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एक स्त्री हलफनामा | उर्मिला शिरीष | हिन्दी कहानी

एक स्त्री हलफनामा

लेखिका: उर्मिला शिरीष

समकालीन हिन्दी कथा | स्त्री विमर्श | दाम्पत्य | अकेलापन | आत्मसंवाद


एक स्त्री हलफनामा हिन्दी कहानी – दाम्पत्य और स्त्री अकेलेपन पर आधारित संवेदनशील कथा

कहानी का प्रवेश

‘एक स्त्री हलफनामा’ आधुनिक हिन्दी साहित्य की उन विरल कहानियों में है, जो स्त्री के भीतर चल रही अदृश्य लेकिन तीव्र आंतरिक लड़ाइयों को पूरी ईमानदारी और संवेदना के साथ शब्द देती है। यह कथा प्रेम, दाम्पत्य, अकेलेपन और स्त्री-अस्तित्व के उन प्रश्नों को उठाती है जिन पर अक्सर समाज मौन साध लेता है।


कहानी

सच और सम्बन्ध!
सम्बन्ध और सच!
इन दोनों का चोली-दामन का सम्बन्ध है। स्त्री और पुरुष! पुरुष और स्त्री—इन दोनों का सम्बन्ध भी सुख और दुःख की तरह है, माया और मोह की तरह है।

दिन और रात की तरह है। रात और दिन की तरह है। वह जैसे अंगारों पर चलकर आई हो—तपती, झुलसती, बेचैन। किससे कहे! किसको सुनाए? किसको हमराज बनाए?

उसने कलम उठाई और लिखने बैठ गई।

ओ मेरी प्रिय अनाम सखी,


इस कहानी पर गीताश्री की विस्तृत और विचारोत्तेजक समीक्षा ‘टूटे हुए मन की सिसकी’ यहाँ पढ़ी जा सकती है।

अनाम सखी! आश्चर्य कि इतनी बड़ी दुनिया में, सौ करोड़ से ज्यादा आबादी वाले इस देश में, अपना कहा जाए जिसे... ऐसा कोई नहीं है जिसका नाम लेकर, जिस पर विश्वास करके जिसके सामने मन की एक-एक परत उतार कर अपनी तमाम अच्छाइयों, बुराइयों, कमजोरियों, चालबाजियों और मासूमियतों का अन्तरंग संसार उजागर किया जा सके। कभी-कभी लगता है कि शून्य होकर... खुद को मिटाकर देखा जाए... छोड़ दिया जाए ढीला... निर्बन्ध मन को क्योंकि रिश्तों के मायाजाल में मन ऐसा फड़फड़ाता है... ऐसा तड़पता है... कि न निकलने का रास्ता दिखाई देता है न भटकने की बेखुदी! सखी, वर्षों से दबे, छुपे, शब्द अब बाहर निकलना चाहते हैं... शब्द उड़ना चाहते हैं, अनन्त में... प्यारे से सम्बोधनों में बैठ जाना चाहते हैं। जैसे प्यारी सखी... ओ मेरी प्यारी रागिनी, ओ प्रियवर और उसके लिए जिसे समाज पति कहता है, उसके लिए जिसे समाज प्रेमी कहता है... उसके लिए कैसे-कैसे सम्बोधन लबों पर प्रतीक्षा करते रहे... मेरे प्राणप्रिय। मेरे प्रियतम। मेरी जान। मेरे प्राण। मेरे सर्वस्व। मेरी आत्मा। मेरी प्यास। मेरी जीवनधारा। मेरे सर्वस्व। मेरे सर्वात्म। होंठ सिले रहे... आँखें भेद छुपाती रहीं। लगता था... लगता था, भय लगता था... सखी कि बाद में चिढ़ायेंगे, इमोशनली ब्लैकमेल करेंगे... कहेंगे तुम तो एक कमजोर-सी स्त्री हो...। मेरे पीछे भागने वाली। मेरे गले पड़ी रहती हो। चलो जाने दो। अपने मन में छद्म शब्द लिए... न ठीक से जीती हो या जीने देती हो... यह भी कोई तरीका है प्यार करने का... और अब... इस उम्र में। बुढ़ापे में। पैंतालीस साल के बाद सब खत्म हो जाता है। वानप्रस्थ की अवस्था है यह तो! बुढ़ापा आ गया... देखो कैसी हो रही हो, ढीली-ढाली... सुस्त...! आगे के विशेषण सुनाए जाएँ इससे पहले ही अपना मुँह बंद करना ठीक लगता है इसलिए सखी, जो प्यारी सी, मधुर बातें या सम्बोधन... एकमात्र जीवन के प्राप्य यानी पति के प्रति उठते हैं वह उनके सामने नहीं कह सकती। झिझक होती है। शर्म लगती है। मन को मारते-मारते थक गई पर मन है कि मरता नहीं, जी उठता है बार-बार! इस दुनिया में, इस प्रकृति में, इस ब्रह्माण्ड में कोई न कोई तो होगा ही जो मेरी इस अनाम, अव्यक्त, अनकही कहानी को सुन सकेगा। इसलिए सखी, तुम मेरे लिए सारे रिश्तों से परे हो... सारे रंगों से अलग हो... सारे रूपों और आकारों से भिन्न! तुम न अतीत हो... न वर्तमान... न भविष्य... समय के पार... हो। तुम्हारे रूप की कल्पना करती हूँ तो... खुद ही भ्रम में पड़ जाती हूँ.... लेकिन जो भी हो तुम मुझे अपनी-सी लगती हो। मन के भीतर बैठी-सी... सपनों में आती-सी, फूलों पर उड़ती तितली-सी, आकाश में चमकते नक्षत्र-सी, इसलिए तुम मेरी बात समझ सकोगी... महसूस कर सकोगी.... ऐसा मेरा विश्वास है। जो मन कभी किसी के सामने कुछ न कह पाया वह तुम्हारे सामने खुलने जा रहा है। जीवन की तमाम अनकही बातें आज तुमसे कहने जा रही हूँ।

तो सुनो सखी, इन दिनों मेरा मन उदास है... तन्हा है... घबराया हुआ भी है। मेघों की तरह बरस जाना चाहता है.. असंख्य बादलियाँ उमड़ती-घुमड़ती रहती हैं। आँखें बात-बात पर छलक आती हैं। मन से इतनी कमजोर हो गयी हूँ कि किसी की विदाई नहीं देखी जाती...। लम्बी-लम्बी आहें आप्त संतप्त वाक्यांश... मुँह से बेसाख्ता निकलते रहते हैं ‘ओ माँ’ ‘ओ भगवान!’ ‘हे ईश्वर’। कभी सीने की बायीं तरफ दर्द की लहर उठती है जैसे कई लहरें अन्दर के ऊतकों को धक्का मार रही हों। फिर कभी लगता पूरी देह आग की लपटों में घिर गई हों... तीखी अग्नि-रेखाएँ जिनमें तन और मन दोनों ही जल रहे हों। तो कभी माथे की नसें फड़कने लगती हैं, तो कभी एड़ी मोच जाती है, तो कभी पाँव लचक जाता है। कभी-कभी लगता है रात में उठकर बाहर चली जाऊँ.... दूर सुनसान सड़कों पर, पहाड़ियों पर... नदी के किनारे... झील के बीचों-बीच नौका में। चाँदनी में नहाये किसी पेड़ के नीचे... या खामोश नक्षत्रों से भरे आसमान के नीचे पड़ी रहूँ... पलकें बंद करके... होंठ खोल..। ऐसे में, अक्सर ही वो दृश्य याद आते हैं। दोनों ही दृश्य या छोटी-सी घटनाएँ सोलहवें वर्ष में घटित हुई थीं—

पहली, मेरे रिश्ते की दीदी का अपनी नन्ही-सी बच्ची का होंठों पर लिया गया वो दूधिया कोमल चुम्बन... और

दूसरा... मेरी दोस्त की बड़ी बहिन का वो गहरा लम्बा... आवेश में भरा चुम्बन.... फिर उनका मुस्कराना और ब्लाउज के नीचे से चिट्ठी निकालकर बताना--देख, तेरे जीजा आ रहे हैं! जीजा के आने की ऐसी अथाह खुशी! ऐसा उन्माद! ऐसी उत्फुल्लता! इतने वर्षों बाद भी उनका वो नमकीन चुम्बन अपना स्वाद, अपना स्पर्श... अपनी तपिश... मेरे भीतर जगा देता है? क्यों सखी! क्यों वो स्पर्श याद है... क्यों वो तपिश याद है।

मन कसमसाकर रह जाता हैं। कई बार मन किया कि किसी से पूछें... मगर किससे! अपनी उदासी को बाहर फ़िज़ाओं में उड़ा देने की चाहत में निकल जाना चाहती हूँ। एकान्त में, जहाँ कोई परिचित न हो.... जहाँ कोई तपाक से यह न पूछे कि पति कहाँ हैं? बच्चे कहाँ है? क्या करती रहती हो दिनभर? लेकिन वहाँ भी चैन कहाँ... अकेली महिला को देखकर-तककर कई लोगों की आँखों में जिज्ञासा तथा लालच दिखाई देने लगता है... उनकी पीछा करती आँखें ‘कौन है...? किसकी पत्नी है? किसकी माँ है?‘ फिर लगता इन सबसे भला तो अपनी माँ का घर है। वहीं चली जाऊँ। जानती हूँ मैं - अपनी दुनिया में, अपनी तन्हाई में... अपनी रसोई में... बैठी अपने पति की प्रतीक्षा कर रही होंगी या शेष समय पारिवारिक धारावाहिक देखते हुए गुजार देंगी... या सुबह-शाम अपने लम्बे-चौड़े बगीचे में पेड़-पौधों और गमलों में पानी देती, दिलाती सुरम्य दुनिया में रमीं होंगी और हर वाक्य के आगे-पीछे एक ही शब्द बोलती जाती ‘तुम्हारे पापा की यह पसन्द है’ ‘वो पसन्द है’, ‘उनके फूलों को कोई छूना नहीं बड़े शौक से लगाये हैं’। आश्चर्य कि उनके मन में वर्षों से यहीं सब उठता रहा है। माँ की अपनी पसन्द अपनी इच्छा अपनी दुनिया... अपनी जिन्दगी तो जैसे है ही नहीं...। एक बार छोटी बहिन ने डाँट दिया था कि यह क्या माँ, पापा... पापा... रटती रहती हो... तो जानती हो सखी, पूरे हफ्ते बात नहीं की थी और उस दिन तो खाना तक नहीं खाया था… सोचती हूँ - क्या कभी माँ के भीतर विद्रोह नहीं जागा होगा... कभी घृणा नहीं उपजी होगी... कभी नाराजगी नहीं उठती होगी... क्या मान-अपमान का बोध नहीं हुआ होगा। बाल रंगेगी तो ‘उनके लिए‘, दाँत लगवायेगी तो ‘उनके कारण’। मैंने अपने जीवन में एक बार माँ को तड़पते देखा था। जब उन्होंने रोते हुए कहा था-- ‘अब हमसे क्या मतलब! बच्चे हो गये। बच्चों को बड़ा करवा लिया। जब जरूरत नहीं है, तो... तो...!‘ मैं सन्न रह गयी थी। माँ के उन दो वाक्यों ने उनके सम्बन्धों का... उनके मान अपमान का... उनकी देह और आत्मा का... रहस्य खोल दिया था। फिर भी माँ उतनी ही तत्परता से समर्पण और दैवीय भाव से उनका पक्ष लेकर उनकी यानी ‘हमारे पापा‘ की बातें सुनाने लगती। बच्चे विरोध करते हैं, करें। नाराज रहते हैं, रहें। वे यानी माँ पचपन साल का साथ, पिता से कैसे छोड़ दें! कितनी मुसीबतें एक साथ उठायीं, बच्चों को बड़ा किया। बाहर आये। कितनी बार मरते-मरते बचाया। रात-रात भर जागते रहते थे। हमारे पाँव दबाते थे, तलवे सहलाते थे... कभी अकेला नहीं छोड़ा। नहीं तो छोड़ देते गाँव में। पड़े रहते। अब जब सब कुछ हो गया तो उनका साथ छोड़ दें। दुनिया क्या कहेगी कि बच्चों के कारण पति को छोड़ दिया। फिर वे दुनिया को तजकर स्वयं पर आ जाती। सम्पूर्ण सृष्टि में पति-पत्नी के सम्बन्धों की सार्थकता के बारे में समझाती कि बिना आदमी के औरत का जीवन अधूरा होता है। उसी से तो सब कुछ होता है। वह है तो खाने-पीने में मन लगता है। घर में रौनक आती है वरना कौन अपने लिए बनाये-खाये। पूरा जीवन निकल गया। हमें नहीं चाहिए, किसी के ऐशोआराम. ... हम तो उनके साथ रूखी-सूखी रोटी खाकर खुश रह लेंगे।‘

सखी, मैं निरुपाय-सी रह जाती। माँ के इस सुख की महानता, व्यापकता, विराटता, गहनता और सुन्दरता में डुबकी लगाकर उसको अनुभूत कर मैं चुप रह जाती। क्या-क्या कहने आई थी और क्या सुन रही हूँ...। वे पलटकर पूछती, तुम अकेली क्यों आई हो! 'अमर कहाँ हैं? अमर के सफेद बालों में डाई लगायी या नहीं। उनके पाँव फट रहे हैं... गरम पानी में नमक डालकर साफ कर दिया करो..। सुबह जल्दी उठाकर दौड़ने भेज दिया करो। अमर की सेहत का ध्यान रखना तुम्हारी पहली जिम्मेदारी है। घर का आदमी जब तक स्वस्थ नहीं रहता तब तक घर का माहौल भी ठीक नहीं रहता...। तुम ध्यान दिया करो। देखो, सब साथ छोड़ देते हैं यहाँ तक कि बच्चे भी। पति-पत्नी का साथ रहता है। वही दुःख-सुख में साथ देता है इसलिए छोटी-मोटी बातों को मन पर नहीं लेना चाहिए... जीवन में यह सब तो चलता ही रहता है...। माँ की बातों में इतना जोर रहता कि मैं जो कहना चाहती थी वह भूल ही जाती... कैसे कहूँ माँ से कि ‘माँ, अमर को मेरी उतनी जरूरत नहीं है। वे अपना ख्याल रख लेते हैं और सुबह की कम मीठी चाय और ज़्यादा पत्ती डालने की बात कहकर पचासों बार चाय का मग फेंक चुके हैं। उन्हें लगता है कि उनके साथ ज़्यादती कर रही हूँ। छोटी-मोटी बातों पर ध्यान नहीं देना चाहिए, क्या हुआ बोल दिया तो?‘ बड़ी बातें कौन-सी हैं जो माँ को असहनीय लगती हों। माँ तो रूढ़िवादी हैं... पतिभक्त हैं... पति प्रेमी हैं... उनका अपना कोई अस्तित्व नहीं है, सोच नहीं है इसलिए उनसे बात करना बेकार है... ऐसा सोचते हुए बाहर निकलती तो पापा सामने पड़ जाते, ‘और क्या चल रहा है बेटा... अमर का बी.पी. कैसा है? क्यों, उबली सब्जियाँ नहीं खिलाती हो। तेल-घी घर में लाना बंद कर दो। जूस-सूप दिया करो। रात में देर तक क्यों जागते हैं? तुमने घर का अनुशासन बिगाड़ रखा है। बेटा, जीवन में परिवार का महत्त्व सबसे बढ़कर होता है और अमर तो बहुत समझदार है... सबको लेकर चलते हैं...।‘ लो... मैं फिर निरुत्तर! फिर चुप! फिर पराभूत! फिर पराश्रित! अपने शब्दों को मुँह में डाढ़ के नीचे सुपारी की तरह दबाये बाहर आ जाती।

मेरी सखी, बिना अमर के मेरे ही घर में मेरा अस्तित्व नहीं रह जाता। कभी सोचो कि कोई बात, कोई तकलीफ, कोई दर्द अमर को नहीं बताना है तो वह भी बता देंगे कि सरिता ने मना कर दिया था बताने के लिए। लो हो गया कबाड़ा। बहस का एक नया मुद्दा पकड़ा दिया जाता। नई बातें। नये विषय... इन सबसे छूटकर गहरी साँस लेकर बाहर भागती कि चलो भाई के पास बैठा जाए। बचपन की यादों को ताजा किया जाए। वे पढ़े-लिखे आधुनिक विचारों के हैं। मेरे मन को समझते हैं। भईया भाभी जैसे राम और सीता की जोड़ी। राम ने तो सीता को निर्वासित कर दिया था... लेकिन मेरे भइया... बेचारी वर्षा... बेचारी वर्षा... इसके आगे एक शब्द नहीं बोलते... और आगे सुनो सखी, भईया को नहीं पसन्द है लड़कियों का अविवाहित रहना.... नहीं पसन्द है देर से शादी करना, नहीं पसन्द है पति से अलग रहना। अलग सोचना।

लेकिन मैं क्या करूँ? रात-दिन तनाव झेलती मैं किससे कहूँ अपने मन की बात। मन की ये पीड़ाएँ... ये शिकायतें...। सभी जगह एक दीवार खड़ी नजर आती है... कहीं अपनों के द्वारा बनायी गयी और कहीं परायों के द्वारा? काश, मैं उन कंधों पर सिर रखकर रो पाती!

‘अमर ने पीना छोड़ दिया... क्यों पीने देती हो...?‘

‘मैं पिलाती हूँ क्या? घर में रोकूँगी तो बाहर जाकर पियेंगे। किसी की आदतें बदली जा सकती हैं?‘ मैं तीखे स्वर में बोलती।

‘मना करो! कण्ट्रोल करो। देखो, कितना वेट बढ़ गया है। तुम पता नहीं कैसी पत्नी हो। यार, जरा सख्ती से पेश आया करो। एक-दो बार नहीं मानेंगे... लगातार कोशिश करोगी तो मान जाएँगे।‘

‘मैं क्या करूँ? माने तब न।‘ मैं इसी बात का छोर पकड़कर अपनी बात रखने की कोशिश करती।

‘क्यों नहीं मानेंगे?‘ पर भइया अपनी बात पर अडिग। अब कौन समझाये भइया को कि शराब के कारण कितनी रातों को आँसुओं से धोया होगा... कितनी रात लड़ते-लड़ते, उल्टियाँ साफ करते और अनर्गल प्रलाप सुनते हुए काटी होंगी... और सखी, उन्हें क्या बताएँ कि कितनी बार मेरा हाथ उठते-उठते रह गया होगा... और कितनी आहें-साहें निकली होंगी लेकिन यह भी क्या तमाशा कि उन्हीं अमर को यदि बच्चे... परिवार वाले.. दोस्त या रिश्तेदार कुछ कह देते तो मारे अपमान और क्षोभ के मेरा हृदय फट जाता। यहाँ तक कि अपने सर्गों से भी अमर के बारे में एक अपशब्द न सुन पाती।

‘आप भी कैसी हो बाई?‘ मेरी हालत देखकर बाई कहती।

‘क्यों! क्या हो गया?‘

‘साहब को वश में नहीं कर पाती।‘ वह किसी तांत्रिक की तरह कहती।

‘तुम रख पाई अपने पति को अपने वश में।‘ मैं गुस्से से उल्टा पूछ बैठती।

‘तो... कोठे पर पड़ा रहता था... वहाँ से छुड़ाकर लाई थी। पहली बीबी का आना-जाना लगा रहता था। कितनी लड़ाई की मैंने... और आज भी....।

‘क्या किया था?‘ मेरे मन में उत्सुकता जाग उठती।

‘गुरुवार को मेरे साथ चलना। एक धोबी है। भभूत देता है, चाय में मिलाकर पिला देना और काले उड़द के दाने सिरहाने रख देना बाँधकर। वशीकरण से तो अच्छे-अच्छे आदमी काबू में आ जाते हैं...। आपको विश्वास नहीं... एक बार आजमा कर तो देखो... एक बार आदमी हाथ से निकल गया तो...।‘ वह मुझे डराती हुई कहती।

‘तो...।‘

‘तो क्या... वर्मा की बीबी की तरह रोती रह जाओगी। सिर पटक-पटक कर रोती है। जवान लड़की ने फाँस लिया है साब को। न छोड़ रही है न उन्हें जीने दे रही है...।‘ मैं बाई का चेहरा देखती रह जाती जिसने अपने दूसरे आदमी को अपने वश में कर लिया है और जो चाहे सो हो जाए वह हर बार एक प्लासी का युद्ध लड़ने के लिए तैयार हो जाती।

‘उन्हें नहीं दिखता क्या कि मैं कैसे चौबीस घंटे मरती हूँ। अपने लिए क्या करती हूँ? न रात देखा न दिन... पूरा जीवन यहीं तो खपा दिया और अब... अब अपमान सहन नहीं होता। मैं यह सब नहीं करने वाली। आत्मा और मन का सम्बन्ध नहीं है, तो यह सारे आडम्बर है... जिनसे मुझे नफरत है। हमारे घर में कभी ऐसा नहीं हुआ कि पति-पत्नी अलग हों... उनमें दूरी हो, दुराव-छुपाव हो।‘

‘ये सब रहने दो बाई। आदमी हाथ में होता है तो सारी दुनिया हाथ में होती है।‘ बाई ने मेरी मूर्खता, अवशता और बेवकूफी पर कटाक्ष करते हुए कहा। क्या एक स्त्री के जीवन का यही सबसे बड़ा चैलेंज होता है-- एक आदमी को जीतना, उस पर अभिमान करना या अपनी पराजय को सम्पूर्ण जीवन की पराजय मानकर शोक मनाते रहना!

सचमुच क्या मैं मूर्ख हूँ। दयनीय हूँ। दुनियादारी से अलग-अलग हूँ। मर्दों को... यानी पति को पटाना वाकई कला होती है... जादू होता है... क्या यह खूबसूरती वाक् चातुर्य नजरों के तरकश, अदाएँ ही मायने रखती हैं.... हमारे शास्त्रों में एक स्त्री के कितने रूप दिए हैं... कितनी भूमिकाएँ दी हैं... उन भूमिकाओं को परिपूर्णता में जीना ही क्या स्त्रीत्व होता है? ऑफिसर होकर भी क्या? उच्च शिक्षित होकर भी क्या मिला? आए दिन पति-पत्नी के सम्बन्धों की धज्जियाँ उड़ाती खबरों ने विवाह को एक संस्था के रूप में स्थापित करने का बीड़ा उठा लिया था। अविवाहित लड़कियों की संख्या बढ़ती जा रही है... साथ-साथ रहने का क्रेज और आपसी सम्बन्धों में आया अलगाव। कल ही तो डॉ. सोनी कह रहे थे, भाभी आजकल सब कुछ बदल गया है... यहाँ तक कि पति-पत्नी के रिश्ते भी। लड़कियाँ इतनी हिसाबी-किताबी और चतुर हो गयी हैं कि वे पहले अपना सोचती हैं! लड़के भी कम नहीं हैं... पर लड़कियाँ उनसे ज़्यादा तेज हैं। पहले जैसा कुछ नहीं रहा। यानी एक आज्ञाकारी पत्नी... का व्यक्तित्व खण्डित हो चुका है। नई परिभाषाएँ गढ़ी जा रही हैं। फिर भी कुछ है जो फूलों की तरह महकता है?

सखी, पैसा कमाने के बाद, ऐशो-आराम के उपकरण होने के बावजूद भी क्या है जो छूट गया है और क्या है जो पकड़ में नहीं आ रहा है। काँच पर पड़े पानी के छींटे जैसे उसे अंधा बना देते हैं, ठीक वैसा ही कुछ मेरा हृदय हो गया है। ओह सखी, मैं भी कैसी बहक जाती हूँ- बीच-बीच में। अपने से हटकर दूसरों पर जाकर खड़ी हो जाती हूँ। इतने झमेले-झंझावातों में पड़कर भी आज अपना कहने को कौन है? नितान्त अकेली होती जा रही हूँ। अशान्त! बेचैन! मेरे और अमर के झगड़ों तथा बहसों के बीच कभी बच्चे आ जाया करते थे, तब तो अच्छा लगता था। सारी भड़ास निकल लेती थी। पति को पराजित करने का अभिमान मन को सबल बना देता था। मैं मन ही मन हँसती थी लो. अब मेरी सेना मेरे साथ है... लड़ो, कितना लड़ोगे। मेरे साथ मेरे बच्चे हैं... मैं अकेली नहीं हूँ। असहाय नहीं हूँ... लेकिन.... बच्चों की बनती दुनिया में... कुछ ऐसी चीजें तथा बातें आ गईं जहाँ माता-पिता का किया उनके लिए कोई मायने नहीं रखता है। कई बार तो लगता है कि वे हमारे बीच के मन-मुटाव का... झगड़ों का मजा लेते हैं। बेजा फायदा उठाते हैं... हम दोनों को अलग-थलग जानकर। जवाब देना, बात न मानना और ब्लैकमेल करना। ज्यादा कुछ कहो तो तपाक से कहते-- ‘यार माँ, आप भी कम नाटकबाज नहीं हो। ज़्यादा ही शोबाजी करती हो... वैसे तो पापा की बुराई करती हो... पर हमारी बात आती है, तो उनका फेवर लेने लगती हो...। जाने दो इन्हें। दुनिया के बाप लाखों रुपये कमाते हैं... क्यों इनकी फिक्र करती हो! पापा सही कहते हैं, आप बहुत ज़्यादा मीन-मेख निकालती हो। अच्छा ही है, जो पापा आपको ‘सही‘ करके रखते हैं... आप उन्हीं से मानती हो...।‘ या अमर कहते-- ‘अच्छा है, तुम्हें तो तुम्हारे बेटे-बेटियाँ ही ठिकाने लगाएँगे। उन्हीं से मानोगी तुम। करो उनकी चापलूसी। हम तो हार गये.... या कहते, तुम ही तो असली जड़ हो... सिर पर चढ़ा लिया है।‘ बच्चे कहते-- ‘मम्मी, आप में सेल्फ रिस्पेक्ट तो है ही नहीं। कितनी बातें सुन लेती हो। मैं आपकी जगह होता, तो चेहरा न देखता... आखिर छोड़ क्यों नहीं देती...!‘

सखी, असली चेहरे जब यूँ निर्ममता के साथ सामने आते तो लगता. हृदय के हजारों टुकड़े हो गये हैं... बातों-बातों में तोड़ता... टूटता वह आत्मविश्वास... वह आत्मसम्मान। तिल-तिल खतम होती जिजीविषा! बेटी कहती-- ‘मम्मी, क्यों पूछती हो हर बात में! अपना निर्णय खुद लिया करो। कब लोगी? बुढ़ापे में! हद करती हो। आपके कारण हमें भी उनके सामने झुकना पड़ता है।‘

सखी, क्या सचमुच मैं इतनी गई-गुजरी हूँ कि अपने ही रिश्तों की ईमानदारी मुझसे छलावा करे। मैं मानती हूँ कि अमर और मैं दो अलग-अलग परिवारों से, संस्कारों से, मूल्यों और मान्यताओं से आए है और मैं हरेक के व्यक्तित्व की स्वतंत्रता की पक्षधर भी हूँ, लेकिन पता नहीं क्यों मेरे मन में उमड़ते हैं वे ख्वाब... वे सपने... वे आदिम इच्छाएँ, वे कामनाएँ, वे प्रार्थनाएँ, जो दो शरीरों को एक करवाती हैं... एकात्म में डुबोती हैं। इस भव्य मकान में सोफा सेटों... टी.वी., सीडी प्लेयर... फूलदानों और फूलों के बीच मैं एक अकेली इधर-उधर घूमती फिरती रहती हूँ। अमर के बिना यह घर खाने को दौड़ता है। जैसे ही रात होती अकेलेपन का भयावह अजगर मेरे आसपास अपनी लम्बी-लम्बी साँसें फेंकने लगता है... मुझे जकड़ने के लिए।

सखी, यह उम्र पागलपन की उम्र होती है। उल्टी बहने लगती है। लौटने लगता है मन अतीत की पगडंडियों पर... भागने लगता है मन..... युवावस्था की राहों में, चेहरा... देह... रूप-रंग, आँखों की चमक, बालों का सुनहरापन सब खो चुका है... मन्द पड़ चुका होता है पर मन... मन दौड़ता है-- बीते समय में, इसीलिए अब फिर से बुनने लगी हूँ जवान ख्वाब! नया-नया प्यार हो जैसे... ताजा-ताजा स्पर्श हो जैसे। रोमांच से भरा... कि अमर आएँगे... जानती हूँ... हमेशा की तरह वे बिना नहाये-धोये... थके-हारे. बढ़ी हुई दाढ़ी... आँखों के चारों तरफ गाढ़ा होता कालापन, गंदे रूखे बाल... फिर भी मैं पागलों की तरह सोचने लगती कि जाकर उनके गले से लिपट जाऊँ, इतने जोर से कि... मेरा दम फूलने लगे... फिर उनका पसीने से भीगा माथा चूमें... फिर पलकें... भरे-भरे गाल... होंठ... उनकी गर्दन... उनके सीने पर रख दूँ अपना सिर... उबलती... तपती देह पर... फैल जाए... उनका स्पर्श। लेकिन सखी, दृश्य कुछ ऐसा साकार होता... अमर आते ही चिल्लाते... घर की व्यवस्था को लेकर! अपनी चीजों को लेकर, बच्चों को लेकर या फिर फोन करने बैठ जाते... या टी.वी. खोल लेते या फिर सीधे बाथरूम में घुस जाते.... मैं जाहिर है कि घर में हूँ, तो उनके पास रहूँगी ही। सहज ढंग से उनकी गर्दन... माथा... छूती... बाल सहलाती... छाती पर हाथ फेरती... पीठ सहलाती... वे यकायक मेरा हाथ पकड़कर झकझोर देते... ‘गुदगुदी हो रही है, मत छुओ। या कहते यह क्या? अच्छा लगता है, बच्ची हो क्या? मेरी थकान का तुम्हें ध्यान नहीं।‘

आह सखी, क्या कहूँ तुमसे। उन पलों लगता कोई पहाड़ मेरे ऊपर गिर पड़ा हो। गरम-गरम लावे का पहाड़। अपमान और दुःख से भरी मैं अपने आपको कोसने लगती बेशर्म औरत! कब तक जलील होती रहोगी। क्यों छूती हूँ इस आदमी को! क्यों! क्या मिल जाता है! तुम्हारे भीतर यदि प्यार की लहरें उठ रही हैं, तो उठने दो... उनसे वह भीगे यह जरूरी है क्या? अपनी देह के समन्दर में उफनती उन लहरों को क्यों बाहर आने देती हो...।

मेरा चेहरा उतर जाता! मन शोक में डूब जाता। इन्तजार में थकते थकते, करवटें बदलते हुए। जिस पति नाम के प्राणी की मैं प्रतीक्षा कर रही होती वही आदमी पलभर में मेरी भावनाओं को कीड़े की तरह मसल देता। कोई बात नहीं... मैं फिर भी सोचती... थके होंगे। तनाव होगा। लेकिन यहाँ भी मैं हार जाती... अमर देर रात तक टी.वी. देखते... गीत सुन रहे होते या अखबार पढ़ रहे होते...।

‘कितनी देर तक जागोगे।‘ अंततः मैं धैर्य खो बैठती।

‘तुम सो जाओ।‘ मुझे नींद नहीं आ रही है।

‘क्या रात भर जागते रहोगे। जानते हो मुझे सुबह जल्दी उठना पड़ता है। बच्चों की नींद खराब होती है...।‘

‘मैं क्या तुम्हें रोक रहा हूँ... तुम दादागिरी क्यों करती हो...। मैं क्या तुम्हारा गुलाम हूँ...। थानेदारी करती हो...। अब उठो...। अब बैठो...। अब खाना खाओ...। अब सोओ। मेरी अपनी कोई इच्छा और आजादी है या नहीं।‘

‘इसमें भड़कने की क्या बात है? मत सोओ।‘ तकिया पटककर मैं भीतर चली जाती...। बच्चे सच कहते हैं... ‘तुम हाथ धोकर पीछे पड़ जाती हो...।‘ आखिरी जुमला मेरी आत्मा पर फफोले पैदा कर देता...। लाइट बंद करके लेटी तो खिड़की से आधा चाँद दिखाई दिया... नक्षत्रों से भरा जगमगाता आकाश। ओह! कितना मोहक! कितना मादक! कितना... मृदुल। याद करती हूँ... जीवन के उन वर्षों को जब अमर ने जी भरकर प्यार किया हो...। कभी-कभी तो महीनों क्या वर्षों निकल गए होंगे, हम दोनों के बीच फैली दूरियों को। और मेरी अपनी सहेलियों के रस-भरे जीवन की कहानियाँ मुझे बार-बार याद आने लगती!

‘आखिर कारण क्या है?‘

‘टेंशन! टेंशन! प्यार करने का भी मूड होता है... तुम्हें प्यार की इतनी भूख क्यों!‘

छिः छि... क्या मैं इतनी गिरी हुई हूँ कि प्यार की भीख माँगूँ। माँगूँ कि मुझे प्यार दो। मैं तुम्हारे प्यार की भूखी हूँ... प्यासी हूँ! सुख दो। सान्निध्य दो...। आत्मग्लानि में डूबी मैं अपने आपको सजा देने लगती। लेकिन भीतर से कोई घायल स्त्री... प्रतिशोध लेने के लिए उकसाने लगती। कहती... कहो…

यह तुम्हारा अधिकार है...। जरूरत है...। कुदरत ने प्यार पाने का हक हरेक को दिया है...। पर हमें तो समाज ने बाँधा है... बंधनों में.... आखिर मेरा मन भी तो चाहता है कि प्यार करूँ...। प्यार पाऊँ। उसमें डूबूँ। एहसास हो कि तुम मेरे हो... मेरे। भीतर से तड़पती हुई स्त्री... कहती, मुझे प्यार करो... बाँहों में भर लो... लेकिन यह क्या... एक बिस्तर पर एक साथ लेटे हुए भी लगता... हजारों-कोसों दूर लेटे हैं।... यह अमर नहीं कोई अजनबी पुरुष है। पराया। जिसका शरीर निकट है... पर आत्मा दूर। इतने करीब होते हुए भी मैं उसे छू नहीं सकती। उसकी फैली हुई बाँहों पर अपना सिर नहीं रख सकती...। चित लेटे हुए इस पुरुष... को मैं छलछलाई बेबस निगाहों से देखती रह जाती। केंचुए की तरह सिमटती मैं अपने को जप्त कर लेती। आँसू थमने का नाम नहीं लेते। अमर! अमर! मेरे प्यार! कह दो कि तुम मुझसे प्यार करते हो...। कह दो कि... तुम मेरे बिना अधूरे हो...। कह दो कि मैं तुम्हारे लिए बनी हूँ..। अपने विश्वास और प्यार के दरिया में बह जाने दो मुझे..। ‘बस तुम हो‘ यह एहसास मेरे भीतर फैल जाने दो...। पर नहीं... सखी, मैं एक शब्द भी नहीं बोल पाती। मुझे याद आती है वो बचपन की भाभी... जो एक शादी में मिली थी। हम एक ही कमरे में एक साथ सोये थे...। खामोश लेटी उनकी आँखों में झाँककर देखा था...।

‘क्या बात है भाभी?‘

‘उनसे कहने की हिम्मत नहीं होती!‘

‘क्या?‘

‘कि उनके बिना नींद नहीं आती।‘

‘कह दो वे तुम्हारे पति है... पति से बढ़कर कौन होता है... उनसे कैसा परदा?’ मैं अपनी नादान समझ बढ़ाती।

‘क्या पता क्या सोचे?‘

वह बीती बात जिसे बीते पूरे पैतीस वर्ष हो गये और आज की बात में कितनी समानता है। स्त्री आज भी मन के भीतर नितान्त अकेली है। सब कुछ करके भी खाली। सूखे बादलों-सी अनन्त आकाश में भटकती। मिटती ..। विलीन होती। सारे रिश्ते-नातों के बीच भी रिश्तेविहीन। अनन्त आकाश में अकेली चिड़िया की तरह!

लेकिन सखी, एक साल... दो साल पाँच साल... पन्द्रह साल बीस साल... और अब... आज अट्ठाईस साल... लगता है सदियाँ बीत गयी हैं इसी तरह रहते हुए। जीते हुए। अपने लिए जगह तलाशते हुए! न मायके में जगह मिली न ससुराल में! लेकिन जब वे अपने परिवार के साथ होते तो एक ही राग अलापते होते... मेरे माता-पिता। मेरा भाई! मेरी बहिनें! मेरे रिश्तेदार। मेरे सगे। मेरे पराये और मैं! मैं क्या हूँ इस घर में? उस घर में। इस पृथ्वी पर। उस ब्रह्माण्ड में। जीवन चक्र चलता रहता है पर मनुष्य का अस्तित्व! स्त्री का अस्तित्व! जहाँ मैं घुसती... अपने लिए जगह तलाशती मैं और मैं। मैं कौन हूँ? क्या हूँ?

सखी, अब इस मोड़ पर आकर... इस उम्र में पहुँचकर सम्मान और प्यार की आकांक्षा पाले-पाले सूखी धरती की तरह चटक गई हूँ..। चिल्लाने लगती हूँ..। बोलती हूँ तो अविराम बोलती ही जाती हूँ...। बच्चे कहते हैं- ‘मम्मी आपको क्या हो गया है...? पागल हो गई हो..! जाकर घूमो...। दिमाग सही करो।‘ कैसा चक्र चलता है जीवन का... जिन बच्चों के होने पर दुनिया-जहान की खुशियाँ महसूस की थीं... जिनके लिए रातों की नींद, अपना सुख-चैन... कुछ न देखा था वही बच्चे आज कहते हैं कि मैं ‘एबनार्मल हूँ। चिड़चिड़ी हूँ। एडजस्ट नहीं करती हूँ। लगता है सब कुछ छोड़-छाड़कर चली जाऊँ....। पर बच्चों का भविष्य... उनका कैरियर... बस यही एक अंतिम दायित्व पूरा कर दूँ...।‘

‘उसके बाद चली जाऊँगी।‘

‘चली जाना रोका किसने। आज तक तो गई नहीं। बेटा, मैं तो अट्ठाईस साल से यही सब सुनता आ रहा हूँ।‘

‘कहाँ रहोगी मायके में?‘

‘कहीं भी जाऊँ!‘

‘हाँ. हाँ..?‘ मखौल उड़ाता अमर का वह चेहरा... क्या ये चेहरे मेरे पति का, मेरे शुभचिन्तक का... मेरे जीवन सहचर का... मेरे संरक्षक का... मेरे जीवन रूपी पहिये का... जन्म-जन्मान्तरों के साथी का चेहरा होता... या उसका जो रिश्तों को मक्खी की तरह उड़ाता है और पत्नी को उपयोग तथा उपभोग की वस्तु मात्र समझता है।

‘इतने वर्षों में तो जानवरों से तक प्रेम हो जाता है... ये भी एक-दूसरे के दुःख-दर्द में शरीक होते हैं... पर तुम... तुम तो पत्थर हो... पत्थर... काला पत्थर! मैं चिल्लाकर कहती।‘

सखी, आज तीन दशकों का साथ कहाँ किस मोड़ पर कैसे-कैसे बहता गया। कहीं ठहरा... कहीं टकराया... कहीं... बँधा तो कहीं अंतर्ध्यान भी हो गया।

मन में भरा है गुबार। गुस्सा। अपमान। दूर जाने की अकुलाहट... और दूर न जा पाने की विवशता भी। प्रेम... सम्बन्ध... दोस्ती... दाम्पत्य....शाश्वत... पवित्र, चिरन्तन... सम्बन्ध... मिठास... कड़वाहट... फिर भी... फिर भी क्या है सखी, कि यह तड़प बनी रहती है कि वे पागल बना दें अपने प्यार से, कि भर लें अपनी बाँहों में..! बच्चे बड़े हो गए। घर बन-बस गया। एक सफल (दुनिया की नजरों में) सुन्दर आकर्षक दाम्पत्य जीवन की मिसाल बने हम दोनों क्यों भीतर से अधूरे-अधूरे लगते हैं। सखी, मन का कौन सा तार है जो ढीला है... टूटा है! हृदय बार-बार टूटता है। कोई भीतर से कहता है, सम्पूर्णता में प्यार करो। सम्पूर्णता में स्वीकारो। कोई मनुष्य सिर्फ पति ही नहीं होता। कौन है जिसमें खोट नहीं होती? कौन है जो दुनिया में पूरी तरह से डूबकर ज़िंदा बचा हो... जो फूलों-सा हँसकर भी न मुरझाया हो...। एक बंधन... एक दायित्व... एक नया रास्ता जहाँ कुछ छूटता है। कुछ मिलता है। कुछ छलकता है। कुछ फैलता है। यह किया यह किया। यह मिला। वह जाऐंगे पर हाथ कुछ न आएगा। पलटकर न देखें कि क्या है मेरे पास नहीं मिली। क्या हिसाब से बनती है ज़िंदगी? गिनते-गिनते रात-दिन बीत मेरे भीतर। फिर भीतर से आवाज आती क्यों नहीं तुम्हारा अधिकार है उस पर उसके स्वामित्व पर। उसके जीने पर। उसके मरण पर। तो साँसों पर। उसकी चीजों पर। वह समझता क्या है अपने आपको? क्या मुझे फिर क्यों न करूँ उसका इस्तेमाल करो। करो। करो अधिकार... उसकी कोई पसन्द नहीं कर सकता था! कितनी जगह से रिश्ते आये थे। बातें चली थीं। कई लड़कों ने पसन्द किया था... लेकिन कुंडली के चक्कर में यह सब हुआ था वरना वह (?) कितना प्यार करता था...। इतना प्यार कि उसके पिता को अपनी पत्नी का वास्ता देकर मुझे समझाना पड़ा था। क्यों वही जाति धर्म और परिवार की दीवारें। पर सखी, मैंने आज तक अपने प्यार को, अपनी भावनाओं को सामने नहीं आने दिया। दुःस्वप्न समझकर विस्मृत कर बैठी थी मैं। मैंने तो सिर्फ और सिर्फ अमर को चाहा था। मैंने अतीत का एक हिस्सा सोचकर कभी ताना नहीं मारा था। हर दुःख में... हर विपत्ति में... हर आड़े वक्त में पत्नी धर्म का पालन करते हुए उनका साथ दिया। तब जब वह मुसीबतों में फँसे थे। तब जब बच्चे उनको नीचा दिखाते थे। क्यों सखी, क्यों! क्यों मैं बार-बार आदमी की तरफ भागती रही हूँ...। जी भरकर उसे गालियाँ देकर भी मन्दिर... गुरुद्वारे और दरगाह पर जाकर उसके सुख.... उसकी समृद्धि और उसके भविष्य के लिए दुआएँ माँगती रही। क्या एक स्त्री का जीवन इन्हीं पगडंडियों पर दौड़ते हुए बीत जाता है।

पर आज... जब वे तमाम परिस्थितियाँ गुजर चुकी हैं... हमारे जीवन में कुछ भी करने... कहने को नहीं बच्चा...। हम दोनों मुक्त हैं। अपने-अपने रास्ते पर चल सकते हैं... भाग सकते हैं। अलग रह सकते हैं। फिर भी न भागते हैं... न घर छोड़ते हैं...। न रास्ते बदलते हैं...। उसकी खाँसी से... उसके पसीने से तर मैले बदन से घिन करके मैं भाग पाती हूँ। इस उम्र में भी उसके आधे सफेद-आधे काले बालों से भरे सीने पर सिर रखने के लिए तरसती मैं क्यों उसके कमजोर पड़ते ही उसके लिए, उसके साथ खड़ी हो जाती हूँ। उसके जीवन के लिए प्रार्थनाएँ करने लगती हूँ..!

सखी, तुम तो मेरे अंतर्तम का हाल जानती हो। जान चुकी हो। तो मुझे बताओ कि इस सम्बन्ध का.. इस रिश्ते का इस साथ का क्या नाम है? क्या रंग है... क्या रूप है और क्यों... यह टूटकर भी नहीं टूटता? क्यों? यह कौन-सा तार है, जो टूटा टूटा होकर भी अलग नहीं हो पाता है? पर अब तोड़ना जरूरी है वरना मैं मर जाऊँगी।

पूरी तीन रातों तक वह सोचती रही। अपने लिखे को बाँचती रही। और अंततः उसने पत्र बंद किया। लगा किसी ने देह पर... बर्फ रख दी हो। लेकिन धीरे-धीरे बर्फ पिघलने लगी। उसने फैसला लिया वह जायेगी... उसके पास.... जो उसे बुलाता रहा है। उसके लिए लिखता रहा है... उसके लिए इन्तजार करता रहा है...। वह उसी के पास जायेगी।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

कथ्य और संवेदना

यह कहानी स्त्री के उस मौन हलफनामे की तरह है, जो वह जीवन भर अपने भीतर लिए फिरती है— पति, बच्चे, समाज और स्वयं के बीच पिसती हुई। उर्मिला शिरीष की भाषा आत्मकथात्मक होते हुए भी सार्वभौमिक है, जहाँ पाठक अपने अनुभवों की प्रतिध्वनि सुन सकता है।

कहानी के प्रमुख विषय

  • स्त्री का भावनात्मक अकेलापन
  • दाम्पत्य में संवादहीनता
  • प्रेम, देह और आत्मा का द्वंद्व
  • माँ, पत्नी और व्यक्ति के रूप में स्त्री

लेखिका परिचय

उर्मिला शिरीष समकालीन हिन्दी कथा-साहित्य की संवेदनशील लेखिका हैं। उनकी रचनाएँ स्त्री-मन, सम्बन्धों की जटिलता और सामाजिक यथार्थ को गहराई से उद्घाटित करती हैं।


शब्दांकन की टिप्पणी

‘एक स्त्री हलफनामा’ केवल एक कहानी नहीं, बल्कि एक स्त्री की वह अनकही गवाही है जो विवाह, प्रेम और सामाजिक ढाँचों की स्थापित परिभाषाओं पर चुपचाप सवाल खड़े करती है। यह रचना पाठक को असहज करती है— और शायद यही इसका सबसे बड़ा साहित्यिक गुण है।

भरत तिवारी
संपादक, शब्दांकन


उर्मिला शिरीष की कहानी पर गीताश्री की समीक्षा के लिए पुस्तक पढ़ती स्त्री की परछाईं


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