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एक आले में रामचरितमानस - अशोक वाजपेयी की ऑटोबायोग्राफ़ी | सागर-समय: पार्ट 2 | Autobiography of Ashok Vajpeyi 2

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हमारे घर में किसी देवी-देवता की मूर्ति नहीं थी। एक आले में रामचरितमानस रखा होता था। ~ अशोक वाजपेयी


16  जनवरी 2025 को अशोक वाजपेयी 85वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। उनके द्वारा बोले-लिखे जा रहे, ज़िंदादिल, उन्ही की तरह रोचक और सम्मोहक पीयूष दईया दर्जित आत्म-वृत्तान्त (ऑटोबायोग्राफ़ी) के अंश का दूसरा हिस्सा। 


Ashok Vajpeyi | Photo (c) Bharat Tiwari

अशोकजी की यह तस्वीर 13 जुलाई 2013 की है जब वे राजेन्द्रजी के 'हंस' के सालाना कार्यक्रम में अपना वक्तव्य दे रहे थे। 

बचपन और किशोर वय 

पीयूष दईया

जन्म : अगस्त 1972, बीकानेर (राज.) / प्रकाशित-कृतियाँ : तीन कविता-संग्रह। अनुवाद की दो पुस्तकें। चार चित्रकारों के साथ पुस्तकाकार संवाद। साहित्य, संस्कृति, विचार, रंगमंच, ललित कला और लोक-विद्या पर एकाग्र पच्चीस से अधिक पुस्तकों और पाँच पत्रिकाओं का सम्पादन। / सम्प्रति : रज़ा फ़ाउण्डेशन की पत्रिका "स्वरमुद्रा" का सम्पादन और "रज़ा पुस्तक माला" से सम्बद्ध।

अस्तिमूलक अवसाद
असल में, बहुत सारी चीज़ें, आपके अन्दर दबी-छुपी, अन्तःसलिल रहती हैं। एक लेखक के अपने अन्तर्बोध के परिसर में आती हैं। एक तरह से, मैंने लिखकर ही यह जाना कि गहरा अवसाद है जो अस्तिमूलक है। वह इतना सीधा-सादा नहीं है कि मेरे बचपन की बीमारी मात्र से जुड़ कर उसकी इतिश्री हो जाय—वह कुछ अधिक जटिल है। जटिल दो अर्थों में है। एक अर्थ में यह कि वह अबूझ है, उसे किसी कार्य-कारण सम्बन्ध में नहीं देख पाता। एक तरफ़ यह अबूझपन अस्ति का अबूझपन है, और, दूसरी तरफ़, उसका होना अगर आपके जीवन को आच्छादित नहीं करता, तो कविता को करता ही है। यह कुछ गोल-गोल सी स्थिति है, जिसकी मेरे पास कोई सही व्याख्या नहीं है। 

जीवन में जितना कुछ हो सकता है उसको जल्दी-जल्दी कर डालना चाहिए, क्योंकि कोई भरोसा नहीं है कि वह कब छिन जाये।

बीमारियाँ
बीमारियाँ मुझे बहुत हुईं। आँख का दर्द, कान का दर्द, पेट का दर्द, दाँत के दर्द आदि तो मामूली हैं, सभी को होते हैं। मलेरिया, टाइफ़ाइड, हैजा, प्लेग, चेचक, प्लूरिसी जैसे रोग हुए। अठारह वर्ष की उम्र तक मुझे ये सारे रोग हो चुके थे। एक बार बीमारी की वजह से क़रीब डेढ़ महीने बिस्तर पर रहना पड़ा। उन दिनों मैं ‘समवेत’ के दूसरे अंक का सम्पादन कर रहा था—रमेशदत्त दुबे और आग्नेय के साथ। सम्पादन के सन्दर्भ में लेखकों से पत्राचार करते रहना ज़रूरी था। बहुत से लेखकों को चिट्ठियाँ लिखता था। 

शायद यह हुआ कि इतने सारे रोग जीवन में इतने पहले हो गये, कि बाद का काफ़ी जीवन निरोगी बिताने का अवसर मिला। फिर कोई ख़ास बीमारी नहीं हुई। शायद रोगों का सामना कर चुकने के कारण इम्यूनिटी सिस्टम थोड़ा सशक्त हो गया। इन सबसे शायद यह बात घर कर गयी होगी कि जीवन में जितना कुछ हो सकता है उसको जल्दी-जल्दी कर डालना चाहिए, क्योंकि कोई भरोसा नहीं है कि वह कब छिन जाये। छिना नहीं यह अलग बात है। लेकिन उससे, मेरे जीवन में, एक तरह की हड़बड़ी का भाव लगातार रहा है। 

हमारे घर में किसी देवी-देवता की मूर्ति नहीं थी। एक आले में रामचरितमानस रखा होता था। वह गीता प्रेस की प्रति थी।

माँ 
इस सारी बीमारी के दौरान मेरी माँ ने सबसे अधिक देख-रेख, सेवा-सुश्रुषा की थी। यह भाव मेरे मन में बहुत गहरा होता गया कि मेरी माँ ने मुझे सिर्फ़ जन्म भर नहीं दिया, जीवन भी दिया है। जन्म देना एक जैविक घटना है, लेकिन बाद में जब-जब इस तरह की दिक्कतें आयीं, तो उन्होंने मुझे सम्हाला है। 


कर्मशील जिजीविषा
ठीक इसी वजह से कि जीवन और मृत्यु एक दूसरे के बहुत निकट हैं और कभी भी कुछ हो सकता है, मुझमें जिजीविषा और कर्मशीलता के प्रति गहरी आसक्ति बढ़ी, बजाय इसके कि बीमारी इत्यादि से उपजे अकेलेपन, शरीर की थोड़ी झुंझलाहट और अपनी नश्वरता का तीखा एहसास मुझे रोके। मेरे प्रकरण में जिजीविषा की अधिक अदम्यता और अधिक कठिनता ने कुछ ऐसा काम किया कि वह पीछे ठेलने वाला या कर्मशीलता में निराश करने वाला भाव नहीं बन पाया। 
 

खड़ी बोली 
मेरी माँ जबलपुर के पास कहीं की थी। उनकी बोली खड़ी बोली ही थी, लेकिन उन्होंने कभी बुन्देखण्डी शब्द या मुहावरों का इस्तेमाल किया हो, ऐसा मुझे याद नहीं आता। मेरे पिता उत्तर प्रदेश के थे। बाद में, मेरे छोटे भाई-बहनों में बुन्देलखण्डी का संस्कार भी, सौभाग्य से, आया। वे बुन्देलखण्डी थोड़ी-बहुत बोलने-जानने लगे। मैं सागर में उन्नीस-बीस बरस की उम्र तक था। मेरे उन आरम्भिक वर्षों में, हमारे घर में, खड़ी बोली का संस्कार बहुत तत्सम प्रधान नहीं था। वह तद्भव रूप था। खड़ी बोली अपने आप में ही एक तरह का तद्भव रूप है, इसलिए उसमें तद्भवता अधिक थी, तत्सम कम। तत्सम अन्य स्रोतों से आया होगा। 

ज़्यादातर हमारे घर की बोली खड़ी बोली थी—एक तरफ़ अवधी को छूती हुई और दूसरी तरफ़ बुन्देलखण्डी को। पर कैसे छूती थी इसका बहुत सजग अहसास नहीं था। बाद में मैंने कई बार अपनी कविता में अपने बचपन की कुछ छवियों और स्मृतियों का प्रयोग किया है—कठ चन्दन के पेड़ों को याद किया है, और जिन शब्दों को याद किया है वे अनिवार्यतः बुन्देलखण्डी हैं। एक तरह से खड़ी बोली ज़्यादातर लेखकों की मातृ-बोली नहीं होती—किसी की राजस्थानी होगी, किसी की अवधी होगी, किसी की ब्रज होगी। ज़्यादातर लेखकों की कोई न कोई और बोली होती है, लिखते भले वे खड़ी बोली में हैं। मेरे मामले में ऐसा हुआ कि मैं खड़ी बोली में ही पला-बढ़ा  और उसी में मैंने लिखा। 


रामचरितमानस 
मैंने स्कूल में संस्कृत पढ़ना शुरू किया था और  घर पर रामचरितमानस। घर में माँ के अलावा मेरे नाना भी रामचरितमानस के बहुत भक्त थे। हमारे घर में किसी देवी-देवता की मूर्ति नहीं थी। एक आले में रामचरितमानस रखा होता था। वह गीता प्रेस की प्रति थी। उसमें से मेरी माँ दो-तीन पृष्ठ पढ़ती थीं। हर पृष्ठ पर ख़ूब चन्दन, अक्षत डाले जाते थे। वह प्रति दोगुनी से ज़्यादा मोटी इसीलिए हो गयी थी। 

मेरी पारिवारिक परिस्थिति में ऐसा कोई विशेष संस्कार नहीं था जो साहित्य को उद्दीप्त करे। घर में माँ की वजह से रामचरितमानस का संस्कार था, जो कि मुख्यतः काव्य है। इसलिए पारिवारिक स्थिति में काव्य का ही प्रभाव था, जितना भी था। उस समय तक मैंने बहुत ज़्यादा आलोचना नहीं पढ़ी थी। कविता लिखना शुरू कर दिया था और बहुत सारे कवियों की कविताएँ पढ़ता रहता था—उनसे अच्छा-बुरा जैसा प्रभाव ग्रहण किया था, लेकिन मैंने आलोचना कम पढ़ी थी। 

हमारा मूल परिवार अवध का है। रामचरितमानस अवधी में है। रामचरितमानस की प्रतिष्ठा हमारे परिवार में रही होगी या नहीं, लेकिन मेरे पिता रामचरितमानस के कोई विशेष भक्त हों, ऐसा मुझे याद नहीं आता। उनके बारे में मेरे मन में यह भी जीवन भर स्पष्ट नहीं हुआ कि उनका देवी-देवताओं या धर्म में कोई ख़ास विश्वास था। वह ज़्यादातर इन चीज़ों से दूर ही रहते थे। मैंने कभी नहीं पाया कि वह मन्दिर वगैरह गये हों। मैं अपनी माँ के साथ मन्दिर गया हूँ, अपने पिता के साथ कभी नहीं गया, क्योंकि वे कभी गये ही नहीं। नाना के साथ भी गया हूँ। मेरे पिता शायद नास्तिक थे। नाना रामचरितमानस के भक्त थे। इसलिए शायद मेरी माँ ने, उत्तराधिकार में, रामचरितमानस नाना से पाया। लेकिन वह पिता के परिवार से आया हो ऐसा मुझे याद नहीं आता।


अंग्रेज़ी भाषा 
घर में कभी अंग्रेज़ी नहीं बोली जाती थी। मेरे पिता अंग्रेज़ी जानते थे। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय एवं इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए., एम.ए. करके आये थे। उन्हीं दिनों, स्कूलों में भी, अंग्रेज़ी का काफ़ी प्रभाव शुरू हो गया था, लेकिन घर में कोई अंग्रेज़ी नहीं बोलता था। हमारे नाना पहले सिविल सेवा में थे, बाद में वकील हुए। मुझे याद नहीं आता कि कभी घर में ये लोग अंग्रेज़ी बोले हों। बाहर से कोई आया हो, उससे बातचीत में अंग्रेज़ी बोली हो, वह अलग बात है। लेकिन अंग्रेज़ी का कोई संस्कार नहीं था सिवाय इसके कि अंग्रेज़ी का अख़बार आता था। उन दिनों हिन्दी में अख़बार ही बहुत कम थे। सागर जैसी जगह में फ्री प्रेस जर्नल हमारे घर आता था, जो मुम्बई से निकलता था। हम वही पढ़ते थे। आजकल हर शहर में स्थानीय अख़बार हो गये हैं। उन दिनों कोई स्थानीय दैनिक अख़बार था ही नहीं। जहाँ तक मुझे याद है, कोई एकाध साप्ताहिक वगैरह थे। सप्ताह में एक बार। अक्सर देर से ही निकलते थे। उससे थोड़ी-बहुत स्थानीय ख़बरें मिल जाती थीं। बाक़ी दुनिया में क्या हो रहा है, हिन्दुस्तान में क्या हो रहा है, ये सब फ्री प्रेस जर्नल से ही पता चलता था। 

अंग्रेज़ी ने, कम से कम मेरे पहले बीस वर्षों में, कोई भूमिका नहीं निभायी। जब मैं विश्वविद्यालय में पढ़ने लगा, पहले विज्ञान का छात्र था, फिर मैंने मानविकी में बी.ए. करने का तय किया। मेरे विषय संस्कृत, इतिहास और अंग्रेज़ी थे। उस समय अंग्रेज़ी का विधिवत् अध्ययन शुरू हुआ। सागर विश्वविद्यालय का पुस्तकालय बड़ा समृद्ध था। वहाँ अंग्रेज़ी अनुवाद में मैंने बहुत लेखकों को पढ़ा—कामू, टॉलस्टाय, दोस्तोयवस्की, पाब्लो नेरूदा, रिल्के, टी.एस. इलियट आदि। लेकिन बोलचाल में ऐसा कोई मित्र याद नहीं आता जिससे अंग्रेज़ी में ही बातचीत होती हो, यद्यपि जितेन्द्र कुमार अंग्रेज़ी में एम.ए. कर रहे थे। दूसरे मित्र उमाशंकर पाण्डे थे, जिन्होंने ‘निमिष पाणिनि’ के नाम से कविताएँ लिखी थीं। वे आस्ट्रेलिया चले गये थे। उन्होंने दर्शन में एम.ए. किया था। फिर नृतत्व और शायद अंग्रेज़ी में भी एम.ए. किया था। वह भी अंग्रेज़ी में बहुत कम बोलते थे। रमेशदत्त दुबे, आग्नेय, प्रबोधकुमार भी अंग्रेज़ी नहीं बोलते थे। मित्रों के बीच भी, जैसा आज अंग्रेज़ी बोलने का चलन है, वैसा बिल्कुल ही नहीं था। कभी-कभार कोई अंग्रेज़ी का शब्द या अंग्रेज़ी की उक्ति आ जाये तो आ जाये वरना हस्बेमामूल हिन्दी ही थी। अंग्रेज़ी से मेरा अधिक सम्बन्ध तब बना जब मैं सेंट स्टीफेंस कॉलेज में आया। वहाँ तो कोई अंग्रेज़ी के अलावा बोलता ही नहीं था। 


भाषा का सजग संस्कार
जहाँ तक मेरी विद्यालयीन शिक्षा का सवाल है, प्राथमिक शिक्षा घर से थोड़ी दूर एक विद्यालय में हुई। वह ‘लाल स्कूल’ कहलाता था क्योंकि इमारत लाल थी। वह लाल स्कूल नगर पालिका द्वारा चलाया जाता था। प्राथमिक विद्यालय था। आरम्भिक था। वहाँ बातचीत में कभी-कभी अध्यापक लोग बुन्देलखण्डी का इस्तेमाल करते थे, सहपाठी भी करते थे, क्योंकि सब बुन्देलखण्ड के ही थे। मैं ही एक ऐसा था जो कि नहीं करता था। मुझे यह भाषा उत्तराधिकार में नहीं मिली थी—न माता-पिता से, न पारिवारिक परिवेश में उसकी कोई जगह थी। 

बाद में जहाँ पढ़ता था वह सरकारी माध्यमिक विद्यालय था। बहुत पुराना। 19वीं शताब्दी के अन्त या 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में स्थापित हुआ था। सागर कभी ब्रिटिश भारत का हिस्सा था। विद्यालय की इमारत भी पुरानी ही थी। हाईस्कूल के आरम्भिक वर्ष में भाषा को लेकर कोई विशेष संस्कार पला हो, ऐसा याद नहीं आता। मैं आठवीं क्लास में था, उन दिनों महादेवी वर्मा के गद्यगीत आये थे। मैंने एक गद्यगीत लिखा। ‘भारती’ नाम की पत्रिका ग्वालियर से निकलती थी, हरिहरनिवास द्विवेदी उसके सम्पादक थे। उन्हें मैंने वह गद्यगीत भेजा। छपा। पृष्ठ पर ऊपर दिनकर जी का एक गीत था, नीचे मेरा गद्यगीत था। 

भाषा का अधिक सजग संस्कार तब बना जब नवीं क्लास में मेरे अध्यापक लक्ष्मीधर आचार्य आये। वे कई भाषाएँ जानते थे। अंग्रेज़ी, हिन्दी, संस्कृत पढ़ाते थे। उर्दू, अरबी, फ़ारसी भी पढ़ाते थे। इतिहास पढ़ाते थे। उन्हें गुजराती और बंगाली भी आती थी। मूलतः गुजराती थे। उनके कारण भाषा को गम्भीरता से लेने का संस्कार  पड़ा : साफ़-सुथरी, परिनिष्ठित भाषा का। उनकी वजह से ही मैंने साहित्य पढ़ना शुरू किया था। अज्ञेय को पढ़ा। ‘शेखर: एक जीवनी’ पढ़ी। ‘हरी घास पर क्षण भर’ कविता संग्रह पढ़ा। विद्यालय के परिसर में बने नये ज़िला पुस्तकालय में ‘कल्पना’ पत्रिका आती थी। उस समय उसके सम्पादक भवानीप्रसाद मिश्र थे। 55 या 56 की बात है। वहाँ आती थी, हम जाकर पढ़ते थे। इस तरह भाषा का संस्कार बना, उससे पहले नहीं था। 
 

भाषा में एक दुनिया
पहले बाल पत्रिकाएँ मँगाता था। “बालसखा” आदि। कक्षा सातवीं-आठवीं की बात रही होगी। वैसे हिन्दी में बच्चों की पुस्तिकाएँ बहुत कम हैं। उस ज़माने में मिलती थीं। सोवियत संघ से आने वाली तरह-तरह की पुस्तकें थीं। जो भी थीं, वो ख़रीदकर पढ़ता था। विद्यालय का अपना पुस्तकालय भी था।  

मैं घर से रुपये लेकर या चुराकर पुस्तकें ख़रीदता था। पुस्तकें ख़रीदने की आदत उन्हीं दिनों पड़ी। दो आने, एक आने की मिलती थीं। वे बढ़िया छपी हुई नहीं होती थीं। एक पुस्तकों की दुकान थी, वहाँ बच्चों की किताबें मिलने लगी थीं। किताबें लाना शुरू किया। मुझे याद है कि उस सबमें एक तत्त्व जो बच्चों की पुस्तकों में उद्दीप्त किया जाता था, वह था कल्पना करना। आप किसी भी तरह की कल्पना कर सकते हैं। दूसरा यह कि काफ़ी हद तक आसपास के जीवन और प्रकृति में अप्रत्याशित घटता है, जिसका पहले से कोई आभास नहीं था। यह हल्का-सा आभास होना शुरू हुआ कि एक तरह से मैं भाषा में एक दुनिया बना सकता हूँ। पहले ऐसा होता ही है कि आप किन्हीं दूसरे लेखकों के प्रभाव में लिखते हैं, लेकिन भाषायी संस्कार इस स्तर पर आकर बनना शुरू हुआ। भाषा में बहुत कुछ किया जा सकता है, यह बात मुझे बहुत ही अव्यक्त ढंग से समझ में आयी। इस तरह भाषा के साथ सम्बन्ध बनना शुरू हुआ। 


घरेलू सम्बोधन 
हमारे साथ हमारे ताऊ की दो बेटियाँ रहती थीं।  ताऊ आनन्दमोहन वाजपेयी की जल्दी मृत्यु हो गयी थी। उनकी बड़ी बेटी का नाम अनामिका था, दूसरी का कामायनी। वह निराला और जयशंकर प्रसाद के बड़े प्रशंसक थे। निराला से उनका निजी परिचय भी था। उन्होंने अपनी बेटियों के नाम इन मूर्धन्यों की कृतियों के नाम से लिए। वह सागर विश्वविद्यालय में हिन्दी के पहले अध्यक्ष थे, नंददुलारे वाजपेयी के आने के पहले। वे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में प्रथम थे। उनको जितने अंक मिले थे, उसका रिकार्ड, बहुत वर्षों तक, कोई और छू नहीं पाया था। बीस-पच्चीस वर्षों तक। ताऊ की दोनों बेटियाँ मेरे पिता को ‘काका’ कहती थीं, हम लोगों ने भी उनको ‘काका’ कहना शुरू किया। इसी तरह से हमारी मौसियाँ मेरी माँ को ‘दिदिया’ कहती थीं, क्योंकि सबसे बड़ी बहिन थीं। तो ‘दिदिया’ शब्द वहाँ से आया। काका-दिदिया सम्बोधन, दोनों, पारिवारिक परिस्थिति से बने। बाद में जब मेरा बेटा हुआ, मैं बघेलखण्ड में, सीधी में था। मैंने पता करने की कोशिश की कि यहाँ पिता को क्या कहते हैं। पता चला—‘दाऊ’। हमने अपने बेटे को दाऊ कहना सिखाया। अब वह मुझे ‘दाऊ’ कहते हैं और रश्मि को ‘माँ’ कहते हैं। मेरे बेटे कबीर का बेटा ऋभु, कबीर को ‘बापू’ कहता है और अपनी माँ को ‘अम्मा’ कहता है। हमारे परिवार में शुरू से किसी ने मम्मी-पापा नहीं कहा; इस तरह का चलन कभी नहीं रहा। अभी तक नहीं रहा। आगे क्या होगा, कौन जानता है!
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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1 टिप्पणियाँ

  1. वाजपेयी जी की जीवनी का अगला हिस्सा पढ़ा। बहुत अच्छी लग रही है जीवनी उनकी - बहुत सहज और आत्मीय। खुले आकाश में जमीन पर चलने और हवा के मंद-मंद झकोरों का आनंद लेने जैसा।
    जीवनीकार को बहुत बधाई और शुभकामनाएं।
    हीरालाल नागर

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