दिनमान की यादें - 2 और 3 - श्रीकांत वर्मा...सर्वेश्वर दयाल — विनोद भारद्वाज | #DinmanKiYaden #Sansmaranama


दिनमान की यादें - 1 —  विनोद भारद्वाज | #DinmanKiYaden #Sansmaranama


कवि, उपन्यासकार और कला समीक्षक विनोद भारद्वाज जी को आप शब्दांकन पर पहले भी पढ़ते रहे है. विनोदजी के पास श्रेष्ठ यादों के कई दबे हुए खजाने हैं, जिनमें से वह यदाकदा कुछ मणियाँ निकालते हैं. इस दफ़ा वह अपने दिनमान के दिनों को याद करते हुए कुछ अनजानी और रोचक जानकारियां साझा कर रहे हैं. शुक्रिया विनोदजी.... भरत एस तिवारी/ शब्दांकन संपादक

#DinmanKiYaden


दिनमान की यादें - 2 और 3 "श्रीकांत वर्मा...सर्वेश्वर दयाल"

— विनोद भारद्वाज 


दिनमान की यादें 2

मैं अब घर जाना चाहता हूँ
मैं जंगलों
पहाड़ों में
    खो जाना चाहता हूँ
        मैं महुए के
          वन में

    एक कंडे सा
    सुलगना, गुँगुवाना
    धुँधुवाना
    चाहता हूँ।

श्रीकांत वर्मा की कविताएँ किसी भी तथाकथित अकवि से अधिक अकविता हैं, मुझे मगध से ज़्यादा माया दर्पण संग्रह की कवितायें अपने नज़दीक लगती हैं। मगध में भी अद्भुत ताक़त है, पर उसमें अपराध बोध भी कवि को विचलित किए हुए है। माया दर्पण में कवि ज़्यादा सहज और प्रचलित कविता के ख़िलाफ़ है।

1967 में जब हम कुछ मित्र लघु पत्रिका आरम्भ लखनऊ से निकाल रहे थे तो उसका पहला अंक बिहार के अकाल पर केंद्रित था। हमने श्रीकांत वर्मा को भी अकाल पर कविता भेजने के लिए कहा। उन्होंने एक बहुत मार्मिक पत्र में द्विवेदी युग शैली में कविता न लिखने के अपने कारण बताए। पर आरम्भ के बाद के अंकों में उन्होंने अपनी कुछ अच्छी कविताएँ भी दीं और रूसी कवि वोजनेसेंस्की के सुंदर अनुवाद भी भेजे।

मैं दिल्ली गया, दिनमान के दफ़्तर में उनसे मिला। उसके बाद अंत तक मैं उनके मित्रों में शामिल रहा। जब वह आख़िरी बार इलाज के लिए अमेरिका जा रहे थे, तो मैं उनसे मिलने गया। राजेंद्र माथुर भी आ गए थे। श्रीकांत जी ने कहा, मैं तो नहीं पी सकूँगा पर आप मेरे स्वास्थ्य के लिए पीजिए। अमेरिका से उनका शव ही वापस आया। 
ज़ाहिर है उम्र में वह मुझसे काफ़ी बड़े थे, पर मुझे वह दोस्त ही मानते थे। भटकता युवा कवि या पत्रकार नहीं। अक्सर कई बड़े नाम अपने घर कोई आयोजन करते हैं, तो युवा लोगों को अपनी लिस्ट से काट देते हैं। श्रीकांत जी की ऐसी आदत नहीं थी। 



दिनमान की यादें 3


   घन्त मन्त दुई कौड़ी पावा
   कौड़ी लै के दिल्ली आवा, 
   दिल्ली हम का चाकर कीन्ह
   दिल दिमाग भूसा भर दीन्ह, 
   भूसा ले हम शेर बनावा
   ओह से एक दुकान चलावा, 
   देख दुकान सब किहिन प्रणाम
   नेता बनेन कमाएन नाम, 
   नाम दिहिस संसद में सीट
   ओह पर बैट के कीन्हा बीट, 
   बीट देख छाई खुशिहाली
   जनता हंसेसि बजाइस ताली, 
   ताली से ऐसी मति फिरी
   पुरानी दीवार उठी
   नई दीवार गिरी। 

सर्वेश्वर दयाल की यह अलग तरह की कविता मुझे पसंद है। दिनमान में क़रीब दस साल उनके साथ काम किया। निजी पसंद को देखें तो कवि और इंसान के रूप में रघुवीर सहाय और श्रीकांत वर्मा मेरे ज़्यादा क़रीब थे। पर उन दोनों के निधन के बाद मैं कोई कविता उनकी स्मृति में नहीं लिख पाया, पर सर्वेश्वर जी पर मैंने कविता लिखी थी। उनके निधन से एक दिन पहले दिन के क़रीब तीन बजे मैंने उन्हें दफ़्तर की विशाल खिड़की से बाहर अजीब सूनी आँखों से दूर शांति वन को देखते हुए पाया था। दरिया गंज में हमारा दफ़्तर ऊपर की मंज़िल पर था। सर्वेश्वर जी की आँखों में मुझे डरा देने वाली चीज़ें नज़र आयी थीं।

पता नहीं उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार का इतना मोह या लालच क्यूँ था। ज्ञानपीठ पुरस्कार को व्यंग्य से वह लखटकिया पुरस्कार लिखते थे, जिससे टाइम्ज़ प्रबंधन को ऐतराज़ भी हुआ। यह सम्मान भी जैन परिवार का ही था।

विष्णु खरे जब साहित्य अकादमी के उप सचिव हो गए, तो कभी-कभी सर्वेश्वर जी मेरी मेज़ पर आ कर बैठ जाते थे और निराश स्वर में कहते थे, अपने दोस्त को कहिए, कुछ कोशिश करें। विष्णु खरे कवि के रूप में उन्हें पसंद नहीं करते थे। ज़ाहिर है साहित्य अकादमी पुरस्कार उनके अपने हाथ में नहीं था, पर फ़ाइलें तो उनके हाथ में रहती थीं। एक बार उन्होंने स्वीकार किया था, मैंने और अशोक वाजपेयी ने मिल कर शमशेर को पुरस्कार दिलाने की योजना बनाई थी। अब आप कह सकते हैं कि ग़लत क्या हुआ। सही नाम को लेकर योजना बनाना ग़लत बात तो नहीं थी। नामवर सिंह लंबे समय तक साहित्य अकादमी पुरस्कार को नियंत्रित करते रहे। उनकी पसंद ख़राब तो नहीं होती थी। लेकिन राजनीति तो थी ही।

मैंने कभी रघुवीर सहाय या श्रीकांत वर्मा को इस पुरस्कार के लिए बेचैन नहीं देखा। ख़ैर, अब तो इस पुरस्कार का और भी बुरा हाल है। ललित कला अकादमी पुरस्कार की तरह इसका कोई महत्व नहीं रह गया है।

सर्वेश्वर जी बाद के दिनों में नक्सलवादी विचारधारा के साथ हो गए थे। शुरू में वह भावुक थे, यहीं कहीं एक कच्ची सड़क थी वह मेरे गाँव को जाती थी शैली के इलाहाबादी रोमांटिक कवि। एक बार मैं चंडीगढ़ साहित्य अकादमी के एक आयोजन में गया, वहाँ पंजाबी कवि अमरजीत चंदन से मुलाक़ात हुई। वह तब नक्सल विचारधारा के क़रीब थे। उनकी एक कविता मैंने सुनी, साइकल चलाते हुए। मुझे बहुत पसंद आयी। दिनमान में छपवाने की इसे कोशिश करूँगा, यह कह कर उसे कवि से मैं ले आया। वह कविता दिनमान में छपी भी। सर्वेश्वर जी ने मुझसे कहा, आप कब से नक्सल हो गए। वह आम आदमी के अपने लेखन में बड़े प्रवक्ता थे, चर्चे और चरखे कॉलम में आम और ग़रीब आदमी की बड़ी दुहाई देते थे। पर दिनमान के चपरासियों से उनका व्यवहार साहब वाला ही था।

दिनमान में आर्ट डिज़ाइनर कोहली एक कार से घर जाती थी। अक्सर मैं और सर्वेश्वर जी उनकी कार में सुप्रीम कोर्ट तक लिफ़्ट लेते थे। फिर हम पैदल मण्डी हाउस तक जाते थे। उनका घर पास में ही बंगाली मार्केट में था। मैं मण्डी हाउस में सांस्कृतिक आवारागर्दी करता था। हमारे बीच संवाद काफ़ी था, प्यार कम।

1979 में चित्रकार स्वामीनाथन की धूमिमल गैलरी में एकल प्रदर्शनी में हम सब का काव्य पाठ भी था। सर्वेश्वर जी और स्वामी में पटती थी। स्वामी ने इस मौक़े पर अपनी एक कविताओं की पुस्तिका भी सर्वेश्वर जी को समर्पित की थी। मैंने अपनी एक लोटे पर लिखी कविता वहाँ सुनाई जो स्वामी को भी पसंद आयी। बाद में धर्मवीर भारती ने उसे धर्मयुग में छापा। वह बाद में भी जब मेरी किसी कविता की हस्त लिखित स्वीकृति भेजते थे तो लिखते थे लोटे वाली कविता ज़्यादा अच्छी थी। सर्वेश्वर जी ने अगले दिन दफ़्तर में मेरी मेज़ पर आ कर कहा, मैं भी लोटे पर कविता लिखना चाहता था, वह आम आदमी का प्रतीक है। अस्सी में विष्णु खरे की कोशिशों से मेरा पहला संग्रह जलता मकान छपा, तो वरिष्ठ कवि सर्वेश्वर ने दिनमान में उसकी समीक्षा लिखी, जिसमें युवा कवि के प्रति उन्होंने उदारता बिलकुल नहीं दिखाई, पर लोटे वाली कविता को साथ में प्यार से छापा।

उनके जन्मदिन पर एक बार इंडिया इंटरनैशनल सेंटर में हम सब ने कविताएँ पढ़ीं। राजेश विवेक ने मेरा पाठ सुन कर कहा, मैं आपकी कविता को पढ़ कर सुनाता हूँ। वह अच्छे ऐक्टर थे, ज़ाहिर है कवि से बेहतर पाठ किया।

पर सर्वेश्वर जी की इस बात में दम था, दिल्ली ने हमको चाकर करके दिल-दिमाग़ में भूसा भर दिया था।

उनकी अच्छी यादों में उनके प्रति एक सम्मान भाव भी है। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)




nmrk5136

एक टिप्पणी भेजें

1 टिप्पणियाँ

ये पढ़ी हैं आपने?

Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
मन्नू भंडारी की कहानी — 'रानी माँ का चबूतरा' | Manu Bhandari Short Story in Hindi - 'Rani Maa ka Chabutra'
गिरिराज किशोर : स्मृतियां और अवदान — रवीन्द्र त्रिपाठी
कोरोना से पहले भी संक्रामक बीमारी से जूझी है ब्रिटिश दिल्ली —  नलिन चौहान
मन्नू भंडारी की कहानी  — 'नई नौकरी' | Manu Bhandari Short Story in Hindi - 'Nayi Naukri' मन्नू भंडारी जी का जाना हिन्दी और उसके साहित्य के उपन्यास-जगत, कहानी-संसार का विराट नुकसान है
मन्नू भंडारी, कभी न होगा उनका अंत — ममता कालिया | Mamta Kalia Remembers Manu Bhandari
ईदगाह: मुंशी प्रेमचंद की अमर कहानी | Idgah by Munshi Premchand for Eid 2025
मन्नू भंडारी: कहानी - एक कहानी यह भी (आत्मकथ्य)  Manu Bhandari - Hindi Kahani - Atmakathy
Hindi Story: दादी माँ — शिवप्रसाद सिंह की कहानी | Dadi Maa By Shivprasad Singh
टूटे हुए मन की सिसकी | गीताश्री | उर्मिला शिरीष की कहानी पर समीक्षा