनकी लहर संभाल के रखियो।

बेबे कहती-- मेरे पास दो ही मेरा अपना सामान था जिन्हें लेकर मैं अपने वतन से निकली। एक दुखों की कटोरी यह कूबड़ और दूसरा सुखों वाला मेरा छल्ला। सचमुच यह छल्ला भी गजब था। हाथों में पहननेवाला छल्ला कोई पैरों में भी पहनता है? ठोस चांदी का चमकता छल्ला बेबे के पैरों की उंगलियों से यूं जकड़ा था मानो जन्म से ही साथ हो। मैंने हाथ फिरा कर देखा था। बेबे के सुंदर चिकने गुलाबी पैर वैसे ही चपल थे जैसे उनके कानों के कुंडल। मैंने छल्ले पर उंगली फिरायी। घुंघरू का कुंडा था। घुंघरू सारे गिर चुके थे। कुंडा भी दब चुका था लेकिन हाथ फेरो तो ऐसा मालूम पड़ता कोई इबारत वहां खुदी हुई है। बेबे के दाहिने हाथों में सोने का एक कड़ा था, मैंने सोते वक्त जाने कितनी बार उसे घुमा घुमा कर गुरूमुखी में लिखा उसका ‘वाहेगुरू’ पढ़ा था। हम सभी ऐसे बनाये सोने के कड़े पहनते थे। सोने-जवाहरातों से लदी बेबे तूने चांदी क्यंू पहना- तोषी ने सवाल किया। यह प्रश्न मेरे मन में भी आया था। हमारे यहां चांदी के गहने या तो चूहड़ियां (मेहतरानी) पहनतीं या फिर मुसलमान। हां, हम जैसे छोटी सालियां भी जिन्हें भावी जीजाजी जूते-छिपाई की रस्म में बतौर नेग देते। गोल, नक्काशीदार, चम-चम चमकते घुंघरू की रूनझुन कायम रहने तक इन छल्लों को हम बड़े शौक से पहना करते और फिर किसी अन्य बहन की शादी में किसी और जीजा से नया मिलते ही पुराने को टीन वाले बस्ते में संजों कर रख लेते। बेबे ने इन्हें पैरों में क्यूं पहना? पूछने से बोलती- मरने वाला मर गया, इसलिय पहना। देख, अब वो यहाँ मत्थे ते आके बैठ गया है। कौन? कौन बेबे? तेरा नाना और कौन? किस्सों को बदलने और बरतने में बेबे को महारत हासिल। ऐसे -ऐसे किस्से गढ़ती, कभी रोती कभी गाती कि मैं और तोषी उसके मोह में पागल आगे-पीछे डोलते रहते। ज्यादा छेड़छाड़ मना थी। मां ने मुझे समझा दिया थाा। बेबे रोती गाती रहती है डरना मत। गालियां देने लगे तो छेड़ना मत। बडे़ दुख सहे हैं मेरी मां ने। बेबे एक बार शुरू हो जाती तो जल्दी रूकती नहीं वह कहती- जबसे मरा है कुफ्ती दा मारां, मुझे घेर रखा है। हुण मरण दे बाद डंडा लेकर मत्थे ते ही बैठ गया। चौकीदारी करेगा? करे मेरी चौकीदारी। मेरा तो इक्को रब्ब है जेड़ा करेगा मेरी चौकीदारी मैं फिस्स-फिस्स हंसती। तोषी कहता- मैं भी करूंगा। बेबे की लय में खलल पड़ता, आंख तरेर कर पूछती- क्या करेगा? तोषी कहता- चौकीदारी करूंगा। किसकी? किसकी करेगा? ये जो साथ बैठी है तेरी सुंदर भूतनी। उसकी और किसकी? मैं बलते चूल्हे से लकड़ी खींचती, देखा है इसे? भाग जा, नही तो मुंह लाल कर दूंगी। बेबे फटकारती- ऐसा नहीं कहते। शह पाकर वह किलकता- फिर बेबे, यह छल्ला मुझे दे देइयो। बेबे को हौल पड़ जाते तब वह भागता हुआ कहता - अभी नहीं , जब मरेगी तू तब दे देना...। ओ खसमांनू खाणां... आ तैनू छल्ले पवाहवां... बस शुरू हो जाती बेबे मैं जल्दी से बोलती - बेबे भूख लगी है। बेबे चौक में घुस जाती। इधर परांठो पर गर्मागर्म घी तड़तड़ाता इधर बेबे का आलाप गूंजता -
ओय छल्लिया होया वैरी... वतन माहीया हो गया वैरी......
सोहणा...... वे ढोलणा......

लाड़ लड़ियाते, मुंह में घी- चुक्के पंराठे चुगलाती मैं अपनी बेबे से पूछती, क्यूं बेबे पहले यह निशान नहीं था? था रे ! हल्का था। मरणजोगा, इक जोगी आया द्वारे। कहण लगा - तू पिछले जनम में मुसलमानी थी। नमाज पढ़ती थी। उसी का चिह्न रह गया माथे गल्ती से यह बात तेरे नाने ने सुन ली। बड़ा चिमटा काढ़ लाया चौके से और फिर जो दी गालियां उसे- नासपीटा ! दाढ़ी जला। मुसलमानों का जन्म-धरम होता है? किसे पढ़ा रहा है? भाग यहाँ से...। वह तो पोटली उठाकर जी भागा लेकिन इन्होंने जड़ दिये दो चिमटे मेरी पीठ पे। बड़े दुख सहे हैं मेरी इस पीठ ने। रात भर दुखती रही पीठ, और वह रगड़ता रहा मेरे माथे को। किसी तरह यह निशान मिट जावे। इस करवट से उस करवट। चैन न पावे... पापी कित्थों दा... जेड़े निशान पक्के होंदे ने, ओ कद्दी मिटदे ने? बेबे ने मासूम मुंह से मुझसे सवाल पूछा और मैं गुप्प- गुप्प हंस पड़ी । मुझे हंसता देख बेबे की भी हंसी छूट जाती- खंसमा नूं खाणी भाग एत्थों... बेबे के हंसते ही घर आंगन , बराण्डा, चौका सब हो जाते गुलाबी, गुलाबी।

गजब थी बेबे। कब गुस्सा कब प्यार उमड़ आये - पता ही नहीं चलता। गालियां भी दे तो प्यार की पूंछ में बांधकर। सारी गालियों के अंत में लगा दे दुश्मनां औतरियां दा। गाली हमें दे -बेड़ा रूड़ जावे (दुश्मनां औतरियां दा)। विभक्ता मर वंजे (दुश्मनां दे अग्गूं न पोहवे)। जब बड़ी क्लासों में मैं गयी और ‘उसने कहा था’ पढ़ना शुरू किया, मेरी आंखे बरस बरस जाती। अमृतसर के बम्बे कार्ट में बोली जाने वाले वही भाषा तो थी। मीठी गालियों की महीन कताई का वह प्रसंग मुझे बेबे की खूब खूब याद दिला देता था। पंजाबी भाषा होती ही शायद ऐसी हे, पंजाबियों के दिलों जैसी। भावनाओं के उदात्त आवेग से भरी और उसे प्रकट करने में वैसी ही दरियादिली।

जिंदादिली की इस बेमिसाल जादूगरनी से मैं उनकी पीठ के कूबड़ के बारे में पूछती तो वे कहती - यह भी पहले नहीं था रे। रास्ते में उग आया। यह मेरे दुखों की पोटली है। इसमें मेरे सारे दुख भरे हैं। यह मेरे साथ जायेगी। मैं उनकी उभरी कमीज पर हाथ रखती, मुझे लगता एक कटोरी औंधी पड़ी है। कहीं से सख्त है तो कहीं से पिलपिली है। मैं पूछती, बेबे ऐसा क्यूं है? वह कहती जहां कड़ी है वहां तो है छुहारे और जहां नर्म है वहां है बताशे। ओह, तो फिर दुखों की कटोरी कैसे हुयी? यह तो मेवों की पोटली है। नमकीन परांठों के बाद मीठे की गमक से जीभ पुलक पुलक जातीं। चल खसमांनू खाणी...। खाने की पड़ी रहती है। छित्ती भूक्खी। तेरे नाने दा सारा खानदान छित्ता-भूक्खा और फिर बेबे जाने किस लोक पहुंच जाती-
‘खा गयेण मेरे ब्याह दे मेवे लोकों, हाय लोको लुट गई मैं... लुट गयेण मेरे मेवे लोकों... धर दित्ती औंधी कटोरी मेरे पिच्छे पिंड अते... मैंनू पिंजड़े दी सुग्गी बणा गया ओय...... ।’ मां ने बताया था ऐसे दौरे बेबे का कभी-कभी आते थे। उनकी आंखों में अचानक लाल गुस्से की परछाइयां कौंधने लगती जो आंसूओं के साथ बह आती। ऐसे में उन गीली, अजनबी आंखों को देख मैं एकदम सहम जाती और तोषी को खोजने इधर उधर निकल जाती।

हमारे नानाजी बड़े गुस्से वाले थे। खूब बोलने वाली बेबे उनके आगे गुम रहती। मंझी से बाद में उतरते नानाजी , चप्पलें ठीक उनके पैरों तले मिलती। दातुन बाहर तुलसी चौरे पर। गर्म पानी की बाल्टी मुहाने पर। तौलिया, सरसों तेल, गुलाबी साबुन- सब यथा स्थान। सलूणी लस्सी, काली मिर्च डली कभी गोभी तो कभी मूली, आलू के परांठे और उनपर तड़कता सफेद मक्खन चौके में लगी थाली को महमहा देता। खेतों की ओर निरलते जब नानाजी तो उनके मत्थे सफेद पग्ग धरने नानी जरूर होतीं उस वक्त अंदर वाले कोठरे में। गली के लोक बताते, तेरे नाना बचपन से ही तेरी नानी को बहुत प्यार करते थे। गांव छूटा। वतन छूटा नानी छूट गयी थीं एक बार तो। लेकिन नाना ने अपने रसूखों को चतुराई से इस्तेमाल कर अपनी मंगेतर को खोज निकाला था। दौर ही ऐसा भयावह था। विभाजन का। कौन मरा, कौन बचा - किसे मालूम? कौन अपनों से बिछुड़ा किस कैम्प में अजनबियों के बीच सिर धुन रहा है, कौन किसके घर जा बैठा है? स्त्रियों का तो और बुरा हाल। वे न इधर की रहीं न उधर की। न हिंदुओं की रहीं न मुसलमानों की। जो जहां काट दी गयी; बेच दी गयीं बसा दी गयी - बिना किसी हस्तक्षेप के उन्होंने उसे ही अपने किस्मत का लिखा मान लिया।

समय की नजाकत भांप नाना व्यापार का अवसर पा अपने मौसेरे भाइयों के पास अमृतसर आ गये थे। उन दिनों अमृतसर कपड़े, जूतों, मसालेां का प्रमुख व्यापार केन्द्र थ। सब कुछ पीछे छोड़ आये नानाजी को बेबे के बड़े भाई मोहनलाल फटेहाल स्थिति में यहीं मिल गये जिनकी उन्होंने खूब मदद की और उन्हीं से खबर भी पायी कि जिंदा है सुग्गी। उनकी प्रिया। उनकी मंगेतर। जिस घर आंगन छोड़ आये थे, उसी के आसपास के किसी गबरू जवान ने अपनी जान की परवाह न करते हुये उसे अभयदान दिया था। अब वह उनकी इज्जत है। क्या किया जाये? वापस लौट नहीं सकते। इस बार मोहनलाल ने मदद की। सरकारी नियम अभी इतने पक्के न हुये थे बस जान का खतरा था। भाई के गंभीर बीमार होने की सूचना पाकर कौन बहन अपने को रोक सकती है? मोहनलाल ने खबर भेजी। बॉर्डर तक आयी सुग्गी, गोद गुलथुल नवजात कन्या और आदम कद के हट्टे-कट्ठे जवान का हाथ थामे। भाई को न पाकर बेकल हुई सुग्गी। किनारे ले जाकर उसे समझाया गया। नजदीक ही अस्पताल में मरते भाई से मिलवाकर वहीं पहुंचा जाने का वादा किया गया। उसे नानाजी ले आये। सुग्गी नाना के बचपन का प्यार थी। मंगेतर थी। उनकी आन-बान, इज्जत थी। उसे कोई आंख उठाकर देख ले - नाना की तौहीन थी। बेबे ने दुखती कूबड के जिन किस्सों को सुनाया, उनमें यह एक किस्सा भी शामिल था। बारह वर्षीय नाना अपने लालाजी के साथ दूकान बंद कर घर लौट रहे थे। भाई मोहनलाल के बीमार होने के कारण वह बाहर दालान में गायों को चारा खिला रही थी। बालक ने आव देखा न ताव...... पैरों से तिल्लीदार जूते निकाले और लालाजी जब तक कुछ समझते वे जूते सुग्गी की पीठ पर तड़ाक से दे मारे। पीठ पर गूमड़ उभर आया - ‘अंदर जा। खबरदार बाहर दिखी तों।’ अभी तो शगुन भी नहीं हुये थे। न कटोरियों का लेन देन हुआ था न गहनों का। अड़ोसी-पडो़सी की बात थी अभी। सुग्गी फिर न दिखी। उसे बॉर्डर पर पहुंचाने वाले भी रोज इंतजार करके चले गये होंगे।

नाना शहर के बड़े काश्तकार। खूब बड़ा घर और वह भी भरा पूरा। दिल भी बहुत बड़ा जिसमें पराई धी भी उनके दिल की कली बन गयी। घर में किसी चीज की कमी नहीं थी। कोठे से कोठे तक अनाजों के बोरे भरे रहते। तेल, घी के पीपों से दालान भरे रहते। छोटे-छोटे चूहे हम बच्चों के सामान ही इधर से उधर दौड़ लगाते। हम डरते लेकिन इन्हें मारने या पकड़ने की सख्त मनाही होती। हमारे घरों में नौकरों चाकरों की परंपरा नहीं थी। वे दूकान और गददी संभलवाने के लिये थे। घर का सारा काम बेबे देखतीं। खूब-खूब सारे गहने पहनी, रंग-बिरंगी चुन्नियां संभाती पूरे घर की रौनक थी सुग्गी बेबे। इस मालकिन को पूरे घर का राजपाट मिला हुआ था बस देहरी पार करने का हुक्म नहीं था। बिरादरी के ब्याह शादियों में नाना खुद बड़े चाव से बेबे को सजा धजा अपने संग लिवा ले जाने। बेबे की खनकदार आवाज जब ढोलक पर तान बनकर उभरती तब लगता घर में अब शादी की रौनके उतरी है। गर्दन झुला झुला कर, कुंडल हिला हिला कर बेबे गीतों से आंगन को लहका देतीं -
‘आओ सामने...... आओ सामने
कोलो दी रूस के न लंघ माहिया...
लट्ठे दी चादर... उत्ते सलेटी रंग......माहिया’

 कभी रिश्तेदार कहते भी, दो-चार दिन छड्ड जा सुग्गी नू रौनक पायेगी लड़की। खेलेगी खायेगी अपनों के बीच। वे एकदम बेचौन हो जाते। न... न... इक - दो दिन भले मैं भी रूक जाउंगा, लेकिन वो साथ जायेगी। लोग गर्मियों में लंबे चौड़े आंगन में सोते लेकिन सुग्गी को न जाने किन छुपे चोरों से बचाना था भीषण गर्मी में भी वह बेबे के कोठड़े कुंडा बाहर से बंद कर आंगन में सोने जाते।

धीरे-धीरे बेबे भी ठीक वैसी होती गई जैसे नानाजी थे। कभी-कभी तो दोनो बहन - भाई जैसे दिखते। फर्क बस यह था बेबे हमेशा हंसती मिलती, नाना पतले होंठ भींचे चुप, सख्त। बेबे आंगन में लगे हैण्डपंप से छलछलाते पानी की तरह थी जाये तो बहती जाये ठहर जाये तो कटोरे का रंग तक अख्त्यिार कर ले। भरा पूरा घर था। उंचे लंबे दो मामे। लखपति बापों के घर से भरी भरी आयीं दो गदबदी मामियां। नाना के गुजरने के बाद मामों ने कभी पाबंदियां न कसी। मामियां खूब हंसती-खेलती, मोटरों में बैठ बाहर अंदर भी घूम आतीं। लेकिन बेबे और अंदर की हो गयी। कूबड़ बढ़ती गयी, बेबे झुकती गयी। गहने भी कम होते गये। एक हाथ में नाना के नाम से पहनती एक पतली सोने की चूड़ी रह गयी और दूसरे में अमृतसर के प्रसिद्ध सुनार का गढ़ा वह कड़ा जिसे सोते वक्त मैं घुमा-घुमा कर उसपर गुरूमुखी में लिखा- वाहेगुरू पढ़ती। गोटेदार चुननी वैसे ही गिरती पड़ती संभलती थी और नाक की लौ वैसे ही लश-मश लशकारे मारती थी।

मुझे अपने बचपन के नाम पर बेबे और उनका प्यार ही याद आता। डैडी को मेडिकल की ऊँची डिग्री लेने बाहर जाना था। मां भी साथ थीं। मैं बेबे के पास। अपनी धी-जायी को वह प्राणों से अधिक प्यार करती। उसके पोते पोतियां इस बात पर कुढ़ते भी लेकिन उसकी जान मुझमें ही समोयी रहती। बहुत सुंदर बचपन था मेरा। बहुत सुंदर शहर था अमृतसर, खूब सारी गलियों से गुलजार। सुबह स्वर्णमंदिर के स्वर्णिम शबदों से नींद खुलती - एक ओमकार, कत्र्ता पूरख, निर्भय, निरवैर...... यहाँ मेरी सहेलियां थीं। पतंगे थी तांगे थे, स्कूल जाते, जहां हम क्रोशिया बुनना भी सीखते। अचार, बड़ियो, मसालों और घी की महक थी। दूकानें सजी रहतीं- रंग-बिरंगी पगड़ियों से, फुलकारी वाली चुन्नियों से, सुनहरे तिल्लियों वाली जूतियों से, लटकती, मटकती पंरादियों से। जब देखों सगायियों की शादियों की, बैसाखी की धूम रहती। ढोल बजते, भांगड़ा पाया जाता हम कुड़ियाँ रल-मिल गिद्दा पाते- ‘बारी बरसी खट्टन ग्या सी... खट्ट के लै आंदा की... वे खट्ट के ले आंदा लांचा... भंगड़ा ता सजदा जद्दो नच्चे मुंडे दा चाचा... वाह भई वाह’...

अमृतसर छूटा और जब-जब पढ़ा लहनासिंह को फिर -फिर तोषी का मुस्कुराता चेहरा सामने आ-आ विस्मृत होता रहा। मामा की तेज आवाज भी याद आती रही कि जट्टां दा पुत्तर क्यूं पीछ लगा रैंदा है धी के? उसे मना करो। बेबे ने कूबड़ सीधी करते हुए कस के जवाब दिया था- ओय, इस मासूम ते कोई दाग ना लगाओ। ये मेरा सिदक वाला पुत्तर है, हजार बार आएगा। एक धुंधली आकृति आ आ कर मिट जाती। उन्हीं गलियों में क्या आज भी कोई और अनमना घूम रहा होगा? किसी लड़के को मोरी में धकेल देता होगा? और किसी वैष्णवी से टकराकर अंधे की उपाधि पाती होगा? कौन बता सकता है किसके रौशन तन में मन के अंधेरे कैसे गाढ़े होते हैं?

बेबे का बड़े-बड़े कोठों वाला रौशन घर था। अंगने में उंचे लंबे पेड़-अमरूद के भी, नीम के भी। अमरूद के पेड़ में छोटे मामे ने रस्सी डालकर अपनी मोटर गाड़ी का एक गोल टायर बांध दिया था। उस टायर में आधे बदन को अंदर पिरो कर हम बच्चे झूला झूलते। नीम के पास होना सुंदर सफेद और गेरूवे रंग से सजा तुलसी चौरा। तुलसी चौरे का अपना गोल घेरा होता, जिसमें मिट्टी डालकर हम फूल उगाते । इसी के आस पास चटाइयां बिछा हम अपने गुड्डे-गुड़िया का ब्याह भी रचाते। तुलसी माता गवाह होती, जिनके कोटर में एक दिया सबकी सलामती का बलता रहता। फिर वक्त आता, तुलसी की भी शादी होती। बेबे आयोजन रचती। यहां कार्तिक का पूरा महीन उत्सवों का महीना होता। सुबह शाम आरती होती। सुबह की अपनी अलग- ‘पहली आरती’ कर परसाद... ’राज करे मेरा कृष्ण मुरारि’ तो शाम की आरती - दीवडे छनछार...... धरम दुआर... लंबी रातों की नींद तड़के प्रभात फेरियों की आवाज से टूट जाती। कई बार जत्था हमारे घर विश्राम पाकर आगे जाता। ऐसे में रौनकें देखने लायक होती। मीठे शरबतों की बाल्टियां, नमकीन, कचौड़िया, पकौडे, हलवे की खुश्बू के साथ शबद हवा में तिरते
बिन सतगुरू सेवे जोग न होई... बिन सतगुरू मेरे
मुक्ति न होई... बिन सतगुरू मेरे महा दुःखा पाई...

जत्था आगे बढ़ जाता... बेबे कोठड़े से हुंकार लगाती धन्य धन्य सतगुरू! बेड़ा पार लगा...! घर के लोग सोने जाते और मैं परशाद चुगलाते चुपके से छत पर चढ़ती। ठंड की फुरेरियां और नीले नभ में सफेद शंख-सा चांद... दूर जाती जत्थे की आवाज और सामने की छत पर उसी सम्मोहन में भिंचा बंधा मिलता तोषी। फिर आती चांद रात, गुरू पूर्णिमा की। बेबे खीर पकाती, तुलसी पत्ते डालती। हम छत पर भरे कटोरे रख आते। कहते आज के दिन चांद से अमृत टपकता है जिसकी बूंदे चखकर मनुष्य देवयोनि को प्राप्त करता है। तोषी बड़ी थाल में भरे कटोरे ले आता। मैं, एक-एक कर चांद के सामने मुंडेर पर रखती जाती। जितने बंदे उतने खीर के कटोरे। एक कटोरा तोषी के वास्त भी बेबे रखती। मेरी काशनी रंग की चुन्नी मेरे कंधें से आहिस्ता से उतार तोषी उन कटोरों को ढंक देता नीचे से बीबी की टेर आती -
‘कोठड़े उत्ते कोठड़ा नी माये
कोठे सुख दियां तोड़ियां
तेरी याद विच जगदी रही मैं
गिनियां तेरी चूड़ियां...’

हम दोनों उस कोठड़े के सामने चुप खड़े हो जाते। थकी मांदी बेबे, दोनों पैर पसारे, गोड्डों पर हाथ रखे अंखिया मीचे बेहाल हो गाती मिलती
‘कल्लियां राता जग्ग के... गिनियां तेरी दूरियां वे......
चन्न कित्थां गुजारिया इ रात वे... ’

कमरे से एक अजीब दुख का परनाला रिस-रिस कर बाहर बहता। तोषी मेरा हाथ पकड़ मुझे बाहर ले आता। मैं खड़ी रहती चुप। वह आंगन में बंधी रस्सी से दूसरी चुन्नी उतारता, मेरे कंधे डालता और चला जाता।

बहुत दिनों बाद ननिहाल जा सकी थी। इस बार फोन आया था बेबे की बीमारी का। डॉक्टरी की पढ़ाई आसान नहीं होती। इस बीच बहुत कुछ भूल-भुला गयी थी। लेकिन बेबे की गरम और नरम छातियों के बीच दुबककर सो जाना, कूबड़ पर हाथ रखते ही छुहारों और बताशों की मिठास से मुंह गीला होना अमृतसर की गलियों का सोंधापन, बेबे की कुंडल के लशकारे याद थे मुझे। चीर-फाड़ की अभ्यस्त उंगलिया कभी दिल चीरती तो आत्मा ढूंढने लगती। खून देखती तो बेबे का डर याद आता कैसे एक खरोंच देख वह पागलों की भांति चीखने लगती थी - खून... खून दौड़ो... बचाओं...... लोकों भागो... खून...। कई बार तो जब बीमार स्त्रियों की आंखे चेक करती तो कोने में कोठड़े वाला वही दुख चुप खड़ा नजर आता... कभी चांद देखती तो आकाशगंगा से अमृत के बहते परनाले दिखते जो बगल की छत पर जाकर ठहर जाते...। लेकिन अब वहां कोई न होता। केवल यादें ही यादें थीं। मामे के बोलों के बाद तोषी, तौसीफ बन गया था जो उसका वास्तविक नाम था जट्ट के उस सिदकां वाले पुत्तर ने फिर आना भी कम कर दिया था।

बीमार थी बेबे। फोन पर तो किसी ने कुछ बताया नहीं ऐसा कि तेरी दुलारी नानी खत्म होती जा रही है। लेकिन देखते ही मुझे समझ आ गया। एक तो उम्र थी दूजे पीठ पर लदी थी दुखों की गठरी - कोई कितना जी सकता है ऐसे में भला? मैं खूब बड़ी हो गयी थी लेकिन उन्हें देखकर फूट फूट कर रो पड़ी। गोरी चिट्ठी तंदरूस्त मेरी बेबे सूख के सुरमयी झाड़ हो आयी थी। कुंडल खामोश पड़े थे, मानो किसी राज को दबाये बैठे हों। बेबे ने आंखे खोली मेरा हाथ पकड़ने की कोशिश की। करवट ली। मैंने देखा पीठ पीछे गद्दे पर भी कोटर बना पड़ा है। हाय रे दुख, कभी पीछा नहीं छोड़ता कितना साथ निभाता है यह दुख।

बेबे...... बेबे..., आंखे खोल।
बच्चा...? आ गयी तू? जिन्ह, फंसी पड़ी थी। तेरी राह देखती थी...... ।
हां बेबे.........।

डॉक्टर बन गयी मेरी बब्बी?

हाँ बेबे... ठीक हो जायेगी तू। ले चलूंगी तुझे। दिल्ली दिखलाउंगी। वहां इलाज होगा तेरा। बेबे को दूधिया हंसी मलिन थी। बच्चा...? हां बेबे? होड़ कौन है एत्थे... कुर्सी पर बैठी मामी की परर्छाइं हिली। कोई नहीं बेबे। मैं हां। दस्स न। बोल न तू...। सुन, ये कुंडल उतार ले। बहुत दित्ता तेरी मामियां नूं। ये तरे वास्ते... .तेरे नानाजी नूं बहुत पसंद थे। तू पहनना बच्चा...। इनकी लहरें सलामत रखना। परछाईं कसमसायी। रूक-रूक कर बोलती बीबी धीमी हो गई। मैंने इशारा किया। बड़ी मामी गहरी चुप्पी लिये उठ गयी। सीढ़ियों पर उनके सैंडल बज रहे थे। खट् खट्। बेबे तडफड़ायी। बोल बेबे...। बेबे ने कुछ इशारा किया। मैं नहीं समझी। बेबे ने अपने पैर पटकने शुरू कर दिये। पैरों में अजीब-सी बेचैनी। इधर उधर होते पैर। इतना ही समझा कि कोई दुख फंसा पड़ा है पैरों में।

की होया बेबे? पैरां विच कोई प्राब्लम है। हां आआ...। इक कम्म कर...। दस्स बेबे, बोल न ए छल्ला उतर। छल्ला? मैने पैर की उंगतियां अपने हाथों थामी। वही छल्ला। आंखों में बरसों पहले की तोषी की चुहल कौंध गयी। अब यह और भी टेढ़ा-मेढ़ा हो उनकी उंगलियों से बुरी तरह चिपका पड़ा था। मैंने कोशिश की। बेबे नहीं उतर रहा। कराहती बेबे ने हुकम दिया- उतार। मेरे हत्थां विच पहवा। बेबे नहीं उतर रहा यह। रब्ब... गुमशुदा घुंघरू मानो पैर की रगों से घुल मिलकर एकाकार हुये पड़े थे। बेबे के पैर अभी भी खूब सॉफ्ट। गर्म खून से भरे हुये। हमेशा की तरह चल पड़ने को बेताब। हूंक उठी कलेजे से- हुण कित्थे जाणा है बेबे...? और मेरा दिल काले धुएँ से भर गया- तू न जा। न जा बेबे... छलछलाते आंसूओं को बहने दिया और छल्ले पर अपनी उंगलियां खूब सख्त कर दी। छल्ला उतर आया। उंगलियों पर काले निशान पड़ गये थे। उसे मुट्ठी में दबाकर बाहर निकली। सामने खड़ा था तोषी। वैसा का वैसा। वहीं का वहीं। मानो सदियों से खड़ा था यहीं का यहीं। ठिठक गई। सिर के बालों पर थोड़ी सफेदी उतरी थी और चुहल गायब थी। हथेली बढ़ाई उसने। धीरे से छल्ला उन हाथों दे दिया। बेबे ने कोहराम मचाना शुरू कर दिया- वे छेत्ती कर वे मुझे ले जायेंगे। ला मुझे वापस कर... मेरा छल्ला... मुझे पहना...। तोषी बाहर बरांडे में उस छल्ले को किसी लोहे से थपथपा कर सीधा करने में जुटा। मैं फिर अंदर पहुंची। उफ्फ... ला रहीं बेबे। घबड़ा मत। क्यूं परेशान हुई जा रही है? इधर बेबे की बेचैनी बढ़ती जा रही थी उधर दवाजे में तोषी आ खड़ा हुआ। उसने इशारा दिया बाहर आने का। आंखे सिगरेट के सिरे की तरह जलती हुई। बेबे का सिर अपने हाथों से उतार आहिस्ते सिरहाने पर रख बाहर आयी। क्या हुआ? कहां है छल्ला? टूट तो नहीं गया - मुझे उसकी आंखों और चुप्पी ने डराया। क्या हुआ, बोल न? उसने छल्ले को मेरे हाथों में दिया। शुक्र है, छल्ला साबुत था। मैंने छल्ले को मुट्ठी में दबाया और अंदर बढी कि मेरी चुन्नी अटक गई। पीछे देखा तौसीफ ने थाम रखी है। उसकी आँखें आंसुओं से तर है। इन आंसुओं में एक अलग किस्म का दर्द...। मैं छटपटा उठी। कोई रग मेरी भी दबी मानो। उसने कहा छल्ला देख, क्या लिक्खा है? क्या? मैंने मुट्ठी खोली और उंगलियों से गोल घुमाते उसके खुरदुरेपन को महसूस किया। चश्मा अंदर पर्स में पड़ा था। सब कुछ मिट चुका था एकाध अक्षर ही बाकी थे। बस इतना पकड़ सकी कि यह गुरूमुखी नहीं उर्दू लिपि है। क्या लिखा है, बता न? उसने धीमी आवाज में कहा- शमशेर।

अल्लाह ! अब तक की जिंदगी में पहली बार जाने कैसे मेरे मुंह से निकला यह शब्द ! जाते-जाते बेबे ने यह कौनसी नयी कहानी का सूत्र हमें दे दिया था? भूली बिसरी कहानी का कोई बांका जवान, जो जान की परवाह न करते हुये सुग्गी को बचा लाया था। छुहारों और बताशों से जिसकी झोली भरी और फिर बॉर्डर के कांटों ने उसे छलनी कर दिया- जाने जीवित है भी या नहीं मेरी मां का पिता......? मैं अवाक खड़ी। अंदर से शोर बढ़ता जा रहा... वे छल्ला क्यूं होया वैरी...... छल्ले को मत्थे से लगाया और अंदर जाते-जाते एक रिक्वेस्ट भरी निगाहों से अनुनय की- जो बात ऊपर तक न पहुंचे। उसने हाथ से इशारा किया - अंदर जा। दौड़ पड़ी अंदर। छल्ला डाल दिया तड़पती उंगलियों में और कमजोर हथेली को उनके चेहरे के पास ले आयी। रूंधे गले से बोली- देख, पहना दिया। देख ले ठीक से। छन भर को बेबे के चेहरे का रंग सुनहरा हुआ। हल्की थिरकन से कुंडल चमचमा उठे। मुझे लगा एक सतरंगी लहर आकर गुजरी है। बेबे ने पोपले मुंह में छुहारे भर लिये हैं और बताशों की मीठी हंसी हंस दी है। धीमे से उन्होंने अपना हाथ खींच लिया, मानो किसी और लोक में किसी और को थामतीं हों। एक गहरी सांस उभरी। डॉक्टरी पढ़ी लड़की समझ गई सांसों का यह आरोह-अवरोह किस तान की ओर मुड़ना चाहता है।

बेबे... !!! दो गर्म बूंदे चेहरे पर गिरने से वह मानो चौकस हुई - ना रे । मैं खुश हूँ। बालियां तू पहनना। खुशियां सलामत रहें। दुखों की पोटली लिये जाती हूं...... अपना वतन छोड़े जाती हूं... डंडे का डर छोडे़ जाती हूं... सब जल जायेंगे...... मेरे साथ सब जल जायेंगे।

बेबे ऐसा मत बोल... बेबे ऽ ऽ ऽ

हां... ऽ ऽ जाती हूं रे । कुंडल तू बचाना... छल्ला मैं बचावांगी... छल्ला वैरी क्यूं होया... बेबे आलाप लेना चाहती थीं। न शक्ति बची थी न सामर्थ्य। रस्सियां तुड़ाने की तड़फड़ाहट तारी थी - ‘मैं तां पी के मरसां... सिर तेरे चढ़सां... ओ छल्लिया...

उठा न सकी आलाप। थरथराई और थम गई।

मैं स्थिर...... जड़।

किसी ने बेबे के गोटेदार चुन्नी कब सिरहाने से उठायी... मेरे सिर डाली, हौले से मुझे पकड़ कोठरे से बाहर लाया... कुछ होश नहीं...

उसी ने छत की ओर मुंह करके फिर हक्कल माली - मामा ऽ ऽ ऽ... बेबे तो गयीं।

भारी कोहराम मचा।

यह कोहराम बाहर भी था और मेरे अंदर भी।

बेबे शांत पड़ी थी।


००००००००००००००००




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3 टिप्पणियाँ

  1. प्रिय बंधु!
    अच्छा साहित्य प्रसारित करने के लिए अनेक धन्यवाद.
    अनुपम

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  3. दिल को छू लेने वाली मार्मिक कहानी के लिए रूपा सिंह जी को बहुत बहुत बधाई।

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