कहानियों की भीड़भाड़ और धक्कामुक्की के बीच हम उन कहानियों को न भूल जाएँ जो कथा के मूल-सी हैं। ऐसी ही एक कहानी है शिवप्रसाद सिंह की 'दादी माँ' जिसका सोंधापन चिर है. इस कहानी को यहाँ प्रकाशित करते हुए जो चित्र लगाहै वह प्रिय कलाकार अनु प्रिया का बनाया है, उनका बहुत शुक्रिया! कहानी पढ़ें और आनंद उठायें और जो कहानीकार हों वह साथ ही यह भी तलाश सकते हैं कि राज़ क्या हैं कहानी कहने के... भरत एस तिवारी/ शब्दांकन संपादक
Hindi Story
दादी माँ
— शिवप्रसाद सिंह
कमजोरी ही है अपनी, पर सच तो यह है कि जरा-सी कठिनाई पड़ते ; बीसों गरमी, बरसात और बसन्त देखते के बाद भी, मेरा मन सदा नहीं तो प्रायः अनमना-सा हो जाता है। मेरे शुभचिन्तक मित्र मुँह पर मुझे प्रसन्न करने के लिए आनेवाली छुट्टियों की सूचना देते हैं और पीठ पीछे मुझे कमजोर और जरा-सी प्रतिकूलता से घबराने वाला कहकर मेरा मजाक उड़ाते हैं। मैं सोचता हूँ, अच्छा अब कभी उन बातों को न सोचूंगा। ठीक है, जाने दो। सोचने से होता ही क्या है ? पर बरबस मेरी आँखों के सामने शरद की शीत किरणों के समान स्वच्छ शीतल किसी की धुंधली छाया नाच उठती है।
मुझे लगता है जैसे क्वार के दिन आ गए हैं। मेरे गाँव के चारों ओर पानी ही पानी हिलोरें ले रहा है। दूर के सिवान से बहकर आए हुए मोथा और साई की अधगली घासें, घेऊर और बन-प्याज की जड़ें तथा नाना प्रकार की बरसाती घासों के बीज, सूरज की गर्मी में खौलते हुए पानी में सड़कर एक विचित्र गन्ध छोड़ रहे हैं। रास्तों के कीचड़ सूख गए हैं और गाँव के लड़के किनारों पर झाग भरे जलाशयों में धमाके-से कूद रहे हैं। अपने-अपने मौसम की अपनी-अपनी बातें होती हैं। आषाढ़ में आम और जामन न मिलें, चिन्ता नहीं। अगहन में चिउड़ा और गुड़ न मिले, दुःख नहीं, चैत के दिनों में लाई के साथ गुड़ की पट्टी न मिले, अफसोस नहीं, पर क्वार के दिनों में इस गन्धपूर्ण झाग-भरे जल में कूदना न हो तो बड़ा बुरा मालूम होता है। मैं भीतर हुड़क रहा था। दो-एक दिन ही तो कूद सका था, नहा-धोकर बीमार हो गया। हल्की बीमारी न जाने क्यों मुझे अच्छी लगती है। थोड़ा-थोड़ा ज्वर हो, सर में साधारण दर्द और खाने के लिए दिन-भर नीबू और साबू। लेकिन उस बार ऐसी चीज नहीं थी। ज्वर जो चढ़ा तो चढ़ता ही गया। रजाई पर रजाई — और उतरा रात बारह बजे के बाद। दिन में मैं चादर लपेटे सोया था। दादी माँ आईं, शायद नहाकर आई थीं, उसी झाग-वाले जल में। पतले-दुबले स्नेह-सने शरीर पर सफेद किनारीहीन धोती, सन-से सफेद बालों के सिरों पर सद्य: टपके हुए जल की शीतलता। आते ही उन्होंने सिर, हाथ, पेट छुए। बहुत ही धीरे-से बुदबुदाकर कुछ बोलीं, शायद किसी देवी-देवता को जान के बदले जान देने की मिन्नत रही हो। फिर आँचल की गाँठ खोल किसी अदृश्य शक्तिधारी के चबूतरे की मिट्टी मुँह में डाली, माथे पर लगाई। दिन-रात चारपाई के पास बैठी रहतीं, कभी पंखा झलतीं, कभी जलते हुए हाथ-पैर कपड़े से सहलातीं, सर पर दालचीनी का लेप करतीं, और बीसों बार सर छू-छूकर ज्वर का अनुमान करतीं। नई हाँड़ी में पानी आया कि नहीं ? उसे पीपल की छाल से छौंका कि नहीं ? खिचड़ी में मूंग की दाल एकदम मिल तो गई है ? कोई बीमार के घर में सीधे बाहर से आकर तो नहीं चला गया आदि लाखों प्रश्न पूछ-पूछकर घरवालों को परेशान कर देतीं। दादी माँ को गँवई-गाँव की पचासों किस्म की दवाओं के नाम याद थे। गाँव में कोई बीमार होता उसके पास पहुँचतीं और वहाँ भी वही काम — हाथ छूना, माथा छूना, पेट छूना। फिर नजर, टोना, भूत से लेकर मलेरिया, सरसाम, निमोनिया तक का अनुमान वे विश्वास के साथ सुनातीं। महामारी और विशूचिका के दिनों में रोज सवेरे उठकर, स्नान के बाद, लवंग और गुड़ मिश्रित जलधार, गुग्गुल और धूप, टोना-टोटका और सफाई कोई उनसे सीख ले। दवा में देर होती, मिश्री या शहद खत्म हो जाता, चादर या गिलाफ नहीं बदले जाते, तो वे जैसे पागल हो जातीं। बुखार तो मुझे अब भी आता है। नौकर पानी दे जाता है, मेस-महाराज अपने मन से पकाकर खिचड़ी या साबू। डॉक्टर साहब आकर नाड़ी देख जाते हैं, और कुनैन मिक्सचर की शीशी की तिताई के डर से बुखार भाग भी जाता है, पर न जाने क्यों ऐसे बुखार को बुलाने का जी नहीं होता।
किशन भैया की शादी ठीक हुई, दादी माँ के उत्साह और आनन्द का क्या कहना ! दिन भर गायब रहतीं। सारा घर जैसे उन्होंने सर पर उठा लिया हो। पड़ोसिने आतीं, हुक्का चढ़ता। बहुत बुलाने पर दादी माँ आतीं, " बहिन, बुरा न मानना। कार-परोजन का घर ठहरा ! एक काम अपने हाथ से न करूँ, तो होने वाला नहीं। ” जानने को यों सभी जानते थे कि दादी माँ कुछ करती नहीं। पर किसी काम में उनकी अनुपस्थिति वस्तुत: विलम्ब का कारण बन जाती। उन्हीं दिनों की बात है। एक दिन दोपहर को मैं घर लौटा। बाहर निकसार में दादी माँ किसी पर बिगड़ रही थीं। देखा पास के कोने में दुबकी रामी की चाची खड़ी है। "सो न होगा धन्नो ! रुपये मय सूद के आज दे दे। तेरी आँख में तो शरम है नहीं। माँगने के समय कैसी आई थी। पैरों पर नाक रगड़ती फिरी, किसी ने एक पाई भी न दी। अब लगी है आज कल करने – फसल में दूंगी, फसल में दूँगी। अब क्या तेरी खातिर दूसरी फसल कटेगी ? ”
" दूँगी, मालकिन ! ” रामी की चाची रोती हुई, दोनों हाथों से आँचल पकड़े दादी माँ के पैरों की ओर झुकी, "बिटिया की शादी है। आप न दया करेंगी तो उस बेचारी का निस्तार कैसे होगा! "
" हट, हट, पैर न छू। अभी नहा के आ रही हूँ। ” दादी माँ पीछे हट गईं।
" जाने दो दादी। ” मैंने इस अप्रिय प्रसंग को हटाने की गरज से कहा, " बेचारी गरीब है, दे देगी कभी। ”
" चल, चल, चला है समझाने ...। "
मैं चुपके-से आँगन की ओर चला गया। कई दिन बीत गए, मैं इस प्रसंग को एकदम भूल सा गया। एक दिन रास्ते में रामी की चाची मिली। वह दादी को पूतों फलो दूधों नहाओ का आशीर्वाद दे रही थी। मैंने पूछा, " क्या बात है धन्नो चाची? ", तो उसने विह्वल होकर कहा, " उरिन हो गई बेटा, बेटी की शादी तो रिन ही है न। भगवान भला करे हमारी मालकिन का कल ही आई थीं। पीछे का सभी रुपया छोड़ दिया, ऊपर से दस रुपये का नोट देकर बोलीं, देखना धन्नो, जैसी तेरी बेटी वैसी मेरी, दस-पाँच के लिए हँसाई न हो। देवता हैं बेटा देवता। ”
" उस रोज तो बहुत डाँट रही थीं ? ” मैंने पूछा।
" वह तो बड़े लोगों का काम है बाबू। रुपया देकर डाँटें भी न तो लाभ क्या ! ”
मैं मन-ही-मन इस तर्क पर हँसता हुआ आगे बढ़ गया।
किशन के विवाह के दिनों की बात है। विवाह के चार-पाँच रोज पहले से ही औरतें रात रात भर गीत गाती हैं। विवाह की रात को अभिनय भी होता है। यह प्राय: एक ही कथा का हुआ करता है। उसमें विवाह से लेकर पुत्रोत्पत्ति तक के सभी दृश्य दिखाए जाते हैं, सभी पार्ट औरतें ही करती हैं। मैं बीमार होने के कारण बारात में न जा सका। मेरा ममेरा भाई राघव दालान में सो रहा था। (वह भी बारात जाने के बाद पहुँचा था) औरतों ने उस पर आपत्ति की।
दादी माँ बिगड़ीं, "लड़के से क्या पर्दा! लड़का और बरह्मा का मन एक-सा होता है। "
" शादी हुई होती, तो एक साल में लड़का हुआ होता। अभी बने हैं बच्चे।” देवू की माँ बोलीं। वे बड़ी शरारती और चुहलबाज थीं। रिश्ते में हम लोगों की भाभी लगती थीं। मुझे भी पास ही एक चारपाई पर चादर उढ़ाकर दादी माँ ने चुपके से सुला दिया था। बड़ी हँसी आ रही थी। सोचा, कहीं जोर से हँस दूँ, भेद खुल जाए तो निकाल बाहर किया जाऊँगा, पर भाभी की बात पर हँसी रुक न सकी और भंडाफोड़ हो गया।
"यह न लो।" देवू की माँ ने चादर खींच ली-"कहो दादी, यह कौन बच्चा सोया है? बेचारा रोता है शायद, दूध तो पिला दूं।" हाथापाई शुरू हुई। दादी माँ बिगड़ीं, "लड़के से क्यों लगती है !"
"तो बनें यही औरत, इन्हीं को बच्चा पैदा हो। खूब सी-सी करें। मैं तो नहीं बनती।"
मैं वहाँ से हँसता हुआ भागा। सुबह रास्ते में देबू की माँ मिलीं - " कल वाला बच्चा भाभी। " मैं वहाँ से जोर-से भागा और दादी माँ के पास जा खड़ा हुआ। वस्तुत: किसी प्रकार के अपराध हो जाने पर जब हम दादी माँ की छाया में खड़े हो जाते, अभयदान मिल जाता।
स्नेह और ममता की मूर्ति दादी माँ की एक-एक बात आज कैसी-कैसी मालूम होती है। परिस्थितियों का वात्याचक्र जीवन को सूखे पत्ते-सा कैसा नचाता है, इसे दादी माँ खूब जानती थीं। दादा की मृत्यु के बाद से ही वे बहुत उदास रहतीं। संसार उन्हें धोखे की टट्टी मालूम होता। दादा ने उन्हें स्वयं जो धोखा दिया। वे सदा उन्हें आगे भेजकर अपने पीछे जाने की झूठी बात कहा करते थे। दादा की मृत्यु के बाद, कुकुरमुत्ते की तरह बढ़ने वाले, मुँह में राम बगल में छुरी वाले दोस्तों की शुभचिन्ता ने स्थिति और भी डाँवाँडोल कर दी। दादा के श्राद्ध में दादी माँ के मना करने पर भी, पिता जी ने जो अतुल सम्पत्ति व्यय की वह घर की तो थी नहीं।
दादी माँ अकसर उदास रहा करतीं। माघ के दिन थे। कड़ाके का जाड़ा पड़ रहा था। पछुवा का सन्नाटा और पाले की शीत हड़ियों में घुसी पड़ती। शाम को मैंने देखा, दादी माँ गीली धोती पहने, कोने वाले घर में एक सन्दूक पर दिया जलाए, हाथ जोड़कर बैठी हैं। उनकी स्नेह-कातर आँखों में मैंने आँसू कभी नहीं देखे थे। मैं बहुत देर तक मन मारे उनके पास बैठा रहा; उन्होंने आँखें खोलीं।
" दादी माँ ! ” मैंने धीरे से कहा।
" क्या है रे, तू यहाँ क्यों बैठा है? "
" दादी माँ, एक बात पूछू, बताओगी न? ” मैंने उनकी स्नेहपूर्ण आँखों की ओर देखा।
" क्या है, पूछ। ”
" तुम रोती थीं ? " दादी माँ मुस्कुराईं, "पागल, तूने अभी खाना भी नहीं खाया न, चल-चल! "
" धोती तो बदल लो, दादी माँ ”मैंने कहा।
" मुझे सरदी-गरमी नहीं लगती, बेटा ” वे मुझे खींचती रसोई में ले गईं।
सुबह मैंने देखा चारपाई पर बैठे पिताजी और किशन भैया मन मारे कुछ सोच रहे हैं।
" दूसरा चारा ही क्या है, ” बाबू बोले, "रुपया कोई देता नहीं। कितने के तो अभी पिछले भी बाकी हैं ! ” वे रोने-रोने से हो गए।
" रोता क्यों है रे ? " दादी माँ ने उनका माथा सहलाते हुए कहा, "मैं तो अभी हूँ ही। "
उन्होंने सन्दूक खोलकर एक चमकती-सी चीज निकाली, " तेरे दादा ने यह कंगन मुझे इसी दिन के पहनाया था। ” उनका गला भर आया, "मैंने इसे पहना नहीं, इसे सहेज कर रखती आई हूँ। यह उनके वंश की निशानी है।" उन्होंने आँसू पोंछकर कहा, " पुराने लोग आगा पीछा सब सोच लेते थे, बेटा। "
सचमुच मुझे दादी माँ शापभ्रष्ट देवी-सी लगीं।
धुंधली छाया विलीन हो गई। मैंने देखा दिन काफी चढ़ आया है। पास के लम्बे खजूर के पेड़ से उड़कर एक कौआ, अपनी घिनौनी काली पाँखें फैलाकर मेरी खिड़की पर बैठ गया। हाथ में अब भी किशन भैया का पत्र काँप रहा है। काली चींटियों-सी कतारें धूमिल हो रही हैं। आँखों पर विश्वास नहीं होता। मन बार-बार अपने से ही पूछ बैठता है, "क्या सचमुच दादी माँ नहीं रहीं ? ”
००००००००००००००००
0 टिप्पणियाँ