मुझे आश्चर्य मैत्रेयीजी की प्रतिक्रिया पर हुआ — अपूर्व जोशी


मेरी बात

— अपूर्व जोशी

अपूर्व जोशी
मुझे आश्चर्य मैत्रेयीजी की प्रतिक्रिया पर हुआ — अपूर्व जोशी


अपूर्व जोशी न तो सच बोलने से डरने वालों में हैं और न सच बोलने के बाद पीछे हटने वालों में. अब इसका क्या किया जाये कि उनके जैसे इन्सानों का प्रोडक्शन आज के समय में लगभग ज़ीरो है. हिंदी अकादमी की उपाध्यक्ष  मैत्रेयी पुष्पाजी को अपूर्वजी का खरा होना अवश्य पसंद रहा होगा अब ये बात और है कि जब अकादमी की कार्यशैली पर अपूर्व जी ने सवाल उठाया (खेमेबंदी की शिकार मैत्रेयी पुष्पा ? — अपूर्व जोशी ) तो मैत्रेयीजी के जवाब की शैली (फेसबुक की पोस्ट) कुछ गड़बड़ नज़र आयी.

अपूर्वजी ने 'पाखी' जनवरी -2017 के अपने  कॉलम 'मेरी बात' में अपनी बात कहते हुए लिखा है "वैसे मैत्रेयीजी ने जो समझा उसमें उनकी कोई गलती नहीं। अमूमन ऐसे  ही होता है। यही कारण  है हम एक ही चश्मे से सभी को देखने के आदि हो जाते हैं। सारा संसार परशेप्शन (perception) का शिकार है। धारणाएं  सच का स्थान बड़ी आसानी ले लेती हैं। "



मुझे आश्चर्य मैत्रेयीजी की प्रतिक्रिया पर हुआ — अपूर्व जोशी
‘पाखी’ का मालिक अकादमी के कार्यक्रम में आए या रतलाम का नवोदित लेखक, तहेदिल से स्वागत है। किसको घास डाली, किसको दाना दिया, अब इतने नीचे भी मत उतरिए ...   मैत्रेयी पुष्पा

बहरहाल बातें होती रहना जितना ज़रूरी है उतना ही बातों में दम का होना भी ज़रूरी है... अभी तो पढ़िए  'पाखी' जनवरी -2017  की 'मेरी बात ' का अंश

— भरत तिवारी


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पने अनियमित स्तंभ ‘मेरी बात’ के अंत में मैंने हिंदी अकादमी की उपाध्यक्ष मैत्रेयी पुष्पा की फेसबुक टिप्पणी को उद्धरित करते हुए जो कुछ लिखा उस पर जबरदस्त प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। कुछ मुझसे सहमत हैं तो बहुत से असहमत भी। यह स्वाभाविक भी है। मुझे आश्चर्य मैत्रेयीजी की प्रतिक्रिया पर हुआ। उन्होंने लिखा है -

‘कुछ शिकायतें मिल रही हैं कि कार्यक्रमों में स्थायी चेहरे नजर आते हैं। यह शिकायत है या तोहमत? विषय के अनुसार योग्य वक्ता का चुनाव होता है। बावजूद दूसरे ऐसे कार्यक्रम भी हो रहे हैं जिनमें नए लोगो को मौका मिले। खेमेबंदी के कारण उपेक्षित रह गये, रचनाकारों और विचारकों (स्त्री-पुरुष) को जगह मिले। मैं यहां एक दिन रहूं या वर्षों, यही रवैया रहेगा। यह भी कि मुझे प्रशंसा रास नहीं आती। निंदा और बदनामी झेलने की आदत पड़ चुकी है। ‘पाखी’ का मालिक अकादमी के कार्यक्रम में आए या रतलाम का नवोदित लेखक, तहेदिल से स्वागत है। किसको घास डाली, किसको दाना दिया, अब इतने नीचे भी मत उतरिए ... ’’

इस पोस्ट के बाद मैत्रेयीजी एक कार्यक्रम में प्रेम भारद्वाज से मिलीं तो उन्होंने अपनी नाराजगी व्यक्त की। फिर कुछ दिन बाद उनका फोन आया। मैंने जानना चाहा कि ऐसा भला मैंने क्या लिख दिया जिससे वे इतनी आहत हो गईं। उन्होंने उस आशंका को दोहराया जो उन्होंने प्रेम भारद्वाज जी से भी कही थी।

बहरहाल, जैसा मैंने लिखा था कि मेरे निजी संबंध मैत्रेयीजी के संग प्रगाढ़ हैं, बातचीत के बाद वे शांत हो गईं। पर मैं अभी तक समझ नहीं पाया हूं कि मैं कितने नीचे उतर गया हूं। जो मैंने लिखा उस पर कायम हूं। सच पूछिए तो किसी विषय पर स्पष्ट मत रखता ‘नीचे उतरने’ की श्रेणी में आता है तो मुझे इस इल्जाम से कोई एतराज नहीं। मदन कश्यप ने इस प्रसंग पर टिप्पणी करते हुए कहा कि लोकतांत्रिक माहौल में इतना स्पेस तो होना चाहिए कि अपनी असहमति को दर्ज कराया जा सके और उसका सम्मान हो। प्रश्न यही सबसे गंभीर है कि असहमति को सम्मान नहीं मिलता बल्कि उसे व्यक्ति विशेष के प्रति दुराग्रह अथवा विरोध मान लिया जाता है।

मैत्रेयीजी के विषय में खेमेबंदी का उल्लेख मात्रा इसलिये किया था क्योंकि ऐसे कई चेहरे इन दिनों उनके अजीज हैं जो एक जमाने में उन्हें गरियाते थे। स्वयं मैत्रेयीजी ने इसे स्वीकारा है। अन्यथा मैं समझता हूं उनके हिंदी अकादमी का उपाध्यक्ष बनने के बाद लगातार अच्छे कार्यक्रम हो रहे हैं, मासिक पत्रिका भी उन्हीं के प्रयास से शुरू हुई है। वे लगातार कुछ सार्थक करने के लिए प्रयासरत हैं। जिसके लिए उनकी प्रशंसा के साथ-साथ उनके साथ खड़ा रहना जरूरी है। यहां एक बात और कहना चाहूंगा कि हिंदी अकादमी में खेमेबंदी का जिक्र मैंने इसलिए भी किया क्योंकि जब मैत्रेयीजी उपाध्यक्ष बनीं तब उनके साथ गठित नई कार्यकारिणी में कवि मित्र कुमार विश्वास के नजदीकियों की तादाद ज्यादा थी। ऐसा होना स्वाभाविक भी था। हमारे यहां ऐसा ही होने की परंपरा है। काबिलीयत के बजाये विश्वासपात्रता और चाटुकारिता मापदंड बन चुके हैं। इसलिए जब मुझसे सलाह मांगी गई थी तब जो लिस्ट मुख्यमंत्री दिल्ली के पास स्वीकृति के लिये भेजी गई उसमें अल्पना मिश्र, प्रेम भारद्वाज दिलीप शाक्य, अनीता भारती इब्बार रबी, संजीव कुमार आदि शामिल थे। वह लिस्ट स्वीकृत भी हो गई थी। मैं निजी तौर पर प्रेम को छोड़ किसी का भी वाकिफकार नहीं था। अपनी तरह से पूरी निष्पक्षता बरतते हुए मैंने प्रेम भारद्वाज से सलाह मशविरा कर सूची बनाई थी। फ़िर कुछ ऐसे हुआ कि मैत्रेयीजी को जब उपाध्यक्ष पद के लिऐ चुना गया तो कार्यकारिणी से वे सभी नाम गायब थे जिन्हें मैंने प्रस्तावित किया था। बाद में पता चला कि डॉ. कुमार विश्वास ने वे सभी नाम काटकर अपने कवि मित्रों को उसमें शामिल कर दिया था। मैत्रेयीजी से कोई सलाह मशविरा नहीं हुआ था। एक साल बाद जब दोबारा कार्यकारिणी गठित हुई तो मैत्रेयीजी की चली उन्होंने कुमार के कई मित्रों को बाहर कर नए लोग अपनी टीम में लिए हैं। इसमें कोई बुराई नहीं, यह उनका विशेष अधिकार है। लेकिन यह तो एक साल में उन्होंने भी महसूसा होगा कि गुटबाजी कितनी खतरनाक होती है। इसलिए यथासंभव इससे बचना चाहिए।

मैत्रेयीजी को यह भी लगा कि मैंने किसी मित्र विशेष के कहने पर उन पर ‘तोहमत’ लगाई है। मैं उन्हें स्पष्ट कर चुका हूं कि मेरी लेखनी को कोई मित्र प्रभावित नहीं कर सकता। जो किया अपनी समझ से किया। इसलिए यदि नीचे गिरा हूं तो अपनी करनी के चलते।

वैसे मैत्रेयीजी ने जो समझा उसमें उनकी कोई गलती नहीं। अमूमन ऐसे ही होता है। यही कारण है हम एक ही चश्मे से सभी को देखने के आदि हो जाते हैं। सारा संसार परशेप्शन (perception) का शिकार है। धारणाएं सच का स्थान बड़ी आसानी ले लेती हैं। जैसे वामपंथी मित्र मानकर बैठे हैं कि तमाम संवेदनाओं का सरोकार केवल उनसे है, क्रूरता पूंजी की जुड़वा बहन है। मैं ऐसे कइयों को जानता हूं जो घोरवामपंथी हैं आमलेट खाकर, शराब पीकर जनवाद पर बहस करते हैं लेकिन क्या मजाल है कि कभी किसी को एक पैसे से मदद कर दें। दूसरी तरफ कथित पूजीवांदी है जो अपने सिधांत के लिए अपना सर्वत्र दांव पर लगाने का दम रखते हैं।

जब इमरजेंसी के दौरान पूरा वामपंथी खेमा कहीं दुबक गया था, जब दक्षिणपंथियों के कई दिग्गजों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया था तब एक पूंजीपति ही तो था जिसने इंदिरा शासन के सामने न झुकने का दम दिखाया। रामनाथ गोयनका से बड़ी संवेदनशीलता कहा। पर क्या करें परशेप्शन का खेल है, प्रेमजी के कवि मित्र कवि मदन कश्यप ने मेरे लिखे को पढ़कर उनसे कहा- ठीक आदमी मालूम पड़ता है, लिखता-पढ़ता भी है। हालांकि पूंजीपति है लेकिन संवेदनशील है। यह सही नहीं है मदनजी कि पूंजी क्रूर बनाती है। क्रूर तो मनुष्य होता है। पूंजी संवेदनशील भी नहीं होती। यह तो मनुष्य के अपने गुण हैं। अन्यथा रामनाथ गोयनका संवेदनशील न होते और स्टालिन क्रूर तानाशाह न होता।


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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