कविता (रामचरितमानस) इतनी महान् हो सकती है कि साधारण लोग हर दिन उसकी पूजा करें | ऑटोबायोग्राफ़ी अशोक वाजपेयी पार्ट 3 | Ashok Vajpeyi Autobiography 3

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मैंने न कभी बच्चों के लिए लिखा और न कभी बच्चे की तरह लिखा। कभी बाल पृष्ठ पर प्रकाशित नहीं हुआ। पत्रिकाओं में सीधे रचनाएँ भेजता था, बिना यह बताये कि मैं कितना छोटा हूँ, मेरी उम्र क्या है, मैं छात्र हूँ ~ अशोक वाजपेयी 




 
शास्त्रीय संगीत और शास्त्रीय नृत्य वह दो कलाएं हैं जो बदली नहीं, जिन्होंने उपनिवेशवाद का विरोध किया है!
इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में संगीत में कविता की महत्ता पर आख्यान देते अशोक वाजपेयी, 27 जुलाई 2017
(विडिओ का लिंक(c) Bharart Tiwari) 

बचपन और किशोर वय 

पीयूष दईया

जन्म : अगस्त 1972, बीकानेर (राज.) / प्रकाशित-कृतियाँ : तीन कविता-संग्रह। अनुवाद की दो पुस्तकें। चार चित्रकारों के साथ पुस्तकाकार संवाद। साहित्य, संस्कृति, विचार, रंगमंच, ललित कला और लोक-विद्या पर एकाग्र पच्चीस से अधिक पुस्तकों और पाँच पत्रिकाओं का सम्पादन। / सम्प्रति : रज़ा फ़ाउण्डेशन की पत्रिका "स्वरमुद्रा" का सम्पादन और "रज़ा पुस्तक माला" से सम्बद्ध।

पिता और नाना-नानी 
आदर के बावजूद नाना से डरता नहीं था जबकि पिता से डरता था। मैंने अपने पिता को ग़लत समझा, लेकिन उस समय बहुत डरता था। उनसे मेरा संवाद बहुत कम था। उनसे बातचीत बहुत कम होती थी। उनके दफ़्तर जाते समय, हम सब लोग, उनके सामने से भाग जाते थे, क्योंकि उस समय उनका पारा काफ़ी ऊपर होता था। जब वह लौट कर आते थे तब भी काफ़ी थके हुए आते, चिड़चिड़े से। उस समय भी हम लोग भाग जाते थे। थोड़ी देर बाद जब वे कपड़े बदलकर, धोती-कुर्ता पहनकर, आकर बैठते थे, तब थोड़ा-सा हम सहज हो पाते। उनसे मेरे छोटे भाई-बहनों का सम्बन्ध अधिक निकट का रहा — वे उतना नहीं डरते थे जितना मैं डरता था। एक तरह से, पिता से मिलने वाला सतत अनुराग, नाना से मिलना शुरू हुआ बजाय पिता के। नाना के परिवार में किसी दूसरे को उपदेश देना का — कि यह करो, यह न करो — ऐसी कोई प्रथा नहीं रही। हम नाना के घर में ही रहते थे। हमारी नानी को गठिया वात था, जिसमें अंग अकड़ से जाते हैं। स्कूल के दिनों में, मैट्रिक में, बाद में विश्वविद्यालय में, ख़ासकर इम्तिहान वगैरह में, वे ब्रह्म मुहूर्त में साढ़े चार बजे उठतीं थीं, चाय बनाकर मुझे जगाती थीं। उस समय स्टोव तक नहीं होते थे। (बाद में स्टोव भी आ गया था) चूल्हा जलाकर — उसमें लकड़ी आदि डाल कर — चाय बनाकर मुझे जगाती थीं। हम ऊपर सोते थे। नानी भी वहीं सोती थीं। पहली  मंज़िल से उतरकर जाती थीं, चाय बनाती थीं, फिर अन्दर आकर मुझे जगाती थीं। मेरी परवरिश का बहुत बड़ा हिस्सा नाना-नानी का ही था। उनको यह भ्रम था कि उनके जितने नाती-पोते हैं उनमें मैं ही सबसे अधिक प्रतिभाशाली या सम्भावनाशील हूँ। मुझ पर उनका प्यार, लाड़-दुलार, बहुत टपकता था। नाना में एक तरह का खिलन्दड़ापन भी था। वे ताश के बड़े शौक़ीन थे — ब्रिज और तीन पत्ती वगैरह के। जुआ खेलने में उनकी बड़ी दिलचस्पी थी। 
 
सोलह-सत्रह वर्ष की उम्र तक मेरी कविताएँ — ‘ज्ञानोदय’, ‘सुप्रभात’, ‘वसुधा’, ‘युगचेतना’ आदि पत्रिकाओं में छप गयी थीं। 

मेरे पिता थोड़े सख़्त से लगते थे पर थे नहीं। उस समय की एक घटना है। जब मैं 9वीं, 10वीं कक्षा में आया तब तक मेरे पिता आचार्य जी से यह कह चुके थे कि मैंने अपना बेटा आपको सौंप दिया है, आप जैसा करना चाहें, करें। यह मुझे बाद में पता चला। मैं 11वीं क्लास में पहुँचा। तब परीक्षा फ़ार्म को भरने में अपने अभिभावक के दस्तख़त कराने पड़ते थे। फ़ार्म लेकर मैं अपने काका (पिता) के पास गया। उन्होंने बड़े अचरज से कहा, “अरे! तुम ग्यारहवीं कक्षा में पहुँच गये, अगले साल तुम विश्वविद्यालय में आ जाओगे?” 

इसका दूसरा पक्ष यह था कि उन्होंने मुझे छूट दे रखी थी। कभी-कभी मेरे साहित्यिक मित्र रमेशदत्त दुबे, राजा दुबे वगैरह से हँसी-ठिठौली करते थे। कुछ व्यंग्योक्ति भी करते थे। 

मेरे दिमाग़ में ऐसी कोई आकांक्षा नहीं थी कि मुझे आई.ए.एस. में बैठना चाहिए, बल्कि यह इच्छा मेरे पिता की थी और किसी हद तक लक्ष्मीधर आचार्य की भी। जब मैंने 10वीं क्लास पास कर ली और आख़िरी साल 11वीं में था, उसी बीच आचार्य जी का तबादला हो गया। 

मुझे लोकप्रिय पर संदेह करने की वृत्ति जगी, कि जो बहुत लोकप्रिय है वह ज़रूरी नहीं कि अच्छा है या ध्यान देने योग्य चीज़ है। लोकप्रिय होने से मैंने अपने को बचा भी लिया। 
 

आचार्यजी और प्रतियोगिताएँ 
भाषा के लिखने के अलावा बोलने के कई रूप हैं। मसलन, वाद-विवाद, तात्कालिक भाषण प्रतियोगिता। इन सबमें मैंने नवीं कक्षा से भाग लेना शुरू कर दिया था। सागर शहर के दूसरे विद्यालयों में भी भाग लेना शुरू कर दिया था। वाद-विवाद वगैरह में बोलने के कुछ सूत्र आचार्यजी ने बताये थे। 
  •     पहला, शुरू में अपना थोड़ा मज़ाक़ बनाओ ताकि लोग तुमको दूसरों का मज़ाक़ बनाने की छूट दे दें — भाषण अपना मज़ाक़ बनाने से शुरू करो। 
  •     दूसरा, बाल्टी भर मत उड़ेलो, लोटा भर दो — किसी विषय पर तुमको जितना आता है वह सब मत दो। 
  •     तीसरा, अगर तुम अपनी बात दस मिनट में नहीं कह सकते, तो सौ मिनट में भी नहीं कह पाओगे।
ऐसी कुछ-कुछ चीज़ें थीं। जीवनभर मेरे बड़े काम आयीं। 

हमारे स्कूल में मॉक संसद होती थी, मैं नेहरू बनता था। नेहरू के बोलने की शैली और भाषा का अनुकरण करने की चेष्टा करता था। नेहरू ‘इत्ता-उत्ता’ कहते थे, इतना-उतना नहीं कहते थे। ऐसे ही चुनांचे आदि शब्द। जितना रेडियो वगैरह से पता चलता था उतना करने का प्रयास करता था। और कोई साधन तो थे नहीं। इन वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में, तात्कालिक भाषण प्रतियोगिताओं में मैं अव्वल आता था। शहर में मेरा कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं था। वहाँ ‘कवि दरबार’ भी हुआ, जिसमें मैंने रसखान की भूमिका की।  शायद तब 10वीं कक्षा में था। तब तक लिखने लगा था। 

अच्छी हिन्दी जानने के लिए संस्कृत, अंग्रेज़ी और उर्दू जानना भी ज़रूरी है। यह बात अनुभव से निकली। 

पत्रिकाओं में छपना 
मैंने न कभी बच्चों के लिए लिखा और न कभी बच्चे की तरह लिखा। कभी बाल पृष्ठ पर प्रकाशित नहीं हुआ। पत्रिकाओं में सीधे रचनाएँ भेजता था, बिना यह बताये कि मैं कितना छोटा हूँ, मेरी उम्र क्या है, मैं छात्र हूँ — यह सब छिपाता था। उन दिनों एक तरह का खुलापन था : बहुत सारी पत्र-पत्रिकाओं में अज्ञातकुलशील भी छप सकते थे, अगर सम्पादक को उनकी रचना ठीक लगे तो। सोलह-सत्रह वर्ष की उम्र तक मेरी कविताएँ — ‘ज्ञानोदय’, ‘सुप्रभात’, ‘वसुधा’, ‘युगचेतना’ आदि पत्रिकाओं में छप गयी थीं। 

साहित्यिक वातावरण
उस समय भवानी प्रसाद मिश्र का बहुत प्रभाव था। सागर का साहित्यिक वातावरण बहुत ही गीतनुमा कविता के पक्ष में था : ‘हिमालय पर खड़ा होकर क्या देेखता हूँ/ हिन्द का झण्डा गड़ा देखता हूँ।’ इस तरह की कविताएँ चलती थीं। कवि सम्मेलन वगैरह होते थे। जब विश्वविद्यालय में पहुँचा तो नीरज बड़े लोकप्रिय थे। वे बड़े-बड़े सम्मेलनों में शरीक होते थे। मैं वह देखता था। उसी समय से मुझे लोकप्रिय पर संदेह करने की वृत्ति जगी, कि जो बहुत लोकप्रिय है वह ज़रूरी नहीं कि अच्छा है या ध्यान देने योग्य चीज़ है। लोकप्रिय होने से मैंने अपने को बचा भी लिया। 

मेरी दोनों बड़ी बहनों— अनामिका, कामायनी — ने पढ़ने के लिए बड़ा उकसावा दिया, बढ़ावा दिया। मित्र-मण्डली भी ऐसी बन गयी कि सब पढ़ाकू लोग थे। 10वीं कक्षा तक रमेशदत्त दुबे से मुलाक़ात हो गयी थी। बाक़ी लोग विश्वविद्यालय में जाने पर मिले। पुस्तकें पढ़ते थे। ‘चक्रव्यूह’, ‘वनपाखी सुनो’, ‘सूर्य का स्वागत’ ये तीन संग्रह राजकमल से लगभग एक साथ निकले थे। तीनों की एक-एक प्रति मुझे मिल गयी थी। अब के हिसाब से तब बारहवीं कक्षा में था।

शुरू से एक ही विद्यालय में रहा। पहले सरकारी नगर पालिका के प्राथमिक विद्यालय में फिर बहुउद्देश्यीय उच्चतर माध्यमिक शाला में। यहीं मैं पाँचवीं से ग्यारहवीं कक्षा तक, सात साल, रहा। 

संस्कृत
उन दिनों मानविकी और विज्ञान विषयों के बीच इतना अलगाव नहीं था। गणित और विज्ञान अनिवार्यतः पढ़ने होते थे और भाषा भी पढ़नी होती थी। ग्यारहवीं कक्षा तक मैंने विज्ञान, इतिहास, गणित और भूगोल सब पढ़े। व्याकरण वगैरह सबको पढ़ना ही पड़ता है। ठीक था। जब मैं संस्कृत की शिक्षा से बाहर आ गया तब मुझे संस्कृत की समझ शुरू हुई। उसमें किसी हद तक निराला, अज्ञेय जैसे कवियों की भूमिका भी है। अगर संस्कृत जानते हैं, तो उनकी कविता को बेहतर समझ पायेंगे, क्योंकि उन्होंने संस्कृत का बहुत ही सर्जनात्मक इस्तेमाल किया है। यह समझ उस समय के पठन-पाठन के ढंग से जो पढ़ रहा था उससे पैदा नहीं हो रही थी। संस्कृत का आनन्द, संस्कृत की ऐन्द्रियता उस सबसे प्रकट ही नहीं होती थी जो पढ़ाया जा रहा था, जैसे पढ़ाया जा रहा था। 

दो स्रोत
मेरे मन में कविता के प्रति एक तरह का भक्ति भाव जैसा पैदा हुआ, उसके दो स्रोत हैं। एक, रामचरितमानस। रामचरितमानस से आशय है कि मेरी माँ एक काव्य-ग्रन्थ की पूजा करती थी। यह बात दिमाग़ में थी कि कविता इतनी महान् हो सकती है कि साधारण लोग हर दिन उसकी पूजा करें। दूसरा, संस्कृत में कवियों का बहुत माहात्म्य है। ‘रससिद्धाः कवीश्वरा:’ इत्यादि, यह श्लोक हम लोग स्कूल में पढ़ते थे। कवियों के माहात्म्य की गाथा के ऐसे श्लोक अक्सर मिल जायेंगे। सब कवियों ने गढ़े हैं, लेकिन उससे थोड़ा लोक स्वीकृति मिल जाती है। तीसरा, मुझे लगा कि अपनी मातृभाषा में अगर नयी सम्भावना होना है तो संस्कृत जानना बहुत ज़रूरी है, वह बहुत मददगार होगी। आगे चलकर मैंने अंग्रेज़ी साहित्य का भी ख़ासा अध्ययन किया। मुझे लगा कि अंग्रेज़ी जानना अच्छी हिन्दी लिखने के लिए ज़रूरी है। थोड़ा आगे बढ़कर जब ग़ालिब वगैरह पढ़ा, तो मुझे लगा उर्दू जानना भी अच्छी हिन्दी लिखने के लिए ज़रूरी है। अब मैं मानता हूँ कि अच्छी हिन्दी जानने के लिए संस्कृत, अंग्रेज़ी और उर्दू जानना भी ज़रूरी है। यह बात अनुभव से निकली। 

साधारण अध्यापक
बी. ए. में तीन वर्ष संस्कृत पढ़ी पर अध्यापक अच्छे नहीं थे, उनके प्रति मन में कोई श्रद्धा भाव भी नहीं है। वे अध्यापक अच्छे थे जो मुझे नहीं पढ़ाते थे। जैसे, वहाँ दयाकृष्ण थे। मेरे अध्यापक नहीं थे। विजय चौहान राजनीतिशास्त्र के थे। श्यामाचरण दुबे समाजशास्त्री थे, मेरे अध्यापक नहीं थे। बाद में एक वर्ष नामवर सिंह हिन्दी के अध्यापक थे। मेरे अध्यापक नहीं थे पर ये बेहतर अध्यापक थे, ऐसा मुझे लगता था। मेरे अध्यापक इस पाये या इस दर्जे के नहीं थे। असल में, लक्ष्मीधर आचार्य के बाद मुझे कोई बड़ा अध्यापक बी.ए. तक नहीं मिला। एम.ए. के आख़िरी वर्ष में मिला, जब बी. राजन दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर बनकर आये। तब तक जो अध्यापक मिले, उनमें कोई स्फ़ूर्ति या नये ढंग से पढ़ाने का पैशन आदि कुछ नहीं था। कभी किसी ने कोई ऐसी बात कही हो जिसने कोई चमक या अन्तर्दृष्टि पैदा कर दी हो, ऐसा कुछ नहीं था।  

मुक्तिबोध और पाठ्यपुस्तकें 
13-08-58 को नरेश मेहता को लिखे गये अपने पत्र में मुक्तिबोध लिखते हैं, 
‘‘सागर विश्वविद्यालय की पाठ्यपुस्तकों की भूमिकाओं में यत्र-तत्र नयी कविता पर हमले हुए हैं। क्या उनका उत्तर देने की सुविधा ‘कृति’ में है?’’ 
मुझे यह प्रसंग ठीक से याद नहीं है। उस समय आमतौर पर आचार्य नंददुलारे वाजपेयी की अध्यक्षता में हिन्दी विभाग और वह स्वयं, एक आलोचक के रूप में, नयी कविता का काफ़ी विरोध करते थे। बाद में उन्होंने किसी हद तक अपना रुख़ बदला। 57-60 के समय उनका रुख़ नयी कविता के विरोध में था। यह इससे भी प्रकट हुआ कि जब मुक्तिबोध आये तब भी और जब अज्ञेय आये तब भी, हिन्दी विभाग के ज़्यादातर अध्यापक उन आयोजनों से अलग रहे थे। न स्वयं आचार्य वाजपेयी आये, न दूसरे अध्यापक आये। एक-दो अध्यापक— गंगाधर झा, प्रेमशंकर —आते थे। उनके बारे में हम लोग यह संदेह करते थे कि वे जासूस की तरह आये हैं, कि जाकर नन्ददुलारे जी को बतायेंगे। शायद यह सही नहीं था। यह एक क़िस्म की निराधार धारणा थी। जाहिर है कि मुक्तिबोध ने लिखा है, तो उन्होंने पाठ्यपुस्तकें देखी होंगी। मुझे याद नहीं है। मुक्तिबोध उन पाठ्यक्रमों को जानते होंगे क्योंकि यह पाठ्यक्रम उनके महाविद्यालय में भी लागू होगा, यह पुस्तकें पढ़ायी जा रही होंगी। उनको इसका सीधे पता होगा। उस पत्र में मुक्तिबोध ने यह भी लिखा है, ‘‘क्योंकि मैं विश्वविद्यालय से सम्बद्ध हूँ इसलिए मेरा नाम सीधा न जाये, मगर किसी और तरह से किया जाये।” 

प्रेमशंकर
प्रेमशंकर ने प्रसाद पर काम किया था। उस समय उनकी पी-एच.डी. अच्छी मानी जाती थी। प्रेमशंकर नये साहित्य के प्रति थोड़ा उत्साहित थे, लेकिन दबे से रहते थे। गंगाधर झा थोड़े अधिक चिन्तनशील व्यक्ति थे। ये दो ऐसे अध्यापक थे, जो लगभग एक ही वय के रहे होंगेे। इतनी सख़्ती नहीं थी कि ये लोग अपनी राय न व्यक्त कर सकें। 

‘समवेत’ के पहले अंक में प्रेमशंकर ने दो-तीन कविता संग्रहों की समीक्षा की थी। ‘भटका मेघ’ और ‘वनपाखी सुनो’, आदि की। बाद में वह विभाग के अध्यक्ष बन गये। उनके साथ मेरे सम्बन्ध अच्छे थे। वह साहित्य में दिलचस्पी लेते थे। बहुत कुशाग्र नहीं थे, लेकिन परिश्रमी थे। उनके बरक्स गंगाधर झा कुशाग्र थे, लेकिन आलसी थे। दोनों में फ़र्क़ था। गंगाधर झा ने “अविचारित रमणीय” नाम की एक पुस्तक लिखी थी, लेकिन बाद में सक्रिय नहीं रहे। प्रेमशंकर बाद तक भी सक्रिय रहते रहे और विभाग के अध्यक्ष भी बने। गंगाधर झा की मृत्यु जल्दी हो गयी थी। प्रेमशंकर नये साहित्य में दिलचस्पी रखते थे।  

नामवर सिंह और संघ
नामवर सिंह से पहली बार मेरी मुलाक़ात साहित्यकार सम्मेलन में ...  

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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2 टिप्पणियाँ

  1. दूसरी कड़ी की प्रतीक्षा है। अशोक वाजपेई मेरे प्रिय कवि हैं।उनकी कविता से बहुत सीखा है। सन 2001 में काव्यम् के लिए उनसे साक्षात्कार भी किया था। आभार भरत भाई।

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