खुशवन्त सिंह - शहतूत का पेड़ Khushwant Singh Story in Hindi

खुशवन्त सिंह - खुशवन्त सिंह की कहानियां - खुशवन्त सिंह किस्से

Khushwant Singh Ki Kahaniyan


खुशवन्त सिंह से हम वाकिफ़ हैं और हममें में से बहुत उनकी कहानियों को हिन्दी में पढ़ना चाहते होंगे। इसलिए, पेश है खुशवंत सिंह के एन अकबर द्वारा अनुवादित 'ज़न्नत और अन्य कहानियां' संकलन से एक किस्सा। ~ सं० 

शहतूत का पेड़ 

~ खुशवन्त सिंह

विजय लाल सवेरे जल्दी उठने का आदी था। वो कौओं की पहली कर्कश कांव-कांव से जाग जाता था, और जब वो अपनी स्टडी की खिड़की के पर्दे हटाता था तो उसे सामने सड़क की टिमटिमाती रोशनियों के अलावा कुछ नहीं दिखाई देता था। घटते चांद की आँखरी कुछ सुबहों में उसकी कालोनी के चौरस लॉन के पास अपार्टमेंट के ब्लाक मद्धम चांदनी में नहाए दिखते थे। ये एक खूबसूरत मंज़र था। लेकिन इस समय के अलावा हर वक़्त वो ऐसे झुके हुए, गंभीर और निर्जीव दिखाई देते थे जैसे अधेड़ उम्र की ऐसी औरतें जिन्होंने अपना ख्याल रखना बंद कर दिया हो। पिछले कुछ साल से सूर्यास्त से पहले के एक-दो घंटे ही बस ऐसा वक्त होता था जब उसे बाहर देखने पर जो दिखाई देता था उस पर उसे झुंझलाहट नहीं होती थी।

उसकी खिड़की के साथ एक बड़ा सा शहतूत का पेड़ था, जो उस समय लगाया गया था जब ये अपार्टमेंट बने थे। ये पेड़ लगभग पचास साल पुराना था, यानी तकरीबन विजय लाल की ही उम्र का। विजय का इस पेड़ के साथ एक ख़ास रिश्ता बन गया था। तक़रीबन जाड़ों भर पेड़ पर पत्ते नहीं रहते थे और इसकी शाखाएं किसी विशालकाय सेही के पंखों जैसी दिखाई देती थीं। इन महीनों में इस पर सिर्फ कौए और गौरैया ही आती थीं। उनकी कांव-कांव और चहचहाना उसका प्रभात गीत होता था। मध्य फरवरी में किसी समय, आमतौर से अठारह फरवरी को, मत-सी दिखाई देने वाली भूरी शाखाओं में से नन्हीं-नन्हीं-सी हरी कोंपलें फूटती दिखाई देती थीं। पिछले कुछ सालों से वो इस घटना का इंतजार किया करता था और बड़ी सावधानी से इसे अपनी डायरी में नोट करता था। पहली बार दिखाई देने के एक हफ्ते बाद ये हरी कोंपलें हरे पत्तों में तब्दील हो जाती थीं। और बसंत ऋतु के गर्मी में बदलने तक पेड़ पर इतने घने पत्ते हो जाते थे कि शाखाएं तक दिखनी बंद हो जाती थीं। फिर उस पर तरह-तरह की चिड़ियां आने लगती थीं। पूरब के आसमान में सफेदी आने और सड़क पार की मस्जिद के ऊंचे मीनार की फ़जर की आवाज आने से पहले ही घब्बेदार उल्लुओं का एक परिवार हंगामा खड़ा कर देता था — चिटिर-चिटिर-चैटर-चैटर — और सोए हुए कौओं और गौरैयों को जगा देता था। फिर बारबेट की बारी आती थी। वो घीमी आवाज में कूक-कूक-कूक से शुरुआत करती थीं और फिर लगातार कत्रूक-कत्रूक का तेज शोर करने लगती थीं। ज्यादातर शामों को बारबेट जैसी ही शर्मीली कोयल पत्तों की आड़ में छुपी सूरज के छुपने और मस्जिद से मुगरिब की अजान होने तक लगातार बोलती रहती थी। अंधेरा फैलते ही घब्बेदार उल्लू फिर से अपना शोर शुरू कर देते थे, जो विजय के लिए इस बात का संकेत होता था कि उसके पीने का समय हो गया है।

मार्च में रंगों के त्यौहार होली के आने तक शहतूत का पेड़ अपने पूरे शबाब पर आ जाता था। इसके अदृश्य फूल हल्के हरे रंग के कनखजूरे जैसी शकल के मीठे जूस भरे फलों में तब्दील हो जाते थे। फिर तो इंसानों और तोतों में जैसे मुकाबला शुरू हो जाता था कि कौन उन्हें पहले हासिल कर ले। आवारा बच्चे उन्हें तोड़ने के लिए डंडे और पत्थर फेंका करते थे। एक हफ्ते के अंदर पेड़ फलों से खाली हो जाता था। पेड़ से सबसे करीबी ब्लाक के लोग तेज धूप से अपनी कारों को बचाने के लिए पेड़ के नीचे पनाह लेने आ गए आवारा कुत्तों को वहां से भगा दिया करते थे। चूंकि विजय सवेरे उठने का आदी था और घर पर ही अपना काम करता था, इसलिए उसे अपनी बीस साल पुरानी बदमिजाज फिएट कार एनी को सबसे छायादार शाखा के नीचे खड़ा करने में कोई दुश्वारी नहीं होती थी। हालांकि उसकी कार पर दिन भर चिड़िया हगती रहती थीं लेकिन दिन भर कार ठंडी रहती थी। गर्मी के महीनों में शहतूत के पेड़ के साथ विजय का संबंध ज्यादा मजबूत हो जाता था। सवेरे जब वो एनी को लेने के लिए जाता था तो 'हाइ’ कह कर, और वापसी पर ‘चीयरियो' कह कर वो पेड़ का अभिवादन करता था।

शहतूत का पेड़ विजय की जिंदगी का एक जरूरी हिस्सा बन गया था। वो इसकी शाखाओं में से उठते चिड़ियों के शोर से सुबह को जागता था और वहीं से जब उल्लू सूर्यास्त का ऐलान करते थे तो वो अपना पहला ड्रिंक लेता था। जब पेड़ की शाखाएं नंगी हो जाती थीं तब वो अपने ऊनी कपड़े निकालता था और जब उन पर घने पत्ते आ जाते थे तो वो अपना एयर-कंडीशनर चलाना शुरू करता था। ये एक आरामदेह और सादा रुटीन था।

फिर एक दिन शहतूत के पेड़ ने विजय को लगभग मार ही डाला, और उसकी जिंदगी के रुटीन को बिगाड़ कर रख दिया।



जून का महीना था, तापमान चालीस को पार कर चुका था। गर्मी से बचने का एक तरीका ये था कि एयर-कंडीशंड कमरे में ही ठहरा जाए। इससे बेहतर एक तरीका ये था कि एक-घंटे स्विमिंग पूल में गुजारे जिससे शाम तक ठंडक का अहसास रहे। हालांकि दिन में सोने के बाद विजय को बड़ा आलस आ रहा था, लेकिन उस बेतहाशा गर्मी भरी शाम को वो किसी तरह घर से निकल पड़ा और शहतूत के नीचे खड़ी अपनी कार तक पहुंचा। मौसम गर्म और शांत था। हवा नाम को भी नहीं थी, एक पत्ता तक नहीं हिल रहा था। आसमान एकदम साफ़ था। लगता था जैसे ये तूफान से पहले की खामोशी हो। अचानक विजय की नजर पश्चिम की तरफ पड़ी तो उसने घूल की एक भूरी-सी दीवार बढ़ती देखी, जिसके ऊपर चीलें चक्कर लगा रही थीं। साल के इन दिनों में आंधियां आना एक आम बात थी। जबरदस्त आंधियां आती थीं और पेड़ों और टेलीग्राफ़ के खंभों को जड़ से उखाड़ फेंकती थीं, और जाते-जाते भी घूल की तहों के रूप में अपने निशान छोड़ जाती थीं। उसने अभी अपनी गाड़ी को मुश्किल से दस गज रिवर्स किया था कि आंधी का एक जबरदस्त झोंका आ गया। उसे एक जोरदार आवाज सुनाई दी, जैसी बिजली के कड़कने की होती है, और वो विशाल शाखा जिसके नीचे वो अपनी कार खड़ी करता था, घड़ाम से आ कर जमीन पर गिरी। उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे उसके पैरों के नीचे भूकंप आ गया हो।

विजय ने गाड़ी का इंजन बंद कर दिया और कई मिनट तक कार में ही बैठा रहा। कॉलोनी के दोनों चौकीदार दौड़े-दौड़े देखने आए कि वो ठीक तो है। बिना खिड़की के शीशे खोले उसने हाथ के इशारे से उन्हें हटा दिया, और ये साबित करने के लिए कि वो घबराया नहीं है, उसने एनी को घुमाया और बाहर ले गया। उसके हाथ कांप रहे थे। थोड़ी देर के लिए कहीं और चले जाना ही बेहतर था।

तूफान जितनी तेजी से आया था उतनी ही तेजी से चला गया। पेड़ों की शाखाएं सड़कों पर बिखरी पड़ी थीं। मथुरा रोड पर एक ऑटो-रिक्शा पलट गया था और उसके इर्द-गिर्द लोग इकट्ठा हो गए थे। ये जानने के लिए कि ड्राइवर बचा या नहीं, विजय ने गाड़ी की स्पीड कम की, लेकिन फिर इरादा बदल दिया। जब तक वो क्लब के पूल तक पहुंचा, ठंडी, सुंदर हवा चल रही थी। एक घंटे तक वो पूल में अकेला ही था। जब दूसरे सदस्य और उनके बच्चे आना शुरू हो गए, तो वो पूल से निकल कर किनारे पड़ी एक कुर्सी पर दराज़ हो गया। उसने अपना चेहरा तौलिया से ढक लिया और तूफान से हुए विनाश के बारे में सोचने लगा।

वो बाल-बाल बचा था। यहाँ पूल के किनारे कुर्सी पर पसरा होने के बजाय, वो कुचली हुई खोपड़ी और जिस्म की सारी टूटी हड्डियों के साथ किसी अस्पताल के मुर्दाखाने में भी हो सकता था। लेकिन वो जिस ढंग से बचा था वो और भी ज्यादा सोच में डालने वाला था। उसे एक दिन भी ऐसा याद नहीं था जब उसकी पुरानी फिएट ने गर्म होकर स्टार्ट होने में आधे मिनट से कम समय लिया हो, लेकिन आज वो तुरंत स्टार्ट हो गई थी। कुछ सेकंड की भी देरी होती, तो वो और एनी दोनों कुचल गए होते। क्या ये ईश्वर की इच्छा थी कि वो कुछ समय और जिंदा रहे?

विजय न तो ईश्वर को मानता था, ना नियति को। उसने कभी इन चीजों की तरफ ज्यादा ध्यान नहीं दिया था। लेकिन अब देना पड़ रहा था। उसके दिमाग में बाल-बाल बचने की भूली-बिसरी कहानियां आने लगीं। उसने जिन ऐसी घटनाओं के बारे में पढ़ा था उनमें से कुछ तो बड़ी ही अजीब थीं। उनमें से एक घटना डबलिन से लंदन के हीथ्रो एयरपोर्ट जा रहे एक जहाज की थी। जहाज लंदन पहुंचने ही वाला था कि उसमें आग लग गई। पायलट ने मिल हिल नाम के देहाती इलाके में एक एयर स्ट्रिप पर आपातकालीन लैंडिंग करने का फैसला किया। नीचे उतरते हुए एक घर की चिमनी से टकरा कर जहाज के दो टुकड़े हो गये। सारे यात्री और स्टाफ के लोग मारे गए, लेकिन एक एयरहोस्टेस जो जहाज के सबसे पीछे वाले भाग में बैठी थी वो बच गई। वो जलते हुए जहाज के झटके से एक घर के बगीचे में बने स्विमिंग पूल में जा गिरी। ना उसकी कोई हड्डी टूटी, और ना ही उसके शरीर पर कोई खरोंच तक आई। उस अकेली को क्यों बचाया गया, और किसने बचाया?

कुछ साल बाद एक और आदमी के साथ ये घटना हुई कि वो लंदन अंडरग्राउंड के भीड़भाड़ भरे प्लेटफार्म पर खड़ा हुआ था। जब ट्रेन सुरंग में से निकल कर आई, तो वो पटरियों पर गिर पड़ा। जैसे ही ट्रेन के पहिए उस आदमी के शरीर से छुए, ट्रेन अचानक रुक गई। प्रशासन ने ट्रेन के ड्राईवर को उसके चौकन्नेपन के लिए इनाम देने का फैसला किया, लेकिन वो ईमानदार आदमी था, इसलिए उसने इनाम लेने से इंकार कर दिया। उसने कहा कि ट्रेन उसने नहीं रोकी थी, शायद ट्रेन में किसी ने चेन खींच दी हो, हालांकि वो ये नहीं समझ पा रहा था कि कोई चेन क्यों खींचेगा क्योकि बंद डिब्बों से कोई नहीं देख सकता था कि आगे पटरियों पर क्या है। इस बारे में छानबीन की गई, लेकिन किसी भी यात्री ने चेन खींचने की बात नहीं मानी। वो किस का अनदेखा हाथ था जिसने समय रहते ट्रेन को अचानक रोक दिया था? उस आदमी की जान क्यों बख्शी गई? क्या इसलिए कि उसे किसी अधूरे काम को पूरा करने के लिए समय देना था? या ये उसके किसी अच्छे कर्म का फल था?

लेकिन दिमाग को सब से ज्यादा चकराने वाला मामला विजय के अपने देश का था। एक आदमी एक संकरी पहाड़ी सड़क पर भीड़ भरी बस में सफर कर रहा था। वो सबसे पीछे की-सीट पर खिड़की के पास बैठा था। चूंकि पतझड़ का मौसम था और ठंड हो रही थी, इसलिए उसने शाल लपेटी और सो गया। कई घंटे बाद उसकी आंख खुली तब खुली जब उसे किसी चिकनी-सी चीज के अपने टखने पर लिपटे होने का अहसास हुआ। वो एक छोटा सा सांप था जिसने उस आदमी की गर्म टांगों को जाड़े बिताने के लिए चुन लिया था। आदमी चिल्लाने लगा। बस को जल्दी से रोका गया। ड्राइवर, कंडक्टर और यात्री दौड़ते हुए बस के पिछले भाग की तरफ़ भागे लेकिन उस आदमी के टख़ने पर लिपटे सांप को देखकर ठिठक गए। किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए। ड्राइवर का धैर्य जवाब दे गया तो उसने कहा कि वो आदमी घीरे-धीरे बस से बाहर आए और अपनी टांग घूप में कर के सड़क के किनारे मुंडेर पर बैठ जाए। इस तरह सांप उसकी टांग को छोड़ कर अंधेरी और गर्म जगह की तलाश में चला जाएगा, और फिर वो आदमी अगली बस पकड़ कर आ जाए। उस आदमी ने ऐसा ही किया। बस चली गई। सांप ने भी वैसा ही किया जैसा ड्राइवर ने कहा था: वो बल खाता हुआ पहाड़ी से उतरता चला गया। वो आदमी अगली बस पर सवार हो गया। एकाध मील ही आगे जाकर बस वालों ने देखा कि सड़क की मुंडेर टूटी हुई है। उनसे पहले वाली बस पहाड़ी के नीचे एक खड्ड में उल्टी पड़ी थी। बस में से कोई भी जिंदा नहीं बचा था। उस बस में से बचने वाला अकेला आदमी वही था जो टखने पर सांप लिपट जाने की वजह से बस से उतर गया था।

विजय बार-बार इन घटनाओं के बारे में सोचता रहा। वो बदहवास सा हो रहा था। शाम हुई तो वो क्लब से चला गया। अपनी कॉलोनी पहुंचने पर उसने कार को गेट के एकदम अंदर खड़ा किया और ये देखने चल दिया कि शहतूत के पेड़ को कितना नुकसान हुआ है। टूटी हुई शाखा से एक गहरी दरार-सी बन गई थी जिसकी वजह से खोखली जड़ साफ दिखाई देती थी। गिरी हुई शाखा को ईंधन के लिए काटकर टुकड़े कर दिए गए थे। और उसके पत्ते बकरियों को खिलाने के लिए तोड़ लिए गए थे। पक्की जमीन पर ढेरों छोटी-छोटी टहनियाँ बिखरी पड़ी थीं। किसी ने भी पेड़ के नीचे अपनी कार खड़ी करने की हिम्मत नहीं की थी। हालांकि विजय अंधविश्वासी नहीं था, लेकिन उसने भी अपनी कार पेड़ के करीब नहीं खड़ी की। उसने अपनी खिड़की के करीब एक और जगह ढूंढ ली। इस बार तो शहतूत का पेड़ उसका और उसकी कार का कुछ बिगाड़ने में नाकाम रहा था, लेकिन उसे ऐसा लग रहा था कि जैसे वो पेड़ अब उसका दुश्मन बन गया है। अपने मकान में दाखिल हो कर लाइट के स्विच को टटोलते वक्त उसे ये ख्याल आया कि पेड़ अब बूढ़ा हो चुका है, और शायद अपने साथ उसे भी ले जाना चाहता है।

अगली सुबह तक चारों तरफ फ़्लैटों में चर्चा का विषय यही था कि किस तरह विजय एक निश्चित मौत से चमत्कारिक रूप से बचा था। सारे लोग एनी को शहतूत के पेड़ के नीचे मुख्य स्थान पर खड़ा देखने के आदी थे, अब वो उसे विजय के घर से लगा खड़ा देख रहे थे, बिना किसी खरोंच के, एकदम सही-सलामत। उसके पड़ोसी उसे मुबारकबाद देने और तफसील पूछने आने लगे। हर बार घटना को दोहराते हुए वो उसे और ज्यादा नाटकीय बना देता था। 'सब ऊपरवाले की मर्जी थी', उसके कुछ पड़ोसियों ने आसमान की तरफ इशारा करते हुए कहा। ‘उसके खेल भी निराले हैं। जिसका मुहाफिज ईश्वर हो, उसका कोई बाल भी बांका नही कर सकता।' एक सफेद बालों वाली परदादी, जिन्हें विजय सौ साल के करीब मानता था, बोलीं, ‘न तो कोई अपने समय से पहले जा सकता है, न ही कोई अपने समय के बाद एक पल जी सकता है।' ज्यादातर का मानना था कि विजय ने जरूर अपने पिछले जन्म में कोई अच्छा काम किया होगा और ये उसका इनाम था। ईश्वर तुम्हारा रक्षक है, उन्होंने कहा। ईश्वर अच्छा है और दयालु है। ये सुनकर विजय के चेहरे पे हल्की मुस्कान आ गई क्योंकि उसको एक मशहूर फिल्मी गाना याद आ गयाः

ऊपर वाला - वेरी गुड वेरी गुड
नीचे वाले - वेरी बैड वेरी बैड

बड़ा बेवकूफ़ी भरा गाना था। लेकिन उसे जो महसूस हो रहा था वो भी कम बेवकूफी भरा नहीं था: आज सुबह तक, वो खुद को नास्तिक मानता था, और हालांकि अब भी वो आस्तिक नहीं बना था, लेकिन खुद को ईश्वर द्वारा चुना हुआ समझ रहा था।

अगले दिन के अखबारों में आंधी से आई तबाही की तस्वीरें मुखपृष्ठ पर थीं। चाणक्यपुरी में नीम का एक विशाल पेड़ जड़ से उखड़ गया था। पेड़ सड़क के आर-पार पड़ा हुआ था और उसके नीचे एक मारुति दबी पड़ी थी। जो दब कर धातु की एक कुचली हुई चादर भर रह गयी थी। सौभाग्य से कार में कोई नहीं था। दिल्ली यूनिवर्सिटी के कैंपस में एक पीपल सड़क के आर-पार पड़ा था और उसके नीचे तीन कारें कुचल गई थीं। चार आदमी और दो औरतें बुरी तरह से घायल हुए थे और अस्पताल ले जाए गए थे। इन्हीं में से एक कार में एक छोटा बच्चा बिल्कुल सही-सलामत बच गया था, उसे एक खरोंच तक नहीं आई थी। तूफान ने पांच जानें ली थीं: एक पेड़ के नीचे सो रहे दो मजदूर, एक होडिंग के ढहने से मरे दो साइकिल सवार, और एक बूढ़ी औरत जो एक गिरते यूकैलिप्टस से अपने पालतू पीकिनीज़ को बचाने के लिए दौड़ी, और खुद उसके नीचे कुचल गई। ये मौते अपने आप में बड़ी खबरें थीं, लेकिन विजय के दोस्तों में उस के बाल-बाल बचने की खबर सबसे बड़ी थी। उसके दोस्त सुबह-शाम नई-नई कहानियां लेकर आ रहे थे: उन लोगों की जो समय से एयरपोर्ट नहीं पहुंच सके और मिस किया हुआ जहाज दुर्घटनाग्रस्त हो गया, या वो ट्रेन मिस की जो आगे जाकर पटरियों से उतर गई।

विजय जितनी ही ये खबरें सुनता था, उतना ही उसे यकीन होता जा रहा था कि वो कुछ खास है, आम इंसानों से कुछ अलग। इससे उसकी बदहवासी में और भी इजाफा हो रहा था, क्योंकि जहां तक उसे याद पड़ता था, उसके साथ कभी कुछ खास नहीं हुआ था। विजय के ब्लाक से ये बात पड़ोसी खान मार्केट तक पहुंच गई। दुकानों में उसकी अविश्वसनीय किस्मत के चर्चे होने लगे। विजय को ज्यादातर दुकानदार जानते थे, क्यों कि उसे लगभग हर शाम मार्केट में देखा जा सकता था। वो दुकानों की विंडो में झांकता, फुटपाथ पर रखी मैगजीनों को उलट-पलट कर देखता, एक के बाद एक किताबों की दुकानों में जाकर शेल्फ पर रखी किताबों को देखता, लेकिन शायद ही कभी कोई किताब खरीदता था — किताबें बहुत महंगी हो गई थीं और वैसे भी, अखबारों में फ्रीलांस लिखने की वजह से, उसे समीक्षा करने के लिए ही इतनी किताबें मिल जाती थीं कि वो उन्हें पढ़ नहीं पाता था। एंटीक की दो दुकानों में, वो हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियां, याकृत की मालाएं और पीतल की कलाकृतियां देखता था, उनकी कीमतें पूछता था लेकिन कभी कुछ खरीदता नहीं था। फल-सब्जी वाले के यहां वो हैरत से मुंह फाड़े विशालकाय कोरियन सेब, छोटे-छोटे शहद जैसे मीठे जापानी तरबूज, बंगलौर की एवोकाडो नाशपातियां, ताजा ब्रॉकली, बेबीकॉर्न, एस्पेरेगस्स और आर्टिचोक को देखता रहता। इनके खरीदार आमतौर पर यूरोपियन और अमरीकी राजनायिक और पत्रकार होते थे जिन्हें, विजय के ख्याल से, जरूरत से ज्यादा तन्खाहें मिलती थीं और ये लोग मार्केट की कीमतें बिगाड़ते थे।

विजय को खान मार्केट के दुकानदार पसंद नहीं थे। उन्हें बस पैसा कमाने की घुन थीः यहां शहर की किसी भी दूसरी मार्केट से महंगी चीजें मिलती थीं। कुछ और कारणों से भी विजय के पास इन लोगों के लिए समय नहीं था। ज्यादातर दुकानदार पाकिस्तान से आए शणरणार्थी थे — अपने एक लेख में उसने उन्हें कम पढ़े-लिखे नए रईस बताया था जिन्होंने पाकिस्तान के लिए अपनी नफरत को सारे मुसलमानों के खिलाफ पक्षपात में बदल दिया था। वो किसी ना किसी हिन्दू कट्टरवादी संस्था के समर्थक थे। उन्होंने मिलकर मार्केट के पिछवाड़े एक मंदिर बना लिया था जो उनके धार्मिक विश्वासों का प्रतीक था। बजाहिर ये श्रीकृष्ण के नाम पर बना श्री गोपाल मंदिर था, और वेदी पर कृष्ण और उनकी सखी राधा की आदमकद मूर्तियां स्थापित की गई थीं। लेकिन मार्केट के दुकानदारों ने कोई खतरा नहीं लेते हुए दूसरे देवी-देवताओं को भी मंदिर में स्थान दिया था। इस तरह प्रवेश-द्वार के एक तरफ वानर-देवता हनुमान थे, और दूसरी तरफ शेर पर सवार दुर्गा देवी थीं। अंदर, बाईं तरफ की दीवार पर शिरडी के साईं बाबा थे, जिनके दाढ़ी थी, और जो टांग पर टांग रखे अंतरिक्ष में कुछ देख रहे थे, और उन्हीं के पास घुंघराले बालों के प्रभामंडल वाले पुय्टापर्ती के साईं बाबा आशीर्वाद में अपना मोटा सा हाथ ऊंचा किए हुए थे। काले ग्रेनाइट से बना एक शिवलिंग भी था, और उसी के पास वाले खाने में शिव की पत्नी पार्वती और उनके हाथी जैसे सिर वाले बेटे गणेश थे। ‘हर हिन्दू का अपना देवी-देवता' इस मार्केट का आदर्श था। वो एक जिसे सभी परम देवी मानने पर सहमत थे, वो घन की देवी लक्ष्मी थीं।

विजय को ना तो मंदिर में स्थापित अनेक देवताओं की जरूरत थी, और न खान मार्केट में मिलने वाली चीजों की। वो वहां से बस सिगरेट का एक पैकेट और दो पान खरीदा करता था। वो एक पान मुंह में रखता था, और दूसरा डिनर के बाद खाने के लिए जेब में, फिर वो सिगरेट जलाता था और अपनी घंटे भर की चहलकदमी पर निकल पड़ता था। कोई उससे पूछता था कि वो क्यों रोजाना शाम को खान मार्केट में घूमता है, तो वो कहता, रौनक देखने के लिए। मुझे खुश लोगों को देखना अच्छा लगता है। फिर वो उर्दू शायर जौक का शेर पढ़ता थाः मैं दुनिया के बाजार से गुजरता हूं, लेकिन मुझे कुछ खरीदना नहीं है।’

विजय जैसे और भी लोग थे जो रोजाना शाम को खान मार्केट की रंग-बिरंगी रोशनियों, बढ़िया कारों, और एक दुकान से दूसरी दुकान जाते फैशनेबल लोगों की रौनक देखने आते थे। विजय नियमित रूप से आने वाले कई लोगों को जानता था। और कुछेक से मुस्कुराहटों का तबादला भी कर लेता था, लेकिन कभी किसी से बात नहीं करता था। एक लड़की खास तौर से ऐसी थी जिसकी तरफ विजय का ध्यान जाता था। वो रोजाना नहीं बल्कि हफ्ते में दो या तीन बार आती थी, और रौनक देखने नहीं बल्कि खरीदारी करने। उसकी गाड़ी शोफर चलाता था, और मार्केट के एक किनारे पर मंदिर के सामने खड़ी कर देता था। वो कार से हमेशा एक प्लास्टिक का बैग लेकर निकलती, सड़क पार करती और मंदिर के पास से गुजर कर एक और मार्केट में चली जाती जिसमें एक शराब की दुकान थी। थोड़ी देर बाद वो शराब की बोतलों से भरे बैग को कार में डालने के लिए वापस लौटती थी। फिर वो काले कैनवस का एक और बैग निकालती, और घीरे-धीरे टहलती हुई दुकानों के पास से गुजरने लगती। वो किताबों की हर दुकान की विंडो पर रुकती जरूर थी, लेकिन वो सिर्फ बुक शॉप के ही अंदर जाती थी, जो बाकी दुकानों से ज्यादा बढ़िया थी और वहां दिन भर पाश्चात्य शास्त्रीय संगीत चलता रहता था। इस बात से विजय के दिल में उस लड़की के लिए गर्मजोशी आ जाती थी क्योंकि ये उसकी भी पसंदीदा दुकान थी। हालंकि विजय वहां से बस कभी-कभार अपनी साप्ताहिक मैगजीनें ही खरीदता था। जब तक वो लड़की दुकान में रहती थी, वो दुकान के अन्दर नहीं जाता था। वो आमतौर पर आधे घंटे बाद दुकान से निकलती थी, तब तक विजय दुकान के बाहर ही चहलकदमी करता रहता था, और फिर वो उसके पीछे-पीछे फल-सब्जी वाले और कसाई की दुकान तक घूमता रहता था।

कार तक वापस लौटने पर, वो बैग ड्राईवर के हवाले कर देती, और बोनट से लगकर सिगरेट जला लेती। मंदिर से निकलते हुए लोगों की नजरों से बेपरवाह, वो सिगरेट पीते हुए अपने चारों तरफ देखती रहती। सिगरेट पी चुकने के बाद, वो उसे अपने सैंडल से कुचल देती — विजय ने देखा था कि वो हमेशा गहरे लाल रंग के एक ही सैंडल पहना करती थी — और ड्राईवर को आदेश देतीः ‘चलो।' दो दरवाजे बंद होते और हौंडा सिटी पार्किंग से निकल कर सड़क पर दौड़ने लगती।

विजय समझ नहीं पाता था कि उस का ध्यान खान मार्केट आने वाले दूसरे लोगों के मुकाबले इस लड़की पर क्यों ज्यादा जाता है। ये बात सच थी कि सिगरेट पीने वाली भारतीय औरतों की तरफ उसका ध्यान जल्दी चला जाता था: वो आजाद औरतें थीं, जो बिना किसी झंझट के आसानी से शारीरिक संबंध बना सकती थीं। लेकिन उसने पार्टियों में बहुत-सी ऐसी औरतें देखी थीं जो बड़े आराम से सिगरेट और शराब पीती थीं लेकिन उनकी तरफ तो वो आकर्षित नहीं हुआ था। इस लड़की में ऐसा क्या खास था? उसके कटे हुए स्याह बाल थे, और इतने घने बाल उसने शायद की कभी देखे हों, और हालांकि ये बात सही थी कि उसे औरतों के छोटे बाल अच्छे लगते थे, लेकिन उस लड़की को पसंद करने की सिर्फ यही एक वजह तो नहीं हो सकती थी। जहां तक खूबसूरती का सवाल था, उसका चेहरा अच्छा था, सुडौल छातियां थीं और इस तरह बाहर को निकले हुए प्रभावशाली कूल्हे थे जैसे दावत दे रहे हों, लेकिन मार्केट में उससे ज्यादा खूबसूरत कितनी ही लड़कियां आती थीं तो फिर वो क्यों उसके पीछे घूमा करता था? और ऐसा क्यों था कि वो उसे देखना तो चाहता था लेकिन इससे ज्यादा करीब जाना और बातचीत करना नहीं चाहता था? ऐसा लगता था जैसे उसे किसी चीज के बर्बाद हो जाने का डर हो। ये दीवानापन उसके लिए एक रहस्य था। वो लड़की भी सलवार-कमीज पहनती थी, लेकिन न तो वो बिंदी लगाती थी और ना ही मांग में सिंदूर लगाती थी। शुरू में तो उसे लगा कि वो मुसलमान या ईसाई है, लेकिन फिर उसने देखा कि उसके गले में मंगलसूत्र भी होता है। जाहिर है कि वो हिन्दू थी और शादीशुदा थी। वो ये भी नहीं समझ पाया था कि वो भारत में कहां की रहने वाली है: वो पंजाबी, राजस्थानी, यू.पी. या महाराष्ट्र कहीं की भी हो सकती थी। उसने उसके नाम तक का अंदाजा लगाने की कोशिश की: उषा, आरती, मेनका। कभी-कभी शाम को पीने के बाद, वो उसके बरे में सोचता तो अपने अंदर एक गर्मजोशी और नर्मी का अहसास करता था। लेकिन उसका पीछा करने के अलावा कुछ करने का ख्याल उसको कभी नहीं आया।

जिस दिन शहतूत के पेड़ ने उसे मार डालने की नाकाम कोशिश की थी, उसके कुछ दिन के अंदर ही, हालात बदल गए। विजय ने उस लड़की को अपने समय से कुछ पहले मार्केट में देखा। वो हमेशा की तरह कुछ कदम की दूरी से उसका पीछा करता रहा। वो बुक शॉप के अंदर चली गई। और बिना कुछ सोचे वो भी दुकान के अंदर घुस गया। वो किताबें छांटने का बहाना करता रहा, कभी वो कोई किताब उठाता, उसकी प्रशंसा पढ़ता, फिर उसे रखकर दूसरी किताब उठा लेता, और इस तरह वो घीरे-घीरे उसकी तरफ बढ़ता जा रहा था। फिर उसने उसे दुकान की मालकिन से पूछते सुना, 'मैं एक पन्द्रह साल के लड़के के लिए एक मुनासिब बर्थडे गिफ़्ट की तलाश में हूं।’

‘इस उम्र के लिए हमारे पास काफी किताबें हैं,' मालकिन ने जवाब दिया। दुकान की मालकिन एक लंबी और आकर्षक लड़की थी जो नाक में लौंग पहनती थी। उसे देखकर विजय को अपनी जवानी के दौर की एक लड़की याद आ जाती थी जिसे उसने चाहा था, लेकिन शादी की बात आते ही वो रोमांस खत्म हो गया था। ‘उसकी रुचि किन चीजों में है?’ उसने लड़की से पूछा। स्टैंप, फोटोग्राफी, वन्य जीवन, शिकार, कम्प्यूटर?’

‘कह नहीं सकती। वो सभी कुछ पढ़ता है। शायद अच्छा फिक्शन....... वन्य जीवन पर।

‘ — जॉय एडमसन की ‘बॉर्न फ्री' कैसी रहेगी, जो उस ने अपनी पालतू शेरनी एल्सा के बारे में लिखी है?’

‘ये किताब तो शायद वो दो साल पहले पढ़ चुका है। विजय अचानक बोल पड़ा, 'किपलिंग की 'जंगल बुक' क्यों नहीं? उसमें तो सब तरह के जानवर है: शेर खां नाम का चीता, बालू नाम का भालू। और सबसे बढ़कर भेड़िया-लड़का मोगली। ' लड़की उसकी तरफ मुड़ी, ‘आप मजाक कर रहे हैं। वो तो बचकाना किताब है। वो तो उसने तभी पढ़ ली थी जब उसने इंगिंलश पढ़ना-सीखा था'। अपनी फटकार के असर को कम करने के लिए वो मुस्कुरा भी दी।

विजय भी अड़ा रहा। नरभक्षी बाघों से मुकबलों के बारे में जिम कॉर्बेट की किताबें कैसी रहेंगी?’

‘वो कॉर्बेट की सारी किताबें पढ़ चुका है,' लड़की ने झट से जवाब दिया।

विजय ने फिर भी हार नहीं मानी। वो जोखिम लेने के मूड में हो रहा था। ‘मैं शर्त लगा सकता हूं उसने जेरल्ड डरल की 'माई फैमिली एंड अदर एनिमलज' नहीं पढ़ी होगी।’

दुकान वाली लड़की ने भी उसका साथ दिया। ‘ये किताबें खूब बिकती हैं,मैडम। मुझे यकीन है उसे ये किताब जरूर पसंद आएगी। ' तो इस तरह वो शाम डैरेल की किताब के नाम रही। दोनों लड़कियों ने किताब सुझाने के लिए विजय का शुक्रिया अदा किया। उसे अजीब-सी खुशी का अहसास हो रहा था। लड़की ने किताब की कीमत अदा की, और चलते-चलते विजय की तरफ घूम कर कहा, ‘आपका बहुत-बहुत शुक्रिया। गुड नाइट'

'मुझे खुशी हुई', वो स्कूली लड़कों की तरह खिल गया।

उस शाम दूसरे ड्रिंक के बाद, विजय उस लड़की के बारे में सोच कर बेचैन हो गया। पहले वाला नाजुक और शांत अहसास गायब हो चुका था। क्या उसने उससे बात कर के गलती की थी? अब वो पहले की तरह खामोशी से उसका पीछा नही कर सकता था। उनके बीच की अदृश्य दीवार गिर चुकी थी और अब वो उसे ज्यादा करीब से जानना चाहता था। उसने फैसला किया कि वो ऐसा ही करेगा। उसे अहसास था कि वो लगभग बीस साल की होगी, यानी उससे तकरीबन पच्चीस साल छोटी। वो ये भी जानता था कि उसे तगड़ी फटकार लग सकती है, लेकिन जिंदगी खतरे न लेने के लिए बहुत छोटी है। खतरा उठाने के अहसास से वो उत्तेजित हो गया।

तीन दिन बाद फिर विजय का उससे सामना हुआ। वो समझ नहीं पाया कि लड़की ने उसे पहचाना या नहीं। उसने हिम्मत कर के उसका अभिवादन किया और उससे पूछा, 'तो आपको डरल कैसा लगा?’

वो मुस्कुराई और बोली, हैलो’ बहुत मजा आया — हम दोनों को ही। सुझाव देने के लिए शुक्रिया।

‘आप यही कहीं रहती हैं?’ उसने पूछा। ‘अक्सर आपको यहां देखता हूं।’

ज्यादा दूर नहीं। मुझे यहीं से शॉपिंग करना पसंद है। यहां हर चीज मिल जाती है, और यहां का माहौल भी अच्छा है। और आप?’ मैं सड़क के पार वाले फ़्लैटों के ब्लाक में रहता हूं। कैदखाने जैसा छोटा सा किताबों से भरा फ़्लैट। मेरी और कोई आदते नहीं हैं। बड़ा नीरस आदमी हूं। आप किसी दिन चाय वगैरा के लिए तशरीफ़ लाएं तो मुझे खुशी होगी।

शुक्रिया, लेकिन आज नहीं, उसने रूखेपन से जवाब दिया। मैं फिर कभी आपकी दावत कुबूल करूंगी। आपसे मिलकर अच्छा लगा।’ उसने उससे मिलाने के लिए हाथ बढ़ा दिया। विजय ने पहली बार उसे छुआ था। उसे उसके मुलायम, गर्म हाथ का अहसास अच्छा लगा। वो उसे और थोड़ी देर पकड़े रहना चाहता था लेकिन लड़की ने उसे प्रोत्साहन नहीं दिया। उसने घीरे से अपना हाथ छुड़ाते हुए कहा, फिर मिलेंगे। दुकानें बंद होने से पहले मैं खरीदारी कर लूं।' और वो लोगों की भीड़ में खो गई।

अपने नए शौक की तलाश में विजय का सामना एक और हैरत से हुआ। एक शाम वो पौधों की तलाश में मस्जिद नर्सरी में घूम रहा था। उसके घर के पास इस तरह की तीन नर्सरी थीं। हालांकि वो कुछ खरीदता नहीं था, क्योंकि इन पौधों लायक उसके फ़्लैट में जगह ही नहीं थी। लेकिन उन्हें देखना, और उनके नाम और कीमतें जानना उसे अच्छा लगता था। मस्जिद नर्सरी में, जिसका ये नाम पास में मस्जिद होने की वजह से पड़ गया था, सबसे ज्यादा फूल और कैक्टस थे। वो नर्सरी में घूम रहा था कि अचानक उसे वही लड़की मस्जिद की तरफ़ जाती हुई नजर आई। वो पैदल आई थी, उसकी कार का कहीं नामो-निशान नहीं था। उसने दरवाज़े के पास अपने सैंडल उतारे और अंदर चली गई। विजय तो सोच रहा था कि वो हिंदू है, फिर वो मस्जिद में क्या कर रही थी? शायद वो गलती पर था। लेकिन मुस्लिम औरतें तो नमाज पढ़ने मस्जिद में नहीं आती हैं। हो सकता है उसका बेटा मदसरसे में कुरान पढ़ता हो और वो उसे लेने आई हो। विजय आधे घंटे से ज्यादा नर्सरी में ही घूमता रहा। मग़रिब की अज़ान की आवाज आने लगी। लोग आए, और अपने जूते अंदर ले गए, और करीब पंद्रह मिनट बाद वापस चले गए। अंधेरा फैलना शुरू हो गया। विजय अपनी उत्सुकता पर और काबू नहीं रख सका। वो मस्जिद के दरवाजे पर पहुंच गया। चौखट के पास बस उस लड़की के लाल सैंडल रखे हुए थे। उसने झांक कर अंदर देखा। मिंबर के पास एक आदमी बैठा कुरान पढ़ रहा था। उस के दाईं तरफ एक छोटा सा दरवाजा और था। शायद वो मेन दरवाजे से आई और साइड वाले दरवाजे से निकल गई थी, और अपने सैंडल भूल गई थी। विजय थोड़ी देर तो ठिठका, फिर उसने सैंडल उठाए और उन्हें अपने घर ले गया।

उसे एक अजीब सा फ़तेह का अहसास हो रहा था — जैसे किसी वैज्ञानिक को चुंबकीय पत्थर पर अपनी रिसर्च में कोई नई कामयाबी मिली हो जिससे आम घातु को सोना बनाया जा सकता हो। अब उसके पास एक ऐसा बहाना था जिससे वो उसको अपने घर बुला सकता था, और उसका नाम-पता जान सकता था। उसने वो सैंडल किताबों के उस शैल्फ में एक खाली जगह में रख दिए जहां चमड़े की जिल्दें चढ़ी 'इन्फर्नो,’ डॉन क्विक्जोट’ और 'रुबाइयात’ रखी थी, जिन्हें वो अपनी कीमती मिल्कियत मानता था। विजय लाल के साथ सब कुछ अजीब सा हो रहा था।

अगली तीन शामों को उसने मार्केट में घूमने में ज्यादा समय लगाया। अब खान मार्केट की रौनक उसके लिए काफी नहीं थी। वो इंतजार करता रहा, लेकिन वो कहीं नजर नहीं आई। उसने सिगरेट के दो पैकेट और पान खरीदे। थोड़ी देर वो बेचैनी से टहलता रहा। घर लौटा तो वो एकदम हताश था।

चौथे दिन किस्मत उस पर मेहरबान थी। वो ‘आउटलुक’ और ‘इंडिया टुडे’ लेकर बुक शॉप से वापस आ रहा था कि वो थैले में किराने का सामान लिए उसे अपनी तरफ आती दिखाई दी। वो नंगे पैर थी। विजय ने ठीक उसके सामने रूककर उसका अभिवादन किया।

‘गुड ईवनिंग।’

‘हैलो,’ उसने हल्की-सी मुस्कुराहट के साथ जवाब दिया।

‘आप के लाल सैंडल कहां गए?’ उसने पूछा।

उसने अपने नंगे पैरों को इस तरह देखा जैसे उन्हें पहली बार देख रही हो, और जवाब दिया, ‘वो खो गए। लेकिन आपको कैसे मालूम कि वो लाल थे?’

'मेरी नजर बड़ी तेज है। इन गंदी सड़कों और फुटपाथों पर आपको नंगे पैर नहीं चलना चाहिए। पैरों में कोई कंकर या शीशे का टुकड़ा चुभ सकता है। आपके पास और जूते तो होंगे?’

‘ना। लेकिन शायद मुझे ख़रीद लेने चाहिए।’

‘आप अपना पैसा बचा सकती हैं। आपके सैंडल मेरे घर पर हैं।’

उसने चौंक कर उसके चेहरे को देखा। ‘आपके घर? उसने जवाब दिया। ‘इत्तेफ़ाक से मैं उस वक्त मस्जिद नर्सरी में था जब मैंने आपको सैंडल उतार कर मस्जिद में जाते देखा। शायद आप उन्हें भूल गईं और साइड वाले दरवाजे से निकल गई। मैं उन्हें उठाकर अपने घर ले आया। मैंने उन्हें बहुत संभाल कर रखा है। आप उन्हें वापस नहीं लेंगी?’

‘बिल्कुल लूंगी,' उसने जवाब दिया। उसकी भवें सिकुड़ गई थीं।

‘मैं शॉपिंग करने के बाद उन्हें लेने अपने ड्राइवर को भेज दूंगी। आप कहां रहते हैं?’

‘नहीं’, वो दृढ़ता से बोला। 'मै आपके सैंडल आपके अलावा किसी को नहीं दूंगा। मैं आप को बता चुका हूं,मैं सड़क पार ही रहता हूं। और फिर, आप ड्राइवर को भेजना भूल भी सकती हैं। मुझे लगता है कि आप बहुत भुलक्कड़ हैं।’

उसे डर था कि वो उससे दूर रहने को कह देगी। लेकिन शायद उसे विजय की बातें अच्छी लगी थीं, इसलिए वो मुस्कुरा दी। 'भुलक्कड़ तो हूं मैं। मेरी चूल थोड़ी-सी हिली हुई है। थोड़ी सनकी और मूडी।’

‘बहुत खूब। तो आप मेरे साथ चल रही हैं ना?’

उसने हंसते हुए इकरार में सिर हिला दिया। वो उसके साथ उसकी कार तक आया। उसने अपने ड्राइवर गाड़ी को घुमाने और उसे साहब को सामने वाले फ़्लैटों तक चलने को कहा। कार में उन्होंने कोई बात नहीं की क्योंकि विजय ड्राइवर को बताता रहा कि गाड़ी को पार्क करने के लिए किधर मोड़ना है। ‘थोड़ी देर ठहरो,’ गाड़ी से निकलते हुए वो ड्राइवर से बोली। विजय ने अपने फ़्लैट का दरवाजा खोला और उसे अन्दर बुलाया।

उसने कमरे में चारों तरफ देखा। ‘किताबें ही किताबें। आपने ये सब पढ़ी तो नहीं होंगी।’

नहीं, इन्हें पढ़ने के लिए तो पूरी जिंदगी भी कम है। मुझे बस किताबों से घिरे रहना अच्छा लगता है। बैठिये,’ उसने सोफे की तरफ इशारा करते हुए कहा। ‘मैं आपके सैंडल लाता हूं।‘

वो बैठ गई। उसने महंगी बुखारा कालीन पर रखे अपने गंदे पैरों को शर्मिंदगी से देखा। 'मुझे डर है कि आप की कालीन गंदी हो जाएगी’, वो बोली।

‘फिक्र मत कीजिए, ये इससे ज्यादा बुरे दिन भी देख चुकी है,' विजय ने उसे भरोसा दिलाया। ‘आप यहीं बैठिए, मैं बस अभी आया।’

विजय वापस आया तो उसके साथ जूते नहीं थे बल्कि पानी का एक तसला था और कंधे पर पड़ा तौलिया था।

‘ये किसलिए है?’ उसने घबरा कर पूछा।

‘अभी पता चल जाएगा,’ उसने जवाब दिया। ‘जरा देखिए आपके पैरों की क्या हालत हो रही है — धूल-मिट्टी से बिल्कुल काले हो चुके हैं। पैरों को तसले में डाल दीजिए, मैं घो देता हूं।'

वो एक बार फिर से चौंक गई थी, लेकिन उसने उसकी बात मानकर अपने पैर तसले में डाल दिए। पानी गर्म था। वो एक मूढ़ा खींच कर उसके पास बैठ गया। ‘आराम से बैठिए,' उसने नर्मी से कहा। उसने नीले सोफे पर सिर टिका कर आंखें बंद कर लीं। वो उसके पैरों पर साबुन लगाने और उन्हें स्पंज से साफ करने लगा। वो अपना काम बड़े आराम से कर रहा था। फिर तसले को हटा कर उसने उसके पैरों को बारी-बारी से अपने घुटनों पर रखा और उन्हें तौलिया से अच्छी तरह रगड़ा। ‘हसीन पैर हैं,’ उसने उसके पैरों को अपने अंगूठों से दबाते हुए कहा। ‘अब आप अपनी आंखें खोल सकती हैं। अब देखिए आपके पैर कितने साफ़ और मुलायम हो गए हैं।’

उसने आंखें खोलीं, और मटमैले पानी से भरा तसला और साफ़-सुथरे पैर देखे। उसके दाएं पांव में पड़ी पतली-सी पाजेब और अंगूठे में पड़ी चांदी की रिंग भी चमचमा रही थी। ‘आप बड़े शरीफ़ आदमी लगते हैं। लेकिन आप मेरे लिए ये सब क्यों कर रहे हैं?’ उसने पूछा। ‘मैं तो आप का नाम तक नहीं जानती।’

‘घीरे-धीरे सब जान जाएंगी,’ उसने खिलखिलाते हुए कहा।

उसने गंदे पानी और झागों से भरे तसले को बाथरूम ले जाकर कमोड मे डाला और फ़्लश चला दिया। फिर उसने हाथ धोए और लाल सैंडल ले कर वापस आ गया। फिर से मूढ़े पर बैठकर उसने सैंडल उसके पैरों में पहना दिए। ‘अब इन्हें मस्जिदों के दरवाजों पर मत छोड़ती फिरना। फिर नहीं मिलेंगे। शायद अगली बार मैं भी नहीं लौटाऊं, क्योंकि ये मेरे लिए खुशनसीबी लेकर आए हैं।'

‘क्या मतलब? ये कौन-सी खुशनसीबी ले आए आपके लिए?’

‘आप मेरी इस गुफा में आईं। उम्मीद करता हूं कि ये आखरी बार नहीं है।‘

वो शर्माई, और उसने अपने माथे पर आ गई लट को समेटा। ‘मैं आपका नाम तक नहीं जानती,’ उसने उसकी आंखों में आंखें डाल कर देखते हुए कहा।

‘विजय। और आपका ?’

‘करुणा’

‘करुणा, यानी दया। बहुत प्यारा नाम है। लेकिन करूणा क्या?’

‘करुणा, बस,' उसने रूखेपन से जवाब दिया।

‘मैंने इसलिए पूछा कि मैं एक उलझन में पड़ गया हूं। आपका हिन्दू नाम है, तो फिर आप मस्जिद में क्या कर रही थीं?'

‘कितने दकियानूसी हैं न हम लोग? खैर, अगर आपके लिए ये जानना इतना ही अहम है, तो मैं इसलिए गई थी कि मैंने पहले कभी कोई मस्जिद अंदर से देखी नहीं थी। ‘ फिर वो अचानक उठ खड़ी हुई। ‘अब मुझे घर जाना चाहिए’ इस सब के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया। लेकिन मैं अब भी ये नहीं समझ पा रही कि आपने इतना कष्ट क्यों उठाया। वो दरवाजे तक उसे छोड़ने आया। ‘बाई,’ बिना पलट कर देखे उसने तेजी से निकलते हुए कहा। विजय को उसकी कार के स्टार्ट होने और उसके ब्लॉक से निकलने की आवाज सुनाई दी।

ये लड़की भी अजीब ही है, विजय सोच रहा था। वो जरूर थोड़ी-सी खिसकी हुई है। वर्ना क्यों शोफर वाली कार में चलने वाली एक लड़की अपने लिए एक जोड़ा सैंडल ख़रीदने के बजाय नंगे पैर घूमती फिरेगी? यकीनन उसका एक अमीर शौहर और बच्चे होंगे। तो फिर उन्होंने उसकी इस सनक पर क्यों ध्यान नहीं दिया?

लेकिन विजय लाल के लिए इससे भी ज्यादा ना समझ में आने वाली चीज ये थी कि उस लड़की के बारे में जानने की इच्छा क्यों अचानक उसके अन्दर पैदा हो गई है। उसके बारे में कुछ कहा ही नहीं जा सकता था — पले तुष्टा, पले रुष्टा। आमतौर से वो ऐसे लोगों को बर्दाश्त नहीं कर पाता था, और बरसों के अकेलेपन ने उसे और भी चिड़चिड़ा बना दिया था। लेकिन करुणा के अजीबोगरीब बर्ताव के बावजूद उसके लिए उसका लगाव बढ़ता ही जा रहा था। वो पूरी तरह से समझ नहीं पा रहा था कि वो चाहता क्या हैः क्या वो इतने में ही खुश था कि करुणा उसके करीब हो, वो उससे बातें करता रहे, और कभी-कभार चोरी से उसे छू भर ले? या वो उसके साथ जमकर सैक्स करना चाहता था, जो उसने बरसों से नहीं किया था? वो समझता था तो बस इतना कि जिस दिन वो उसे नहीं देखता था वो दिन रूखा और अधूरा सा लगता था। अब वो सोच रहा था: खोए-पाए सैंडल वाले मामले से वो मेरी भावनाओं को जान गई होगी। क्या वो रजामंद होगी?

वो रोजाना खान मार्केट जाता था, और बुक शॉप में नई किताबों को बेदिली से देखता हुआ इधर-उघर भटकता रहता था। वो किताबों की दूसरी दुकानों, फल-सब्जी वाले और कसाई की दुकान में भी झांक लेता था। लेकिन वो कहीं नहीं दिखाई देती थी। फिर एक दिन वो यूं ही टहलता हुआ मार्केट के पिछवाड़े कृष्ण मंदिर की तरफ चला गया। संध्या की आरती का समय था। मंदिर में अगरबत्ती की महक भरी हुई थी, और घंटियों की गूंज के बीच से भक्तों के जय जगदीश हरे गाने की आवाज आ रही थी। वो पहले कभी भी किसी मंदिर, बल्कि किसी भी पूजास्थल के अन्दर नहीं गया था, लेकिन उस दिन मंदिर में जाकर अंदर क्या होता है देखने के लिए जैसे वो खिंचा चला गया। आंगन के एक तरफ भक्तों के जूते चप्पल रखे हुए थे। एक आदमी स्टूल पर बैठा उनकी रखवाली कर रहा था। दूसरी पंक्ति में एक लाल सैंडल का जोड़ा रखा था जिसे विजय अच्छी तरह पहचानता था। वो आरती खत्म होने और हाथों में प्रसाद लिए भक्तों की भीड़ के निकलने तक आंगन में इंतजार करता रहा। जैसे ही वो भीड़ से निकली, उसने उसका अभिवादन किया।

‘आप यहां क्या कर रहीं हैं?’ उसने पूछा। ‘एक दिन मस्जिद में, एक दिन मंदिर में।‘

‘हैलो।' उसने जवाब दिया। ‘आप यहां कैसे टहल रहे हैं?’

‘मैंने लाल सैंडल देख लिए थे लेकिन मैं उन्हें चुरा नहीं सका।‘ डंडे वाले आदमी की बाज जैसी नजरें उन पर लगी हुई थीं। तो मैंने सोचा कि मैं इनके मालिक का इंतजार करूं और उसे चाय या कॉफी की दावत दूं।’

‘आप ऐसा नहीं कर सकते,' उसने-सीधे जवाब दिया। ‘मुझे कहीं और जाना है।’ उसने जल्दी से अपनी घड़ी देखी । ‘हाय रे। मैं आधा घंटा लेट हो चुकी हूं।‘ उसने अपने सैंडल पहने और सड़क के पार अपनी कार की तरफ दौड़ गई।

चमत्कारिक रूप से मौत से बचने के एक महीने बाद, विजय ने एक और चमत्कार के बरे में सुना लेकिन उसे देख नहीं पाया, हालांकि ये चमत्कार उस के घर के पास ही खान मार्किट के श्री गोपाल मंदिर पर हुआ था। एक शाम जब वो लापता करुणा से मिल पाने की उम्मीद में वहां गया, तो उसने लोगों की एक कतार देखी जो मंदिर से शुरू होकर पूरे मार्किट के गिर्द घूमती हुई जा रही थी। कतार में हर किसी के पास एक टिन का डिब्बा, प्याला, लोटा या थर्मस जरूर था। उसे मार्केट के रुटीन में पड़ रहा ये विध्न अच्छा नहीं लगा, और फिर इस तरह उसे अपनी चाहत को देखने में भी दिक्कत आती। वो कतार को तोड़ता हुआ बुक शॉप की तरफ चला गया। बुक शॉप किसी वजह से बंद थी। निराश होकर वो किताबों की एक और दुकान पर चला गया जिसका मालिक एक भद्दा और स्वस्थ आदमी था जो मर्दाना ताकत के विज्ञापनों में आने वाले आदमियों जैसी घुमावदार मूंछें रखता था। विजय ने उसका नाम हकीम तारा चन्द रखा हुआ था। दुकानदार ने दोस्ताना ढंग से उसका अभिवादन किया और हमेशा की तरह पूछा, 'कुछ कॉफी-शॉफी, चाय-शाय?' विजय ने हाथ के इशारे से उसका शुक्रिया करके मना किया और पूछा, ‘ये सब क्या हो रहा है? ये सब लोग कौन हैं?’

‘अंध विश्वास, सर,‘ हकीम तारा चन्द ने सिर हिला कर लेकिन प्यार भरी मुस्कुराहट के साथ कहा। सुना है कि देवता भक्तों का दूध पी रहे हैं। ये सारे लोग देवी-देवताओं को अपनी भेंट चढ़ाने के इंतजार में खड़े हैं।’

‘क्या? पत्थर और घातु की मूर्तियां दूध पी रही हैं?’ विजय मार्किट में करुणा को ना पाकर पहले ही निराश था, इस बात पर तो उसे बे-यकीनी से ज्यादा चिढ़ हो गई।

विजय का लहजा सुनकर हकीम ताराचन्द हक्के-बक्के रह गए और उनका अंदाज खेदपूर्ण हो गया। ‘जैसा कि मैंने कहा, सर-अंध विश्वास। मैं जानता हूं कि आप इन चीजों में विश्वास नहीं रखते, मैं भी नहीं रखता.... लेकिन हम लोगों से ये अधिकार तो नहीं छीन सकते ना कि वो जिस चीज में चाहें विश्वास करें? आज सुबह मेरी पत्नी दूध का जग लेकर मंदिर गई थी। उसने वो दूध गणेश जी की मूर्ति पर पलट दिया, और सारा दूध गायब हो गया। दूध कहां गया, क्यों गया, भगवान ही जाने।’

‘दूध वालों के मजे आ गये होंगे,’ विजय ने व्यंग्य कसा। 'ये सब किसने शुरू किया?’

‘मुझे नहीं मालूम। लेकिन एक हिन्दी अखबार में है कि श्रीस्वामी ने दावा किया है कि दूध की भेंट स्वीकार करने के लिए उन्होंने ही गणेश जी का आह्वान किया है।’

‘श्री स्वामी। वो बदमाश जिसके खिलाफ दर्जन भर मुकदमे चल रहे हैं और जो कई बार जेल की हवा भी खा चुका है?’

हकीम तारा चन्द ने हाथ जोड़ते हुए जवाब दिया, 'माफ करना, लेकिन मैं उस आदमी के लिए ऐसी बात नहीं कह सकता जिसे इतने लोग पूजते हैं — राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, पैसे वाले, फिल्म स्टार। हमारे कितने ही नेता उनके पास सलाह लेने जाते हैं। उनमें कुछ बात तो होगी ही...... वैसे मैं इन चीजों में विश्वास नहीं करता।’

‘उसके बारे में कहा जाता है कि वो अरब के शेखों को लड़कियां सप्लाई करता है।'

‘तौबा। हो सकता है अखबार ऐसा कहते हों। मुझे नहीं मालूम।' विजय को लगा कि हकीम ताराचन्द इस मुद्दे पर और बात नहीं करना चाहते, इसलिए उसने विषय बदल दिया: अच्छा जी, फिर मिलेंगे।' उसने घर जाने का फैसला किया, लेकिन फिर सोचा कि शायद करुणा मंदिर में मिल जाए। पूजास्थलों में उसकी कुछ खास ही रुचि लगती थी। विजय के ख्याल से वो खुद तो दूसरों की तरह दूध नहीं चढ़ाएगी, लेकिन शायद इस मंजर को देखना जरूर चाहेगी। वो लोगों की कतार के पास से गुजरता हुआ आगे के मोड़ से मुड़कर मंदिर के सामने पहुंच गया। कतार में लगे लोगों के पहनावे से लगता था कि वो मध्यवर्गीय और शिक्षित हैं। अपनी लाठी हिलाता हुआ, इधर से उधर टहलता हुआ, वर्दी पहने एक-सीनियर पुलिस अफ़सर भी था। वो शायद सुप्रिंटेंडेंट स्तर का अफ़सर था। उसके माथे पर एक बड़ा सा लाल तिलक था, जो बता रहा था कि वो अपनी भेंट चढ़ा चुका है। उसके साथ उसके चार कांस्टेबल भी थे, जो क़तार के पास तेज़ी से चल रहे थे, और लोगों को घैर्य रखने की सलाह दे रहे थे। 'सब की बारी आएगी,’ अफ़सर उत्सुक भक्तों को दिलासा दे रहा था। 'घेर्य रखो, चमत्कार अभी कई दिन चलेगा।‘ विजय ने सोचा उससे पूछे कि उसे कैसे मालूम, लेकिन वो पुलिस अफ़सर के साथ पंगा नहीं लेना चाहता था।

डिब्बों में से छलक जाने वाले दूध को आवारा कुत्ते चाट लेते थे। सात-आठ साल का एक बच्चा एक उछलते, ज़ोर-ज़ोर से दुम हिलाते और दूध की कुछ बूंदों के लिए भौंकते पिल्ले को भगाने की कोशिश कर रहा था। बच्चे ने कुत्ते को लात मार कर भगाने की कोशिश की तो उसका कुछ दूध बिखर गया। पिल्ले ने ख़ुश हो कर दूध को चाट लिया, और फिर आभार प्रकट करने के लिए दुम हिलाने लगा।

‘तुम ये दूध श्रीगणेश को नहीं चढ़ा सकते। इसे कुत्ते ने अशुद्ध कर दिया है,' बच्चे के पीछे खड़ा एक आदमी गुर्राया। 'जाओ दूध वाले से एक जग दूध और लेकर आओ।‘ बच्चा ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा। उसने सारा दूध ज़मीन पर पलट कर पिल्ले को ज़ोर से एक लात मारी और फिर और दूध लाने चला गया।

इस हंगामे से थोड़ी देर के लिए विजय का दिमाग़ भटक गया, फिर विजय श्री गोपाल मंदिर की तरफ़ बढ़ गया। मार्केट और मंदिर के बीच वाली सड़क का रास्ता तीन कांस्टेबलों ने रोका हुआ था। जब कुछ लोग चढ़ावा चढ़ा कर मंदिर से निकलते थे, तो पुलिस वाले सारा ट्रैफ़िक रोक कर क़तार में से दर्जन भर के क़रीब लोगों को सड़क पार कर के मंदिर में जाने देते थे। विजय क़तार के अंत तक आ गया। ठीक उसके सामने, सड़क पार करने की बारी के इंतज़ार में करुणा खड़ी थी। उसके हाथ में एक बड़ा सा प्याला था।

मुझे लग रहा कि आप यहां ज़रूर मिल जाएंगी,’ आगे बढ़ कर उसका हाथ पकड़ लेने की इच्छा को किसी तरह दबाते हुए उसने कहा।

‘हैलो’’ उसने ताज्जुब से उसे देखते हुए कहा, और फिर मुंह फेर लिया। पुलिस वाले जिन्होंने सड़क का सारा ट्रैफिक़ रोक रखा था, वो क़तार के लोगों को आगे बढ़ने को कह रहे थे: चलो, चलो, चलो। ' लगभग बीस भक्त जिनमें करुणा भी थी तेज़ी से सड़क पार कर के मंदिर की तरफ़ बढ़ गए।

विजय का जोश जितनी तेज़ी से चढ़ा था उतनी ही तेज़ी से बैठ गया। उसने गुडबाई करने या ये कहने की भी ज़हमत गवारा नहीं की थी कि जब तक वो अपना चढ़ावा चढ़ा कर आए तब तक वो इंतज़ार करे। ये तक नहीं कहा कि वो उसके साथ मंदिर में चले — हालांकि वो मंदिर जाया नहीं करता था, लेकिन अगर वो कहती तो वो ज़रूर चला जाता। वो क़रीब एक घंटे तक उसके बाहर आने का इंतज़ार करता रहा। दस-दस बीस-बीस के जत्थों में लोग मंदिर में जा रहे थे और खिले हुए चेहरों के साथ लौट रहे थे। लेकिन जिस चेहरे की तलाश विजय को थी उसका कहीं पता नहीं था। उसे करुणा का मस्जिद से ग़ायब होना याद आ गया। शायद वो मंदिर के किसी साइड दरवाज़े से निकल गई थी।

उसके पीने का वक्त हो चुका था, और ये एक ऐसा अमल था जिसका वो पाबंदी से पालन करता था। लेकिन आज वो घर नहीं गया। वो कार की तलाश करने लगा। पुलिस ने सारी कारों को सड़क पर खड़ा करने का आदेश दिया था ताकि भक्तों की भीड़ के लिए जगह बची रहे। क़तार थी कि ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी, लगातार लोग आ कर क़तार में जुड़ते चले जा रहे थे। विजय उलझा हुआ सा भीड़ में से गुज़रता चला जा रहा था।

उसे करुणा की कार नहीं मिली, और जब उसकी समझ में नहीं आया कि अब क्या करे, तो वो एक पान वाले के खोखे के पास आ कर खड़ा हो गया। उसका मूड बिगड़ चुका था। किसी से लड़ बैठने का मन हो रहा था उसका। पान वाला अपनी दुकान पर खड़े गेरुवा कुर्ते पहने कुछ लड़कों से चमत्कार के बारे में ख़ूब बढ़-चढ़ कर बातें कर रहा था।

‘लाला जी, तुम्हारे देवता मूडी हैं,' विजय ने पान वाले से कहा, 'मेरे घर के बाहर एक पत्थर के गणेश जी हैं। मैंने उनके दांतों और सूंड में एक कप दूध लगाया लेकिन उन्होंने एक बूंद भी नहीं पी।‘ ‘चमत्कारों के लिए विश्वास ज़रूरी होता है,’ एक लड़का बोला। ‘विश्वास से तो पहाड़ भी हिल जाते हैं। भगवान कृष्ण ने अपने गांव को बादल के फटने से बचाने के लिए पूरे पहाड़ को अपनी उंगली पर उठा लिया था। हनुमान ने संजीवनी बूटी के लिए पहाड़ को जड़ से उखाड़ लिया था। तो अगर भगवान सारी जातियों के लोगों के चढ़ावे स्वीकार कर रहे हैं,ऊंची जाति से नीची जाति तक सब के — मलेच्छों तक के, तो इसमें असाधारण क्या है। ये वास्तव में चमत्कार ही तो है।’ वो अपने भाषण से खुश दिखाई दे रहा था।

‘इसीलिए तो भारत महान है,' एक और लड़का बोला। फिर उसने उर्दू शायर इक़्बाल की पंक्तियां पढ़ीं: ‘यूनान, मिस्त्रो रोमां सब मिट गए जहां से, कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।‘

विजय को गुस्सा आ गया। ‘यूनान, मिस्त्र और रोम अपने अतीत की तरह आज भी फल-फूल रहे हैं,सिर्फ़ भारत ही जहालत और अंधविश्वास के ढेर तले दबा हुआ है। पत्थर और घातु का दूध पीना हमारे बढ़ते पिछड़ेपन का ताज़ा सुबूत है। हमारे देवता इससे बेहतर तमाशा नहीं दिखा सकते’ विजय ने ऊंची आवाज़ में कहा।

‘बकवास बंद करो’’ माथे पर जाति सूचक तिलक लगाए लड़का बोला। बक-बक करनी है तो कहीं और जा कर करो, हमारे मंदिर के इतने नज़दीक नहीं। तुम मुसलमान हो क्या?

जल्दी ही बहस झगड़े में बदल गई। विजय चिल्लाया, ‘तुम सब चूतिया हो, तुमने भारत को दुनिया के आगे हंसी का पात्र बना दिया है’

लड़के ने विजय का कॉलर पकड़ लिया, और चिल्लाया, साले, तू हमें चूतिया कह रहा है ‘फाड़ के रख दूंगा तेरी’

पान वाला जल्दी से अपनी-सीट से कूद कर आया और उसने दोनों को अलग किया। ‘बाबजूी, मेरी दुकान के सामने हंगामा मत कीजिए, उसने विजय से कहा ‘प्लीज़ घर जाइए। ये अपना सिगरेट का पैकेट लीजिए। इसे मेरी तरफ़ से भेंट में ले लीजिए। भगवान आप पर दया करे और आप को गुस्सा काबू में रखना सिखाए।' विजय अपमानित महसूस कर रहा था। लड़के उसकी आधी उम्र के थे। इस तरह गुस्सा कर के ख़ुद उसी ने अपना अपमान करा लिया था।

विजय को कुछ चीज़ों से ख़ास नफ़रत थी, जिनमें घार्मिक अंधविश्वास, ज्योतिष, कुंडली बांचना, अंक-ज्योतिष, और भविष्य बताने वाले ऐसे ही अन्य दूसरी तरीक़े सबसे ऊपर थे। लेकिन आम तौर से वो दुनिया के बेवकूफों के साथ शांति बनाए रखता था। उसका मानना था कि गधों को भी अपना दृष्टिकोण रखने और उसके बारे में रेंकने का हक़ है। इसलिए पान वाले की दुकान पर इस तरह फट पड़ने पर उसे हैरत थी, ख़ासकर इसलिए कि नौबत हाथापाई तक पहुंच गई थी जिसे वो क़तई पसंद नहीं करता था। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि उसे क्या हो गया था।

उसे करुणा पर भी हैरत थी। ये बड़ी अजीब बात थी कि एक शिक्षित, आधुनिक लड़की जो खुलेआम सिगरेट और शराब पीती हो और बज़ाहिर घार्मिक पक्षपात से मुक्त हो वो संगमरमर और कांसे की मूर्तियों पर दूध डाले, इस उम्मीद के साथ कि वो उसे पी लेंगे। शायद वो तफ़रीहन ऐसा कर रही थी। अखबारों में एक ख़बर आई थी कि दो लड़कियों ने गणपति को व्हिस्की का चढ़ावा चढ़ाया था जिस पर बहुत हंगामा हुआ और लड़कियों को माफ़ी मांगनी पड़ी थी। करुणा ऐसा ही काम कर सकती थी।

गणपति के दूध पीने और पान वाले की दुकान पर झगड़े के बाद कई दिन तक विजय ख़ान मार्केट नहीं गया। और बाद में जब वो गया, तो ये तय करके गया कि बस वो मार्केट में घूमेगा लेकिन न तो किसी दुकान के बाहर रुकेगा और न अंदर जाएगा। वो ऐसी हर जगह से बचना चाहता था जहां उसे भक्तों पर गुस्सा आए और फिर शर्मिंदगी उठानी पड़े। उसने सिगरेट और पान के लिए भी एक और पान वाला ढूंढ लिया।

मार्केट जाना शुरू करने के बाद चौथी शाम वो ख़ान मार्केट के उस कम भीड़भाड़ वाले भाग से गुज़र रहा था जहां एक बैंक था और जो उस समय तक ग्राहकों के लिए बंद हो चुका था, कि उसने किसी की आवाज़ सुनी, ‘जय हो’ उसने पलट कर देखा तो वहां दाढ़ी और कंधों की लंबाई तक बालों वाला एक आदमी था। उसके पास पीतल की एक प्लेट थी जिसमें फूल, कुमकुम का पाउडर और एक छोटा सा चांदी का दिया था।

‘शनि देवता के लिए कुछ,' उस आदमी ने प्लेट आगे बढ़ाते हुए कहा। विजय को याद आया कि आज शनिवार है और ये भिखारी बाबा शनि को शांत करने के लिए भीख मांग रहा है। उस जैसे और भी बहुत से थे जो रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड और सड़क के चौराहे जैसी जगहों पर-सीधे-सादे लोगों से पैसा ऐंठते थे। विजय उन-सीधे- सादे लोगों में से नहीं था। लेकिन विजय उसे भगाता, उससे पहले ही भिखारी ने एक ऐसी बात कह दी कि विजय को रुकना पड़ गया। तुम्हारे दिमाग़ में कोई है, शायद कोई लड़की। तो समस्या क्या है? वो हां नहीं कर रही है? मैं तुम्हें एक ऐसी चीज़ दूंगा कि वो तुम्हारी हो जाएगी। अपनी मुट्ठी बंद करो।

न चाहते हुए भी विजय ने अपनी मुट्ठी बंद की और अपना हाथ आगे बढ़ा दिया।

‘अब अपना हाथ खोलो,’ उस आदमी ने कहा। विजय ने ऐसा ही किया। उसकी हथेली के बीचोंबीच एक बड़ा सा काला रिंग था। ‘देखो: ये राहु है, अशुभ ग्रह। मैं इसे मिटा सकता हूं। मुझे दक्षिणा दो, दस रुपया चलेगा, तो मैं तुम्हें ऐसा अचूक तरीक़ा बताऊंगा जिससे तुम्हारे मन की कामना पूरी होगी।' थोड़ी देर के लिए वो ख़ामोश हुआ और अपनी काजल लगी आंखों से एकटक विजय को देखता रहा, फिर वो आगे बोला, ‘जनाब, मैं जानता हूं कि आप ज्योतिष में या हाथ की रेखाओं में विश्वास नहीं रखते। लेकिन मैं आपके चेहरे को खुली किताब की तरह पढ़ सकता हूं। अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए आप एक बार मेरी भविष्यवाणी और फ़ार्मूले को आज़मा कर तो देखिए? दस रुपये से न तो आप ग़रीब हो जाएंगे न मैं अमीर बन जाऊंगा।’

बिना कुछ सोचे-समझे विजय ने दस रुपये का नोट निकाला और उस आदमी की पीतल की ट्रे में रख दिया।

‘चलिए किसी शांत-सी जगह चल कर बैठते हैं,’ शनि वाले ने राय दी। उन्हें जो एकमात्र सुनसान जगह मिली वो जन शौचालय और मार्केट की बाउंडरी वाल के बीच में थी। जगह बदबूदार लेकिन एकांत थी। भिखारी ने अपनी ट्रे दीवार पर और दस रूपये का नोट अपनी जेब में रखा और विजय से दायां हाथ फैलाने को कहा। आकर्षण का केंद्र बनना सबको अच्छा लगता है। विजय को भी लग रहा था, हालांकि हर रेखा, अंगूठा और उंगलियां पढ़ने के लिए भिखारी जिस तरह से उसके हाथ को थपथपा और मसल रहा था, उसमें कामुकता का पुट मौजूद था।

‘आपकी ज़िंदगी में दो शादियां हैं,' बाबा ने घोषणा की।

‘तो मुझे जल्दी करनी चाहिए। अभी तक मेरी शादी नहीं हुई है और मैं अब जवान भी नहीं हूं,' विजय ने कहा।

शादी और सैक्स के लिए मर्द कभी बूढ़ा नहीं होता है,' बाबा ने विजय को भरोसा दिलाया, और आगे बोला, 'मुझे एक बड़ा सा दो मंज़िला मकान और बहुत-सी कारें दिखाई दे रही हैं।’

‘सुन कर अच्छा लगा। मैं एक कमरे के फ़्लैट में रहता हूं और मोटर साइकिल चलाता हूं, विजय ने झूठ बोला।

भिखारी ने हिम्मत नहीं हारी, 'पैसा है, बहुत पैसा है, नाम है, शोहरत है।

विजय ने फिर फटकार लगाई: ‘दोनों चीज़ें मिल जाएं तो बहुत अच्छा है। मेरा बैंक बैलेंस बहुत कम है और मेरे ब्लॉक और इस मार्केट से आगे कोई मुझे जानता नहीं है।’

‘जल्दी ही फ़ॉरेन भी जाना होगा,’ भिखारी बोलता रहा।

‘कब? अमेरिकन एंबैसी और ब्रिटिश हाई कमीशन दोनों वीज़ा के लिए मेरी दर्खास्त को रद्द कर चुके हैं। नाम, शोहरत, पैसा, विदेश यात्रा को छोड़ो। मेरी मौजूदा समस्या के बारे में भी कुछ बता सकते हो?’

‘जन्मदिन और जन्म की जगह?’ अपनी जेब से एक पेंसिल और छोटी-सी नोटबुक निकालते हुए ज्योतिषी बाबा ने पूछा। विजय ने दोनों चीजें बताईं। उसने कई आड़ी-तिरछी रेखाएं खींचीं। अपनी उंगलियों पर उसने कुछ गिना, और अपने बनाए चौखटों और त्रिभुजों में कुछ संख्याएं लिखीं। फिर उसने अपनी आंखें बंद कीं और घोषणा की, उसका नाम क से शुरू होता है।'

विजय आश्चर्यचकित रह गया। तुम्हें कैसे मालूम ?'

‘ये सब आप के ग्रहों में लिखा है। वो बेरुखी दिखाती है लेकिन असल में वो आपसे प्यार करती है। अब मैं आपको एक ऐसा जादुई फ़ार्मूला बताऊंगा जिससे वो आपके लिए बेक़रार हो जाएगी और आप उसके लिए। ' भिखारी ख़ामोश होकर अर्थपूर्ण ढंग से विजय को देखने लगा।

‘मैं तो पहले ही उसके लिए बेक़रार हूं,' विजय ने बेसब्री से कहा। ‘लेकिन आपको और भी बेक़रार होना पड़ेगा, फिर वो भी बिल्कुल बेशर्मी से आप के लिए सांसें भरेगी। मैं गारंटी देता हूं। इसके पचास रुपये लगेंगे। अगर मेरा फ़ार्मूला नाकाम हो गया, तो मैं अपनी जेब से और पचास रुपये डाल कर आपके पचास रुपये लौटा दूंगा। मैं आपको अपना कार्ड दूंगा, जिसमें मेरा नाम, पता सब है। अगर मेरा फ़ार्मूला फ़ेल हो जाए, तो आप मुझे डाक से कार्ड भेज देना, मैं आपका पैसा लौटाने ख़ुद आऊंगा। ' उसने एक गंदा सा विज़िटिंग कार्ड निकाला। कार्ड के ऊपर ॐ लिखा था और नीचे गणपति का चित्र था और उसका नाम: नाथा सिंह, विश्व-प्रसिद्ध ज्योतिष-ज्ञानी, ज्योतिषी, प्रेम संबंधों के स्पेशलिस्ट।

विजय ने ओखली में तो सिर दे ही दिया था, तो उसने सोचाः चलो, अब मूसल से क्या डरना। इस ने लड़की के नाम का पहला अक्षर तो सही बताया है। हो सकता है कुछ ऐसा कर ही दे कि वो ज़्यादा मेहरबान हो जाए।

‘ठीक है, ये लो पचास रुपये, लेकिन अगर फ़ार्मूले ने काम नहीं किया, तो मैं तुम्हारे पीछे पुलिस लगा दूंगा। ठीक है?’

‘ठीक है, जनाब, ठीक है। सौ बार ठीक है। मेरा फ़ार्मूला अचूक है।’ फिर वो आवाज़ घीमी करके कानाफूसी जैसे अंदाज में बोला, ‘आपको बस इतना करना है, जनाब, कि दो बाल तो आप अपनी झांट से तोड़ें और दो उसकी झांट से, उन्हें मिक्स करें, फिर एक जोड़ा ख़ुद निगल लें और दूसरा चाय के साथ पीने के लिए उसे दे दें। आप दोनों सुलगने लगेंगे। गारंटी से।’

विजय के मुंह से बोल नहीं फूट रहे थे। उसने बे-यक़ीनी के साथ शनि वाले को देखा।

‘आपको मेरे फ़ार्मूले पे शक है?’ भिखारी ने उसे चुनौती दी।

उसने अपनी लंगोट पर हाथ फेरा और दावा किया, ‘झांट की ताक़त को कम मत आंकना। ये काम शक्ति बढ़ाने वाली दुनिया की सबसे ताक़तवर दवा है।

विजय का ख़ून खौल गया लेकिन उसने अपने गुस्से को क़ाबू में रखा। वो एक और झगड़ा नहीं करना चाहता था। ‘ये कैसा फ़ार्मूला है?’ वो बोला। ‘मैं उसके गुप्तांग अपने सामने कैसे खुलवा सकता हू?

‘कोशिश करो तो खुलवा सकते हो,’ शनि वाले ने अपनी पीतल की प्लेट उठाते हुए कहा, और वहां से चल दिया।

अब विजय को अहसास हुआ कि उसे ये जानने के लिए साठ रुपये ख़र्च करने पड़े कि वो भी उतना भी बड़ा चूतिया है जितने वो लोग जो गणपति को दूध पिला रहे हैं। पास-पास खड़ी कारों के बीच से रास्ता बनाता हुआ वो-सीघे हकीम तारा चन्द के पास जा पहुंचा।

ऐसे ठगों से होशियार रहा कीजिए, लाल साहिब,' उसने हंसते हुए कहा। ‘वो सचमुच साधु नहीं है, बस एक आम ठग जो लोगों की कमज़ोरियों से फ़ायदा उठाता है।'

शायद हकीम तारा चन्द ने विजय को शनि वाले से बात करते और उसे पैसा देते देख लिया था। शर्म के मारे विजय के कान तक सुर्ख हो गए। उसे ऐसा लग रहा था जैसे वो सरे-बाज़ार नंगा हो गया हो। वो शर्म से ज़मीन में गड़ा जा रहा था।

विजय ने पिछले कुछ दिनों की घटनाओं के बारे में सोचा और बहुत उदास हो गया। उसने अपने मूड के बारे में अपनी डायरी में लिखा: ‘मुझे सारी दुनिया पे बेतहाशा गुस्सा आ रहा है’’ और आगे लिखा, 'मुझे ख़ुद पे बेतहाशा गुस्सा आ रहा है।’ ख़ान मार्केट अपनी रौनक खो चुकी थी, वो अगले कई दिन वहां जाने से बचता रहा। लेकिन करुणा से बदले लेने की भावना उस पे हावी हो गई। क्या वो जानती है कि उसने उसका क्या हाल कर दिया है?

एक हफ्ते बाद, एक शनिवार की शाम, वो करुणा के मिल जाने की उम्मीद के साथ फिर मार्केट में गया। वो करुणा के ख़ास ठिकानों-किताबों, फल-सब्ज़ी, क़साई की दुकानों पर-गया। वो कहीं नहीं मिली। आख़िर वो अपनी मैगज़ीनें लेने और दुकान की मालकिन से करुणा के बारे में पता करने बुक स्टोर पर पहुंचा। उसने बड़ी समझदारी से इस विषय को शुरू किया। ‘वो लेडी जिन्होंने आप से डरल की किताब ख़रीदी थी, क्या वो हाल में इधर आई हैं?’ ‘आप का मतलब करुणा चौधरी? हां, अभी एक दिन वो अपना हिसाब करने आई थीं। कह रही थीं कि उनके पति का किसी और शहर में ट्रांसफ़र हो गया है — कहां, ये नहीं बताया।’

विजय के मुंह से बोल नहीं फूटे। उसने अपनी मैगज़ीनें संभालीं और घर की तरफ़ चल दिया। उसे लग रहा था कि अब वो उसे कभी नहीं देख पाएगा। और चौधरी नाम से भी कोई सुराग़ नहीं मिल रहा था। चौधरी पूरे मुल्क में होते हैं,पंजाब, असम से लेकर दक्षिण भारत तक, और वो हिन्दू मुस्लिम, सिख, यहां तक कि ईसाई भी होते हैं। उसकी तलाश ऐसी ही साबित होती जिस तरह मजनूं ने लैला की तलाश में रेगिस्तान की ख़ाक छानी थी। और वो ख़ुद को ऐसा ही महसूस कर रहा था — बीमारे-इश्क़ — मजनूं। वो ख़ुद को एक बूढ़ा बेवकूफ़ महसूस करने लगा: वो चौवन साल का था। उसने ख़ुद को तसल्ली देने की कोशिश की — कि ये एक ऐसी लगावट थी जो वक़्त के साथ घुंघला जाएगी। जिंदंगी में और ड़कियां आएंगी। या नहीं आएंगी।

अभी उसके पीने का समय दूर था। लेकिन उस लड़की को भुलाने के लिए जो उसके हाथों से निकल चुकी थी उसने अपने लिए एक तगड़ा जाम बनाया और टीवी चला लिया। उसे उस के चक्कर में पड़ना ही नहीं चाहिए था। वो रिमोट के बटन दबाता रहा और एक के बाद एक चैनल बदलता रहा। लेकिन कोई भी चैनल उसे कुछ सैकंड से ज़्यादा पसंद नहीं आया। अचानक लाइट चली गई और पूरे अपार्टमेंट कॉम्प्लैक्स में अंधेरा फैल गया। सूरज डूब चुका था लेकिन शाम के घुंघलके में उसे शहतूत के पेड़ की छवि दिखाई दे रही थी, जिसके पत्ते गिरने शुरू हो चुके थे। अचानक फैले अंधेरे की वजह से उसकी शाखाओं पर बैठे घब्बेदार उल्लुओं ने अपना बेसुरा राग अलापना शुरू कर दिया, चिटिर-चिटिर- चैटर — चैटर।

अगली सुबह अपार्टमैंट कॉम्प्लैक्स के ज़्यादातर लोग देर तक सोते रहे। इतवार का दिन था। जब विजय लोघी गार्डन से टहल कर लौटा तो बाहर लॉन में सिर्फ दो औरतें थीं। उन्होंने देखा कि विजय ने अपनी एनी को उसकी पुरानी जगह, शहतूत के पेड़ के नीचे खड़ा किया है।

००००००००००००००००

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

ये पढ़ी हैं आपने?

Hindi Story: 'शतरंज के खिलाड़ी' — मुंशी प्रेमचंद की हिन्दी कहानी
आज का नीरो: राजेंद्र राजन की चार कविताएं
भारतीय उपक्रमी महिला — आरिफा जान | श्वेता यादव की रिपोर्ट | Indian Women Entrepreneur - Arifa Jan
Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
मैत्रेयी पुष्पा की कहानियाँ — 'पगला गई है भागवती!...'
Harvard, Columbia, Yale, Stanford, Tufts and other US university student & alumni STATEMENT ON POLICE BRUTALITY ON UNIVERSITY CAMPUSES
एक पेड़ की मौत: अलका सरावगी की हिंदी कहानी | 2025 पर्यावरण चेतना
तू तौ वहां रह्यौ ऐ, कहानी सुनाय सकै जामिआ की — अशोक चक्रधर | #जामिया
गिरिराज किशोर : स्मृतियां और अवदान — रवीन्द्र त्रिपाठी
ईदगाह: मुंशी प्रेमचंद की अमर कहानी | Idgah by Munshi Premchand for Eid 2025