टूटे हुए मन की सिसकी
लेखिका: गीताश्री
विशेष आलेख | समीक्षा | स्त्री विमर्श
वरिष्ठ लेखिका उर्मिला शिरीष की कहानी 'एक स्त्री हलफनामा' बेहद संवेदनशील कहानी है, जो पाठक का कलेजा चाक कर देती है। एक स्त्री एक अनजान सखी को चिट्ठी लिख रही है। गुम हो चुकी चिट्ठियों की इस सदी में ऐसी कहानी चिट्ठियों में ही घटित हो रही है। चिट्ठियाँ वह जगह हैं, जहाँ हम मन खोलते हैं। अपना गोपन कह डालते हैं और अपनी व्यथा का सही-सही बयान कर पाते हैं। जो ज़ुबान नहीं कह पाती, वह कलम कह देती है। उँगलियाँ सच लिख देती हैं। इस कहानी में भी उँगलियाँ कटु सत्य लिख रही हैं। वह अनजान सखी कोई एक स्त्री नहीं, वह समूचे स्त्री समुदाय है, जिसके नाम यह ख़त लिखा गया है। स्त्री समुदाय के नाम से संबोधित यह पत्र समूचे समाज के रवैये पर चोट करता है और सवाल खड़े करता है। स्त्री–पुरुष के पारंपरिक संबंध अब बदल रहे हैं। लेकिन पिछली पीढ़ियों की स्त्रियों के साथ क्या हुआ, यह कहानी उसका खुलासा करती हुई इस सदी की स्त्री तक आती है।
कहानी में उस माँ का भी अव्यक्त दुःख है, जिसे वह किसी से ज़ाहिर न कर सकी। एक स्त्री, जो पहले बेटी है, फिर किसी की पत्नी बनती है। दो पीढ़ियों में भी स्त्री–पुरुष संबंधों का सच कितना बदला है। यह कहानी सारे सच को तार-तार कर देती है। ख़त लिखती हुई स्त्री कभी एक स्त्री बनती है तो कभी बेटी। जब बेटी बनती है तो इस तरह लिखती है—
अपनी उदासी को बाहर फ़िज़ाओं में उड़ा देने की चाहत में निकल जाना चाहती हूँ। एकान्त में, जहाँ कोई परिचित न हो… जहाँ कोई तपाक से यह न पूछे कि पति कहाँ हैं? बच्चे कहाँ हैं? क्या करती रहती हो दिनभर? लेकिन वहाँ भी चैन कहाँ… अकेली महिला को देखकर-तककर कई लोगों की आँखों में जिज्ञासा तथा लालच दिखाई देने लगता है… उनकी पीछा करती आँखें ‘कौन है…? किसकी पत्नी है? किसकी माँ है?’ फिर लगता इन सबसे भला तो अपनी माँ का घर है। वहीं चली जाऊँ। जानती हूँ मैं—अपनी दुनिया में, अपनी तन्हाई में… अपनी रसोई में… बैठी अपने पति की प्रतीक्षा कर रही होंगी या शेष समय पारिवारिक धारावाहिक देखते हुए गुज़ार देंगी… या सुबह-शाम अपने लम्बे-चौड़े बगीचे में पेड़-पौधों और गमलों में पानी देती… दिलाती सुरम्य दुनिया में रमी होंगी और हर वाक्य के आगे-पीछे एक ही शब्द बोलती जातीं… ‘तुम्हारे पापा को यह पसन्द है… वह पसन्द है… उनके फूलों को कोई छूना नहीं… बड़े शौक़ से लगाए हैं।’ आश्चर्य कि उनके मन में वर्षों से यही सब उठता रहा है! माँ की अपनी पसन्द… अपनी इच्छा… अपनी दुनिया… अपनी ज़िन्दगी तो जैसे है ही नहीं…। एक बार छोटी बहिन ने डाँट दिया था कि यह क्या माँ, पापा… पापा… रटती रहती हो… तो जानती हो सखी, पूरे हफ़्ते बात नहीं की थी… और उस दिन तो खाना तक नहीं खाया था…। सोचती हूँ… क्या कभी माँ के भीतर विद्रोह नहीं जागा होगा… कभी घृणा नहीं उपजी होगी… कभी नाराज़गी नहीं उठती होगी… क्या मान-अपमान का बोध नहीं हुआ होगा… बाल रंगेगी तो ‘उनके लिए’, दाँत लगवाएगी तो ‘उनके कारण’…। मैंने अपने जीवन में एक बार माँ को तड़पते देखा था, जब उन्होंने रोते हुए कहा था—‘अब हमसे क्या मतलब! बच्चे हो गए। बच्चों को बड़ा करवा लिया। जब ज़रूरत नहीं है, तो… तो…!’
मैं सन्न रह गई थी। माँ के उन दो वाक्यों ने उनके संबंधों का… उनके मान-अपमान का… उनकी देह और आत्मा का… रहस्य खोल दिया था।
चुप्पी स्त्री एक रहस्य ही होती है। दुःख के साथ जन्मती है और दुःखी ही मर जाती है। वह पीढ़ी ऐसी थी कि सब कुछ सहती थी। विद्रोह की हवा उसे नहीं लगी थी। घुटन ही उनका प्रारब्ध था। ऐसे माहौल में कुछ स्त्रियाँ सिमोन द बोउआ की स्त्री की तरह बड़बड़ाती हुई मिलती थीं।
सिमोन ने जब “वुमन डज़्ट वर्ड” लिखा था, उसमें इसी तरह एक बड़बड़ाने वाली औरत थी। उसमें बताया गया था कि यह बड़बड़ाना विद्रोह का पहला चरण है। यह भाषा, औरत का यह बोलना, जब लिखने में आता है तो वह भी उस विद्रोह की अगली कड़ी होती है। वे अपनी खुद की, अपने आसपास की बात करती हैं। वे सामाजिक रूप से अधिक जुड़ी हुई होती हैं। वे असंगठित रूप से जुड़ी होती हैं। वे चीज़ों को जितने बेहतर तरीक़े से ऑब्ज़र्व करती हैं, वह हम लोग नहीं कर पाते।
उर्मिला जी की कहानी में एक बेटी अपनी माँ की तकलीफ़ों को गहराई से देखती और समझती है। भले उनकी माँ ने कभी विद्रोह न किया हो और जीवन भर निर्वाह करने की कोशिश करती रही हों। एक समय ऐसा आता है जब स्त्रियाँ अपने ही परिवार में बहुत पीछे छूट जाती हैं या हाशिये पर चली जाती हैं। किसी को कारण समझ में नहीं आता, क्योंकि चुप लगा जाती हैं स्त्रियाँ। किसी दिन बेटी के सामने खुलती हैं और तब उसके समूचे जीवन का सच, उसके संबंधों का सच उजागर होता है। जब तक स्त्री चुप है, बहुत से रहस्य दबे हुए रहेंगे। जिस दिन मुँह खोलना शुरू कर देगी, परिवार और समाज बेनक़ाब हो जाएगा।
इस पत्र के ज़रिये एक बेटी अपनी और अपनी माँ के जीवन की अँधेरी परतों को उजागर करती चलती है। कहानीकार ने सारे छिलके उतार कर रख दिए हैं, जिसमें सारी स्त्रियाँ अपनी तकलीफ़ों की शिनाख़्त कर सकती हैं, अपना चेहरा देख सकती हैं। चेख़व की एक पंक्ति है—“हर व्यक्ति की आत्मा में एक अँधेरा है। लेखक उसी अँधेरे को उजाले में लाने की कोशिश करता है, संवेदनशीलता के साथ। यह चुनौती है—अनदेखे, अनछुए, अनजान कोनों को सामने लाना। हम जो जीवन जीते हैं, उसमें कई जीवन ऐसे दबे रह जाते हैं, जिन्हें हम बाहर नहीं ला पाते।”
कहानीकार एक बेटी के ख़त के माध्यम से उसी अँधेरे को एक्सपोज़ करने की कोशिश कर रही है। और जो ज़िन्दगी दबी रह गई, उसे बाहर लाने का काम कर रही है। मैंने शुरू में ही कहा था कि यह एक संवेदनशील कहानी है। जो भी मुद्दे उठाए गए हैं, वे बहुत संवेदनशीलता के साथ उठाए गए हैं। उनमें बेचारगी है, छटपटाहट है, बाहर निकलने की आकुलता है और मुठभेड़ की इच्छा है। पुरानी पीढ़ी की तरह घुट कर मर जाने की क़तई इच्छा नहीं है। नायिका अपने जीवन के अँधेरों से लड़ती-भिड़ती दिखाई देती है। कथा में इसी कोशिश को निर्मल वर्मा ने आत्मा की ब्लू फ़िल्म कहा है। सच कहें तो यह कहानी एक स्त्री की आत्मा की ब्लू फ़िल्म है, जिसमें वह अपने को पूरी तरह खोल कर समाज के सामने रख देना चाहती है। वह चाहती तो यह चिट्ठी किसी पुरुष के नाम या पाठकों के नाम भी लिख सकती थी। उसने ऐसा नहीं किया, बल्कि एक अनजान सखी के नाम लिखा। यहाँ उस सखी की जगह पाठक खुद को रख कर देखे—विचलित हो जाएगा।
इन दिनों वैसे भी विवाह संस्था कटघरे में है। स्त्री–पुरुष संबंध शक के घेरे में हैं। युवा पीढ़ी विवाह से बचना चाहती है। प्रेम में भी कई शक-शुबहा हैं। नए सिरे से संबंधों की परिभाषाएँ गढ़ी जा रही हैं। विवाह से बात लिव-इन पर आई और अब “लिव-इन” से बात “सिचुएशनशिप” तक पहुँच गई है। नई पीढ़ी को अब यही रिश्ता भाने लगा है, जिसमें कोई कमिटमेंट न हो—एक तरह का खुला रिश्ता।
कहानीकार अपनी कहानी में एक जगह चिंता जताती हुई लिखती हैं—
“आए दिन पति–पत्नी के संबंधों की धज्जियाँ उड़ाती ख़बरों ने विवाह को एक संस्था के रूप में स्थापित करने का बीड़ा उठा लिया था। अविवाहित लड़कियों की संख्या बढ़ती जा रही है… साथ-साथ रहने का क्रेज़ और आपसी संबंधों में आया अलगाव। कल ही तो डॉ. सोनी कह रहे थे—भाभी, आजकल सब कुछ बदल गया है… यहाँ तक कि पति–पत्नी के रिश्ते भी। लड़कियाँ इतनी हिसाबी-किताबी और चतुर हो गई हैं कि वे पहले अपना सोचती हैं! लड़के भी कम नहीं हैं… पर लड़कियाँ उनसे ज़्यादा तेज़ हैं। पहले जैसा कुछ नहीं रहा। यानी एक आज्ञाकारी पत्नी का व्यक्तित्व खंडित हो चुका है। नई परिभाषाएँ गढ़ी जा रही हैं।”
इस हिस्से में स्त्री सिर्फ़ लड़कों पर नहीं, लड़कियों पर भी उँगली उठा रही है। हाल के दिनों में जैसी घटनाएँ सामने आई हैं, स्त्री का हिंसक और क़ातिल रूप सामने आया है, उससे कहानी का यह अंश जुड़ता है। कहानी उसी तरफ़ संकेत कर रही है। लड़कियाँ अब तक विक्टिम थीं, अब वे इस ख़ौफ़ से बाहर निकल चुकी हैं और वे संहार पर उतारू हैं। हत्या क़तई जायज़ नहीं है, लेकिन लड़कियों पर सवाल उठाने वाला समाज कभी पुरुषों को लेकर इतना शोर क्यों नहीं मचाता। क्योंकि समाज के लिए ये नई, चकित करने वाली घटनाएँ हैं। उन्होंने कभी कल्पना नहीं की थी कि लड़कियाँ पलटवार करेंगी, कभी वे भी हत्यारी हो जाएँगी। अब तक जो मारी जा रही थीं, जलाई जा रही थीं, छोड़ी जा रही थीं, वे अब हत्या करने और करवाने लगेंगी। वे पुरुषों को छोड़ कर भाग जाएँगी। वे वैवाहिक जीवन जीने के बाद भी किसी मनपसंद साथी के साथ भाग जाएँगी या उनका वरण करेंगी। विवाह बंधन में घुटने के बजाय वे स्वतंत्र होने के फ़ैसले लेने लगेंगी। यह नया चलन है और समूचा समाज इस पर भौंचक्का है। इससे डील करने का तरीक़ा समझ नहीं आ रहा। इन दिनों यही चर्चा है कि आख़िर लड़कियाँ मार क्यों रही हैं। कुछ घटनाओं के आधार पर नया नैरेटिव गढ़ा जा रहा है और लड़कियों को घेरा जा रहा है। उनके ख़िलाफ़ माहौल तैयार किया जा रहा है। इससे लड़कियों की आज़ादी ख़तरे में पड़ सकती है। यह विचारणीय प्रश्न है—समाज, परिवार और लड़कियों सबके लिए।
कहानी में स्त्री अपनी अनजान सखी से पूछती है—
“सखी, तुम तो मेरे अंतर्तम का हाल जानती हो। जान चुकी हो। तो मुझे बताओ कि इस संबंध का… इस रिश्ते का… इस साथ का… क्या नाम है? क्या रंग है… क्या रूप है और क्यों… यह टूटकर भी नहीं टूटता? क्यों? यह कौन-सा तार है, जो टूटा-टूटा होकर भी अलग नहीं हो पाता है? पर अब तोड़ना ज़रूरी है, वरना मैं मर जाऊँगी।”
यह जो नई स्त्री है, वह अपनी पसंद का साथी खोज चुकी है और वह विवाह से अलग हट कर नए रिश्ते में जाना चाहती है। नई स्त्री संबंधों के मक़बरे में जीना नहीं चाहती। अगर वहाँ से नहीं गई, तो घुट कर मर जाएगी। जैसे अब तक होता आया है—स्त्रियों के नसीब में घुटन ही लिखी होती है। यह लड़की अपने जीवन को रेगिस्तान बनने से बचाना चाहती है। परिवार के जाल में उलझी ज़िंदगियाँ जल्दी बाहर निकलने का फ़ैसला नहीं कर पातीं। स्त्री के लिए यह बहुत आसान नहीं होता। अब्राहम लिंकन का कथन याद आता है—“विवाह न तो स्वर्ग है, न नर्क, वह तो बस एक यातना है।”
यह कहानी वैवाहिक संबंधों की इसी जटिलता को खोलती है। अपने कहन में यह कहानी ओरियाना फ़लासी के उस विचार को आगे बढ़ाती है, जिसमें वे मानती हैं कि प्यार और विवाह स्त्री के अधिकार को, खुद को, आत्मसम्मान को और अंततः अपनी स्वतंत्रता को भूलने जैसा है।
आज की स्त्री अपनी स्वतंत्रता पर इतनी ऊँची दीवार स्वीकार करने को तैयार नहीं है। इसलिए परिवार और समाज को नए सिरे से इस पर सोचना चाहिए। इन सब मुद्दों पर भावुक तरीक़े से चिट्ठीनुमा कहानी पाठकों को सवालों से भर देती है। झकझोरती चलती है। मन होता है किसी से शेर उधार लेकर कहूँ—
तुम जिनके अफ़साने पढ़ कर रो देते हो, ज़रा सोचो तो उन किरदारों पर क्या गुज़री होगी
यह अफ़साना नहीं, सच में एक स्त्री का हलफनामा है।
गीताश्री का यह विशेष आलेख उर्मिला शिरीष की कहानी ‘एक स्त्री हलफनामा’ पर आधारित है।
यह समीक्षा किसी कहानी का पाठ-विश्लेषण भर नहीं, बल्कि उस स्त्री अनुभव को पढ़ने की कोशिश है जो पीढ़ियों से मौन रहा है। गीताश्री की दृष्टि उर्मिला शिरीष की कथा को समकालीन समाज, रिश्तों और सत्ता-संरचनाओं के संदर्भ में रखती है— और पाठक को असहज करते हुए सवालों के सामने खड़ा कर देती है।
जब स्त्री चुप रहती है, समाज सुरक्षित लगता है। जिस दिन वह बोलती है, व्यवस्था असहज हो जाती है— यह पाठ उसी असहजता का साक्ष्य है।
— भरत तिवारी
संपादक, शब्दांकन



1 टिप्पणियाँ
एक स्त्री हलफनामा पढ़ मन में कई तरीके के लहरें लगातार हिलोरे मार रही है.. पता नहीं कितनी देर तक इस कहानी के बारे में सोचता रहूंगा.. बधाई
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