अशोक वाजपेयी की ऑटोबायोग्राफ़ी | सागर-समय: पार्ट 1 | Autobiography of Ashok Vajpeyi 1

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मेरे मन में जन्म को लेकर प्रसन्नता का भाव है। जाहिर है, जन्म के साथ संयोग और सौभाग्य इत्यादि भी जुड़े हैं, पर, मूल भाव प्रसन्नता और कृतज्ञता का ही है।  ~ अशोक वाजपेयी

16  जनवरी 2025 को अशोक वाजपेयी 85वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। उनके द्वारा बोले-लिखे जा रहे, ज़िंदादिल, उन्ही की तरह रोचक और सम्मोहक पीयूष दईया दर्जित आत्म-वृत्तान्त (ऑटोबायोग्राफ़ी) के अंश का पहला हिस्सा। 

Ashok Vajpeyi Photo (C): Bharat Tiwari
अशोकजी की यह तस्वीर 2013 के अप्रैल में IGNOU के सभागार में खींची थी, जब उन्हें राजेन्द्रजी के साथ हो रही एक चर्चा में, यादवजी के आमंत्रण पर गया और, उन्हें पहली दफ़ा देखा, सुना और कैमरे में क़ैद किया था।  

बचपन और किशोर वय 

पीयूष दईया

जन्म : अगस्त 1972, बीकानेर (राज.) / प्रकाशित-कृतियाँ : तीन कविता-संग्रह। अनुवाद की दो पुस्तकें। चार चित्रकारों के साथ पुस्तकाकार संवाद। साहित्य, संस्कृति, विचार, रंगमंच, ललित कला और लोक-विद्या पर एकाग्र पच्चीस से अधिक पुस्तकों और पाँच पत्रिकाओं का सम्पादन। / सम्प्रति : रज़ा फ़ाउण्डेशन की पत्रिका "स्वरमुद्रा" का सम्पादन और "रज़ा पुस्तक माला" से सम्बद्ध।

जन्म : कृतज्ञ और प्रसन्न

अपना जन्म किसी को याद नहीं रहता, मुझे भी नहीं है।  

मैं दुर्ग नाम की जगह पर पैदा हुआ था। अपनी माँ की पहली सन्तान था। माँ अपने पिता (मेरे नाना) के घर गयी थीं। उन दिनों यह रिवाज़ था कि पहली सन्तान लड़की के मायके में होती थी। इसके अलावा मुझे और कोई बात याद नहीं है। यह भी एक तथ्य है जो बाद में पता चला। 

जन्म को लेकर यह कहना कठिन है कि इसे अपना सौभाग्य मानते हैं कि दुर्भाग्य मानते हैं—अपना या दूसरों का। एक तरह का कृतज्ञता भाव मेरे मन में है कि मुझे जन्म मिला, एक भरा-पूरा जीवन बिताने का अवसर मिला। जन्म न होता, तो यह सारी झंझट न होती। जन्म के साथ कोई और रहस्य या कोई और जिज्ञासा कभी नहीं रही। मैंने कई बार ‘जन्म’ शब्द का प्रयोग कविता में किया है—अक्सर दूसरों के जन्म पर, जैसे कभी अपनी बेटी या बेटे या पोते या नातिन के जन्म पर या जन्म की एक तरह की प्रसन्न अनुभूति को लेकर। मेरे मन में जन्म को लेकर प्रसन्नता का भाव है। जाहिर है, जन्म के साथ संयोग और सौभाग्य इत्यादि भी जुड़े हैं, पर, मूल भाव प्रसन्नता और कृतज्ञता का ही है।  


अपना होना 

मैंने कई बार कोशिश की कि याद करूँ पहले-पहल मुझे कब अपने होने का कुछ एहसास हुआ होगा। मुझे याद आता है : सागर ज़िले की एक तहसील — खुरई — में मेरे नाना मजिस्ट्रेट/न्यायाधीश के रूप में पदस्थ थे। मेरे पिता किसी दूसरे शहर में थे। हम लोग पढ़ने के लिए नाना के पास ही रहते थे। मेरी पहली और दूसरी कक्षा की पढ़ाई खुरई के ही किसी विद्यालय में हुई थी। 

नाना धर्मशालानुमा एक बड़े मकान में रहते थे, एक जैन मन्दिर के ठीक बग़ल में। मैं और मेरा छोटा भाई अरुण, जिसको हम ‘बच्चू’ कहते थे, मुझसे डेढ़ बरस छोटा था। हम लोग पहली-दूसरी कक्षा तक वहीं पढ़े। उस शहर की बहुत धुँधली-सी याद है। वहाँ पानी के बीच में एक मन्दिर था। चारों तरफ़ पानी, बीच में मन्दिर। वहाँ जाने का रास्ता थोड़ा-सा ख़तरनाक लगता था। 

हम जिस मकान में रहते थे, उसके बहुत पास एक अखाड़ानुमा कुछ था। कभी-कभार मैं और बच्चू वहाँ जाते थे। वहाँ कुछ दबंग क़िस्म के पहलवाननुमा लोग होते थे। उन्होंने हमारे साथ एकाध-दो बार कुछ छेड़-छाड़ की थी, ऐसा याद है। लेकिन वहाँ की और कोई चीज़ याद नहीं है। 


दो घर 

सब गड्डमड्ड है। 
उन दिनों ‘गटा पारचा’ के खिलौने होते थे। गटा पारचा एक तरह का प्लास्टिक का पहला प्रकार था। हम लोग दीवाली पर कुछ सजावट, झाँकी-सा उस समय करते थे। मैं बाद में भी करता रहा। हम लोगों ने उस समय एक झाँकी बनायी थी और उसमें गटा पारचा के खिलौने भी रख दिये थे। दुर्भाग्य से आग लग गयी—दिये की लौ उसको छू गयी, तो गटा पारचा के सब खिलौने भस्म हो गये। यह भी याद है कि वहाँ मुझे किसी बीमारी के कारण, मृतप्राय मानकर, ज़मीन पर लिटाया गया था। क्या बीमारी थी, यह ठीक से याद नहीं है। मन में जीवन का बिल्कुल पहला दृश्य क्या आया होगा यह याद नहीं है। 

पिता कहीं और थे। उनका तबादला बहुत जल्दी-जल्दी होता रहता था। हमारे नाना की एक प्रवृत्ति थी—उनके सारे बच्चे, ख़ासकर उनकी बेटियों में से अधिकांश के बच्चे, उनके साथ रहकर ही पढ़े। हम लोग भी। हम उनकी सबसे बड़ी बेटी के बच्चे थे। बाद में उनकी दूसरी बेटियों, यानि हमारी मौसियों, के बच्चे भी उन्हीं के साथ रहकर पढ़ते थे। नाना का यह स्वभाव था। हम लोग उसमें शामिल थे और पहले थे।

फिर हम लोग सागर आ गये। अपने माता-पिता के घर में रहने लगे। हमारे घर के ठीक सामने नाना का घर था। दोनों घर किराये के थे। ज़्यादातर वक्त मैं अपने नाना के घर में ही रहता था। मेरे पढ़ने-बढ़ने की उम्र वहीं बीती। यह एक पारिवारिक प्रथा थी, इसका कोई ख़ास कारण नहीं था। 


जिजीविषा का दूसरा रंग

मरण का पहला अनुभव खुरई में हुआ। सागर में, एक ज़माने में, छोटे क़स्बों में हैजे और प्लेग की बड़ी महामारियाँ होती थीं। मुझे हैजा भी हुआ और प्लेग भी। मैं छोटा था, लगभग छः-सात वर्ष का। आसपास काफ़ी लोग प्लेग से मर रहे थे। मुझे भी जाँघ में प्लेग की गिलटी थी और बुख़ार होता था। शायद इसीलिए एक बार फिर मुझे मृत मानकर ज़मीन पर लिटाया गया था। वह छूत की बीमारी मानी जाती थी, लोगों को दूर रखा जाता था। मैं बच निकला, इसलिए, बहुत ही अदम्य किस्म की जिजीविषा मेरा स्वभाव बन गयी। सभी लोग जीना चाहते हैं, लेकिन मृत्यु के मुँह से निकलकर आए हुए की जिजीविषा का एक दूसरा रंग होता है। 


लौकिकता में लोकोत्तर

मुझे लगता है कि साहित्य में शुरू हुई दिलचस्पी के पीछे एक गहरा बोध यह है कि साहित्य भी मेरे लिए, प्रथमतः और अन्ततः, जिजीविषा की एक विधा है। वह जीने की इच्छा का ही एक रूप है। शायद यह बात, उस समय, अस्पष्ट और अविन्यस्त रूप से, शुरू हुई होगी। लेकिन मुझे किसी लोकोत्तर आयाम का कोई आभास नहीं हुआ। मेरे जीवन का केन्द्र अनिवार्य लौकिकता ही है। लोकोत्तर जब-तब आये या उसको भी जब-तब छुएँ, तो वह उसी हद तक सम्भव है जब तक वह लौकिकता के परिसर में घटता है। किसी अलौकिक में मेरी कभी न आस्था रही न ही मैंने कभी उसकी चेष्टा या प्रतीक्षा की। अगर वह कभी घटा भी हो, तो मुझे याद नहीं है। दोनों आयाम, एक तरह से, एक साथ हैं। होने का अहसास लौकिक बनाता है और ज्यों ही वह लौकिक बनता है त्यों ही वह अपनी लौकिकता से परे ऊपर जाने का उत्साह भी देता है। कह सकते हैं कि बहुत हद तक लौकिकता में ही लोकोत्तर अन्तर्भूत है। 

बोध का केन्द्र

सामी दृष्टियाँ रही हैं, सभी धर्मों की दृष्टियाँ रही हैं। सामी दृष्टि में जन्म पाप की उपज है, ऐसा पाप-बोध मेरे जीवन में नहीं रहा। हमारी  अपनी जातीय स्मृति जन्म को सौभाग्य मानने की है। एक तरह से, ‘बड़े भाग मानुस तन पायो’---आपके बड़े भाग्य हैं कि आप मनुष्य बने : यह हमारी परम्परा कहती है और इससे अलग मैंने नहीं सोचा। 

जीवन की अनिवार्य नश्वरता का बोध मुझमें बराबर बना रहा है। यह बोध कि जीवन के ठीक बग़ल में मृत्यु है, वह कब दरवाज़ा खोलकर अन्दर आ जाये, कहा नहीं जा सकता। जीवन अपने को मृत्यु से जितना दूर रख सकता है उतना रखने की कोशिश करता है, और, दूसरी तरफ़, जीवन से मृत्यु बहुत दूर कभी नहीं होती। यह एक तरह की जटिल विडम्बना की स्थिति है जो मेरे विचार या मेरी संवेदना के इर्द-गिर्द रही है। मैंने मृत्यु पर बहुत कविताएँ भी लिखीं। जीवन में नश्वरता की सम्भावना और नश्वरता की अनिवार्यता, दोनों का युग्म, मेरे बोध के केन्द्र में है। 


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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1 टिप्पणियाँ

  1. पिछले दिनों आदरणीय अशोक वाजपेयी जी को हिन्दी अकादमी, दिल्ली का शलाका सम्मान देने की घोषणा हुई है। मैं वाजपेयी जी को बधाई और शुभकामनाओं से भरा संदेश देना चाहता था, लेकिन संकोचवश मैं उन्हें एक शुभकामना संदेश भी न भेज पाया। हालांकि वर्षों पहले उनके निवास जाकर अहा!जिंदगी के लिए बातचीत कर चुका था। फिर भी मैं कभी उनके अंतरंग नहीं रहा। लेकिन मुझे अशोक वाजपेयी जी कविताएं पसंद आती रहीं और उन्नहोंने रज़ा फाउंडेशन के बहाने युवा कवियों और लेखकों को तरजीह दी, उससे उनके प्रति एक अतिरिक्त सम्मान का भाव बना रहा और आज भी जब वे बोलते हैं तो लगता है कि लेखक और कवि एक बड़े मंच से इस समय व्याप्त अंधेरगर्दी के खिलाफ कुछ कहता है और प्रतिरोध की भाषा बोलता है।
    आज जब उनकी जीवनी के अंश पढ़ रहा था, जिसे पीयूष दईया ने लिखी है, अच्छी लगी। अशोक वाजपेयी जी को बहुत बधाई और शुभकामनाएं। आगे भी पढ़ेंगे।

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