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कवितायेँ - हेमा दीक्षित | Poems of Hema Dixit

कवितायेँ - हेमा दीक्षित

हेमा दीक्षित, विधिनय प्रकाशन, कानपुर द्वारा प्रकाशित द्विमासिक विधि पत्रिका 'विधिनय' की सहायक संपादिका हैं। कानपुर विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य एवं विधि में स्नातक हेमा का जन्मस्थान भी कानपुर है।  हिंदी व अंग्रेजी साहित्य लेखन में रूचि रखती हैं। हेमा की कवितायेँ हाल ही में कथादेश और ‘समकालीन सरोकार’ में प्रकाशित हुई हैं। पहली रचना ‘दिवास्वप्न’ कानपुर से निकलने वाली पत्रिका ‘अंजुरी’ में 1994 में प्रकाशित हुई इसके अलावा बोधि प्रकाशन द्वारा प्रकाशित संग्रह ‘स्त्री हो कर सवाल करती है’,  कानपुर से प्रकाशित ‘कनपुरियम’ एवं ‘अंजुरि’ पत्रिकाओं में कवितायें प्रकाशित।  ‘जनसंदेश टाइम्स’, ‘नव्या ई पत्रिका’, ‘खरी न्यूज ई पत्रिका’, अनुनाद, ‘पहली बार’, ‘आपका साथ-साथ फूलों का’, ‘नई-पुरानी हलचल’, ‘कुछ मेरी नज़र से’ एवं फर्गुदिया आदि ब्लॉगस पर कवितायें प्रकाशित।

शब्दांकन पर उनका स्वागत है।

फिर भी ...

अनगिनत आँखों के मध्य
poems of hema dixit चौराहे की ठिलिया पर
उस बड़े कढ़ाव में
रेत के गर्म चढाव में ...

भुनती हो
छीली जाती हो
मसली जाती हो  
खाई जाती हो
मसालों  के साथ
गरमागरम ...

हैरत है ...
फिर भी ...
जीवित रहती हो ...
बड़ी बेशर्म हो ...

इजाजतों की मोहताज़
इस दुनियाँ में
अब भी अपनी ही
गहरी साँसे भरती हो ...

स्त्री आखिर तुम
अपनी दिखाई गई
औकात के मर्सिये 'घर' से
कैसे बाहर निकलती हो ...

ज़हरीले मानपत्रों को
अपनी जिद्द के
पैरों में बाँधे
कैसे ज़िंदा रहती हो ...



कच्ची-पक्की बातें ... 

कि क्यों पीछे छूटे हुए
poems of hema dixit उस कमरे में ही
खो गए है
हर करवट पर
उसके घूमते हुए मौसम के
अनुकूल रखे हुए तुम्हारे हाथ ...

हर बार उसी कमरे की कसी हुई
नियति में मिलना ...
ऐसे और इस तरह मिलना
कि खिली हुई धूप सा खिलना ...
बादलों की ओट में वहीं से
किसी और छोर के लिए
ऐसे और इतना बिछड़ना ...
कि मिलना हो जाए
स्मृति की डिबिया के ऊपर बैठी एक छोटी बुंदकी भर ...
और बिछड़ना
जीवन के आसमान पर तना घना चौमास ...

कि क्यों ... आखिर क्यों ...
कुछ कमरों के ललाट पर मिलने से कहीं अधिक
विरह के मौसम लिखे होते है ...



स्मृति ...

कहते है कि ...
poems of hema dixit कल कभी आता ही नहीं
इसलिए कल आने वाले आज के
मुँहअँधेरों से पूछना है
कि तुमने भोर के तारे के पास से
कोई पुकार आते सुनी थी क्या
पूछे गए इस सुने-अनसुनेपन के
ठहरे हुए पलों की पीठिका से
चुपचाप ... कमरे की खिड़की से ...
सलाखों के पार
बीते हुए आज की
हथेली पर उतरता है
एक कौर भर आसमां ...

ऐसे ...
उतर आये
गहरे नीले आसमां के
डूबते हुए किसी छोर पर
कहीं कोई एक आँख है ... और ...
उसी आँख की दाहिनी कोर से
चतुर्भुज हो बैठी धरा पर
टपकती है न ... स्मृति ...
टप ... टप ... टप ...




कछुए की पीठ का रेखागणित ...

"हम सब मशीन है तुम भी मैं भी ..."
poems of hema dixit
और मशीनों का क्या होता है ...
शून्य ...
शून्य / शून्य = शून्य परिणति ...
कुछ भी नहीं ...
हाँ कुछ भी नहीं ...
कभी भी नही ...
कहीं भी नहीं ...

कि क्यों सारे दिनों की शुरुआत सर्द और मशीनी है ...
कि क्यों इनमें नहीं है पीले फूलों पर पड़ती हुई पीली धूप ...

कि क्यों इनमें नहीं है आँच ऊपर चढ़े चाय के पानी में
मनचीती आकृतियाँ उकेरती अधघुली वो भूरी रंगत ...

कि क्यों है यह एक ऐसा मौसम जिसके तीसों दिनों के अम्बर पर लिखा हुआ है उसके ना होने का वक्तव्य ...

कि क्यों ऐसे 'ना-अम्बर' की सुबह की खामोश ठहरी हुई
धुँध को छू कर खिड़की से
तिरछी रेखाओं में फिसल कर
कमरे में उतारते हुए
किन्ही मुलाकातों के नीचे
डूबे पड़े क्षण ,
अपनी डुबक के बुलबुलों में से
सर उठा कर बस एक साँस भरने भर में ही
कैसे तो कह ही डालते है ...
साथ और संगतियों का
मरे पड़े होना ...

कि क्यों कछुए की पीठ पर जनम से चिपकी उसकी पृथ्वी से जड़ होते है
अक्सर ही हमसे चिपके हुए संबंधों के विरसे ...

कि चुके हुए
मुर्दा संबंधों का
और-और जिन्दा होते जाना , हमारी पहचान में जुड़ते जाना ,
उनको ही हर पल ढोते हुए चलते चले जाना ...
जीवन के नरक होने की निर्मिति के सिवाय कुछ भी नहीं है ...

कि नरक भी एक अहसास है ...  अहसास भी निर्मिति है ... ???

अक्सर ही जीवन कछुए की पीठ का रेखा गणित है ...



बहिष्कृत ...

उस पल की मिट्टी
poems of hema dixit आज भी
मेरे जेहन में
उतनी ही और वैसी ही
ताज़ा और नम है
जैसे कि उस रोज
मेरी उँगलियों के
पोरों पर लिपट कर
उन्हें बेमतलब ही चूमते हुए थी
जब ...
मैंने तुम्हे बताया था कि
'मैं तुम्हारे प्रेम हूँ'
थामी हुई हथेलियों के
नीम बेहोश दबावों के मध्य
जाने कौन से और कैसे
हर्फ़ों में लिखा था तुमने
एक ऐसे
साथ का वचन पत्र
जिसकी दुनियाँ में
प्रेम की खारिज़ किस्मत
ताउम्र रोज़े पर थी ...

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