सारे विश्व के पत्रकारों के लिए #ऑक्सीजन_भरा_ख़त #shabdankan


पाठक जब एकदम से लेखक के लिए चिंतित हो, और अपनी चिंता को संपादक के ज़रिये लेखक तक पहुंचाए, तब वह सिर्फ अपने लेखक से ही मुखातिब नहीं होता, वह उन सब-से जो उसकी चिंता के दायरे में आ रहे होते हैं, बात कर रहा होता है. आज़म सिद्दीक़ी का यह पत्र, भले भारत की वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक परिस्तिथियों के कारण पत्रकारों के पारिवारिक और निजी जीवन में आने वाली दिक्कतों को महसूस किये जाने पर लिखा गया हो लेकिन है यह सारे विश्व के पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के लिए ऑक्सीजन.  

शुक्रिया आज़म सिद्दीक़ी ! आपके माध्यम से उन पाठकों को भी शुक्रिया जो अपनी चिंता फेसबुक और ट्विटर पर कमेंट आदि से ज़ाहिर करते रहते हैं, आपका साथ ज़रूरी है.

भरत तिवारी
  (और: पढ़ने के बाद शेयर कीजियेगा)




... ... ...अफसोस कि अपनी जान बचाने में मर गए

— आज़म सिददीक़ी

अभी-अभी अभिसार शर्मा का ब्लॉग ‘‘कल माँ का फोन आया मुझ से कहा यह सब लिख बोल के क्या कर लोगे‘‘ शीर्षक से ट्विटर के माध्यम से ‘शब्दांकन’ पर पढ़ा। पहली बार अभिसार को थोड़ा नर्वस पाया। सच मानो तो मैं भी कुछ देर के लिए सोचने लगा कि जान बचाना इंसान की ज़िम्मेदारी है तो इन पत्रकारों को भी एहतियात से काम लेना चाहिए। वैसे भी ऐसे लोगों के लिए बोलने से क्या फायदा जिनको खुद अपने हालात की परवाह न हो। फिर ज़हन में अचानक मारुफ शायर डॉ. नवाज़ देवबंदी का यह शेर आया और मेरी सोच ने करवट ले लीः

अच्छा था घर की आग बुझाने में मरते हम,
      अफसोस अपनी  जान  बचाने में मर गए।
                                          — डॉ. नवाज़ देवबंदी




क़रीबन पंद्रह-सोलह साल पहले यह शेर मेरी नज़रों से गुज़रा था। आज इस शेर ने मेरे अंदर इंकलाब पैदा कर दिया। मुझमें ताक़त आयी और मुझे अहसास हुआ कि ऐसे वक़्त में जबकि सैकड़ों शुभचिंतक ऐसे पत्रकारों के हौसलें (मुहब्बत में ही सही) पस्त करने में लगे हुए हैं, किसी न किसी को तो इनके हक़ में बोलना पड़ेगा, इनकी हिम्मत बढ़ानी पड़ेगी, इनको अहसास दिलाना होगा कि जो लड़ाई वो लड़ रहे हैं, वो उनकी अकेले की लड़ाई नहीं है। उनका याद दिलाना होगा कि उनकी इस लड़ाई का महत्व क्या है। यह बताना होगा कि जब भी इस अज़ीम मुल्क का इतिहास दोहराया जाएगा, चाह कर भी, कोई माई का लाल, क़लम के इन सिपाहियों के योगदान को नकार नहीं सकता। भुला नहीं सकता। जहां तक जान व माल के नुक़सान की चिंता की बात है तो यह एक सत्य है कि हर इंसान के लिए अपनी जान की बहुत क़ीमत है। बेवक़्त कोई मरना नहीं चाहता और अगर कोई अपनी जान थोड़ी देर के बाज़ी पर लगा भी दे, तो हर व्यक्ति के साथ उसका परिवार माँ-बाप, भाई-बहन और दूसरे रिश्तेदार हैं, जिनको फिक्र होना लाज़िम है। कोई नहीं चाहेगा कि उसकी वजह से उसके परिवार पर या फिर उसके किसी रिश्तेदार पर कोई आंच आए। ठीक इस ही तरह मां-बाप बीवी बच्चे भाई बहनों को ऐसे पत्रकारों की परवाह होना बिल्कुल वाजिब है। पर हमें यक़ीन करना होगा कि यह जो कुछ भी आजकल हमारे मुल्क में हो रहा है, यह महज़ कुछ दिमाग़ी तौर से दिवालिया लोगों की हरकतें हैं और हमारा संविधान, हमारा सिस्टम, हमारी अवाम, देर सवेर ही सही, पर ऐसे लोगों से और ऐसे हालात से निपटने के लिए पूर्ण रूप से सक्षम है। हमें यक़ीन करना होगा कि हालात और वजह चाहे जो भी हों पर इतिहास साक्षी है कि पत्रकारों का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर दमन करके ज्यादा दिन तक कोई सरकार या सिस्टम चल नहीं पाया। आज भले ही सत्तापक्ष इन शरारती तत्वों से किसी भी तरह के रिश्तों से इंकार करता रहे, पर सच यही है कि ये लोग सरकार की आलोचना तक बर्दाश्त करना नहीं चाहते। और हदों को लगातार पार करते चले जा रहें हैं । सरकार इन मूर्खों को अपने शुभचिंतक मानकर ऐसे असामाजिक तत्वों के विरूद्ध किसी भी तरह की कार्यवाही करने यहां तक कि कार्यवाही का आश्वासन तक देने से परहेज़ कर रही है।




जहां तक धमकियां मिलने या फिर मौत का डर सताने की बात है तो मित्रों...मौत तो सबको आनी है। जिसको जब आनी है आकर रहेगी। जिस तरह आनी है उस ही तरह आएगी। धमकियों के डर से सच बोलना नहीं छोड़ा जा सकता। ठीक वैसे ही जैसे कि दुर्घटना की डर से कार या दुपहिया वाहन चलाना नहीं छोड़ा जा सकता है। अशोक साहिल का बड़ा अच्छा शेर है, जो में समझता हूं कि ऐसे हालात में इन पत्रकारों को ज़रूर हौंसला देगाः
मैं थक कर बैठ जा सर झुका लूँ जान दे दूं क्या,
     जो है पहचान मेरी उसको वो पहचान दे दूं क्या।   

     अमीरे शहर की ज़िद है फक़ीरे शहर मिट जाए
     शिकस्ता हाल हूं बेशक  मगर  ईमान  दे दूं क्या।
                                                   — अशोक साहिल

ऐसे दौर में जब समाज की मंडियों में हर एक की कीमत लगाई जा रही हो, ऐसे में सिर्फ खामोश रहना ईमानदारी और बेईमानी के बीच लाइन नहीं खींच सकता, बल्कि बोली लगाने वालों के खिलाफ़ मोर्चा लेना ईमानदारी का सबूत माना जाएगा। जो विनोद दुआ, ओम थानवी, बर्खा दत्, रविश कुमार, अभिसार शर्मा, निधि राज़दान, जैसे मुख्यधारा के पत्रकारों में दिखाई देती है। राजदीप सरदेसाई और पुण्य प्रसून वाजपेयी, जैसे वरिष्ठ एवं कोटी के पत्रकार भी इस ही फहरिस्त में शामिल हैं। जिनके कटाक्ष सत्तापक्ष को बहुत चुभते हैं।

इसके अलावा अपने ब्लॉगस के ज़रिए सरकार की नीतियों को आईना दिखाने वाले तथा झूठ की पोल खोलने वाले साहसी पत्रकारों की भी एक लंबी फहरिस्त है। किसी भी समझदार व्यक्ति या फिर सत्तापक्ष के लिए इससे अच्छी बात क्या हो सकती है कि उसकी नीतियों या कमियों को बताने वाले लोग समाज में मौजूद हों जिससे सरकार को अपने किये गए कार्यों की सफलता या विफलता का पता चल सके और आवश्यकता अनुसार सरकार उन कमियों को दूर करने का प्रयास कर सके। हमें यह याद रखना चाहिए कि प्रजातंत्र में सरकार की हैसियत जनसेवक की होती है न कि राजा की। परंतु आज के परिवेश में समस्या यह है कि कुछ नासमझ लोग मौजूदा सरकार को सरकार से ज्यादा कुछ और ही समझते हैं। ये लोग समझ नहीं पा रहे कि जो पत्रकार, बुद्धिजीवी या आमजन सरकार की आलोचना कर रहें हैं, ये किसी दुश्मनी में नहीं, किसी के हाथों बिककर नहीं बल्कि सरकार को ये अहसास दिलाने के लिए कर रहें हैं कि सरकार को पता चले कि कोई है जो कि उसकी नीतियों की समीक्षा कर रहा है। कोई है इस मुल्क में जो कि सरकार को जनता के प्रति जवाबदेह बनाना चाहता है। हालांकि यह कार्य विपक्ष का भी है परंतु आज विपक्ष कहीं नज़र नहीं आ रहा। इसमें कोई शक नहीं कि जनता ऐसे विपक्ष से निपटना खूब जानती है। जहां तक बात इन पत्रकारों को खरीदने या बिकने की रही तो आम लोगों को और खासतौर से इन नासमझ लोगों को जो ये कहते हैं कि रविश बिका हुआ है या अभिसार बिका हुआ है, ये समझना चाहिए कि अगर कोई बिकेगा ही तो ऐसे लोगों के हाथों बिकेगा जो उसे मालामाल कर दे या फिर किसी कंगाल के हाथों बिकना पसंद करेगा। वैसे भी विपक्ष की स्थिति आजकल कंगालों जैसी ही है। बिकने वाला सरकार के हाथ बिकेगा या फिर विपक्ष के हाथ बिकेगा जिसकी औक़ात आजकल एक एम.एल.ए. तक को खरीदने की नहीं है। थोड़ा सा दिमाग़ का इस्तेमाल करो भाइयों ऐसा न हो कि किसी खास पक्ष की वफादारी के चलते अपने बच्चों का भविष्य खराब कर लो। इस देश का मुस्तक़बिल खराब कर दो क्योंकि अगर ऐसा हुआ, जिसके होने संभावना बहुत ज्यादा दिखाई दे रही है तो फिर याद रखना कि खुदा ने आज तक उस क़ौम की हालत को नहीं बदला न हो ख्याल जिसको खुद अपनी हालत के बदलने का।

जय हिंद।

आज़म सिददीक़ी
अबुल फज़ल एनक्लेव-2 नई दिल्ली- 110025
azam04@rediffmail.com


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
००००००००००००००००

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

ये पढ़ी हैं आपने?

मैत्रेयी पुष्पा की कहानियाँ — 'पगला गई है भागवती!...'
Hindi Story: 'शतरंज के खिलाड़ी' — मुंशी प्रेमचंद की हिन्दी कहानी
Harvard, Columbia, Yale, Stanford, Tufts and other US university student & alumni STATEMENT ON POLICE BRUTALITY ON UNIVERSITY CAMPUSES
आज का नीरो: राजेंद्र राजन की चार कविताएं
तू तौ वहां रह्यौ ऐ, कहानी सुनाय सकै जामिआ की — अशोक चक्रधर | #जामिया
भारतीय उपक्रमी महिला — आरिफा जान | श्वेता यादव की रिपोर्ट | Indian Women Entrepreneur - Arifa Jan
Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
गिरिराज किशोर : स्मृतियां और अवदान — रवीन्द्र त्रिपाठी
कोरोना से पहले भी संक्रामक बीमारी से जूझी है ब्रिटिश दिल्ली —  नलिन चौहान
ईदगाह: मुंशी प्रेमचंद की अमर कहानी | Idgah by Munshi Premchand for Eid 2025