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भारत में स्त्री-विमर्श और औरतों की ख़ुदमुख़्तारी और आजादी ~ गीताश्री | Indian Feminist debate - GeetaShree

मेरी समझ में नारी को कमतर मानते हुए उनपर शाब्दिक हमले करने वाले भी उतने ही बड़े अपराधी हैं जितना उनपर शारीरिक हमला करने वाला। पढ़िए गीताश्री का आग्नेय लेखन 'भारत में स्त्री-विमर्श और औरतों की ख़ुदमुख़्तारी और आजादी ' ~ सं0 

अपनी शर्त्तों पर जीने वाली स्त्रियां हमेशा समाज के लिए "चोखेरबाली" (आंख की किरकिरी) रहेंगी

~ गीताश्री

पत्रकार एवं लेखक। अब तक सात कहानी संग्रह ,पाँच उपन्यास !  स्त्री विमर्श पर चार शोध किताबें प्रकाशित .  कई चर्चित किताबों  का संपादन-संयोजन। वर्ष 2008-09 में पत्रकारिता का सर्वोच्च पुरस्कार रामनाथ गोयनका, बेस्ट हिंदी जर्नलिस्ट ऑफ द इयर समेत अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त। 1991 से 2017 तक सक्रिय पत्रकारिता के बाद फ़िलहाल स्वतंत्र पत्रकारिता और लेखन ! संपर्क: C-1339, Gaur green avenue, Abhay khand-2, Indirapuram, Ghaziabad -201014, मो० 9818246059, ईमेल: geetashri31@gmail.com 


Feminist debate and women's autonomy and freedom in India - GeetaShree



पिछले बीस सालो में स्त्रियों की दुनिया बहुत बदली है। हर क्षेत्र में उनकी भूमिका में बदलाव आए हैं और उनकी स्थितियां बदल गई हैं। बल्कि यूं कहे कि स्त्रियों की सोच एकदम बदल गई हैं, बस उनके प्रति समाज और परिवार के रवैये में आंशिक बदलाव ही दिखाई दे रहे हैं। यह बदलाव अपर्याप्त है। भले कछ सकारात्मक बदलाव हमें दिखाई दे रहे हों। 
जैसे— 

  1. महिला सशक्तिकरण: महिलाओं की शिक्षा, रोजगार और राजनीतिक भागीदारी में वृद्धि हुई है। 
  2. लिंग समानता: लिंग समानता की दिशा में कदम बढ़ाए गए हैं, जैसे कि महिला आरक्षण विधेयक। 
  3. घरेलू हिंसा अधिनियम: घरेलू हिंसा के खिलाफ कानून बनाया गया है। 
  4. यौन शोषण के खिलाफ कानून: यौन शोषण के खिलाफ कानून बनाए गए हैं। 
  5. महिला सुरक्षा: महिला सुरक्षा के लिए कई पहल की गई हैं, जैसे कि महिला हेल्पलाइन। 
बावजूद इसके महिलाओं के सामने चुनौतियों का हिमालय खड़ा है। 

कई क्षेत्रों में स्त्रियों के दखल को आज भी हिकारत से देखा जाता है और उनका मनोबल तोड़ने की कोशिश की जाती है। हम साहित्य जगत से ही कुछेक घटनाएं लें और पिछले बीस सालों में भारतीय स्त्रियों के जीवन में जो परिवर्तन आए हैं उन्हें समझने के लिए हमें मौजूदा सदी यानी इक्कीसवीं शताब्दी में हो रहे स्त्री-लेखन के जरिये बेहतर समझा जा सकता है। अन्य क्षेत्रों की तरह यहां भी स्त्रियों के प्रति औदार्य का भाव गायब है। एक ताजा घटना का जिक्र यहां लाजिमी है। 

मंच पर अपना पुरस्कार ग्रहण करने के बाद एक अर्द्धवय पुरुष लेखक अपनी रचना प्रक्रिया पर बोलते हुए अचानक मौजूदा स्त्री लेखन पर शाब्दिक पत्थर फेंकने लगे। वे पत्थर इतने भारी थे कि उनके भार से वे स्वयं हांफने लगे थे। चोट जिन्हें लगनी थी, लगी। नागवार गुजरा और समूचा हॉल स्तब्ध रह गया। लेखक महोदय स्त्री-विमर्श की, स्त्री-लेखन की जितनी निंदा हो सकती थी, करते रहे। यह अवांतर प्रसंग था, फिर भी उनके भीतर कोई आग सुलग रही होगी जो खुशी के मौके पर फूट पड़ी। उनके अनुसार स्त्री-विमर्श के नाम पर जो स्त्रियां लिख रही हैं, उनमें देह-मुक्ति, परिवार के बिखराव, टूटे दांपत्य संबंधों को ज्यादा ग्लैमराइज किया जा रहा है, बढ़ावा दिया जा रहा है। 

मंच पर उनका इस तरह का आरोप लगाना इस बात की गवाही है कि आज भी स्त्री-लेखन का सच कितना चुभता है पितृसत्ता को। वे पितृसत्ता के साक्षात प्रतीक के तौर पर नजर आ रहे थे। हम सोचते हैं, बदल गया है समाज। वे नई स्त्री को स्वीकार रहे हैं और उनका मानस भी बदला है। वे स्त्रियों को उनका स्पेस दे रहे, उनके अवसर दे रहे और और संपत्ति में उनका हिस्सा भी दे रहे हैं। जो नहीं दे पा रहे हैं, वे कमसे कम सहमति जता रहे हैं और उनमें ईमानदार स्वीकार है इन सबका। 

मंच से उनका ये वक्तव्य पिघले शीशे की तरह कानों में उतरा है और जम गया है। यहां एक शेर याद आता है— 
            जोगी जुगत जाने नहीं, कपड़े रंगे तो क्या हुआ 
            मन का कुफ्र टूटा नहीं, कलमा पढ़ा तो क्या हुआ

इक्कीसवीं सदी का लेखक इतना अनुदार कैसे हो सकता है। कैसे ऐसी भाषा बोल सकता है या स्त्री-लेखन को खारिज कर सकता है। सिमोन मानती हैं कि ऐसी घटनाएं स्त्रियों को चुप कराने, शांत करने के लिए और उनका मुंह सिल देने का ही एक एक नुस्खा है। उन्हें पांरपरिक भूमिकाओं या लेखन की तरफ ढकेल देने का नया संशोधित तरीका है। 

कई बार लगता है कि पितृसत्ता स्त्री को अपना कैनवस समझ कर उस पर अपनी मान्यताएं पेंट करना चाहता था। 

इस घटना के बाद नये सिरे से कुछ सवाल तंग कर रहे हैं। 

क्या कोई बंद दिमागों का ट्रीटमेंट कर सकता है। कैसे समझाएं कि 19 वीं शताब्दी की बेजान गुड़ियाएं अब बोलने लगी हैं और लिख कर प्रतिरोध जताने लगी हैं। प्रसिद्ध आलोचक रोहिणी अग्रवाल स्पष्ट बताती हैं —

स्त्री लेखन स्त्री का आकांक्षाओं का दर्पण है। यह स्त्री की मानवीय इयत्ता को पाने और जीने का स्वप्न है, मुक्ति की राहों के अन्वेषण का संघर्ष है और उन राहों पर अविराम चलने की संकल्पदृढ़ता भी।

नासमझी भरे अनुदार बयानों के दौर में कैसे समझाएं कि स्त्री विमर्श समाज के लैंगिक विभाजन से मुठभेड़ करता है। उसका लक्ष्य है कि उसे देवी की तरह नहीं, एक व्यक्ति की तरह देखा जाए। सदियों से जो साजिशें हुईं कि स्त्रियों को हाशिये पर रखा गया, स्त्री लेखन उसी साजिशों को, मंसूबे को उघाड़ चुका है। और नहीं, अब और नहीं...गम के प्याले और नहीं...के तर्ज पर स्त्रियों ने इनकार कर दिया है। ऐतिहासिक उपन्यासकार वृंदावन लाल वर्मा की नायिका पिछली सदी में ही इसका ऐलान कर चुकी है। "मृगनयनी" उपन्यास में उनकी नायिका कहती है— 
मैं ऐसा अंगरक्खा नही बन सकती जो जब चाहा उतार कर फेंक दिया।

इस सदी की स्त्रियों ने, जीवन और साहित्य हर जगह ऐसा अंगरक्खा बनने से इनकार कर दिया है। 

हमारे समाज में आज भी विक्टोरियन युग की नैतिकता के लेखक हैं जिन्हें स्त्री लेखन में स्त्री-मुक्ति की बात चुभती है और जब जहां मौका मिले, जहर उगल देते हैं। खुद ही अपना नकाब उतार देते हैं। 

क्या पितृसत्ता आज भी यही चाहती है कि किसी स्त्री को जुए में उसकी मर्जी के विरुद्ध दांव पर लगाया जाए या थॉमस हार्डी के उपन्यास "द मेयर ऑफ कास्टरब्रिज" के नशेड़ी नायक की तरह अपनी पत्नी और नवजात बेटी को किसी नाविक के हाथों बेच दे। स्त्रियां मूक दर्शक बनी रहें या लाचार हो विलाप करती रहें। 

इस घटना ने मुझे बहुत झकझोर दिया है और चिंतित भी किया है कि आने वाले समय में स्त्री लेखन पर समूह बना कर न हमला हो। उन पर इसी तरह के आरोप लगा कर उसे कमतर साबित न किया जाए। ठीक जीवन की तरह कि खुदमुख्तार और आजाद स्त्रियां घर तोड़ू, परिवार तोड़ू होती है। ऐसी स्त्रियों की छवि इसी तरह गढ़ी जा रही है। 

अपनी शर्त्तों पर जीने वाली स्त्रियां हमेशा समाज के लिए "चोखेरबाली" (आंख की किरकिरी) रहेंगी। वर्गों और वर्णों में बंटे हुए भारतीय समाज में जब भी कोई अधीनस्थ जाति सिर उठाती है तो उस पर हमले होते हैं। सिमेन द बोउआ ने कहा है नि स्त्री एक अधीनस्थ जाति है, उसके पास खोने को कुछ नहीं है। लेखिका-पत्रकार जयंती रंगनाथन अपनी बात व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर बताती हैं— 

नब्बे के दशक की शुरुआत का किस्सा। मेरी चचेरी बहन की शादी तय हो रही थी, मुंबई के एक पढ़े-लिखे बैंकर से। मेरी बहन जमशेदपुर में एक स्कूल में पढ़ाती थीं। शादी तय होने के बाद जब उनसे मिलने गई तो खुश हो कर बोली, अब मैं मुंबई में काम करूंगी। उन दिनों दक्षिण भारतीय परिवारों में बहुओं का काम करना बड़ी बात नहीं थी। लेकिन दो दिन बाद बहन का फोन आया कि वो मुझसे मिलना चाहती हैं। उदास थी। उसके होने वाले पति का मानना था कि शादी के बाद उसे नौकरी करने की कोई जरूरत नहीं है। उसका काम होगा बूढ़े और बीमार सास-ससुर को संभालना। उनके खाने-पीने, दवा-दारू का ख्याल रखना। बहन की आंखों से आंसू झरने लगे, ‘मैं कोई बगावती लड़की नहीं हूं, पर हां, मैं नौकरी नहीं छोड़ना चाहती। मेरा वजूद मेरी नौकरी से बनता है।’

दरअसल यहां वजूद मुख्य है। जिस स्त्री-विमर्श को गालियां दी जाती हैं, उसी विमर्श ने स्त्रियों को उनके वजूद का अहसास कराया है। स्त्री-विमर्श को अस्मिता-विमर्श की तरह देखना चाहिए। जब से स्त्रियों में अपनी अस्मिता के प्रति छटपटाहट शुरु हुई है तभी से दुनिया बदल गई। 

इसीलिए जयंती ने उसे सलाह दी कि वो यह रिश्ता तोड़ ले। जहां उसे अपनी मर्जी से रहने नहीं दिया जा रहा और उस पर जिम्मेदारियां थोपी जा रही हैं, पता नहीं आगे और कौन-सी दिक्कते आए। फिर जयंती को भी झेलना पड़ा — 
पूरे परिवार ने मेरे इस सुझाव का मजाक बना दिया। खास कर ताऊ जी और ताई जी। मुझसे कहा गया कि मैं बहन को ना बरगलाऊं। अंतत: लड़कियों को ही समझौता करना पड़ता है। लड़़का बाकि सब मामलों में सही है तो शादी तोड़ने का क्या मतलब? मेरे लिए यह बहुत बड़ी बात थी, जीने-मरने का सवाल था। मुझे अपने परिवार में लगभग आउटकास्ट कर दिया गया। सामने पडृने पर बड़े-बूढ़े मेरा मजाक उड़ाते। कहते, देखते हैं अपनी शादी में ये क्या करती है। बहन की जिंदगी टॉक्सिक होनी ही थी। तीस साल में खुद ना जाने क्या-क्या रोग पाल बैठी और डिप्रेशन का शिकार हो गई सो अलग। 

पिछले बीस सालों में पुल के नीचे से ना जाने कितना पानी बह गया। बहन की बेटी को मुझे कुछ समझाना ही नहीं पड़ा। अपने लिए तो लड़ी ही, अपनी मां के लिए भी लड़ी। " 

प्रसिद्ध स्त्रीवादी चिंतक प्रमिला के पी अपनी पुस्तक "स्त्री-चिंतन :कल और आज" में लिखती हैं— 

इस दुनिया में हर चिन्ताशील व गतिशील औरत, अपनी एक निजी स्त्री-पक्षीय दृष्टि या स्त्रीवादी वैचारिकी पालती है, जो विशाल स्त्रीवादी दर्शन का ही एक अंश है।

सच कहें तो समूचा स्त्री-लेखन भारतीय मध्यवर्ग के विचारों, कारगुजारियों को समझने के लिए एक खिड़की की तरह है। स्त्रियों की रचनाएं समाज, संबंधों और मानवीय भावनाओं की जटिलता की खोज भी है। एक लंबे कालखंड में आए बदलावों का इंडेक्स भी है। 

युवा पीढ़ी की फायर ब्रांड लेखिका-पत्रकार अणुशक्ति सिंह कहती हैं— 

बीस सालों में लड़कियों की एक पूरी पीढ़ी जवान हो गई जिसने दबने अथवा चुप रहने को थैंक यू कहकर पीछा छुड़ा लिया और अपनी आवाज़ की बुलंदी दी। बीस साल पहले एकता कपूर छाप बेटियों और बहुओं का जलवा था, औरतें त्याग की देवी बनी हुई थीं, उन सबका पटाक्षेप होने लगा है। अब स्त्रियां बहुत हद तक समझने लगी हैं कि त्याग की पूरी कहानी बस उन्हें दबाये रखने की साज़िश थी। इस समझ का पैदा होना ही बड़ी क्रांति की शुरुआत है।

क्रांति के कारण ही स्त्रियों पर हमले भी बढ़े हैं। स्त्री-मुक्ति, स्त्री-अस्मिता की जितनी बात होगी, वे उतनी ही असुरक्षित होती चली जाएंगी। 

हमारे समय की एक महत्वपूर्ण लेखिका प्रत्यक्षा साफ साफ कहती हैं —

बाहरी तौर पर बहुत से नियम और क़ानून स्त्री अधिकारों के पक्ष में बने हैं, सजगता जागरूकता बढ़ी है, स्त्रियाँ अपने हक़ के लिए अधिक सचेत हुई हैं पर इस बाहरी इको सिस्टम के आवरण के पीछे जो नट बोल्ट की दुनिया है वो उतनी ही पितृसत्तात्मक है जैसी हज़ारों वर्षों पहले थी। ऐसा लगता है कि एक ही समय में कई समय साथ साथ बीत रहे हैं, खासकर स्त्रियों के लिए और छोटे पॉकेट्स में स्त्री आज़ाद ख़ुद मुख़्तार दिख रही है पर उन मुखौटों के पीछे एक बड़े वर्ग के लिए कड़वी सच्चाई अब भी उन का दोयम दर्जा ही है। चिमामांडा न्गोज़ी अदिचे अपनी किताब वी शुड ऑल बी फेमिनिस्ट्स में लिखती हैं, “संस्कृति लोगों को नहीं बनाती; लोग संस्कृति बनाते हैं। यदि यह सच है कि महिलाओं की पूर्ण मानवता हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं है, तो हमें इसे हमारी संस्कृति बनाना ही होगा।

स्त्री-अधिकारों के प्रति बेहद मुखर लेखिका वंदना राग भी इस मसले पर अपना व्यक्तिगत अनुभव साझा करते हुए बताती हैं — "स्त्री सशक्तिकरण की दिशा में निश्चित ही सकारात्मक बदलाव हुए हैं। बराबरी के अधिकारों के पक्ष में कानून ने स्त्री को सबल किया है और रोज़गार के पक्ष में कई द्वार खोले हैं। स्त्री आर्थिक रुप से सशक्त हो रही है यह बात इक्कीसवीं सदी के भारत में अब दिखलायी पड़ने लगी है। और यह सब सुंदर बातें हैं! लेकिन इसके साथ ही ज़मीनी स्तर पर स्त्री की वास्तविक स्थिति क्या उतनी ही सशक्त है जितनी कागज़ों, न्यायपालिका और संविधान में रेखांकित है ? यह शोध का विषय है और गौर करने वाली बात है। 

आंकड़े बताते हैं कि स्त्री, विकास के तमाम दावों के बावजूद अधिक खतरों से घिर गई है; इसमें शारीरिक और मानसिक दोनों तरह की असुरक्षा शामिल है। ट्रैवल एडवाइज़री में भारत को स्त्रियों के लिए एक असुरक्षित देश माना गया है। यह सोचने वाली बात है! एक तरफ़ इतनी उत्सवधर्मिता कि स्त्री को देवी स्वरूपा मान लिया जाता है दूसरी तरफ़ उस पर हमलों का अंत नहीं। इसके अलावा न्यायिक और संवैधानिक तौर पर स्त्रियों के जायज़ हक़ों पर अभी भी समाज की पितृसत्तामक सोच हावी है। इसको प्रमाणित करती एक निजी घटना याद आ रही है— मेरी पैतृक ज़मीन के बंटवारे का जब फ़ैसला लिया गया तो बिहार में सिवान ज़िले के ब्लॉक ऑफ़िस के बाबू ने बहुत आश्चर्य से मुझसे पूछा — "आप भी हिस्सा लेंगी? इतनी छोटी ज़मीन में भी हिस्सा लगायेंगी? इस तरह तो आपकी भाभी अपने मायके और ससुराल दोनों जगह की माँग करेंगी तो क्या करेंगी आप?"

मैंने जब कहा— "दूँगी, यही जायज़ है। 2006 में यह क़ानूनी ढंग से और स्पष्ट तरीके से रेखांकित हुआ है, देखें उसे। कानून बना है तो अमल भी तो करना होगा। "

तो वह निराशा में सर हिलाते हुए बोले— "उसकी ज़रूरत नहीं, यह सब बर्बादी की निशानी है। "

यह घटना बताती है कैसे सामाजिक सोच अभी भी स्त्री को वह वास्तविक समानता और निर्णय लेने का अधिकार देने से कतराती है। स्त्री अभी भी सिमट-समेट कर रहे, तथाकथित आदर्शों का वहन करे तो समाज में उसके कसीदे पढ़े जायेंगे लेकिन जैसे ही वह गैर पारंपरिक व्यवहार, लोक में अथवा जीवन में अपनाएगी उसके किरदार पर छींटाकशी की जाएगी। इन स्थापनाओं को नष्ट करने का समय आ गया है और साहित्य में स्त्रियों की बढ़ती आवाज़ उसी दिशा में लिया गया एक स्वागत योग्य प्रयास है जो पितृसत्ता को चुनौती देता है। इस तरह की पिछड़ी सोच को चुनौती देता है। "

दरअसल जो स्त्रियाँ लिखती हैं वे सिर्फ़ अपनी बात नहीं कहतीं बल्कि वे उन तमाम स्त्रियों की कहानी कहती हैं जो अपनी बात कह नहीं पाती हैं। यह समाज को ऐतिहासिक और सामयिक आईना दिखाने के बरक्स है। 

यह अत्यंत ज़रूरी है। 

युगों से स्त्रियों को पढ़ने लिखने से वंचित किया जाता रहा है। इसीलिये आज स्त्रियों का व्यापक स्तर पर लिखना वृहद सामूहिक चेतना और बहनापे की अभिव्यक्ति है। इस एका भाषा में बड़ी ताकत होती है। जब कवि माया एंजेलु कहती हैं — स्टिल आई राइज़ — तो वे सिर्फ़ अपने देश की अश्वेत स्त्रियों की बात नहीं कर रही होती हैं, बल्कि उनकी कविता हर उस स्त्री की आवाज़ बन जाती है जिसे तमाम चुनौतियाँ के बावजूद आगे बढ़ने का प्रयास करना होता है। हर हालत में। 

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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