रवि कथा — ममता कालिया (भाग २) | Tribute to Ravindra Kalia by Mamta Kalia - Part 2


Tribute to Ravindra Kalia by Mamta Kalia - Part 1


रवीन्द्र कालिया पर लिखा ममता कालिया का संस्मरण

रवि कथा — भाग २

30 जनवरी सन् 1965 को जिस रवींद्र कालिया से चंडीगढ़ की गोष्ठी कहानी ‘सवेरा’ में मेरा परिचय हुआ वह बात बात में ठहाके लगाने वाला, अजीबोगरीब किस्से सुनाने वाला, चेन स्मोकर और बेचैन बुद्धिजीवी था। कद छह फीट और तीखे नाकनक्श, बेहद सुंदर हंसी और हर दिल अजीज। चंडीगढ़ में डॉ. इंद्रनाथ मदान से लेकर कमलेश्वर और राकेश तक, सब रवि से मुखातिब थे। जैसा शीर्षक से स्पष्ट है यह कहानी गोष्ठी पंजाब विश्वविद्यालय के सभागार में सुबह के समय हुई। मेरे लिए हर परिचय नया था किंतु सबके महत्व से मैं परिचित थी। वहां आचार्य हजारीप्रसद द्विवेदी और डॉ. नामवर सिंह जैसे दिग्गज भी थे। नामवर जी ने मेरे आलेख की सराहना कर दी, मेरे लिए तो उस दिन यही बड़ा पुरस्कार बन गया। शाम को मैंने वापस दिल्ली जाने की इच्छा व्यक्त की। डॉ. मदान और राकेश जी ने मुझे समझाया कि अगले दिन चली जाना। डॉ मदान ने कहा, ‘‘अभी तुम्हें सुखना झील दिखाएंगे।’’


मैं अड़ गई। मैं कॉलेज में बताकर नहीं आई थी। छुट्टी का आवेदन भी नहीं किया था, यह सोचकर कि रविवार की सुबह गोष्ठी है तो मैं रात तक घर पहुंच ही जाऊंगी। मैं डॉ. इंदु बाली के यहां ठहरी थी। वहां से अपनी अटैची लेकर आई। सभी सीनियर रचनाकारों का बड़प्पन था कि मुझ जैसी चिरकुट सिलबिल लेखिका को छोड़ने बस अड्डे तक आए।



ताज्जुब की तरह रवि ने घोषणा कर दी, ‘‘मैं भी दिल्ली जा रहा हूं।’’

सब दोस्त हक्के बक्के रह गए। रवि के हाथ में अपना कोई असबाब भी नहीं था। राकेश जी और कमलेश जी ने उन्हें समझाने की कोशिश की, ‘‘उन्हें चले जाने दो। शाम को महफिल का रंग जमेगा।’’ रवि नहीं माने, बस में सवार हो गए।

दिन भर में, जिस शख्स ने मुझसे नहीं के बराबर बात की वह रवींद्र कालिया ही था। जबकि बाद में मुझे पता चला कि मुझे चंडीगढ़ गोष्ठी में बुलाने का प्रस्ताव रवि का ही था। इसकी कोई खबर उन्होंने मुझे न लगने दी। मैं जब बस में चढ़ी मेरी बगल वाली सीट पर रवींद्र कालिया विराजमान थे।

मेरा मन संशय और दुविधा, शिकवा और शिकायत से भरा हुआ था। चंडीगढ़ में दिन भर में इस इंसान ने मुझसे सबसे कम बात की थी। शनिवार शाम इंदु बाली जी के घर मुझे स्थापित कर ये जैसे भूल गए थे कि मैं भी आई हूं। मेरे साथ जाने की कोई तुक नहीं थी इस वक्त। खैर सफर शुरू हुआ। बस के शोर में अपने शब्दों की कमी महसूस नहीं हुई। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के शब्दों में—

कितना अच्छा होता है
एक दूसरे को बिना जाने
पास पास होना
और उस संगीत को सुनना
जो धमनियों में बजता है।

बातचीत की पहल रवि ने की, ‘‘आप सिर्फ कविता लिखती और पढ़ती हैं।’’

‘‘नहीं, मैंने बहुत सा गद्य साहित्य पढ़ा है।’’

‘‘आपके प्रिय रचनाकार कौन से हैं?’’

‘‘प्रेमचंद, जैनेंद्र कुमार, अज्ञेय और निर्मल वर्मा।’’

‘‘निर्मल वर्मा को आप कवि मानती हैं या कथाकार?’’

 ‘‘वे कहानी को कविता की तरह तरल और तन्मय बना देते हैं। ‘जलती झाड़ी’ और ‘वे दिन’ मेरी पसंदीदा पुस्तकें हैं।’’

रवि ने अज्ञेय और निर्मल वर्मा पर निशाना साधते हुए कलावादी और व्यक्तिवादी लेखन पर हमला बोल दिया। उन्होंने कहा हिंदी कहानी इनकी अभिव्यक्ति से बहुत आगे निकल चुकी है। मुझे काफी बुरा लगा कि रवींद्र कालिया मेरे समस्त नायक ध्वस्त किए जा रहे हैं। वे रुके नहीं। उन्होंने उनकी भाषा और भावभूमि को नकार दिया। रवि बोले, ‘‘ये दोनों रचनाकार नकली स्थितियों पर बनावटी भाषा में लिखते हैं। इनकी भाषा में अनुवाद का स्वाद आता है।’’

‘‘आपको कौन से रचनाकार पसंद हैं।’’

‘‘मोहन राकेश, नागार्जुन, अमरकांत, नामवर सिंह।’’

‘‘नामवर जी तो आलोचक हैं।’’ मैंने कहा।

‘‘इससे क्या। उन्होंने आलोचना को रचना की ऊंचाई दी है।’’

तभी बस घरघराकर रुक गई। करनाल आ गया था। पता चला बस खराब हो गई है।

हमने बसअड्डे पर चाय पी। रवि चाय के साथ सिगरेट पीते रहे। चाय से कम और सिगरेट की चमक से ज्यादा गर्मी निकल रही थी।

‘‘आपने हैमिंग्वे पर गौर किया है?’’ रवि ने पूछा।

हेमिंग्वे मेरे प्रिय लेखक थे। उनकी हर रचना बारंबार पढ़ी थी। उन जैसी भाषा शैली और पौरुषमय अभिव्यक्ति बिरले साहित्यकारों को मिलती है।

हम काफी देर हेमिंग्वे पर बात करते रहे।

बस की मरम्मत हो गई और बस फिर चल पड़ी। एक अजनबी के साथ यह सफर उसी रात यादगार बन गया जब रवि के ठिकाने पहुंच हम रातभर बातें करते रहे। खयालों का एक खजाना था जो खाली होने का नाम ही नहीं ले रहा था। भूल गया हमें अपना सिलसिला, संत्रस और विघटन। बिल्स फिल्टर की गंध मेरे लिए सुगंध बन गई। सर्दी में गर्मी महसूस होने लगी। रवि ने पहले दिन से उत्कट प्रेमी की भूमिका निबाही। हमारी मुलाकातों को एक सप्ताह भी नहीं बीता था कि रवि ने शादी का प्रस्ताव रख दिया। अब मुझे खयाल आया पापा। पापा जिस तरह मुझे तराश रहे थे उसमें प्यार, मुहब्बत और विवाह जैसी घिसीपिटी परिपाटियों के लिए कोई जगह नहीं थी। दफ्तर से लौटकर वे रोज मुझे इतनी बौद्धिक खुराक पिलाते, इतनी पुस्तकों से लाद देते कि मुझे दिन रात के चौबीस घंटे कम पड़ जाते।

मन ही मन मुझे यह सोचकर अच्छा लगा कि रवि के लिए प्रेम में विवाह का फ्रेम अनिवार्य था। वे चालू फॉर्मूले के अंतर्गत निष्कर्षहीन निकटता के पक्ष में कतई नहीं थे। मेरी मुश्किल यह थी कि पापा से यह बात कैसे कही जाय। रोज शाम ला बोहीम में रवि मेरी पेशी लेते, ‘‘कल तुमने पापा से बताया?’’ मैं कहती, ‘‘पापा ने मौका ही नहीं दिया।’’

रवि रूठ जाते। उनकी सिगरेट की खपत बढ़ जाती। वे गुमसुम बैठ जाते। कपुचिनो कॉफी पड़ी पड़ी ठंडी हो जाती। रवि कहते, ‘‘तुम्हें किस बात का डर है? अगर वे हां कहें तो ठीक अगर ना कहें तो तुम अपनी स्लीपर्स पहनकर सीधी आ जाना 5055 संतनगर।’’ यह रवि का पता था। मैं कहती, ‘‘पापा के नक्शे में मेरी शादी का मुकाम है ही नहीं।’’ रवि हताश होकर कहते, ‘‘फिर ‘गुफा’ ही हमारी नियति है।’’ ला बोहीम रेस्तरां में एक गर्भगृह जैसा अंधियारा एकांत कक्ष और बना हुआ था जहां प्रेमी जोड़े या खास मेहमान ही बैठते। रवि और हम यहीं बैठा करते। कभी कभी वहां जगह न मिलती तो यॉर्क रेस्तरां के कोजी नुक में चले जाते। यह रवि की हिम्मत थी कि हमारी पूरी कोर्ट शिप के दौरान रवि ने मेरे साथ अच्छी से अच्छी जगह शामें बिताईं, टैक्सी में मुझे घर छोड़ा और कभी रुपये पैसे का रोना नहीं रोया। मैं पर्स लेकर चलती थी पर खोलती नहीं थी। मेरे मन में प्रेमी की पारंपरिक छवि ऐसे इंसान की थी जो मेरे ऊपर दिल और जेब दोनों कुरबान कर दे।

रवि के अंदर साहस और संकल्प का ऐसा अतिरेक था कि तमाम अनसुलझे सवालों के बीच हमारी शादी हो गई। उनके कई हितैषियों ने उन्हें रोकने की कोशिश की, मेरे हितैषियों ने मुझे समझाया कि यह लड़का तुम्हें छह महीने में छोड़ देगा। 12 दिसंबर सन् 1965 की शाम मेरे एक हितैषी मेरी एक कविता दिखाते शामियाने में घूम रहे थे। यह कविता त्रैमासिक पत्रिका ‘क ख ग’ के ताजा अंक में मुखपृष्ठ पर बोल्ड अक्षरों में छपी थी।

प्यार शब्द घिसते घिसते चपटा हो गया है।
अब हमारी समझ में
सहवास आता है।

हितैषी कह रहे थे, ‘‘यह शादी नहीं, बस कॉन्ट्रेक्ट है।’’ लेकिन लेखक जगत ने हमारा साथ दिया। रवि के संपर्क और दोस्तियां व्यापक थीं। मेरे पापा पुरानी पीढ़ी के साथ साथ युवा पीढ़ी के भी निकट थे। शायद ही कोई ऐसा रचनाकार हो जो इस शादी में न आया हो। लेखन जगत के स्वागत भाव ने हमें बहुत बल दिया।

यह सब बताने का मकसद यह है कि रवि एक आजाद तबीयत इंसान थे। जब तक कोई उनकी आजादी में खलल नहीं डालता, वे दत्तचित्त अपना काम करते रहते। ऊर्जा इतनी कि दफ्तर से आकर कहानी लिखने बैठ जाते। मन होता तो मेरे साथ समुद्र तट की सैर कर आते। लौटकर कुछ देर हम दोनों अनुवाद का काम करते। रवि पंजाबी उपन्यास का हिंदी रूपांतर जुबानी बोलते और मैं लिखती जाती। यह काम इसलिए जरूरी था क्योंकि रवि ने अपनी शादी का सूट ए.के हंगल से उधार सिलवाया था और उन्हें इसके पैसे चुकाने थे। उन दिनों शराब से उनका कोई वास्ता न था, हां सिगरेट पीते थे। मैं एस.एन.डी.टी. विश्वविद्यालय में पढ़ा रही थी। जीवन बढ़िया बीत रहा था। रवि के साथ अक्सर यह हुआ कि जब जीवन में सुख चैन आया, कोई न कोई जलजला उठा और उन्हें जड़ से हिला गया। ‘धर्मयुग’ में अच्छी भली बीत रही थी पत्रिका के सबसे चर्चित पृष्ठ उनके पास थे। भारती जी उनसे स्नेह करते थे। मगर रवि अपने सहकर्मी स्नेह कुमार चौधरी की खातिर भारती जी से टकरा गए। दूसरों के सवालों को लेकर खलबलाना हम दोनों की फितरत में था। रवि ने यह नहीं सोचा कि चौधरी अपनी परेशानियों से खुद निपट लेगा। इन दोनों को इस्तीफा देने को उकसाने में मेरी गलती भी बड़ी भारी थी। साल बीतते न बीतते उसी चौधरी ने शुरू किए गए प्रेस की पार्टनरशिप में रवि को जबरदस्त धक्का दे दिया। धन से अधिक मन की हानि से रवि हिल गए। मुंबई से मन उचाट हो गया।

इलाहाबाद में अपना प्रेस जमाने और चलाने में नए किस्म के जीवट की जरूरत थी। जिससे रवि ने किस्तों पर प्रेस लिया, वे बड़े कड़ियल, अड़ियल, सिद्धांतवादी और आदर्शवादी प्रकाशक थे। श्री इंद्रचंद्र नारंग के एक भाई की, स्वाधीनता संग्राम में हत्या हो गई थी। वे स्वयं और उनकी पत्नी दोनों स्वाधीनता सेनानी थे किंतु वे सरकार से पेंशन नहीं लेते थे। उनका कहना था, ‘‘हम देश की आजादी के लिए जेल गए, अपने आदर्शों को नगद भुनाने के लिए नहीं।’’

इसमें शक नहीं कि हमें इलाहाबाद में दुर्लभ और दिलदार दोस्त और सरपरस्त मिले। अश्क जी और कौशल्या अश्क ने उस वक्त रवि को स्नेह और आतिथ्य का संबल दिया जब उन्हें इसकी सबसे अधिक जरूरत थी। मैं उन दिनों मुंबई में एस.एन.डी.टी. के हास्टल में रहकर नौकरी कर रही थी, रवि इलाहाबाद में नए काम की चुनौतियों से जूझ रहे थे। अगर मशीन मैन गैरहाजिर होता तो रवि मशीन चलाने लगते। चपरासी न होता तो खुद रिक्शे में जाकर स्याही के ड्रम लेकर आते। अल्पसंख्यकों के मुहल्ले रानी मंडी में मुहर्रम के दिन ‘हाय हुसैन, हाय हुसैन’ का मातम सुनते बीतते। हिंदी भवन और लोकभारती प्रकाशन के अलावा और कहीं से काम का भुगतान मिलना दुष्कर था। हर महीने प्रेस के कर्ज की किस्त चुकाना, कारीगरों को तनखा देना, मकान का किराया भरना और बिजली का भारी बिल अदा करना रवि की जिम्मेदारी थी। इलाहाबाद जैसे लद्धड़ शहर से काम की इतनी उगाही होनी मुश्किल थी। रवि सुस्त और उदास रहने लगे। उन्हें अकेले प्रेस की गाड़ी खींचनी थी और जैसे तैसे घर की भी। एक दिन वे जॉन्सनगंज चौराहे पर स्थित डॉ के. सी. दरबारी के यहां अपना रक्तचाप दिखलाने गए तो पता चला कि उनका रक्तचाप बहुत मंद है। डॉक्टर ने दवाई दी और सलाह कि कभी तबियत बहुत गिरी हुई लगे तो एक पैग विस्की ले लिया करें। रवि को यह सलाह इतनी पसंद आई कि डॉ. दरबारी उनके मित्र बन गए। हालांकि मैंने डॉक्टर दरबारी को कभी पीते नहीं देखा।

जब मैं छुट्टियों में बंबई से घर आई, रवि ने दिखाया, ‘‘देखो मैंने ये सब खरीदा है।’’ घर में एक पलंग था, दो खपच्ची वाले रैक, एक पानी रखने का कांच का जग और दो शीशे के गिलास। देर शाम प्रेस बंद करने के बाद रवि ने कहा, ‘‘मुझे डॉक्टर ने बताया है कि दो पैग विस्की लेनी जरूरी है नहीं तो मेरा दम धुट जाएगा।’’ मैं चकराई पर चुप रही। इससे पहले कभी कभार ओबेराय के घर में रवि को पीते देखा था और हर बार मैंने नाक भौं सिकोड़ी थी। ओबेराय की जीवनशैली से मैं चिढ़ती थी। इसके बाद सिर्फ बैसाखी पर रवि को बियर पीते देखा था। दो तीन दिन में मेरी छुट्टी खत्म हो गई और मैं वापस चली गई।

मुंबई पहुंचकर भी रवि की फिक्र लगी रहती। पता नहीं कब, क्या खाते हैं, कैसे प्रेस चलाते हैं, कहीं सिर पर उधार तो नहीं चढ़ रहा।

दूरस्थ दांपत्य की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि यह कल्पना और अनुमान पर चलता है। उन दिनों आज की तरह मोबाइल फोन का जमाना नहीं था कि मिनट मिनट की जानकारी मिल सके। फोन करना बहुत महंगा था। चिट्ठियों में प्रेम भरी बातें लिखने के बाद हिदायतें लिखना नागवार लगता। साल भर बाद जब नाटकीय षड्यंत्र के तहत मेरी नौकरी छूट गई और हारे हुए खिलाड़ी की तरह मैं वापस घर पहुंची, रवि ने स्टेशन पर सिगरेट का कश लेते हुए यही कहा, ‘‘अच्छा है छूट गई, छोड़ने में तुम्हें इससे ज्यादा तकलीफ होती।’’

एक भी क्षण रवि ने मुझे उदास नहीं रहने दिया। मेरे आने मात्र से वे बेहद खुश हो गए। इलाहाबाद के दोस्तों से मिलवाया, सड़कों का वैभव दिखाया, कॉफी हाउस के चक्कर लगाए, घर से पैदल मद्रास कैफे तक घूमे, चौक के चप्पे चप्पे से परिचित करवाया। दूसरे शब्दों में रवि ने एक बंबईवाली को इलाहाबादी बनाने का काम हाथ में ले लिया।

नगर में आए दिन होने वाली गोष्ठियों ने भी हमारा मन लगाया। दोस्तों की सादगी और सहजता, साफगोई और बेतकल्लुफी ऐसी थी कि हम वहीं के होकर रह गए।

रवि ने अपने सुराप्रेम के चाहे जितने किस्से लिखे हों, मैं जानती हूं कि उन्होंने घर परिवार के प्रति अपनी हर जिम्मेदारी निभाई। ऐसा कभी नहीं हुआ कि घर में राशन खत्म है और रवि रसपान में लगे हैं। सरकारी विज्ञापनों में उन दिनों एक पोस्टर छपता था— मद्यपान करने वाले परिवार और मद्यपान छोड़ देने वाले परिवार का। मद्यप आदमी आनी पत्नी को पीटता दिखाया जाता था, उसके बच्चे रोते हुए। सुधरे हुए आदमी की पत्नी हंसती हुई और बच्चे खेलते पढ़ते हुए दर्शाए जाते। रवि इस किस्म के मद्यप्रेमी नहीं थे। उनकी संघर्षभरी दिनचर्या में शराब एक छोटा सा अल्पविराम थी। मुझे लगता, बाकी दोस्त तो घर जाकर चैन से सो जाएंगे। रवि मशीन रूम में जाकर मशीन चलाएंगे। भगवान ने रवि को ऐसी कद काठी और ऐसा रंग रूप दिया था कि संघर्ष के निशान उनके व्यक्तित्व पर पता ही नहीं चलते। उनके ऊपर यह सदाबहार गाना बिल्कुल सटीक बैठता था—

बरबादियों का सोग मनाना फिजूल था।
बरबादियों का जश्न मनाता चला गया।
र फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया।

सबसे बड़ी बात थी कि रवि अपनी मुफलिसी और तंगदस्ती में भी हमेशा खुश और मस्त रहते। रानीमंडी में रहते हुए उन्होंने अपनी यादगार कहानियां लिखीं। ‘खुदा सही सलामत है’ जैसा महत्त्वपूर्ण उपन्यास लिखा और मुझे लगातार लिखने के लिए प्रेरित किया। कई बार लिखने का नशा बोतल के नशे को पछाड़ देता और रवि केवल चाय व सिगरेट के सहारे अपने कथा संसार में डूबे रहते। ऐसे समय प्रेस के प्रूफ पढ़ने का काम मैं अपने जिम्मे ले लेती। मशीनों के चक्के चलते रहते।

जब बच्चे छोटे थे, रवि से चिपके रहते। उन्हें भी कोई दिक्कत न होती। मैंने कॉलेज में नौकरी शुरू कर दी तो बच्चे ज्यादा समय रवि के साथ बिताते। अब मुझे रवि के सिगरेट पीने से डर लगता। बच्चों पर धुएं का प्रदूषण असर कर सकता था पर बच्चे उनसे दूर रहते ही नहीं थे। सन् 1987 से रवि की माताजी स्थायी रूप से हमारे पास आ गईं तब जाकर यह समस्या दूर हुई। रवि के धूम्रपान और मद्यपान पर भी कुछ बंदिश लगी क्योंकि मां के सामने रवि एकदम राजा बेटा बनकर रहते।

हम बीस बरस रानीमंडी में रहे। इन बरसों में हम लोगों ने खूब लिखा। हमारे संपादन में कई साहित्यिक संकलन और पत्र निकले जिनमें ‘वर्ष: अमरकांत’ रचनाकार अमरकांत पर केंद्रित था तो ‘गली कूचे’ रवि की तब तक की लिखी कुल कहानियों का संकलन। सन् 1990 से ‘वर्तमान साहित्य’ के कहानी महाविशेषांक की गहमागहमी आरंभ हो गई जिसका संपादन रवि ने किया। शुरू में यह सीमित पृष्ठों के अंक के रूप में प्रस्तावित था लेकिन रवि ने अपने जोश ओ खरोश से इसे वृहद आकार दे दिया। यहां तक कि उसके दो खंड प्रकाशित करने पड़े। प्रधान संपादक विभूति नारायण राय चुपचाप रवि का हंगामा छाप अभियान देखते और अपना बजट बढ़ाते जाते। सन् 1990 समूचा इस संपादन में लग गया। सभी रचनाकारों ने इस वार्षिकांक के लिए खास तौर पर नवीन कहानी लिखकर भेजी। स्थापित, चर्चित और संभावनाशील रचनाकारों का ऐसा समागम किसी अन्य संकलन में कभी हुआ न होगा। हर एक लेखक को रवि ने जाने कितनी बार फोन किए होंगे। कई वरिष्ठ लेखकों को तो रोज ही एस.टी.डी. कॉल किया जाता कहानी की प्रगति पूछने के लिए। रवि की अपनी हॉबी थी काम करने की। काम को जुनून की हद तक ले जाना। एक लेखिका ने अपनी कहानी भेजी मगर कहानी का शीर्षक लिखा न अपनी पहचान। रवि ने लिखावट पहचानकर उन्हें फोन किया तब दोनों जरूरतें पूरी हुईं। कहानी में वर्तनी की अनगिनत गलतियां थीं जो रवि ने बड़े मनोयोग से सुधारीं। उस एक अकेली कहानी को संवारने में रवि ने इतनी मेहनत की जितनी समूचे अंक पर न की होगी। इसकी प्रशंसात्मक समीक्षा के लिए अग्रिम लेख लिखवाये। इस तरह उन्होंने महाविशेषांक को धमाकेदार तो बना दिया किंतु पक्षधरता के अपराधी भी बने। ये संपादन जगत के समीकरण होते हैं जो कई बार संपादक पर ही भारी पड़ते हैं। घर का टेलिफोन का बिल उन दिनों चालीस हजार आया जो रवि ने अपने प्रेस का टाइप बेचकर चुकाया। वर्षों बाद उस लेखिका ने, न जाने किस कुंठावश रवि के ऊपर एक व्यंग्यात्मक लेख लिख कर दोस्ती का हक अदा किया। इतनी गलतबयानी से भरा लेख एक वरिष्ठ रचनाकार अपने कनिष्ठ रचनाकार के लिए कैसे लिख सका, यह हैरानी का विषय है। वह रवि के मोहभंग का दिन था। जीवन में इतना अवसादग्रस्त मैंने रवि को कभी नहीं देखा, कैंसर ग्रस्तता के दिनों में भी नहीं, जितना उस दिन। लेखन के इलाके में अचानक जेंडर कार्ड खेल डालना एक किस्म की बेइमंटी होती है।

गनीमत है कि ऐसे तजुर्बे जीवन में इक्का दुक्का ही रहे। प्रायः वरिष्ठ रचनाकारों ने सद्भाव और सौहार्द ही दिया। बीसवीं शताब्दी के सातवें, आठवें दशक में लेखकों के बीच गलाकाट स्पर्धा नहीं थी। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ. नामवर सिंह, डॉ. धर्मवीर भारती जैसे वरिष्ठ रचनाकारों ने अपनी रचनात्मक प्रेरणा और आत्मीय ऊर्जा से न जाने कितने हम जैसे चिरकुटों को जीवन प्रदान किया।


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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