Hindi Story: बुकमार्क्स — शालू 'अनंत'



'बुकमार्क्स' कहानी पढ़िए शालू 'अनंत' दिल्ली विश्वविद्यालय से एमए करने के बाद अब 'हाशियावाद'  पर पीएचडी कर रही हैं शालू ने 'बुकमार्क्स' से पहले एक कहानी लिखी थी जो 'इन्द्रप्रस्थ भारती' में प्रकाशित हुई थी वह कहानी मैंने नहीं पढ़ी है लेकिन इस, प्रस्तुत कहानी के पहले पाठ से ही बहुत प्रभावित हुआ हूँ आशा करता हूँ वह भविष्य में उज्जवल कहानियाँ लिखती रहेंगी और कि आपको भी कहानी पसंद आएगी.... भरत एस तिवारी / शब्दांकन संपादक
Hindi Story

बुकमार्क्स 

— शालू 'अनंत'

जनवरी की सर्दियों में कमरा बर्फ जितना ठंडा होकर पूरे शरीर को कपकपा रहा था कि तभी बालकनी से रोशनी की एक पतली रेखा कमरे को दो हिस्सों में बाटने लगी। मैंने बड़ी मुश्किल से कम्बल को शरीर से अलग कर बालकनी का दरवाजा खोला, ठंडी हवा और सूरज की गरम किरण ने पूरे शरीर को एक साथ छूआ। आज दो दिन के बाद धूप इस तरह अपनी पूरी चमक के साथ आसमान को भर रहा था, तो मन किया इसे अपने अंदर जितना भर सकू भर लूँ। प्रकृति को समझना बहुत मुश्किल है, जो धूप गर्मियों में शरीर को जलाने का काम करती है वही धूप सर्दियों में इतना आनंद देती है शरीर को जो हीटर की गर्मी से संभव नहीं है।

बालकनी छोटी थी पर उसमे मैंने एक आरामदायक कुर्सी और एक छोटा टेबल काफी मनोयोग से रख दिया था। जिससे आधी से ज्यादा बालकनी भर चुकी थी, ये कमरा मुझे पसंद ही इसलिए आया था क्योंकि इसमें एक खूबसूरत बालकनी थी, खूबसूरत इसलिए क्योंकि इसका मुँह पूरव को खुलता है और उगते सूरज को देखना मन को अलग ही तरीके से रोमांचित कर देता है। मन की जितनी भी परतें होती हैं सारी एक साथ रोमांचित हो जाती हैं। मैं वहीं आँखें बंद कर कुर्सी पर बैठ गई और शरीर को सेकने लगी धूप से। आज कल पूरे दिन घर पर ही रहना होता है तो समय का भी कुछ पता नहीं होता लेकिन उस समय दो या तीन बज रहे होंगे शायद। थोड़ी देर बार याद आया की मैं नाला सोपारा पढ़ रही थी। मैंने अंदर जाकर बिस्तर पर बंद पड़ी नालासोपारा उठाई और वापस कुर्सी पर आ बैठी। एक किताब को पढ़ते समय इंसान एक ही साथ दो-तीन जिंदगियाँ जी रहा होता है, एक अपनी खुद की जिंदगी जिसके मुताबित मैं अभी सर्दियों की धूप का सुख ले रही हूँ, दूसरी उस किताब के पात्र की जिंदगी और साथ ही उसकी समस्याएं, खुशियाँ। नालासोपारा उपन्यास का मुख्य पात्र बिन्नी मेरे अंदर एक नए जीवन दृष्टि का संचार कर रहा है। अब तक तिरस्कृत होते आ रहे समाज के प्रति एक संवेदना पैदा हो रही है। बहरहाल, ये सब सोचते सोचते मेरा ध्यान किताब के बीच में पड़े बुकमार्क पर गई। किताब में ये बुकमार्क रखा था ताकि किस पेज पर हूँ ये ढूंढ़ना न पड़े। बुकमार्क को निकाल कर कुछ देर उसी को देखती रह गई, उसपर काले अक्षरों में कुछ लिखा था 'स्लीप इज गुड-बुक्स आर बेटर' पर इन काले अक्षरों का मेरे लिए कोई खास महत्त्व नहीं था, महत्त्व था तो केवल उस नीले बुकमार्क का जिसपर रंगीन फीता लटक रहा था। अभी कुछ समय पहले तक मैं बुकमार्क के बारे में नहीं जानती थी कि ऐसी भी कोई चीज होती है। अबतक मैं और मेरे दोस्त लोग पेज याद रखने के लिए पन्ने के ऊपर के हिस्से को हल्का मोड़ दिया करते थे जिससे उसपर निशान बन जाता था पर हमे इस निशानों से कोई हमदर्दी नहीं थी। हमे आदत हो चुकी थी किताब की देह पर इन निशानों को देखने की। एक ही किताब में हर दस-बारह पन्ने के बाद ये मुड़े पेज का निशान देखने को मिल जाता था और जिन किताबों में जितने कम ऐसे निशान होते थे वो किताब हमारे लिए उतनी ही नई होती थी।

कुछ सालों पहले अपनी एक दोस्त के पास पहली बार बुकमार्क देखा था, वो दोस्त एलीट परिवार से थी जिस कारण उसके रहन सहन का तरीका थोड़ा उच्च था और आकर्षक भी। बेशक मुझे आज तक फर्क नहीं पड़ा उसके किसी भी पहनावे, रहन सहन के तरीके से, लेकिन उस दिन जब उसने अपने छोटे से बैग से एक उपन्यास निकली जिसके बीच में मैंने एक गुलाबी रंग का सामान्य पन्ने से थोड़ा चौड़ा और लम्बा सा बुकमार्क देखा जिसपर रंगीन धागा लटक रहा था तो मेरी आखो में वो चमक आ गई जो अक्सर सूरज उगते हुए या पार्क में बच्चो को खेलते हुए या फिर गुलमोहर के पीले फूलों को झड़ते हुए देख कर आती है। मेरा मन उस बुकमार्क को छूने के लिए और उससे भी ज्यादा उसे अपनी किताबों में लगाने के लिए बच्चे की तरह अंदर से मचलने लगा लेकिन तब तक मुझे उसका नाम भी नहीं पता था की उसे कहते क्या है बेशक अपने मित्र-मंडली में मैं ही सबसे ज्यादा घुमक्कड़ थी, सबसे ज्यादा सोशल तौर पर एक्टिव थी और जितना हो सके ऑनलाइन ही हर काम करती थी तो परिवार में भी में ही सबसे ज्यादा समझदार और पढ़ी लिखी निकली। फिर भी मुझे कई सारी चीजों के बारे में नहीं पता था कि ऐसी भी कोई चीज एग्जिस्ट करती है, और उस दिन तो यकीन भी हो गया की मैं बहुत कम जानती हूँ।। पूछने की हिम्मत भी नहीं हुई तो बाद में किसी तरह मैंने गूगल बाबा की मदद ली और पता चला की ये है 'बुकमार्क'। मैंने सोच लिया की अब मुझे भी ये खरीदना है ऑनलाइन देखा तो खूब रंग-बिरंगे और तरह तरह के बुकमार्क्स दिखे, पर सबकी कीमतें बहुत ज्यादा थी जो खरीदना मेरे औकात के बाहर था। कम से कम उस वक़्त तो ऐसा ही था। उस वक़्त मैं बी.ए के दूसरे साल में थी और पूरी तरह से पापा पर निर्भर थी तो परिवार वालो के लिए ये फालतू खर्च था जिसके लिए उन्होंने मुझे रुपए नहीं दिए उल्टा जो ताने सुनने पड़े वो अलग।

कुछ समय बाद मैं अपने इस जूनून को भूल गई, लेकिन इस बार जब मैं बुक फेयर में गई तो वहाँ इंग्लिश किताबों के एक दूकान के रिसेप्शन पर मैंने ये बुकमार्क्स रहे देखे, जोकि बिलकुल फ्री थे और सब उठा भी रहे थे। मैंने भी उठाने की सोची पर लगा कही कोई कुछ बोले न तो रिसेप्शन पर बैठी एक लड़की से मैंने पूछ लिया ''क्या मैं ये बुकमार्क्स ले सकती हूँ?'' उसने बड़े ही सहज तरीके से जवाब दिया ''बिल्कुल मैम''। शायद उसके लिए ये बड़ी बात नहीं होगी पर उसका जवाब सुनकर मेरा चेहरा खिल गया और मैंने चार अलग-अलग बुकमार्क्स उठा लिए। बेशक वो उस तरह के नहीं थे जो मैंने अपनी दोस्त के पास या ऑनलाइन देखे थे पर मेरे लिए इस वक़्त इनका भी महत्त्व कम नहीं था। इसमें वो रंगीन फीते भी नहीं लगे थे तो मैंने फीते खरीद कर इनपर लगा दिया।

बुकमार्क टेबल पर रख कर मैंने किताब पढ़ना शुरू किया, ठण्ड की धूप में बालकनी में बैठ कर अपनी पसंद का साहित्य पढ़ने का मज़ा ही और है। पढ़ते-पढ़ते सूरज बिल्डिंग के दूसरे छोर पर चला गया इसका पता नीचे गली में दफ्तर से वापस आते लोगों की कतारों से चला। मैंने किताब में वही नीला बुकमार्क रखा और अंदर शाम की चाय बनाने चली गई, वापस आने पर अंधेर और होने लगा था, सर्दियों में शाम भी जल्दी ढलने लगती है.. टेबल पर पड़ी किताब उठाई और बालकनी का दरवाजा बंद कर अंदर आ गई। किताब में अभी भी उस बुकमार्क का रंगीन फीता झूल रहा है....

शालू 'अनंत'
shalu2241@gmail.com
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