भारत विभाजन का दर्द — एक सिलसिले का अंत — वीना करमचंदाणी


भारत विभाजन का दर्द

एक सिलसिले का अंत

— वीना करमचंदाणी

वीना करमचंदाणी की कवितायेँ शब्दांकन पर पहले प्रकाशित हुई हैं. पिछले दिनों जयपुर की यात्रा के दौरान उनसे जवाहर कला केंद्र में छोटी-सी मुलाक़ात भी हुई. इधर जब विभाजन से जुड़ा साहित्य शब्दांकन पर उन्होंने पढ़ा तो उन्हें अपने इस कहानीमय संस्मरण को आपसब तक पहुंचाने का मन हुआ. इसे पढ़ते हुए मैं अपने कहे को दोहराता रहा कि वह हिंदी की लेखिका ही है जो विभाजन की पीड़ा अपने बड़ो में देख और कह पा रही है. वर्तमान की तुरंत चर्चित होने की तीव्र और साहित्य के लिए घातक 'लिखना-है' आदत के परे इतिहास इन लेखिकाओं को बहुत आदर की दृष्टि से देखेगा. आप हौसला बढ़ाते रहें!

भरत एस तिवारी


किस पते पर बुक कराएगा मोटर साइकिल जब पता ही नहीं हो किस शहर किस गांव जाना हैं और हां यह जो सामान की लिस्ट बता रहा है ना फिर तो तू और तेरा सामान ही यहां से जा पाएगा बाकि हम सब तो यही रह जाएंगे। तेरी मां मेरी नौकरी के ट्रांसफर के बाद की शिफ्टिंग की बात नहीं कर रही... जब अचानक निकलना पड़ता है तो बस जान बचाने की सूझती है। 

मां और बाबा जब भी फुर्सत में होते तब वे दोनों घर परिवार नाते रिश्तेदारों और पास पड़ौस की बातें करते करते कब पुरानी समृतियों में पहुँच जाते उन्हें पता ही नहीं चलता। ऐसे में वो याद करते हर उस पल को जिसने कभी उन्हें करीब से स्पर्श किया था। वे याद करते हर उस शख्स को जो कभी उनके साथ था फिर बिछुड़ गया। वे याद करते उस घर को, खेत-खलिहान को, गली-मोहल्ले को, बाजार और उन रास्तों को जहां पर उन्होंने अपने आत्मीय क्षण बिताए थे। ऐसे समय में वे बहुत सारी यादों को एक साथ अपने भीतर समेट लेना चाहते थे।

उस दिन भी ऐसा ही हुआ। लता और लाल, मां-बाबा के साथ अपने घर के लॉन में बैठ हल्की हल्की रिमझिम फुहार का आनंद ले रहे थे। बात शुरू हुई पौधों से और पहँच गयी यादों की घनी जड़ों में। बाबा ने कहा बारिश का मौसम है तो क्यों न गमलों से निकाल कर कुछ पौधे लॉन के किनारे की जमीन पर लगा लिए जाएं। जमीन से जुड़ कर पौधे सहज ही फैलंगे, बढ़ेंगे, फलेंगें और फूलेंगे भी। 

... सच है वे भी अपनी जमीन पर रह रहे होते तो... अनायास मां बुदबुदाने लगीं मानों अपने आप से बात कर रहीं हों। 

तो क्या होता... खेत में हल जोत रही होती... कुँए से पानी भर रही होती... चक्की चला रही होती... मक्खन बिलो रही होती... यह कहते कहते बाबा ठठा कर हंस पड़े। हंसने के मामले में बेहद कृपण बाबा को यूं खिलखिलाते देख बहुत सुकून मिलता। लगातार संघर्षों की लम्बी कठिन यात्रा से गुजरने के बाद बाबा बहुत थोड़ी-सी हंसी बचा पाए थे जिसे वो सयंम से यदा कदा ही खर्च करते। बाबा थोड़ा-सा भी हंसते तो मां की खनकदार हंसी भी उनका साथ देती। 

आठ-नौ साल की छोटी उम्र में शादी हो जाने के कारण अबोध गंगा से पीहर छूटा और एक-दो साल में ही देश के विभाजन की त्रासदी के साथ अपना जमा-जमाया घर-बार और नाते-रिश्तेदारों का साथ छूटा। शादी से पहले अम्मा का नाम रूक्मणी हिंगोराणी था जो रिती रिवाजों के अनुसार शादी के समय बदलकर गंगा गोदवाणी हो गया। हां राशन कार्ड में मां का नाम गंगा ही तो था पर उनको इस नाम से कभी पुकारा नहीं गया। शादी के बाद से उनको मोहन की बहू और लता के जन्म लेने के बाद लता की मां के सम्बोधन से ही जाना गया। बाबा का नाम मोहन गोदवाणी था और वे सदा घर और बाहर इसी नाम से जाने गए। लता के जन्म लेने से पहले बाबा मां को क्या कह कर पुकारते थे नहीं पता पर जब से लता ने होश संभाला है उन्हें लता की मां कहते ही सुना है। 

लगातार चलती हल्की हल्की बारिश की रफ्तार के साथ ताल में ताल मिलाती बातों का सिलसिला भी अभी चल रहा था। लाल ने मां के दुपट्टे को खींचते हुए कहा मां बताओ न जब आपको पता चला अपना घर, अपना खेत, पूरा सामान, अपना सब कुछ छोड कर कराची से तुरंत निकल पड़ना है तो... 

लाल का वाक्य पूरा होने से पहले ही चाबी भरे खिलौने की तरह मां बोलने लगीं बर्तन-भांडे, गाय-भैंस सब कुछ छोड़कर रातों रात बैलगाड़ियों पर लदे फदे हम वहां से निकल भागे। मैंने एक के ऊपर एक-एक करके चार-पांच कुर्ते पहने ताकि जितने कपड़े अपने साथ ले जाए जा सकें ले जाएं। साथ में एक दो पोटली में थोड़ा बहुत खाने-पीने का जो सामान डाला जा सकता था बांध हम निकल पड़े थे अनजान दुर्गम सफर पर। तुम्हारी नानी से तो में दुबारा मिल ही नहीं पाई। उनके न रहने की खबर भी महीनों बाद पता चली। उनके पांव पर नासूर हो गया था। यह कहते कहते मां की आँखे छलछला पड़ीं। लाल को खुद पर गुस्सा आया, आज उसने फिर मां को रुला दिया। लता ने मां के हाथ पर अपना हाथ रखा तो वे अपने आपको संभालते हुए फिर बोलने लगीं... 

तब ये मुए मोबाइल भी तो नहीं होते थे जो पल-पल की जानकारी मिलती रहती और शायद मैं अपनी मां से मिल भी पाती। पर पता लग भी जाता तो इतनी आसानी से मिल सकती थी क्या? दो-दो दिन लग जाते थे एक जगह से दूसरी जगह तक जाने में। तेरे नाना बताते थे अंतिम समय तक उनके मुंह पर गंगू-गंगू ही था। वे गंगू बोलती थी मुझको, यह कहते हुए मां ने दुपट्टे से अपनी आंखे पोंछ ली। 

मां ने वातावरण को थोड़ा हल्का बनाते हुए लाल से पूछा अच्छा तू यह बता तुझे कोई कह दे कि आज ही घर छोड़कर हमेशा के लिए कहीं अनजानी जगह जाना पड़ेगा तो क्या करेगा? 

मैं अपने सारे पैसे पेटीएम में ट्रांसफर कर दूंगा, अपने सारे जरूरी डॉक्यूमेंट्स स्केन कर मेल में सेव कर लूंगा... और... और... हाँ अपने कपड़ें अटेची में डाल लूँगा... वेसे आपकी तरह मैं भी एक के ऊपर एक करके बहुत सारी शर्ट पहन सकता हूँ ना! 

और हाँ अपनी किताबें भी... और... और कहते लाल अचानक बोला अपनी ब्रांड न्यू मोटर साइकिल को कैसे छोड़ूंगा... बुक करवा दूंगा... अभी पिछले महीने ही तो बाबा ने कितनी हार मनुहार करने के बाद लाल को दिलवाई थी यह मोटर साइकिल... यह कहते कहते लाल ने अपना सारा सामान गिना दिया। 

अचानक लाल को वो तकिया भी याद आ गया जिसको सिरहाने लगाए बिना उसे नींद नहीं आती। 

बाबा मुस्कराते हुए बोले किस पते पर बुक कराएगा मोटर साइकिल जब पता ही नहीं हो किस शहर किस गांव जाना हैं और हां यह जो सामान की लिस्ट बता रहा है ना फिर तो तू और तेरा सामान ही यहां से जा पाएगा बाकि हम सब तो यही रह जाएंगे। तेरी मां मेरी नौकरी के ट्रांसफर के बाद की शिफ्टिंग की बात नहीं कर रही... जब अचानक निकलना पड़ता है तो बस जान बचानें की सूझती है। 

इस बीच लता बाबा की बात को अनसुना करते हुए बोल पड़ी... मैं तो अपनी चूड़ियों वाला बॉक्स लेकर चल दूंगी। लता को चूड़ियों का बहुत शौक है। पता नहीं कितनी चूड़ियां हैं उसके पास। कभी कोई इधर-उधर हो जाए या टूट जाए तो पूरा घर सर पर उठा लेती है। 

अपनी लिस्ट को आगे बढा़ते हुए लता बोली पर कपड़े तो मुझे भी साथ ले जाने होंगे। अपनी बार्बी डॉल को तो वो किसी भी हालत में नहीं छोड़ेगी। 

अब जान पर आन पड़ती है तो न चूड़ियां याद आती हैं और न मोटर साइकिल... .बस लगता है किसी तरह जान बच जाए। जान है तो जहान है। हम सब अपनी जमीन, घर, दुकान सब कुछ छोड़ निकल भागे और बिखर गए इधर-उधर और जुदा हो गए। किसी को किसी का कुछ पता नही। सबके प्राण अपने अपनों में अटके पड़े थे, कहां होंगे किस हाल में होंगे। बच्चे-बूढ़े भूख से बिलख रहे थे। पीने के लिए पानी नहीं था। सब सहमे हुए थे। मन में हाहाकार मचा था। सबकी आखों में डर था। दिल में तमाम तरह की आशंकाएं थी। 

उनमें से कुछ अपने परिवार वालों के साथ यहां अनजानी मंजिल तक पहुंच पाए तो कुछ का साथ अधूरे सफर में छूट गया। मेरे मायके वाले सखर जिले के शेरकोट गांव में और हम ओरगांबाद में थे। किसी को किसी की कुछ खबर नहीं। जिसको जब मौका मिला हम सब ऊपर वाले पर छोड़ अपनी जान बचा बैलगाड़ियों पर लदे हुए निकल पड़े कराची के लिए। कराची से पानी वाले जहाज से बम्बई पहुंचे। हम वहां कल्याण कैम्प में पहुंच गये। कोई होशंगाबाद तो कोई कानपुर तो कोई जयपुर के और दूसरे शहरों में बने शरणार्थी कैम्पों में पहुंच गया। जिसको जहां शरण मिली वहां टिक गया। शरणार्थी कैम्प में गुजारे गये अपने कठिन संघर्ष भरे दिनों को याद करते करते मां की आंखे एक बार फिर भीग गईं। 

लता ने बात का रुख बदलते हुए मां को मीठी यादों की राह पर ले जाते हुए कहा अपनी शादी का किस्सा सुनाओ ना... 

कितनी बार तो सुना चुकी हूँ तुमको। मां ने शादी की बात सुनते ही बाबा को दुलार से निहार कर शर्माते हुए ऐसे देखा मानों नई नवेली दुल्हन अभी डोली से उतर कर आई हो। 

तुम्हे पता तो है जब मां आठ-नौ साल की ही थी तो मां बाबा की शादी हो गयी थी। यह कहते हुए लाल ने लता को चिड़ाया दीदी तुम तो सोलह साल की हो गई हो अब तुम्हारी भी शादी करवा देंगे। लता बोली करवा कर देख। अब तो अठारह साल से पहले लड़की का विवाह करवाने पर जेल की हवा खानी पड़ जाती है। 

लड़की है लता। बहुत अच्छा लगता है उसे मीठी-मीठी और कोमल-कोमल बातें सुनना। 

इस बीच मां ने कई बार सुनाया जा चुका अपनी शादी का किस्सा एक बार फिर शुरू कर दिया। सच तो यह था उनको खुद भी उन स्मृतियों में लौट जाना अच्छा लगता था... तेरी मौसी की बारात में आए थे तेरे दादा और बाबा। घर के पिछवाड़े में खेल रहे थे हम बच्चे। पता नहीं कब तेरे दादा ने मुझे देखा और मांग लिया तेरे नाना से मुझको तेरे बाबा के लिए। बातों बातों में मेरी शादी तय हो गयी और लगे हाथ मौसी के साथ-साथ मेरा ब्याह भी कर दिया गया। अब मेरी बहिन मेरी जेठानी भी थी। बारात तीन दिन ज्यादा रूकी। सात दिन के लिए आई बारात दस दिन बाद एक की जगह दो दुल्हनों के साथ लौटी। मैं बहुत खुश थी। नए चमकीले कपड़े और गहनों के साथ मुहं दिखाई के नेगचार में खूब सारे पाई-टके मिले अरे हाँ तुम्हें क्या पता पाई-टके... एक पाई में तब खूब सारे चने, मिठाई आ जाते थे... मजा ही आ गया... मैं तो यही सोच कर आनंदित थी कि इतने पैसों से खूब सारे मीठे गुड के सेव और ‘नकुल‘ आ जाएंगे। नकुल पता है न तुम्हे चाशनी चढ़ी मूंगफलियां, तब च्यूंगम और चाकलेट नहीं होते थे... 

मां ने कुछ देर के लिए बोलने को विराम दिया मानों नकुल का स्वाद ले रही हों। फिर कुछ सोचते हुए बोलीं मुझे लम्बे घूंघट में देख तेरे दादा ने कहा तेरा चेहरा देख कर ही तो तुझे पसंद किया था फिर उसे क्यों छुपा रही है। शर्म तो आँखों की होती है, कहते हुए दादा जी ने मेरा घूंघट उठा दिया। तेरी दादी जी उन से खूब गुस्सा हुईं। बहुत दिनों तक दोनों में बातचीत भी बंद रही। नाराज हो कर तेरे दादा के बड़े भाई ने तो हमारे घर आना ही बंद कर दिया था। मगर तेरे दादा जी ने मुझे फिर कभी घूंघट निकालने नहीं दिया। यह उस समय की बात है जब अपनी पतली झीनी चुन्नी के ऊपर एक चादरनुमा मोटा कपड़ा डालकर ही औरतें घर से निकलतीं थीं। 

दो परतों वाले घूंघट की जगह बिना घूंघट वाली बहू गांव में चर्चा का विषय बन गई थी। सब पीठ पीछे निंदा करते। उड़ते-उड़ते बात हम तक भी पहुंच जाती। सब कहते कॉमरेड प्रहलाद ने लाज शर्म बेच खाई। एक बार तो जात बिरादरी से बाहर तक करने की चर्चा भी सुनाई दी। मुझे अपने आस पास देख गांव के बढे बूढ़े अपना मुहं दूसरी तरफ घुमा लेते। उन्होंने अपनी बहू बेटियों के माध्यम से मेरा अघोषित बहिष्कार तो करवा ही दिया था। मैं दुखी होती तो दादाजी मुझे समझाते अपनी ताकत लिखने पढ़ने में लगाओ। उन्होंने ही मुझे थोड़ा बहुत लिखना पढ़ना सिखाया और इस काबिल बनाया कि मैं अनपढ़ पढ़ाई के महत्व को समझ पाई। 

काश बेफिजूल बातों में अपनी ताकत खराब करने वाले एकजुट होकर अंग्रेजों का मुकाबला करने में इतनी शक्ति लगा देते तो क्या मजाल कि हम इतने लम्बे समय तक उनके गुलाम रहते... शादी और घूंघट की बात करते-करते मां के भीतर का कॉमरेड बोलने लगा था। दादा जी ने उनके व्यक्तित्व को बहुत मेहनत और अपनेपन से गढ़ा था। दादा जी ने ही मां को सिखाया था कि इंसानियत और सद्भावना से बड़ा कोई धर्म नहीं होता। कोई छोटा बड़ा नहीं होता। उनकी ही सीख थी दुनिया को सुन्दर और सुखी बनाने के लिए जो कुछ कर सको, करो। 

मां जब सिंध की और सिंध से विस्थापित होने की बात करतीं तो बिना रुके बोलतीं चली जाती। मां बाबा के जीवन और संघर्षशील व्यक्तित्व की तारीफ करने में कोई कसर नहीं छोड़ती सो उस दिन भी बोलीं... यहाँ आने के बाद सिर ढकने के लिए छत, पेट भरने के लिए दो जून रोटी के जुगाड़ में क्या क्या नहीं किया तेरे बाबा ने... 

कभी गोलियां बेचीं तो कभी चने, कभी सब्जी की दुकान पर काम किया तो कभी दवा की फेक्ट्री में जब विस्थापित सिंधियों को शरणार्थी कहा गया तो तेरे बाबा को बिल्कुल अच्छा नहीं लगा। वे अपने आपको पुरुषार्थी कहलवाना पसंद करते थे। सरकार की तरफ से हमें मदद के रूप में कल्याण में थोड़ी जमीन और कुछ आर्थिक मदद् मिली थी। मैं तेरी दादी और चाचा के साथ कल्याण मे रही। तुम्हारे बाबा रोजी रोटी के लिए कभी मुम्बई तो कभी बड़ोदा, कभी ग्वालियर तो कभी दिल्ली जहां काम मिला वहां चल दिए। गुजारे लायक कमा पाते थे तेरे बाबा, बस चला रहे थे किसी तरह जीवन की गाड़ी। 

लाल ने मां से कहा वो खीर वाली बात भी बताओ हमको... लाल को भी खीर बहुत पसंद है। मां बनाती ही इतनी अच्छी हैं। 

हां हां बता रही हूं... तेरे चाचा की हमेशा फरमाइश रहती थी खीर की। एक दिन कहा भाभी इस बार राखी पर खीर बनाना, बहुत दिनों से खीर नही खाई। पाई पाई जोड़ी जिससे खीर के लिए दूध, चावल और मेवे खरीद पाते। राखी वाले दिन मैंने खूब मन लगा कर खीर बनाई। पूरे घर में खीर की खुशबू तैर रही थी। तेरे चाचा ने अपने दो दोस्तों को भी बुलाया था। वो उनके साथ बाहर गली में खड़े गप्पे मारने लगे। तेरी दादी पड़ौस में चली गईं थीं। मैं नहाने के लिए घर के पिछवाड़े टाल की आड़ में चली गयी। पीछे से बिल्ली आई और सब चट कर गयी। उस दिन मैं खूब फूट-फूट कर रोई। तेरे चाचा दोस्तों के साथ जब चहकते हुए घर में घुसे तो एक बार तो मेरी तो हिम्मत ही नहीं हुई उनको बताने की। बताना तो था ही। चाचा चुपचाप दोस्तों के साथ घर से बाहर निकल गए। हमने उस दिन गुड़-चने खाकर काम चलाया। 

आज मां ने अपनी कभी खीर न खाने का भेद भी हमे बताया। मां अपनी धुन में बोल रहीं थीं। खीर वाली इस घटना के कुछ ही दिन बाद तेरे चाचा की तबीयत अचानक इतनी ज्यादा खराब हुई कि वे हमे हमेशा के लिए छोड गए। तेरे चाचा बार-बार खीर खाने की जिद करते मगर पैसों की कमी के कारण मैं तेरे चाचा के लिए दुबारा खीर नहीं बना सकी। इसका दुःख मुझे आज भी सालता है। तेरे बाबा भी उन दिनों ग्वालियर थे। मैं इधर-उधर से उधार ले जैसे तैसे दवाइयों का इंतजाम कर पा रही थी। वो दिन है और आज का दिन खीर का नाम लेते ही मुझे तेरे चाचा का चेहरा नजर आने लगता है और मुझसे खीर खाई नहीं जाती। मुझे क्या पता था तेरे चाचा इस तरह अचानक हमें छोड़ जाएँगे वरना मैं किसी भी तरह बिना खीर खाए उसको यूं नहीं जाने देती... यह कहते कहते मां का गला रुंध गया। बाबा ने भी चुपके से अपनी आँखे पोंछ आँसूओं को लुढ़कने से रोक लिया। 

पता नहीं कितनी बार सुन चुके थे यह सब मगर जितनी बार भी सुनते उसमें कोई न कोई नई बात जरूर जुड़ जाती थी। आज चाचा के बारे में और कुछ जानने का भी करने का मन कर रहा था लाल का मगर वो मां बाबा को और दुखी नहीं करना चाहता था। 

लता तो अक्सर घर आई सहेलियों को मां के मुंह से सिंध से यहां आने के बाद शरणार्थी केम्प में बिताए हुए दिनों के हृदयस्पर्शी मार्मिक संस्मरण सुनवाती। मां उनको सिंध से अपना घर छोड़कर निकलने से लेकर कल्याण तक पहुंचने की पूरी कहानी ऐसे बताती कि पूरे मार्मिक चित्र जीवंत हो सामने घूम जाते। वे यह जरूर कहतीं कल्याण के शरणार्थी कैम्प में गुजारे हुए दिन किसी दुश्मन को भी देखने को नहीं मिले। शुरू में कुछ दिन खाने के नाम पर थोड़ी खिचड़ी मिलती जिससे न पेट भरता न मन। बाद में कच्चा राशन मिलने लगा जो पूरा नहीं पड़ता। आधा पेट भरता तो आधा खाली रहता। मांऐं छोटे बच्चों को दूध में पानी मिलाकर पिलाती। बीमारों को पूरी दवाईयाँ नहीं मिलती। पीने को साफ पानी नहीं। शौच के लिए भी कैम्प में सुविधा नहीं थी। सामने समुन्द्र किनारे जाते थे। दो-दो दिन तक नहा नही पाते थे। साफ सफाई नहीं होने के कारण ज्यादातर शरणार्थी खुजली की बीमारी से परेशान थे। हैजा फैल गया था। तेरे दादाजी को भी हैजा अपने साथ ले गया। वे जीवन भर देश की आजादी के लिए लड़ते रहे पर अपनी जिंदगी की लड़ाई झटके से हार गए... यह बताते-बताते लम्बी सांस लेकर कहतीं शरणार्थी कैम्प में गुजारे दिनों ने ही हमको फौलाद-सा मजबूत बना दिया है शायद। इसी कारण हम कहीं भी किसी भी हालात के अनुरूप अपने-आपको ढाल लेते है। 


इस दौरान लता अपनी सहेलियों के चेहरे पर आते जाते भावों को देखती और ऐसे गर्वित होती जैसे सारी मुसीबतें उसने भी पार की हों। वेसे लता जानती है उसमें न मुसीबतें सहन करने की शक्ति है न इतना धैर्य वह तो सीधी सपाट बिना किसी अवरोध के जिंदगी जीने की आदी है। मां और बाबा ने अपने संघर्षो की बातें उनको सुनाई जरूर हैं पर दोनों उनकी छोटी-छोटी समस्याओं में हमेशा ढाल बन खड़े हो जातें थे। लता तो अब भी अपनी छोटी-छोटी परेशानियों के समाधान के लिए मां-बाबा की सलाह और मदद लिए बिना कुछ नहीं करती। 

लता को आराम कुर्सी पर बैठे बैठे कब नींद आ गयी थी उसे पता ही नहीं चला। आज सुबह ही लता की मां से फोन पर लम्बी बात हुई थी शायद इसलिए उसके अचेतन मन में सारी स्मृतियां जीवित हो उठीं थी। 

मां सिर्फ सोलह साल की थीं जब लता ने जन्म लिया था और ठीक दो साल बाद लाल ने। चालीस वर्ष की लता का अब दिल्ली में अपना एक घर है जिसमें अपने पति और दो बच्चो के साथ रहती है। इस दौरान लाल भी इंजीनियर बन मां बाबा की अनिच्छा के बावजूद इंग्लैण्ड जा बसा। उसने वहीं शादी की और वहीं का हो कर रह गया। अब तो उसके दो प्यारे बच्चे भी हैं। मां और बाबा आज भी पुराने घर में ही रहते हैं। लाल उनको लगातार इंग्लैण्ड आकर अपने साथ रहने को कह रहा है। 

एक बार जबरन सिंध छूटा सो छूटा मगर अपनी अच्छा से अपनी जड़ों से फिर कैसे कटें इसलिए बाबा हर बार लाल के पास जाकर रहने की बात टाल जाते हैं। वो यही कहते अब इस उम्र में इंग्लैण्ड के नए माहौल में कैसे एडजस्ट कर पाएंगें। वे मजाक करते भई जिन अंग्रेजो से लड़ाई लड़ी उनके यहां ही जाकर बसना बड़ा गड़बड़ झाला होगा यह तो... फिर इंग्लैण्ड में रहने के तौर तरीके, छुरी कांटे से खाना और अंग्रेजी में गिटपिट करना... नहीं भाई अब ये हमारे बस का नहीं। 

लता जानती है यह सब तो टालने की बात है। मां बाबा को अपने घर नाते रिश्तेदारों, मित्रों और पास-पडौस से बहुत लगाव है और अब वे इनसे दूर रहने का सोच भी नहीं सकते। उनकी जड़े अब मजबूती से यहां जम गयी हैं। सिंध छूटने का दर्द वे जिंदगी भर अपने सीने में समेटे रहेंगे। तब तो उन्हें मजबूरी में अपनी जमीन से अलग होना पड़ा। इसके अलावा और कोई चारा भी तो नहीं था। जो सिंध अब अपने वतन का, हिन्दुस्तान का हिस्सा ही नहीं तो वहां वो कैसे रहते। बरसों से यहां रहते रहते वे अब यहां की आबोहवा मिट्टी पानी में घुलमिल गए हैं। यहां के लोग अब अपने हो गए हैं। उनके सुख दुःख के भागीदार बन गए हैं। उनका हिस्सा बन गए हैं। ऐसे में फिर यहां से उखड कर इंग्लैण्ड जा कर बसना उन्हें एक और विस्थापन की त्रासदी सा लगता है। इस दुःस्वपन से वे भयभीत हो जाते हैं। वे फिर नहीं लौटना चाहते जलावतनी की स्मृतियों में। इस मनःस्थिति को लाल नहीं समझता और न ही समझना चाहता है। 

कल रात को लाल ने एक बार फिर फोन पर लता को मां बाबा को समझाने के लिए कहा। उसने कहा जवाब जानने के लिए वह फिर एक दो दिन में फोन करेगा। सच तो यह था कि वो कभी साहस ही नहीं कर पाई इस सम्बन्ध में मां-बाबा से बात करने के लिए, मगर लाल को जवाब तो देना ही पड़ेगा। 

दूसरे दिन उसने बाबा को फोन पर कहा आप तो खुद कहते हो आगे की और देखना चाहिए तभी हम तरक्की कर पाएंगे, अगर पीछे मुड़कर देखते रहे तो बहुत पीछे रह जाएंगे। 

हाँ, यह तो है पर क्या कहना चाह रही है तू ?... बाबा ने सहज भाव से पूछा। 

बाबा... लता ने संकोच से धीमे से कहा... लाल चाहता है आप दोनों अब उसके पास रहने आ ही जाओ। वो आप दोनों को बहुत मिस करता है। आपका मन लग जाएगा बच्चों के साथ। वहां सारी सुख सुविधाऐं है। अब इस उम्र में आप अकेले क्यों रहे? मां को भी पूरी गृहस्थी संभालनी पड़ती है। मां ने बाबा के हाथ से फोन छीनकर लता को कहा तू मेरी छोड... अपनी गृहस्थी संभालने में मुझे काहे की दिक्कत... दिक्कत तो तब होगी जब यह सब छूट जाएगा... 

देख साफ कहूं... तू कर देना लाल को... जो तुझे हिचक हो तो मेरी ही बात करवा देना, तेरे बाबा तो कह नहीं पाएंगे... एक बात साफ कह दूं... हम जहां पैदा हुए, खेले-कूदे, पले-बढे, वह जमीन हमें छोडनी पडी... हमारी मजबूरी थी... हमारा बस नही था... जो होनी को मंजूर था हुआ... वह एक सांस में बोले जा रहीं थीं.. 

उनकी आवाज की खनक... गायब थी अब... जलावतनी का दर्द पूरी शिद्दत से उनकी आवाज से अभिव्यक्त हो रहा था। पर यह कहते उनकी आवाज में दृढ़ता थी जो उनके चरित्र का हमेशा हिस्सा रही थी... बुरी से बुरी स्थिति में भी वो घर के बाकि लोगों के लिए सहारा बन साथ खड़ी रहतीं थीं। 

लता को मालूम है बाबा चुपचाप हमेशा की तरह एक टक मां को देखे जा रहे होंगें। मां कहती थी... ‘‘ये‘‘ जो कुछ बोलते नहीं पर यूं देखते रहते हैं तो बड़ी हिम्मत रहती है। मुझे पता पड़ जाता है वे मेरे साथ हैं, मुझसे सहमत हैं पर जब मुहं फेर लेते हैं तो मैं समझ जाती हूं कि वे मेरी राय से एकमत नहीं हैं। तब मैं इनको समझने की कोशिश करती हूं। मानों यह बताते हुए अपनी गृहस्थी की सफलता का रहस्य हमें समझाती हों। 

तू लाल को कहदे साफ साफ अब हमें वहां बसने को दुबारा नहीं कहे। यहां वेसी सुविधाएं बेशक न हो मगर यहां की मिट्टी हमारे बदन का हिस्सा बन गयी है। अब हमारी सांस में इसकी खुशबू बस गयी है। हम इसके बिना अब नहीं जी पाएंगे। यहां से कहीं जाना नीयती के नहीं हमारे हाथ में है तो हम अब यह जमीन छोडकर क्यों जाएं। अब यहीं जीएंगे और यही मरेंगे। 

... नहीं... नहीं... हमें कही नहीं जाना... अचानक जैसे बरसों से दबी रुलाई फूट कर निकल आई... उनके पत्थर से मजबूत सीने को भेद कर निर्मल जल की मुक्त धारा सी। मां को लता ने पहली बार इस तरह फूट फूट कर रोते देखा था। लता ने महसूस किया बाबा अब भी चुपचाप मां को एक टक देखे जा रहे होंगे। 

 — वीना करमचंदाणी, सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग,राजस्थान सरकार में सहायक निदेशक 
[लगभग 30 वर्षों से  सिंधी एवं हिंदी में  कविता,कहानी, लघु कथा ,व्यंग्य आदि का दोनों भाषाओं के अनेक राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन। दूरदर्शन जयपुर पर लगभग 15 वर्षों तक  रोजगार समाचार वाचन।  
संपर्क: 9 /913 मालवीय नगर, जयपुर 302017 karamchandani.veena@gmail.com]

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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